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Friday, October 16, 2009

पराजित अमावस्या का उच्छवास है- दीपावली

विजयी दीपशिखा का असीम उल्लास है- 'दीपावली, पराजित अमावस्या का उच्छवास है- दीपावली, निबिड़ अंधकार का पलायन है- दीपावली, आलोक-सुरसरि का धरती पर अवतरण है- दीपावली, आकाश के अनंत-नक्षत्र-मंडल से धरा की मूर्तिमान स्पर्धा है - दीपावली, मनुष्य की चिर-आलोक- पिपासा के लिए चहुंदिसि आलोक - वर्षा है - दीपावली, अंधकार पर प्रकाश की विजय का पर्व है - दीपावली।
अंधकार को मनुष्य ने सदा अपना शत्रु माना है। अंधकार भय उत्पन्न करता है, अंधकार अस्तित्व को विलीन करता है। इसीलिए मनुष्य अपने अस्तित्व की सुरक्षा के लिए प्रकाश का मुखापेक्षी रहा है। प्रकृति में प्रकाश और अंधकार का विधाता ने संतुलन स्थापित किया है। अगर दिवस प्रकाश की यात्रा है तो रात्रि अंधकार का प्रसार है। 'प्रकाश तम पारव दुहुंंÓ के अनुसार प्रकृति ने रात्रि में भी प्रकाश और अंधकार का संतुलन स्थापित किया है। संपूर्ण प्रकृति द्वैत मय है - 'जड़-चेतन गुण-दोष मय विश्व कीन्ह करतार।Ó प्रकृति की इस द्वैतता को संसार के लगभग अन्य सभी प्राणियों ने स्वीकार कर लिया है - कुछ एक ने अपनी क्षमता भर प्रकृति की इस द्वैती प्रकृति को बदलने की चेष्टा भी की है, जैसे कि खद्योत गहन तिमिराच्छन्न रात्रि और भयावने जंगल में अपनी क्षमता भर प्रकाश उत्पन्न करते ही हैं, लेकिन मनुष्य ने अपनी बुद्धि और विवेक के बल पर संसार के प्रत्येक अंधकार को चुनौती दी और हर अंधेरे में उजाले की सृष्टि करने का प्रयास किया। वैदिक ऋषियों द्वारा उच्चरित मंत्र 'तमसो मा ज्योतिर्गमयÓ को मनुष्य ने अपने जीवन का मूलमंत्र बनाया।
अंधकार एक आवरण है, एक भय है, आशंका है, स्वप्न है, इसलिए उसमें जड़ता है, अकर्मण्यता है, एकरूपता है, निद्रा है, अस्तित्व का विलय है। अत: तिमिर त्याज्य है, उपेक्षणीय है। प्रकाश में, आलोक में चेतना है, विविधता है, सक्रियता है, कर्मठता है, जागरण है एवं अस्तित्व की सुरक्षा है, इसी कारण आलोक वरेण्य है।
अंधकार में प्रकाश बिखेरने की मानवीय एषणा ने मानव सभ्यता के इतिहास में प्रगति के अनेकानेक सोपानों पर अपने चरणचिह्न अंकित किए हैं। पत्थरों को रगड़कर चिनगारी उत्पन्न करने के आदिम रूप से लेकर आज तक के अणुदीप तक मानव ने ज्योतिमुखी यात्रा की है।
दिन गौरांग है। रात्रि ही श्यामा है। रात्रि में भी चंद्रिका अपनी क्षमता भर, चेष्टा भर प्रकाश बिखेरती ही है, किंतु अमावस्या की रात्रि अंधकार - असुर की प्रिया है। अमावस्या अर्थात पूरी रात्रि अंधकार को समर्पित महानिशा यानी तमोगुण की साकार विवृत्ति। वामपंथी साधना की आधारभूमि अमावस्या।
प्रकाश-प्रेमी मनुष्य ने इसी तिमिर-प्रिया अमावस्या की रात्रि को दीपोत्सव में परिवर्तित कर अंधकार की जड़ता पर अपनी चेतना के स्वर्णिम हस्ताक्षर अंकित किए हैं।
दीपावली - आलोक-उत्सव ही नहीं, अन्नोत्सव भी है। अन्न ब्रह्म है। आदि युग में मनुष्य भी पशु की भांति अपक्वाहार ग्रहण करता था। अग्नि से परिचय हुआ तो पाक-शास्त्र का आरंभिक अध्याय लिखा गया, अर्थात 'भून कर खाना।Ó 'खीलÓ शाकाहारी पाक-शास्त्र की आदिम ऋचा है।
दीपावली की रात में गणेश-लक्ष्मी की 'खीलÓ बिखेरकर पूजा की गयी। भौतिक अंधकार में प्रकाश बिखेरने का दायित्व नन्हें दीपकों ने संभाला और उदर के क्षुधाजन्य अंधकार में तृप्ति का आलोक बिखेरा नन्हीं-नन्हीं खीलों ने। परवर्ती युग में खील के साथ बताशा भी जुड़ गया।
दीपावली - अर्थात दीपों की पंक्ति मुँडेरों, मेहराबों और छतों, छज्जोंवाली दीपावली अभी भी दिखाई देती है, पर एक और दीपावली थी, जो शनै: शनै: लुप्त होती जा रही है। जलधारा पर तैरती हुई दीपों की अविरल, भाव-विह्वल दीपमाला।
आस्था-संपन्न भारतीय नारी सश्रद्ध दृष्टि और कांपते हाथों से धारा में दीपमाला प्रवाहित करती है। परदेश गए प्रेमी, पति या पुत्र के मंगालार्थ महिलाओं द्वारा 'दीपदानÓकी परंपरा अब क्षीण होती जा रही है। स्वाधीन भारत में राष्टï्र लक्ष्मी का प्रकाश कुछ गिनी-चुनी मुँडेरों पर केंद्रित हो गया है। राष्टï्र लक्ष्मी सीमित तिजोरियों में कैद हो गई। लक्ष्मी के शुभ्र प्रकाश को सचमुच उलूक पर बिठा दिया गया। तस्करों के कुचक्र में फंसकर लक्ष्मी अंधकारोन्मुख हो गई। अंधेरी लक्ष्मी (काला धन) का विनाश हो। शुभ्र सतोगुणी सर्व मंगला लक्ष्मी का उदय हो।
ज्योति पर्व प्रहरी की भांति घूम-घूमकर बता रहा है कि कहां-कहां कैद है राष्टï्र लक्ष्मी! संकेत कर रहा है - उधर देखो! उन मुंडेरों पर सिमट गए हैं असंख्य दीप और इधर न जाने कितनी झोपडिय़ों में घनघोर अंधेरा है, प्रकाश-शून्य झोपडिय़ों। सीमित मुंडेरों पर कैद दीपावली को उतारकर एक-एक कुटिया तक ले जाना अभी बाकी है। सावधान! हमारी लक्ष्मी विदेश न चली जाए। आज तक कहते रहे - 'तमसो मा ज्योतिर्गमयÓ, पर इस बार दीपोत्सव यह कर रहा है कि ज्योति को ही अंधकार की ओर ले चलें। राष्टï्र लक्ष्मी कुटियों में और अधिक आलोक बिखेरे। ज्योति से ज्योति जले, दीपोत्सव की आभा असंख्य आलोक पुष्पों में खिले।

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