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Thursday, September 30, 2010

ayodhya

Ayodhya par faisala aa gaya. Kafi intezar ke baad
Yqah nirnaya aaya. Isme jitney kjanooni pench the usase kahin jyada siyasui aur bhawatmak masla tha yah. Faisala bada hi vivekpurna aur sabke pasand ka kaha ja sakta hai. Iskew bavzood agar kisi ke man mein koi durbhavna aati haiu to yah hamari bharttiya sanskriti aur mishrit samaj vyavastha ke pratikool hai.yah faisala bhartiya loktantara ke puri tarah anooroop hai. ‘
Wo kahte hain tumhara hai
Jara tum ek nazar dalo,
Who kahte hain , badho mango
Jaroori hai na tum talo
Magar apni jaroorat hai bilkul alg hai isase,
Thaharo hame saancho mein na dhlo.
Is faisle ko lekar pura desh sahma sahma sa tha.ab jo nirnay hua hai use rajnitigya saanp sidhi ka khel na banaye. Hame rj dekhna hai ki hamare desh lok taqntrik vyavaswtha ke tahat adalat ka samman hai.hamare deshg mein dharma nirpekshta aur lok tantra ki baat keval samvidhan ke antargat hi nahi hai, balki ham ise apne jeewan mein bhi charitartha karte hai.Hame dunia ko dikhana hai ki ham sabse pahle is desh ke nagrik hain.ham hindu ya musalman hone ki sharton se alag sabse pahle bharatvasi hain. Yahanb yah cxharcha bhi behad jaroori hai ki ek aam bharatvasi ke jeevan mein ramjanambhoomi ya babri masjid ka utna mahtva nahi hai jitna kai aur chijon ka.
Hame phursat kahan hai roti ki golai ke chakkar se
Na jane kiska mandir hai, na jane kiski masjid hai
Na jane kaun uljhata hai seedhe sachche dhaga ko
Pichle char sau varshon mein desh mein jitney bhi sarethak aur rachnatmak prayas hue hain we sab mel milap aur sadbhavna ki najeerein hain. Apni TRP badhane ke chakkar mein padi electronic media ki nazar itni kamjore kyon hai ki use yah nahi dikhta kin a keval ayodhya ya faizabaad ka judwan shar balki sara bhartiya samaj ki aapsi sadbhavna mein paryapt namak aur chini hai.
Ham bhartiyon ko bar bar shapath patra ki shala mein yah batane jaroorat hargiz nahi hai ki ham ek hain. Vaise kathit roop mein tarakki pasand paschimi chasma pahane logo ko hamari yah sadbhavna raas nahi aati. We kisi keemat par goswami tulasi das aur meer Anis ke samanvit spandan ko mahsoos nahi kar sakte.
Agar hindu aandhi hain aur musalman toofan hain
To aao dono yaar mil kar kuch naya kar lein
To aao ek nazar dalein kai aham se sawalon par
Kai kone andhere hain,mashalei diya kar lein.

Sunday, September 26, 2010

दुनिया पाक को मजबूर करे


कश्मीर पर और पाकिस्तान पर लिखना तथा पढऩा उबाऊ हो गया है। देश में लगभग सभी अखबारों तथा पत्रिकाओं में लगभग हर रोज इतना कुछ छप रहा है कि शायद ही कोई अवधारणा है, जो नयी हो। लेकिन पाकिस्तान अपनी आदतों से बाज नहीं आ रहा है। वह कश्मीर के मामले में कुछ न कुछ शिगूफा छोड़ ही देता है। अब गुरुवार की ही बात लें। कश्मीर घाटी में जिस समय तनाव कम हो रहा है और सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल ने हालात का जायजा वहां जाकर ले लिया है, ऐसे में पाकिस्तान के दो मंत्रियों के दो तरह के गैर-जिम्मेदाराना बयान आने दुर्भाग्यपूर्ण हैं।
पाकिस्तान के रक्षा मंत्री अहमद मुख्तार तथा विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने दो अलग-अलग बयानों में पाकिस्तान के असली मकसदों के बारे में दुनिया को बता दिया है। रक्षा मंत्री कहते हैं कि पाकिस्तान को वैसे युद्ध नहीं चाहिए, लेकिन कश्मीर मसले पर यदि युद्ध होता है तो...अपनी एक-एक इंच जमीन के लिए पाकिस्तान कड़ा मुकाबला करेगा..., मुख्तार ने भारत के साथ युद्ध की बात के साथ पकिस्तान-चीन की दोस्ती की भी बड़ी डींगें हांकी हैं। दूसरी तरफ पाक विदेश मंत्री ने अमरीका से कश्मीर मसले में हस्तक्षेप करने का आग्रह किया है। उन्होंने अमरीका के दक्षिण एशिया शांति प्रयासों से भारत-पाक संबंधों को जोड़ा है। एक मंत्री का बयान कराची से आया है तो दूसरा न्यूयॉर्क से। एक अपनी धरती से युद्ध की बात करता है तो दूसरा विदेशी धरती से अमरीकी हस्तक्षेप की वकालत।
पाकिस्तान के मंसूबे कभी भी साफ नहीं रहे हैं, यह पुन: एक बार साबित हो रहा है। कश्मीर में पिछले कई सप्ताह से जो अशांति की आग भड़क रही है, उससे पाकिस्तान अपने आपको अलग नहीं कर सकता है। अलगाववाद की जो चिंगारी वहां जल रही है वह अपने आप ही नहीं जल रही, वरन जलाई जा रही है। कश्मीर के युवाओं को भड़काया जा रहा है और गलत दिशाओं में ले जाए जाने के प्रयास लगातार हो रहे हैं।
पूरे विश्व को यह मालूम है कि कश्मीर मुद्दा पाकिस्तान की हठधर्मिता के कारण उलझा हुआ है। आतंकवाद भी यदि घाटी में अक्सर फैलता है, तो उसके मूल में पाकिस्तान की कारगुजारियां ही हैं। ऐसी हालत में अगर विश्व समुदाय दुनिया में अमन चाहता है तो उसे पाकिस्तान को बाध्य करना होगा कि वह कश्मीर पर अपने रुख को बदले वर्ना दक्षिण एशिया फ्लैश पाइंट बना रहेगा।

Friday, September 24, 2010

फैसला टला है, हुआ नहीं है : भारतीयों को खुद को बदलना होगा


अयोध्या पर फैसला टल गया। इसे लेकर देश की जनता थोड़ी सहमी हुई सी थी। क्योंकि हम धर्म के मामले पर थोड़ा भावुक हो जाते हें और कानून की सभी हदें पार कर जाते हैं। जब हम भले और बुरे में फर्क नहीं कर पाते, तभी हिंसा हमारी नीति और नफरत हमारी विचारधारा बनती है। निर्दोषों की जान लेने वाले आतंकी भी इसी श्रेणी में आते हैं।
लेकिन अफसोस है कि हमारा देश ऐसा ही है। हालांकि इसका ये मतलब नहीं कि हमें देश को इसी तरह कबूल भी करना होगा। यह बात राहत देने वाली हो सकती है कि कई लोग नफरत के खिलाफ हैं। लेकिन यह स्थिति तब कमजोर पड़ जाती है, जब हमारा सामना लोभ या मूर्खता से होता है। कहा तो यह भी जाता है कि लालच बुरी बला नहीं है, क्योंकि वही विकास का वाहक है। जरा सोचें कि हम कितने वर्षों से राम मंदिर-बाबरी मस्जिद प्रकरण में उलझे हुए हैं। क्या देश के सामने इसके अलावा और कोई मुद्दा नहीं है?
मंदिर या मस्जिद की तुलना में कहीं अधिक आवश्यकता है देश में गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी, अशिक्षा, आबादी, दहेज-दहन, बाल श्रमिक जैसी समस्याओं के समाधान की। मस्जिद टूटी तो अयोध्या में टूटी। अयोध्या वाले जानें। इससे पूरे भारत को क्या लेना-देना ? बरसों हम साथ रहते चले आए हैं। एक दूजे के दुःख-सुख, शादी-ब्याह में शरीक होते रहते हैं, एक दूसरे से व्यापार करते हें, लेन देन करते हैं, तो हम आपस में दुश्मनी क्यों मोल लें ! हमारा इसमें क्या स्वार्थ है?
विश्व के तमाम विकासशील देशों में भारत ही एक ऐसा देश है जो धर्मनिरपेक्षता की घोषणा राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के रूप में करता है और उस पर चलने की वजह से ही अन्य देशों से अपना भिन्न दर्जा रखता है। धर्मनिरपेक्षता भारत में सिर्फ एक बौद्धिक विचार, प्रबुद्ध चिंतन या किसी तार्किक बहस की अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि यह हमारे राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का हिस्सा है। यह साम्राज्यवाद के विरुद्ध हमारे संघर्ष का एक अंग है।
छोटी पहचानों में बंटते चले जाना भारतीय समाज की नियति बन गई है। लगभग सभी राज्यों के भीतर अलग राज्य के आंदोलन चल रहे हैं, जिनमें कुछ सफल हुए हैं तो कुछ बीच में अटके हुए हैं।
भारतीय संस्कृति ने विश्व को नेतृत्व प्रदान किया है, कर रही है और आगे भी करती रहेगी, क्योंकि इसमें और केवल इसी में यह शक्ति है कि वह किसी भी मजहब या उपासना पद्धति, संप्रदाय या पंथ को पूर्ण रूप से समर्थन दे सकती है। विश्व में न तो कोई ऐसी दूसरी संस्कृति है, पंथ है, धर्म है और न ही कोई चिंतन है जो भारतीय परंपराओं जितना नर्म दिल हो। आज की विडंबना यह है कि सांप्रदायिकता को केवल धर्म नहीं बल्कि जाति, भाषा और क्षेत्र से भी जोड़ दिया गया है। उर्दू केवल मुसलमानों की ही क्यों समझी जाती है ? बांग्ला केवल बंगाल के लोगों की ही क्यों समझी जाती है ? क्या पंजाबी केवल सिखों की है ? क्या गोवा सिर्फ ईसाईयों का ही है और मथुरा मात्र हिंदुओं की धरोहर है ? हम अपने ही आधारों को आखिर क्यों कमजोर कर रहे हैं?

