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Thursday, July 29, 2010

संसद में नाटक बंद हो

महंगाई के मसले पर संसद में विपक्ष के हंगामें को एकदम नकारा साबित करने के लिये कांग्रेस ने बेशक मीडिया को मैनेज कर लिया। पर एक बात तो सच है कि महंगाई से आम जनता पिस रही है। जिस तरह यह सरकार बेलगाम होकर जनता पर एक के बाद एक बोझ डालती जा रही है और सोच रही है कि उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता, उसे कोई चुनौती मिल ही नहीं सकती, उसके लिए यह एक अच्छा संदेश है। इस बारे में तो कोई विवाद ही नहीं हो सकता कि साधारण गरीब जनता और कई तरह से तो पिस ही रही है, महँगाई भी उसकी जान निकाल रही है और अभी एक साल पहले ही चुनाव जीतकर आयी इस सरकार को इसकी कोई परवाह नहीं है। इसकी रणनीति यह है कि फिलहाल कोई चुनाव चूँकि एकदम नजदीक नहीं है, इसलिए जनता का जितना भी तेल निकाला जा सकता है, निकाला जाना चाहिए। बाद में जरूरत पड़ी तो ताकत की कोई सस्ती-सी, देसी किस्म की, हाट-बाजार में मिलने वाली गोली भी दे देंगे तो जनता खुश हो जाएगी। वैसे भी जनता का क्या है? वह हमसे बचकर जाएगी कहां? तो यह सरकार काफी मुगालते में है कि इस तरह भी यह पांच साल तक चल जाएगी। फिर अगली बार राहुल गांधी रूपी तुरूप का पत्ता तो है ही। उसे सामने कर देंगे तो फिर से जीत जाएंगे। इस तरह कांग्रेस का अखंड साम्राज्य चलता रहेगा।
बहरहाल, यह सरकार जो कर रही है और जिस ढंग से कर रही है, उसके लिए अकेले वही जिम्मेदार नहीं है। सबसे पहले तो महंगाई न बढ़े, इसके खिलाफ उन राज्य सरकारों ने - जिनकी पार्टियों ने संसद में हंगामा किया हुआ है - अपने स्तर पर क्या किया है, इसका भी लेखा-जोखा इस वक्त लिया जाना चाहिए। और ऐसा किया जाए तो पता चलेगा कि इन सरकारों ने भी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के सिवाय कुछ नहीं किया है। फिर यह एक जाना-माना रहस्य है कि कांग्रेस-भाजपा और इन जैसी तमाम पार्टियां चुनाव के समय बड़े पूंजीपतियों द्वारा उपकृत की जाती हैं और चुनाव जीतने के शुरू के सालों में ही तत्काल उनका कर्ज ये 100 गुने या 1000 गुने ब्याज के साथ चुकाती हैं। इनसे आम आदमी पर महंगाई का बोझ लगातार बढ़ता चला जाता है। कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्व में जब भी सरकारें आयी हैं, यह ट्रेंड बराबर देखने को मिला है। यह स्थिति आने का एक और कारण लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा का खत्म होते चले जाना है। साधारण जनता को जिससे राहत पहुंचे, मजबूती मिले, वह सब करना तो सरकार का बोझ बढ़ाना माना जाता है, अर्थव्यवस्था को कमजोर करना है और पानी में पैसा फेंकना माना जाता है। इस बात को राजनीतिक, अर्थशास्त्री और मीडिया सब लगभग एक मत से मानते हैं और कहते हैं लेकिन अर्थव्यवस्था को मंदी से निकालने के नाम पर हजारों-करोड़ों रुपये जब प्रोत्साहन पैकेज के तौर पर दिए जाते हैं, तब सब चुप रहते हैं। तब सरकार के अनुशासित सिपाही की तरह अर्थशास्त्री और मीडिया (खासकर अँगरेजी) काम करते हैं लेकिन अनिवार्य तथा मुफ्त शिक्षा या रोजगार गारंटी योजना के लिए जब धन देने की बात आती है तो मीडिया के मुंह से भी आजकल बद्दुआएं निकलती हैं कि इन मरदूदों पर यह कीमती पैसा क्यों बर्बाद किया जा रहा है? ये तो हमेशा से गरीब थे और कुछ भी दे दो इन्हें, ये तो फिर भी ऐसे ही रहने वाले हैं। यह स्थिति आने का एक और कारण यह है कि राजनीतिक नेतृत्व तथा आम जनता के बीच, इस कदर दूरियां पैदा हो चुकी हैं कि सरकार में बैठे तमाम लोगों को जनता के कष्टों का अनुमान लगना तक बंद हो चुका है। जिन सांसदों, मंत्रियों की घोषित संपत्ति करोड़ों में है, उन्हें क्या पता कि महंगाई होती क्या बला है या बेरोजगार होने का मतलब क्या होता है या रोजगार गारंटी योजना में दिनभर हाड़ तोड़ मेहनत के बाद भी जब सौ रुपए तक नहीं मिलते हैं या इस योजना में जब भयानक भ्रष्टाचार होता है या अस्पतालों और दफ्तरों में लोगों के साथ जो निर्मम व्यवहार होता है या पुलिस जिस तरह गरीबों के साथ व्यवहार करती है तो इसका अर्थ वाकई लोगों के लिए क्या होता है?
इसलिए सवाल केंद्र में मौजूदा सरकार का ही नहीं है। वह शत-प्रतिशत दोषी है मगर अन्य राज्य सरकारों का हाल भी क्या बेहतर है? ऐसी सरकार की महँगाई के मुद्दे पर संवेदनशीलता कितनी असली है? क्या बुद्धदेव भट्टाचार्य ने जमीनी हालत को समझा होता और वे आर्थिक उदारीकरण की जय करने में इतना वक्त बर्बाद न करते तो नक्सलवाद उनके राज्य में इतना बढ़ पाता? जनता से वामपंथी दलों का अलगाव क्या इतना बढ़ता? आज का यह पूरा संगठित राजनीतिक परिदृश्य आम जनता के प्रति संवेदनहीन है। राजनीतिक पक्ष के हों या विपक्ष के, उन्हें जनता से कोई लगाव नहीं है। वे जनता के नाम पर खेल खा रहे हैं। इसलिये संसद में होने वाला यह नाटक बंद होना चाहिये।

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