Thursday, September 23, 2010

कश्मीर मसले पर सच का सामना करें


कश्मीर गये सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल में विभिन्न मसलों को लेकर मतभेद पैदा हो गये हैं। कश्मीर समस्या दरअसल राजनीतिक, समाज वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक फांसों में उलझी हुई है। कश्मीर के ताजा हालात ने नीति-निर्माताओं को दोराहे पर खड़ा कर दिया है। उनके सामने दो विकल्प हैं। या तो सुरक्षा केन्द्रित मौजूदा बहस से निकलकर एक राजनीतिक पहल की जाय या सुरक्षा का मौजूदा तंत्र और कड़ा करने की राह पकड़ी जाए। कश्मीर से जुड़ी नीति में बुनियादी बदलाव की जरूरत इस बात से ही रेखांकित होती है कि केंद्र सरकार ने सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून (एएफएसपीए) को हटाने या इसके कुछ प्रावधानों को नरम बनाने पर चर्चा आमंत्रित की है।
केंद्र को खयाल रखना होगा कि इस हकीकत और इरादे से कश्मीर में जारी हिंसक घटनाओं या सरकार तथा सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल कड़े कदमों के पैरोकारों की दलीलों के चलते ध्यान न हटे। कश्मीर की जनता को राजनीतिक प्रक्रिया से जोडऩे की एक बड़ी जमीनी मुहिम शुरू करना इस वक्त देश के राजनीतिक नेतृत्व के लिए बड़ी चुनौती है, हालांकि हो सकता है कि इस मुहिम पर कश्मीर में तुरंत सकारात्मक प्रतिक्रिया न मिले।
केंद्र को एएफएसपीए पर चर्चा के प्रयास काफी पहले शुरू करने चाहिए थे। इससे शायद तमाम मौतों से बचा जा सकता था और मामला संभवत: इस मोड़ तक न आया होता। इसके बजाय, हुआ यह है कि कश्मीरियों की भावनाओं और वहां की सियासी हकीकत के बीच खाई और चौड़ी हुई है तथा अतिरिक्त सतर्कता बरतने के चलते उचित कदम उठाने में केंद्र सरकार की लडख़ड़ाहट सामने आयी है।
बावजूद इसके, कश्मीर में उभरी राजनीतिक चुनौतियों से दो-दो हाथ करने के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचा है। और सुरक्षा मामलों पर कैबिनेट की सोमवार की बैठक बेनतीजा रहने के बाद केंद्र सरकार को आगामी सर्वदलीय बैठक का उपयोग कुछ निर्णायक कदमों पर आम सहमति बनाने में करना ही चाहिए ताकि इस गंभीर संकट से निपटा जा सके।
एएफएसपीए को नरम बनाने या कुछ जिलों से इस कानून को हटाने से कश्मीरियों पर वांछित असर नहीं पड़ेगा। अगर केंद्र इसमें से किसी एक को या दोनों बातों को लागू करने का फैसला करता है तो भी इसके साथ इस कानून को पूरी तरह हटाने का समयबद्ध कार्यक्रम पेश करना चाहिए। इसके अलावा, हालिया विरोध-प्रदर्शनों के दौरान गिरफ्तार युवाओं जैसे कुछ कैदियों को रिहा करने तथा अलगाववादियों सहित सभी वर्गों के साथ व्यापक बातचीत शुरू करने के कदम उठाए जाने चाहिए।
उग्रवाद से निपटने के लिए पिछले दो दशकों में बड़े पैमाने पर की गयी सुरक्षा केंद्रित कोशिशों का एक नतीजा यह रहा है कि आज घाटी पहले की तुलना में कहीं अधिक दूर दिख रही है। दरअसल, गुजरे सालों में जमीनी स्तर पर व्यापक राजनीतिक प्रयास नहीं किए गए। अब, इस राह को भी आजमाया जाना चाहिए।

Tuesday, September 21, 2010

फिदायीं हमले का खतरा बढ़ा


19 सितम्बर को ई मेल से मिले इंडियन मुजाहिदीन के एक कथित संदेश में कुछ मुस्लिम विरोधी घटनाओं का जिक्र था, जिसमें खास था मध्य प्रदेश के रतलाम में ईद के दिन की घटना। उस ई मेल पर किसी अल अरबी के दस्तखत थे और तारीख 19 सितम्बर की ही पड़ी थी। इसके अलावा 17 सितम्बर को कश्मीर में सुरक्षा बलों के हाथों कितने लोग मारे गये थे इसका भी उल्लेख था। इसका मतलब हुआ कि आलोच्य ई मेल का मसौदा 17 से 19 सितम्बर के बीच तैयार किया गया था।
ई मेल की भाषा परिष्कृत अंग्रेजी में थी और व्याकरण, प्रयोग तथा टाइपिंग की मामूली अशुद्धियां थीं। इसके अलावा लिखने वाले को कुरान शरीफ के बारे में पूरा ज्ञान था। उसमें कई उद्धरण ओसामा बिन लादेन के थे पर कहीं बिन लादेन का नाम नहीं था। ई मेल का अंतिम पैरा तो बिन लादेन के परवेज मुशर्रफ के विरुद्ध संदेश से अक्षरश: लिया गया था।
सितम्बर 2007 के इस संदेश में ओसामा बिन लादेन ने कहा था कि... अगस्त 2007 में लाल मस्जिद पर दबिश देने वालों पर अल्लाह का कहर टूटेगा।... हालांकि उस ई मेल में कहीं भी नहीं कहा गया है कि 19 सितम्बर को जामा मस्जिद पर हमले की जिम्मेदारी वे लेते हैं पर यह जरूर कहा गया कि... हमले की इस कार्रवाई को वे अल्लाह को समर्पित करते हैं।..
कॉमनवेल्थ गेम्स के सम्बंध में उस ई मेल में कहा गया है कि... एक तरफ जहां मुसलमानों का लहू पानी की तरह बह रहा है, वहीं आप खेलों के जलसे कर रहे हैं। बेशक यह बच्चों का खेल नहीं है। हम अल्लाह के शेरों ने इससे बाज आने की चेतावनी दी थी। हमें मालूम है कि खेलों के जलसे की तैयारियां जोरों पर हो रही हैं तो मालूम हो कि हम भी तैयार हैं और तहलका मचा देंगे। इसके लिये इस जलसे में शामिल होने वाले जिम्मेदार होंगे। हमारे मुजाहिदीनों का जत्था मौत से उतनी ही मुहब्बत करता है, जितनी आप जिंदगी से। '
आखिरी पंक्ति... हमारे मुजाहिदीनों का जत्था मौत से उतनी ही मुहब्बत करता है जितनी आप जिंदगी से... को लाल रंग से चिन्हित किया गया था। इससे यह निष्कर्ष निकलता हे कि इंडियन मुजाहिदीन फिदायीं हमले करने अथवा आत्मघाती आतंकवाद आरम्भ करने जा रहे हैं। हालांकि इंडियन मुजाहिदीन ने अब तक ऐसा नहीं किया है। पूरे ई मेल में कश्मीर में मुसलमानों पर जुल्मों की बात ही थी और उसकी निन्दा ही थी पर उससे संकेत मिलते हैं कि इंडियन मुजाहिदीन मुस्लिम एकजुटता के आधार बदले की कार्रवाई का अभियान शुरू करना चाहता है और संभवत: दिल्ली, मुम्बई और रतलाम ही निशाना हो।

Monday, September 20, 2010

भारत को टुकड़े कर हिन्दू सभ्यता को खत्म करने की साजिश


हरिराम पांडेय
माओवादियों और जेहादियों ने हाथ मिलाये
दक्षिण एशिया में पहली बार वामपंथी ताकतों और कट्टरपंथी ताकतों के ध्रुवीकरण होने के सबूत मिले हैं। अल कायदा के नम्बर तीन सुप्रीम कमांडर सईद अल मासरी उर्फ मुस्तफा अबू ला याजिद की डायरी के मुताबिक पश्चिम बंगाल और उड़ीसा के 40 नक्सलियों माओवादियों के एक समूह को अल कायदा अफगानिस्तान के खोस्त और पाकिस्तान के गारदेज के बीच अपने खास कैम्प में विमान अपहरण और मामूली रसायनों से बेहद खतरनाक विस्फोटकों को बनाने और उनके उपयोग की ट्रेनिंग दे रहा है। यह समूह भारत के नक्सल प्रभावित इलाकों में अपनी कार्रवाई करेगा और जरूरत हुई तो इस्लामी चरमपंथियों को अपने हमले में मदद करेगा। इनका इरादा पूरे देश को रेड कॉरिडोर और जिहाद जोन में बदल देने का है।
इसराइली खुफिया विभाग से जुड़े एक अंग मेमरी (MEMRI; middle east media reaserch institute) ने अबू याजिद की डायरी के कुछ पन्नों का प्रमाणिक अंगरेजी अनुवाद भारतीय खुफिया एजेंसियों को मुहय्या कराया है। यह डायरी कुछ हफ्तों पहले अमरीकी ड्रोन हमले में मारे गये अबू याजिद के सामानों से अमरीकी जासूसों ने बरामद की थी। अबू अल कायदा का मिलीटरी आपरेशन और ट्रेनिंग प्रमुख था।
डायरी के अनुसार इस ट्रेनिंग का मुख्य उद्देश्य अलकायदा और माओवादियों द्वारा एक दूसरे के लक्ष्यों को हासिल करने में मदद करना है। भारतीय खुफिया एजेंसियों का मानना है कि माओवादी कोलकाता, भुवनेश्वर, पटना, रांची और भोपाल हवाई अड्डों से एक ही दिन अथवा अलग- अलग समय में विमानों का अपहरण कर सकते हैं। इन स्थानों में माओवादियों की पहुंच इतनी गहरी है कि उन्हें पहचान पाना अथवा कोई कार्रवाई (एक्शन) करने से रोक पाना बड़ा कठिन है। साथ ही अपने प्रभाव वाले राज्यों में वे अल कायदा या उससे जुड़े संगठनों को लॉजिस्टिक सपोर्ट भी दे सकते हैं।
हालांकि भारत में अलकायदा का अस्तित्व नहीं है लेकिन उसका और लश्कर-ए-तय्यबा का काम इंडियन मुजाहिदीन और प्रतिबंधित संगठन सिमी के सदस्य देखते हैं। जहां तक सिमी के अंडरग्राउंड लोगों का सवाल है वे कहने को अंडरग्राउंड हैं पर वे किसी दूसरे चोले में एक दम सामने हैं, खास कर छात्र संगठनों के सदस्यों के रूप में।
खुफिया एजेंसियों के अनुसार, पश्चिम बंगाल और झारखंड दो ऐसे प्रांत हैं जहां के मजदूर संगठनों में भी सिमी के तत्वों की घुसपैठ है और ये कभी भी अपने मंसूबों को अंजाम दे सकते हैं तथा सारा दोष नक्सलियों पर मढ़ दे सकते हैं।
डायरी के मुताबिक भारत के एक पड़ोसी देश में दिल्ली से मित्रता रखने वाली सरकार के कुछ वरिष्ठ मंत्रियों की हत्या भी
इस्लामी कट्टरपंथियों का लक्ष्य है और इसमें धुर वामपंथी तत्व उनकी मदद करेंगे। विशेषज्ञों का मानना है कि यह संकेत बंगलादेश की ओर है और निशाने पर आशंका है कि शेख हसीना वाजिद हैं।
शेख हसीना के सत्ता में आने से बंगलादेश में आतंकी गिरोहों की आमद-रफ्त कम हो गयी है उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। यहां यह बता देना प्रासंगिक होगा कि बंगलादेश में सेना तक में पाकिस्तान समर्थक तत्वों की अच्छी खासी तादाद है।

कुछ दस्तावेज में बाबरी मस्जिद का हवाला भी है। दस्तावेजों में कहा गया है कि 'बाबरी मस्जिद का फैसला हमारे खिलाफ जाय ताकि इंडिया में उपद्रव का घोषित बहाना मिल सके।.. दस्तावेज में संकेत दिये गये हैं कि इंडिया को ..रेड कोरिडोर.. तथा ..जिहाद जोन.. में तकसीम कर दिये जाने के बाद तोडफ़ोड़ ओर छल से एक नयी सभ्यता का सूत्रपात किया जायेगा।
दस्तावेज में उसे..सिविलाइजेशन-जिहाडिस्ट प्रोसेस.. कहा गया है। इसके माध्यम वे हिन्दू सभ्यता को समाप्त करने का सपना बुन रहे हैं। उनका मानना है कि भारत के चारों तरफ गैर हिन्दू या हिन्दू विरोधी सरकारें हैं अतएव इस योजना से उन्हें..ग्रैंड इस्लामिक किंगडम ऑव अल्लाह... स्थापित करने में सहूलियत हो जायेगी।

अति आत्मविश्वास से बचें


19 सितम्बर को दिल्ली के जामा मस्जिद के सामने मोटरसाइकिल सवार दो अज्ञात बंदूकधरियों ने अंधाधुंध गोलियां चलायीं, जिससे दो ताइवानी पर्यटक घायल हो गये। बीबीसी ने चश्मदीद गवाहों के हवाले कहा है कि दो आतंकवादी मोटरसाइकिल पर सवार होकर आये। उनमें जो पीछे बैठा था, उसने अपने हाथ में बंदूक ले रखी थी। उसने पहले मस्जिद पर अंधाधुंध गोलियां चलायीं फिर हवा में और टूरिस्ट बस पर एवं लोगों पर। जब बंदूक की मैगजीन खाली हो गयी तो उसने दूसरी मैगजीन लगायी और फिर फायरिंग करते हुये भाग निकले।
बताया जाता है कि भागने से पहले वे अपनी बंदूक भी घटनास्थल पर फेंकते गये। एक न्यूज चैनल का कहना है कि उसे एक ई मेल मिला है, जिसमें हमले की जिम्मेदारी इंडियन मुजाहिदीन (आई. एम.)ने ली है। ई मेल जिस पते से भेजा गया है वह है - अल अरबी 999123 एट जी मेल .कॉम। अल अरबी नाम 26 जुलाई 2008 को अहमदाबाद पर हमले के बाद भेजे गये ई मेल में पहली बार आया था। अबसे दो साल पहले 19 सितंबर को ही इंडियन मुजाहिदीन के दो लोग दिल्ली में पुलिस से मुठभेड़ में मारे गये थे। इस मुठभेड़ में दिल्ली पुलिस का एक अफसर भी गंभीर रूप से घायल होने के बाद मारा गया। ताईवानी पर्यटकों की बस पर यह फायरिंग उसी हमले की दूसरी बरसी के रूप में हो सकती है। हालांकि अभी तक ई मेल की प्रमाणिकता की जांच नहीं हो सकी है लेकिन कुछ सवालों के जवाब इस घटना पर रोशनी डाल सकते हैं। वैसे शक है कि इस घटना में शामिल आई. एम. के कुछ सदस्य कहीं गुम हो गये हैं। अलबत्ता एक बात ध्यान देने लायक है कि आई. एम. ने अब तक जो भी हमले किये उसमें हाथ से बनाये गये ( देसी ) बमों (आइ ई डी) का इस्तेमाल किया। मुंबई हमले के दौरान पहली बार लश्कर- ए - तय्यबा के आतंकियों ने दस्ती हथियारों (हैंड हेल्ड गन्स) और आई डी का उपयोग किया। मोटरसाइकिल पर बैठ कर टार्गेट तक आने और फिर पीछे बैठी सवारी द्वारा अंधाधुंध गोलियां चलाने का यह तरीका (मोडस ऑपरेंडी: एम ओ) पाकिस्तान के लश्कर-ए- झांगवी और दक्षिणी थाइलैंड में जिहादी आतंकियों का है। अब से 80 के दशक में सिख आतंकी भी इस तरीके को अपनाते थे। लिहाजा पाकिस्तान में मोटरसाइकिल पर पीछे वाली सीट पर किसी को बैठाने पर रोक है। अब चूंकि लश्कर - ए-झांगवी का सम्बंध इलियास कश्मीरी के तथाकथित 313 ब्रिगेड से है। 313 ब्रिगेड ने कुछ दिनों पहले सरकार को चेतावनी दी थी कि कामनवेल्थ गेम्स का आयोजन ना करे।
रविवार को हमले के बाद प्राप्त कथित ई- मेल में भी कहा गया है कि हमें मालूम है कि कामनवेल्थ गेम्स की तैयारी जोरों पर है। हम इस दौरान दहला देने वाली कार्रवाई करेंगे और खेलों में शामिल होने वाले लोग इसके लिये जिम्मेदार होंगे। ई- मेल संदेश और फायरिंग की घटना को सरलता से नहीं लिया जाना चाहिये। खेलों की सुरक्षा के मसले पर अति आत्मविश्वास को त्याग दिया जाना चाहिये। कोई भी सतही दृष्टिकोण खतरनाक होगा।

कश्मीर पर देश के युवक भी आगे आयें


राहुल गांधी ने कश्मीर मसले पर उमर अब्दुल्ला का समर्थन किया है। ऐसे मौके पर जबकि कश्मीर जल रहा है और वहां के हालात का जायजा लेने और समस्या के समाधान सुझाने के लिये सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजने का फैसला सरकार ने किया है, यह समर्थन कांग्रेस के लिये लाभकारी तो होगा ही नहीं और एक तरह से सरकार की मंशा के रूप में इसका राजनीतिक लाभ भी उठाया जा सकता है। सरकार सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल कश्मीर भेज रही है और जब वह दल वहां से लौट कर आयेगा तब उसकी सिफारिशों पर विचार के लिये एक बार फिर सर्वदलीय बैठक होगी। यह घटना 1989-90 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के सरकार के समय की घटना की याद ताजा कर दे रही है। उस समय आरक्षण के बवाल को शांत करने के लिये सर्वदलीय बैठक बुलायी गयी थी और उससे सुझाव मांगे गये थे। उस समय स्व. राजीव गांधी विपक्ष के नेता थे और उन्होंने तथा उनके सहयोगियों ने इस अवसर का लाभ उठाया। उन्होंने ऐसी चाल चली कि लोगों का गुस्सा और उफन गया। लोगों की आंखों में सरकार की साख बिल्कुल गिर गयी। उस समय भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार का समर्थन कर रही थी। 1989- 90 में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने खेल बिगाडऩे वाली भूमिका निभायी। अब भाजपा विपक्ष में है। अब लालकृष्ण आडवाणी के सुझाव से भाजपा भी कश्मीर के हालात का राजनीतिक लाभ उठाने की चेष्टा में है और मनमोहन सिंह सरकार की साख मिट्टी में मिला देना चाहती है। पिछले चुनाव के दौरान भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर अपने अभियान का शंख फूंका था। उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अब तक का सबसे कमजोर प्रधानमंत्री घोषित किया था। लेकिन इसका कोई असर नहीं पड़ा। अब उसकी कोशिश है कि जम्मू कश्मीर के ताजा हालात के लिये प्रधानमंत्री की नरम नीतियों और राज्य सरकार की नाकामियों को दोषी बताया जाय। भाजपा यह भी दिखाना चाहती है कि वह जम्मू-कश्मीर में सेना के अधिकारों की प्रबल समर्थक है। सेना वहां हारने वाली जंग लड़ रही है और उसके हाथ बांधने के प्रयास हो रहे हैं। भाजपा का यह सोच है कि कश्मीर जैसे संवेदनशील मसले को माध्यम बना कर वह पिछले चुनाव में हार को विजय में बदल सकती है। भाजपा की राष्ट्रभक्ति पर किसी को संदेह नहीं है। वह सबसे ज्यादा राष्ट्रभक्त है। लेकिन उसकी सक्रियता और बयानों के पीछे उसकी राष्ट्रभक्ति ही डायनामिक्स नहीं है। उसके पीछे राजनीतिक लोभ भी बड़ा कारण है। दलीय राजनीतिक स्वार्थ के प्रदर्शन से कई प्रकार के संदेश जाते हैं। 1989-90 में आरक्षण के लिये गठित सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल द्वारा प्रदर्शित दलीय स्वार्थ से आतंकियों और अलगाववादियों को संदेश मिले कि ये नेता संकट के समय भी एक नहीं हो सकते और फलत: पंजाब में आतंकवाद ने जोर पकड़ लिया। इस बार भी सर्वदलीय बैठक में भाजपा फौज के अधिकार के समर्थन में ध्वजा उठाये रखी और कांग्रेस तथा माकपा यह सोचती रही कि जून के बाद से स्थितियां बहुत बदल गयी हैं। स्थितियों में गुणात्मक परिवर्तन हो गये हैं इसलिये इसे खत्म करने के लिये गुणात्मक अप्रोच की जरूरत है जिसके लिये दृढ़ता जरूरी है और जरूरी है नयी भाषा तथा नयी शब्दावली की, ताकि जो लोग दूर जा चुके हैं वे करीब आ सकें। इस मामले में कांग्रेस-वामपंथी दल के ठीक विपरीत भाजपा खड़ी है।
उमर अब्दुल्ला को समर्थन करने से बेहतर होता कि राहुल जी सरकार के सर्वदलीय प्रयासों के अलावा अपने नेतृत्व में कांग्रेस (ई) के नवयुवकों का एक दल कश्मीरी युवकों से बातें करता। इसके तहत पहले कदम के रूप में श्रीनगर में सर्वदलीय युवा सम्मेलन का आयोजन किया जाता। उसकी कार्यसूची में दो ही आइटम हों, पहला कि कश्मीर में मानवाधिकार की स्थिति और दूसरा कि नौजवानों के गुस्से को कम कैसे किया जाय। राजनीतिक दलों की युवा इकाई के कश्मीरी युवक इस मामले में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। कश्मीर में जो स्थिति है वह देश भर के युवकों के लिये एक भावनात्मक चुनौती है। हम सभी चाहे किसी राजनीतिक दल से जुड़े हों या पेशेवर आदमी हों, कश्मीर की स्थिति को समझने में नाकाम हो गये हैं। कश्मीर के ताजा मामलों को समझने में सरकार और पेशेवर लोगों की नाकामी तथा उसके प्रति देश भर में संवेदना में कमी को देख कर ऐसा लगता है कि कैसे यहां आजादी की जंग लड़ी गयी होगी।

Friday, September 17, 2010

कश्मीर : जल्दी करें और निर्णायक करें


कुरान जलाये जाने की अफवाह के बाद 13 सितम्बर को कश्मीर में भड़की आग, जो घाटी में अभी तक सुलग रही है, की ओर से सरकार ने ढिलाई बरती तो नतीजे भयानक हो सकते हैं। इस घटना में गुस्सा वास्तविक है और यह सोचना भी आत्मघाती होगा कि यह पाकिस्तान के उकसाने पर हुआ है और यदि ऐसा हुआ होता तो बात इतनी नहीं बढ़ती। गुस्से का कारण और उसके इस स्थिति तक पहुंचने का कारण राज्य सरकार द्वारा मामले को ठीक से सुलझाने और केंद्र सरकार द्वारा समय रहते कार्रवाई करने में असफलता है।
पाकिस्तान और वहां सक्रिय आतंकी संगठनों ने तो केवल मौके का लाभ उठाया है।
बुधवार (पंद्रह सितंबर) को कश्मीर समस्या पर विचार और समाधान खोजने के लिये प्रधानमंत्री द्वारा बुलायी गयी सर्वदलीय बैठक लगभग असफल हो गयी। फकत यही तय हुआ कि सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल घाटी का दौरा करेगा। तीन महीनों में 90 मौतों की पृष्ठभूमि में बुलायी गयी इस बैठक से उम्मीद थी कि कुछ ठोस निकलेगा। पर हुई सिर्फ शांति की अपील। घाटी की यह आग जब चिनगारी थी तो वहां की उमर अब्दुल्ला सरकार पर सब छोड़ दिया गया था। जब हालात बद से बदतर हो गए तो भी सरकार ने अपील के अलावा कुछ नहीं किया।
इस बैठक से शायद केंद्र की यूपीए सरकार को भी अपनी कार्यशैली को लेकर कुछ सबक मिले हों, क्योंकि कुछ तो वजह जरूर रही होगी, जिसके चलते जम्मू-कश्मीर और केंद्र के विपक्षी दलों की सक्रिय भागीदारी अब तक सुनिश्चित नहीं की जा सकी थी, जो इस बैठक में मुमकिन हो गयी। जम्मू-कश्मीर के उपद्रवग्रस्त इलाकों में सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल का दौरा एक अच्छा फैसला है और गृह मंत्रालय को बिना देर किए इस अवसर का इस्तेमाल करना चाहिए। दिल्ली में बैठकर राज्य में शांति-व्यवस्था बहाल करने की बातें करना बहुत आसान है, लेकिन इसके लिए ठोस उपाय सुझाते वक्त हमारे राजनीतिक दलों की नजर में जम्मू-कश्मीर के आम जनजीवन की तस्वीरें होनी चाहिए।

आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर्स एक्ट को हटाने पर सहमति नहीं बन पायी है पर सरकार को याद रखना चाहिए कि सेना और अर्द्धसैनिक बलों के जवान वहां कश्मीरियों की सुरक्षा के लिए ही गये थे। बहरहाल, केंद्र सरकार के लिए सबसे जरूरी है निर्णायक होना। अनिर्णय की स्थिति उपद्रवियों को बल देती है और कश्मीर का उपद्रव देश के किसी और भाग के उपद्रव से अलग है। इसे हलके में लेना बड़ी भूल होगी।
इस दौरे को और कारगर बनाने के लिए हमारे राजनेता जम्मू-कश्मीर के तमाम धड़ों के प्रतिनिधियों के घर जा-जाकर उनसे बात कर सकते हैं। क्या शर्तें मानी जाएं और क्या न मानी जाएं, यह मामला तो टेबल पर आमने-सामने बैठकर होने वाली आधिकारिक बातचीत से जुड़ा है। किसी के घर जाकर उसका दुख-सुख बांटने और उसके साथ एक प्याली चाय पी लेने के साथ तो आम तौर पर कोई शर्त नहीं जुड़ी होती। इस नजर से देखें तो महबूबा मुफ्ती की इस बात में काफी दम नजर आता है कि बातचीत बिना शर्त शुरू की जानी चाहिए। जो विदेशी ताकतें जम्मू-कश्मीर की जलती आग में अपने हाथ सेंकना चाहती हैं, वे कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन को अपना अजेंडा आगे बढ़ाने के असाधारण मौके की तरह ले रही हैं। सर्वदलीय टीम का जम्मू-कश्मीर दौरा इस साजिश के खिलाफ कारगर कदम साबित हो सकता है, बशर्ते देश की सभी राजनीतिक पार्टियां स्थिति की गंभीरता को समझें और इसके मुताबिक अपने नजरिये में थोड़े-बहुत बदलाव के लिए तैयार रहें।
इसके लिये सरकार को सबसे पहले कश्मीरियों के मानवाधिकार की कद्र करनी होगी। बेशक मौजूदा हालात में मानवाधिकार की बात कुछ लोगों को हजम ना हो लेकिन इसके सिवा कोई उपाय नहीं है। यदि सरकार ऐसा नहीं करती है ओर केवल बयान देती रहे तथा नौकरियों के बंदोबस्त की बात करती रहे तो मामला कभी नहीं सुलझेगा। सरकार को यह बताना होगा कि वह इस मामले में न केवल गंभीर है बल्कि इसे सुलझाने की इच्छा के प्रति भी गंभीर है। अगर सरकार ऐसा नहीं करती है तो कश्मीर बेकाबू हो जायेगा। इसलिये सरकार को चाहिये कि जो कुछ करना हो वह जल्दी करे और निर्णायक कदम उठाये।

Thursday, September 16, 2010

तरुणाई की कुंठा और हमारा देश


कश्मीर से कर्नाटक तक चाहे सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकते नौजवानों की टोली हो या नक्सली माओवादी का रूप धरे युवकों का गिरोह, सब जगह नौजवानों में कुंठा दिख रही है। मंदी की मार के बीच उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं का रोजगार, घाटे का सौदा होती खेती और विकास के नाम पर हस्तांतरित होते खेत, पेट भरने व सुविधाओं के लिए शहरों की ओर पलायन करते ग्रामीण युवाओं की ये दिक्कतें क्या सरकार की समझ में हैं ?
क्या भारत के नौजवानों को केवल रोजगार चाहिए? उसके सपने का भारत कैसा हो ? वह सरकार और समाज में कैसी भागीदारी चाहता है ? ऐसे ही कई सवाल तरुणाई के इर्दगिर्द टहल रहे हैं, लगभग अनुत्तरित से।

मीडिया हो या सरकार, जिसने भी युवा वर्ग का जिक्र किया, तो अक्सर उसका ताल्लुक शहर में पलने वाले कुछ सुविधा-संपन्न लड़के-लड़कियों से ही रहा। फर्राटेदार हिंगरेजी और पश्चिमी सभ्यता का अधकचरा मुलम्मा चढ़ाए युवा। यह बात भुला ही दी जाती है कि इनसे कहीं पांच गुनी बड़ी और इनसे बिलकुल भिन्न युवा वर्ग की ऐसी भी दुनिया है, जो देश के पांच लाख गांवों में है। तंगी, सुविधाहीन व तमाम उपेक्षाओं की गिरफ्त में फंसी एक पूरी कुंठित पीढ़ी। गांव की माटी से उदासीन और शहर की चकाचौंध छू लेने की ललक साधे युवा शक्ति।
भारतीय संस्कार, संस्कृति और सभ्यता की महक अभी कहीं शेष है तो वह है ग्रामीण युवा पीढ़ी। यथार्थ, जिंदादिली और अनुशासन सरीखे गुणों को शहरी सभ्यता लील चुकी है। एक तरफ ग्रामीण युवक तत्पर, मेहनती, लगनशील व विश्वसनीय हैं तो दूसरी ओर नारों, हड़तालों और कृत्रिम सपनों में पले-बढ़े शहरी युवा। वस्तुत: कुशल जन-बल के निर्माण के लिए ग्रामीण युवक वास्तव में कच्चे माल की तरह हैं, जिसका मूल्यांकन कभी ठीक से किया ही नहीं गया।

एक तरफ ऐसी संस्कृति, जहां होश संभालते ही किशोरों को ढोल की थाप पर आल्हा का पंचम सुनाई पड़ता है 'जाके बैरी चैन से सोये ओकर जियल हऽ धिक्कार...। ऐसे में कुछ मतलब परस्त लोग समाज और सरकार को बैरी के रूप में प्रोजेक्ट कर पूरी युवा पीढ़ी की तरुणाई की ऊर्जा को विरोधी बना दे रहे हैं। किसी के हाथ में पत्थर तो कहीं ए के रायफलें या इंसास।
यह विडंबना ही है कि ऐसे कई मुद्दे हैं, जो युवाओं को गांव की जिंदगी से काटते हैं और जिनके चलते उनका मानसिक धरातल जमीन छोड़ रहा है। गांव व शहर के बीच सुविधाओं की चौड़ी खाई बैरी हो गयी है। अपने घर-गांव में न तो पारंपरिक रोजगार की गुंजाइश दिखती है और न ही जीविकोपार्जन के नए अवसर गांव तक आ रहे हैं। ऐसे में गांव के युवाओं को अपनी ही माटी से जैसे घिन आने लगी है। त्रिशंकु- सी हालत है, एक तरफ है सहज ग्रामीण संस्कार और दूसरी ओर है शहरी रंगीनियों को पाने की ललक। ऐसे में भटकता हुआ ग्रामीण युवा ख्वाहिशों के घूंट पी कर अपनी राह की खोज में खुद खो जाता है। ये संकेत घातक हैं। कहीं भारतीय आत्मा अपनी जड़ें न छोड़ दे।

लड़के तो फिर भी विषम हालातों से जूझ कर अपने लिए कुछ पाने में सफल हो जाते हैं परंतु किशोरियां तो घर की चहारदीवारी में ही कैद रह जाती हैं। कुछ को दर्जा-दो दर्जा तक पढऩे स्कूल भेजा गया तो ठीक वरना रंगीन युवावस्था बर्तन मांजने या गोबर-चारा करने में गुम हो जाती है।
गांवों में बसे नवयुवकों की उपेक्षा से राष्ट्रीय स्तर पर भी कई समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। देश का चाहे कोई भाग हो, हथियार थामने वाले हाथों में युवकों की संख्या ही ज्यादा है। गांवों में विकास को शहरी मापदंड से मापने की अपेक्षा उसे आस-पास के वातावरण के अनुकूल बनाना होगा। युवाओं की कुंठा को कम करने के बारे में सरकार को सोचना होगा वरना कश्मीर से कन्या कुमारी तक और असम से अमरनाथ तक मुश्किलें हर कदम पर मिलेंगी।

Wednesday, September 15, 2010

केसर की दहकती क्यारियां और आर्मड फोर्सेज ऐक्ट पर आगा पीछा


सुरक्षा मामलों की केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में आर्मड फोर्सेज ऐक्ट पर कोई फैसला नहीं होने से नाखुश जम्मू-कश्मीर के मुख्य मंत्री उमर अब्दुल्ला ने पद छोडऩे की धमकी दी है। उनका कहना है कि भले ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी. चिदंबरम घाटी में छूट दिए जाने के पक्ष में हैं, पर सुरक्षा मामलों की कैबिनेट बैठक में उनके प्रस्ताव पर कोई निर्णय नहीं लिया जा सका, यह तकलीफदेह है।

उमर अब्दुल्ला ने कश्मीर के कुछ हिस्सों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (एएफएसपीए) को वापस लेने का प्रस्ताव दिया था। दरअसल आतंकवादियों के ताजा उपद्रव को देखते हुए सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (एएफएसपीए) की धार को कुछ कुंद करना या हटा लेना अक्लमंदी नहीं होगी। सुरक्षा पर मंत्रिमंडलीय कमेटी की सोमवार (तेरह सितंबर) को बैठक हुई। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई इस बैठक में कश्मीर के वर्तमान हालात और जम्मू-कश्मीर को पैकेज दिए जाने पर विचार किया गया, लेकिन राज्य के कुछ हिस्सों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (एएफएसपीए) को वापस लेने के मसले पर कोई फैसला नहीं लिया जा सका। कश्मीर के नाजुक हालात पर चर्चा के लिए सीसीएस ने बुधवार को सर्वदलीय बैठक बुलायी है।
प्रदेश सरकार का यह सोच है कि जम्मू और कश्मीर में जारी हिंसा के चक्र को रोकने के लिए यह जरूरी है कि केंद्र सरकार एक पैकेज की घोषणा करे, ताकि बातचीत का माहौल बने। यह दु:ख की बात है कि ईद के मौके पर मीरवाइज उमर फारूक और जेकेएलएफ प्रमुख यासीन मलिक जैसे हुर्रियत कान्फ्रेंस (मध्यमार्गी) के नेताओं ने इस माहौल के बनने से पहले ही उसकी संभावना को खत्म कर डाला है।

ईद के दिन जो हिंसा भड़की वह दरअसल, घाटी में हुर्रियत के उग्रवादी गुट के नेता सैयद अली शाह गिलानी और मध्यमार्गी गुट के नेता मीरवाइज उमर फारूक के बीच वर्चस्व की लड़ाई का परिणाम है। ईद पर विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व करके मीरवाइज ने अपनी ताकत दिखायी है। जाहिर है अलगाववादी संवाद के किसी भी द्वार को खुला देखना नहीं चाहते और उन्होंने माहौल को बेहद तनावपूर्ण और हिंसक बनाकर मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के प्रयासों पर पानी फेर दिया है।
जम्मू और कश्मीर में सरकार के समक्ष सबसे बड़ा सवाल अब यह बन गया है कि क्या इस माहौल में एएफएसपीए को नरम बनाना या कुछ जिलों से उसे हटाना उचित होगा। कांग्रेस के कोर ग्रुप की बैठक में इस बारे में कोई आमराय नहीं बन सकी थी।
खुद रक्षा मंत्री ए के एंटनी ने एएफएसपीए को नरम बनाने का विरोध किया था। थल सेनाध्यक्ष का भी यही मत है। सेना की ओर से कहा जाता रहा है कि वह अपनी तरफ से अशांत क्षेत्रों में अपनी भूमिका निभाने के लिए तत्परता नहीं दिखाती। वह तब यह भूमिका निभाने के लिए आगे आती है, जब उससे इसके लिए कहा जाता है। उसका काम तो बाहरी हमलों और खतरों से देश की रक्षा करने का है। इसलिए उस पर कोई भी तोहमत लगाना ठीक नहीं है।
भारत सरकार ने उत्तर-पूर्वी राज्यों में विद्रोह और उग्रवाद से निपटने के लिए यह आर्मड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट-1958 बनाया था। इस कानून की बदौलत बेशक देश को तो एक ओर अखंड रखा जा सका, मगर इसके प्रावधानों को लेकर देश को बदनामी भी झेलना पड़ी। यह कानून बिना कोई चेतावनी दिए कानून और व्यवस्था बनाए रखने के तर्क से सेना को गोली चलाने की सुविधा देता है। कानून के तहत सेना किसी को भी बिना किसी वारंट के गिरफ्तार कर सकती है, मगर केंद्र सरकार की अनुमति के बिना किसी भी दोषी फौजी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती। इन प्रावधानों से चूंकि नागरिक आजादी का हनन होता है, इसलिए भारत सहित दुनिया भर के मानवाधिकार संगठन इसका विरोध करते हैं। कश्मीर को ध्यान में रखकर तो यह कानून बना ही नहीं था।
जम्मू और कश्मीर में इसे 1990 में लागू किया गया था, लेकिन पिछले दो दशकों की घटनाओं ने इसे जम्मू और कश्मीर के लिए भी अपरिहार्य बना दिया है। इस कानून में भले ही कोई अंतर्निहित खामियां न हों, इसके लागू रहने का प्रभाव ऊपर से भले ही ठीक लगे, लेकिन भीतर-भीतर यह संबद्ध समाज में विरोध और अलगाव की भावनाओं को और मजबूत ही करता है।
जम्मू और कश्मीर में सड़कों पर उतरकर अर्द्धसैनिक बलों व पुलिस पर पत्थर फेंकने वाले लोग आजादी की मांग कर रहे हैं। वे किसी प्रतीकात्मक कदम से संतुष्ट होने वाले नहीं हैं। उनके नेता तो त्रिपक्षीय बैठक बुलाने की मांग कर रहे हैं। फिर अगर घाटी के कुछ जिलों में इसे हटाया गया तो उत्तरपूर्वी राज्यों में भी इसे हटाने की मांग प्रबल रूप धारण कर लेगी।

मणिपुर में इस कानून के कारण सेना द्वारा हुई ज्यादतियों के विरोध में राजनीतिक कार्यकर्ता, पत्रकार और कवयित्री ईरोम शर्मिला पिछले दस वर्षों से भूख हड़ताल पर बैठी हुई हैं। सरकार को सभी पहलुओं पर विचार कर ही कोई कदम उठाना चाहिए।

Monday, September 13, 2010

हिंदी और हिंदुस्तान

आज हिंदी दिवस (चौदह सितंबर) है। सरकारी तौर पर हिंदी को राजभाषा (राष्ट्रभाषा नहीं) के रूप में स्वीकार करने की सांविधानिक तिथि। अक्सर यह पूछा जाता है कि हिंदी अगर राजभाषा है तो राष्ट्रभाषा क्या है ?
यह प्रश्न मूलभूत रूप में दार्शनिक है पर उस पर सियासत का पानी चढ़ा हुआ है। अतएव इसके आनुषंगिक विश्लेषण से पूर्व इसके छोटे से समन्वित सांस्कृतिक,ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पर गौर करें।
प्रश्न है कि एक संस्कृति के स्वप्न क्या हैं?
इस स्वप्न का निर्धारण बहुत हद तक उसकी स्मृतियां करती हैं। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि किसी शब्द में यदि संस्कृति का संकेत है तो स्मृति में उसकी छाया भी। इसलिये कोई भी भाषा, जब तक वह है, कभी मरती नहीं है। यदि हमारे अतीत का सब कुछ मर मिट जाय तब भी भाषा बची रहती है। जिसके द्वारा एक समाज के सदस्य आपस में संवाद कर पाते हैं। वर्तमान में रहते हुए भी अवचेतन रूप में वे अतीत से जुड़े रहते हैं। इस अर्थ में भाषा का दोहरा चरित्र होता है। वह सम्प्रेषण का माध्यम होने के साथ- साथ संस्कृति का वाहक भी होती है।
भारत के संदर्भ में इस सत्य को केवल दो दार्शनिक - भाषाविदों ने समझा, वे थे हीगल और मैक्समूलर।
हीगल ने जहां एक तरफ भारतीय सभ्यता के स्वर्ण युग को दबे खंडहर की संज्ञा देकर वर्तमान को खारिज कर दिया था, वहीं मैक्समूलर ने भारत को सांस्कृतिक रूप से जोडऩे वाली भाषा संस्कृत को समाप्त करने की साजिश की।

मैक्समूलर का मानना था कि जब तक संस्कृत जीवित रहेगी तब तक भारतीय अस्मिता बची रहेगी। मैक्समूलर की कोशिशें कारगर हो जातीं लेकिन 19 सदी के ही आखिरी दौर में इसी लुप्त होती सांस्कृतिक अस्मिता ने राष्ट्रीय चेतना को प्रस्फुटित कर दिया। उन्होंने संस्कृत से उद्भूत हिंदी को संवाद का माध्यम के रूप में गढ़ दिया और हिंदुस्तान को जागृत कर दिया। संस्कृत के भीतर जातीय स्मृतियों की एक ऐसी विपुल सम्पदा सुरक्षित थी, जो एक संजीवनी शक्ति की धारा की तरह अतीत से बहकर वर्तमान की चेतना को आप्लावित करती थी। राष्ट्रीयता के बीज इसी चेतना में निहित थे।

मैकॉले ने भी इसकी चेतावनी दी थी। जिस वैचारिक स्वराज की बात के सी भट्टाचार्य ने उठायी थी, उसका गहरा सम्बंध एक जाति की भाषाई अस्मिता से था। जिसे हम संस्कृति का सत्य कहते हैं, वह कुछ नहीं, शब्दों में अंतर्निहित अर्थों की संयोजित व्यवस्था है। जिसे हम यथार्थ कहते हैं, वह इन्हीं अर्थों की खिड़की देखा गया बाह्य जगत है।
भारतीय राष्ट्रीय चेतना यदि आरंभ से ही आत्मकेंद्रित संकीर्णता से मुक्त रही तो इसका कारण यह था कि वह आरोपित नहीं की गयी थी। इसके संस्कार पहले से ही सांस्कृतिक परम्परा में मौजूद थे। भारत की विभिन्न बोलियों और भाषाओं में भिन्नता होने के बावजूद एकसूत्रता के तत्व मौजूद थे, जिसके रहते भारत के राष्ट्रीय एकीकरण में कभी भी बाधा नहीं उपस्थित हुई। उनका घर एक ही था, खिड़कियां कई थीं।
हिंदी में इन खिड़कियों के अंतर्संबंधों को परखने तथा कायम रखने की क्षमता है। इसीलिये हिंदी हिंदुस्तान की अस्मिता है।

हिंदी है तो हिंदुस्तान रहेगा। इसके बगैर एक विखंडित संस्कृति के सिवा कुछ नहीं बचेगा।
यहां हम फिर मूल प्रश्न पर आते हैं।
राष्ट्रभाषा क्या है ?
दरअसल सरकारी संरक्षण किसी भी भाषा को राष्ट्रीयता की ऊंचाई तक नहीं ले जा सकता है।
केवल पारस्परिक संवाद और अस्मिता के प्रति जागरूकता ही उसे राष्ट्रीयता के स्तर तक पहुंचा सकती है और हिंदी उस स्तर पर पहुंच चुकी है।

Friday, September 10, 2010

नफरत का यह कारोबार बंद होना चाहिये


9/11 की घटना के तुरत बाद..द इकॉनमिस्ट.. ने अपने मुखपृष्ठ पर लिखा था.. वह दिन, जबसे दुनिया बदल गयी।..इसका मतलब वह नहीं था कि इस दिन अमरीका और यूरोप के हवाई अड्डों में भगदड़ के बाद लाखों जूते वहां से हटाये गये और वर्ल्ड ट्रेड सेंटर से सैकड़ों लाशें हटायी गयीं। उस दिन के नौ बरस बाद आज फिर गुस्से की खाक में दबी चिंगारियों में से शोले भड़कने लगे हैं। पुस्तकों को जलाना बेहद कुत्सित कार्य है।
19 सदी में जर्मन कवि हेनेरिक हाइन ने लिखा था...जो लोग किताबें जलाते हैं,वे बाद में मनुष्यों को भी जलाने लगते हैं।... इसका सबसे बड़ा उदाहरण था सन् 1933 में नाजियों द्वारा अंतिम समाधान के रूप में यहूदियों के शास्त्रों को जलाया जाना।
फ्लोरिडा के एक छोटे से चर्च के पादरी टेरी जोन्स ने संभवत: इतिहास और अफगानिस्तान में अमरीकी सेना के प्रधान सेनापति जनरल डेविड पेट्रियस की चेतावनी को मान कर 9/11 की घटना की बरसी के दिन कुरान जलाने का अपना फैसला रद्द दिया। उत्तर पश्चिमी गेन्सविले में पवित्र ग्रंथ को चलाये जाने की तस्वीरें जेहादियों की भर्ती का जबरदस्त उत्प्रेरक बन गयीं।
क्या बात है कि आज वर्ल्ड ट्रेड सेंटर स्थल (ग्राउंड जीरो)के समीप मस्जिद और इस्लामी केंद्र बनाने के मसले पर अमरीकी समाज में तीखे मतभेद हैं और अपने बीच मुस्लिमों की बढ़ती तादाद पर यूरोपवासी गुस्से में हैं? यह बड़ा ही संवेदनशील समय है। केवल असहिष्णुता की एक चिंगारी इस गुस्से को बदले की आग में बदल सकती है।
एशिया के इस सुदूर हिस्से में भी बेठ कर महसूस किया जा सकता है कि यूरोप की फिजां में जहर घुली हुई है। जिसके सबूत हैं..जर्मनी डज अवे विद इटसेल्फ.. जैसी किताबों का बेस्ट सेलर होना,डच मानवाधिकारवादियों की बढ़ती राजनीतिक हैसियत, यूरोपीय यूनियन में तुर्की को सदस्यता मिलने की तरफदारी करने वालों की घटती ताकत,स्विट्जरलैंड में मीनारों पर और फ्रांस में बुर्के पर पाबंदियों से सामाजिक रोष का आकलन किया जा सकता है ।
9/11 के हमले ने अमरीका की छवि को नेस्तनाबूद कर दिया। दो युद्धों ने, जिनमें से एक तो अमरीका के इतिहास का सबसे बड़ा और भयानक है, उसकी पीड़ा को और गंभीर बना दिया।

ग्राउंड जीरो के समीप मस्जिद महान अमरीकी सिद्धांतों के अनुरूप है पर यह व्यवहारिक रूप में सद्विचार नहीं है। क्योंकि इससे गुस्से को हवा मिलती है। पर ग्राउंड जीरो दूर भारत में इस घटनाक्रम को वेटिकन अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहा है।
चर्च संगठनों की कोशिश है कि इन घटनाओं को भारत में ज्यादा प्रचार न मिले ताकि यहां मुस्लिम - ईसाई एकता पर फर्क न पड़े। अगर ऐसा होता है तो ईसाई संगठनों के बड़े दुश्मन हिन्दुओं को इसका फायदा मिल सकता है और हिन्दू - मुसलमानों के बीच दूरियां कम हो सकती है जिसका सीधा नुकसान मिशनरियों को होगा।
भारतीय मुस्लिम समाज में बेचैनी लगातार बढ़ रही है। मुस्लिम समाज के नेताओं ने सरकार से मांग की है कि वह फ्लोरिडा चर्च के फैसले के विरुद्ध अमरीकी राष्ट्रपति से बात करें।

विश्व भर में फैले मुस्लिम समाज का एक बड़ा हिस्सा भारत में है और इस्लाम के प्रति होने वाले किसी भी घटनाक्रम से यह वर्ग अपने को अलग नही रख सकता। भारत में 20 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम आबादी है। अगर अमरीकी प्रशासन ईसाईयत के नाम पर नफरत का कारोबार चलाने वालों पर नकेल नहीं कसता तो उसका असर भारत में भी दिखाई देगा। अपने देश में अमन कायम रहे इसके लिए सरकार को प्रयास करने होगे।
पिछले दिनों कैथोलिक क्रिश्चियन सेक्यूलर फोरम ने एक अपील जारी कर मुस्लिम समाज को समझाने वाले तरीके से बताया है कि भारत में ईसाई और मुस्लिम दोनों अल्पसंख्यक हैं और यहां वह विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना कर रहे हैं और यहां उनका साझा दुश्मन कट्टरपंथी हिन्दू संगठन है। इस कारण उन्हें यहां अपनी एकता हर हालत में बनाये रखनी चाहिए ताकि उनके दुश्मन उनकी फूट का लाभ न उठा पायें। यानी शांति के नाम पर भी नफरत का कारोबार जारी है। चर्च की यह सोच भविष्य के भारत और उसकी योजना की एक झांकी प्रस्तुत करती है।

Wednesday, September 8, 2010

गतिरोध में फंसी संप्रग सरकार

किसी भी सरकार की क्षमता की परीक्षा संकट से जूझने की उसकी कोशिशों में झलकती है। लेकिन यूपीए सरकार की कोशिशों में असमंजस ज्यादा है आत्मविश्वास कम। सोमवार को प्रधानमंत्री ने कह दिया कि देश में 37 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं और उन्हें मुफ्त अनाज नहीं दिया जा सकता है।

मंगलवार को मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने बड़े स्कूलों से कहा है कि वे गरीब बच्चों को मुफ्त पढ़ाएं। यदि वे स्कूल अपने कुल दाखिले में 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को नहीं रखते हैं तो उन्हें बंद कर दिया जायेगा। अपने पहले कार्यकाल में इसने अपनी कई महत्वाकांक्षी योजनाओं से जनता का विश्वास जीता था। उसे जनता ने इस भरोसे के साथ दूसरी बार सत्ता सौंपी कि वह इन योजनाओं को अमल में लाएगी। लेकिन जल्दी ही साफ हो गया कि ऊपरी तौर पर मजबूत दिखने वाली सरकार अंदर से बिखरी और बंटी हुई है।
कांग्रेस और सरकार में, कांग्रेस और घटक दलों में और खुद मंत्रियों के भीतर ही आपसी संवाद और तालमेल का घोर अभाव नजर आता है। शीर्ष नेतृत्व की लाचारी भी साफ झलक रही है। अपने पहले कार्यकाल में न्यूक्लियर बिल के पक्ष में डटकर खड़े रहने वाले प्रधानमंत्री महंगाई या दूसरे सवालों पर अपनी ओर से पहल करते नहीं दिख रहे हैं। उन्होंने ज्यादातर चुप रहना बेहतर समझा और जब बोले तो उसमें बेरुखी ही ज्यादा थी। कई बार मधुर संवादों से काम बन जाता है और कुछ प्रतीकात्मक कदमों से भी जनता का आक्रोश ठंडा हो जाता है। लेकिन सरकार इसके लिए भी तैयार नहीं दिखती।

संसद में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने महंगाई की सप्रसंग व्याख्या जरूर की पर यह नहीं बताया कि क्या सरकार के पास इसकी जकडऩ से निकलने का कोई रास्ता भी है। जनता अर्थशास्त्र के सूत्रों को नहीं समझना चाहती। उसे सिर्फ कारण गिना कर शांत नहीं किया जा सकता। उसे तो ठोस उपाय की दरकार है।
दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में जब कांग्रेस ने अपने मंत्रियों को सादगी से रहने की हिदायत दी थी तो लगा था कि पार्टी एक नयी राजनीतिक संस्कृति की शुरुआत करना चाहती है, जिसकी झलक सरकारी नीतियों में भी मिलेगी। पर सब ढाक के तीन पात साबित हुआ। पहले तो बीच-बीच में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी सामने आकर कुछ न कुछ आश्वासन देती थीं। लगता था कि सरकार को 'मॉनिटर करने वाली एक सत्ता है, जहां जनता की शिकायतों की सुनवाई संभव है। पर पिछले कुछ महीनों से वह भी सुस्त पड़ गई लगती हैं। सरकार अपनी भाषा और कामकाज के तौर-तरीकों में नौकरशाह दिखती है। समस्याओं को सुलझाने को लेकर इसका ठंडापन किसी एनजीओ जैसा है। अगर यह अपने चरित्र में राजनीतिक होती और राजनीतिक हल पर भरोसा करती तो आज कश्मीर की यह हालत न होती। केंद्र सरकार ने शुरू में बस अपनी इतनी ही जिम्मेदारी समझी कि कुछ और सुरक्षा बल भेज दिए। वह सब कुछ उमर अब्दुल्ला के हवाले छोड़ कर निश्चिंत बैठी रही। जबकि कश्मीर के ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषक और बुद्धिजीवी मानते हैं कि समस्या मुख्यमंत्री के अपरिपक्व रवैये के कारण इतनी गंभीर हुई है।

अब जाकर गृह मंत्री चिदंबरम राज्य की जनता का दिल जीतने और राजनीतिक वार्ता की बात कर रहे हैं। यह तत्परता शुरू में क्यों नहीं दिखायी गयी। नक्सलवाद से निपटने को लेकर भी कमोबेश यही हाल है। चिदंबरम ने शुरू में जोश दिखाया और यह मानकर चले कि सख्ती से ही इस संकट का समाधान संभव है। सुरक्षा बलों की कार्रवाइयां तेज करने का असर यही हुआ कि माओवादी पहले से ज्यादा आक्रामक हो गए। चिदंबरम अपने तरीके को लेकर कुछ ज्यादा ही आश्वस्त थे। वह इस संबंध में राज्य सरकारों की बात तक सुनने को तैयार नहीं थे। उनके तौर-तरीकों पर उन्हीं की पार्टी के नेता दिग्विजय सिंह ने सवाल उठाया। इससे साफ हो गया कि कांग्रेस में ही इस मसले पर मतभेद है। पहले तो दिग्विजय को चुप कराया गया लेकिन फिर पार्टी घुमा-फिराकर उन्हीं की भाषा बोलने लगी और चिदंबरम शांत हो गए।

अभी समझ में नहीं रहा कि संप्रग सरकार का माओवाद के खिलाफ असल स्टैंड क्या है। जिस तरह आए दिन सुरक्षाकर्मी मारे जा रहे हैं, उससे सरकारी अभियानों पर प्रश्नचिह्न लग गया है और सरकार की भारी किरकिरी हो रही है। पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने चीन में जाकर गृह मंत्रालय की खिंचाई कर दी तो भूतल परिवहन मंत्री कमलनाथ ने जयराम रमेश को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। कमलनाथ ने योजना आयोग पर भी हमले किए जिसका कड़ा प्रतिवाद उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने किया। रही-सही कसर पूर्व केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर ने पूरी कर दी है। उन्होंने कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन के औचित्य पर ही सवाल उठा दिया। कांग्रेस आलाकमान के सामने निश्चय ही एक बड़ी चुनौती है। उसे सरकार को वर्तमान गतिरोध से बाहर निकालना होगा।

Tuesday, September 7, 2010

बंद से क्या महंगाई घटेगी ?


महंगाई के मसले पर मंगलवार (सात सितंबर) को वामपंथी श्रमिक संगठनों के आह्वान पर देश भर में कारोबार बंद रहा। आम हड़ताल रही। महंगाई का निरंतर बढऩा गरीब और विकासशील देशों के लिए उस दु:स्वप्न की तरह होता है जिससे पीछा छुड़ाने के सारे प्रयास व्यर्थ साबित होते है। कभी मंदी की वजह से महंगाई तो फिर कभी तेजी की वजह से कीमतों में वृद्धि। चारों तरफ महंगाई पर बहस हो रही है। मगर इससे जुड़े दो सवालों का जवाब ढूंढना जरूरी है। पहला, महंगाई क्यों बढ़ रही है?
दूसरा, यह इतने लंबे समय तक कैसे बनी हुई है ?
ये सवाल शायद सामान्य लगें, लेकिन इनमें यूपीए सरकार और बाजार के भविष्य का अजेंडा छिपा है। इनमें पहले सवाल का सीधा सा जवाब दिया जा सकता है कि महंगाई इसलिए बढ़ रही है क्योंकि वस्तुओं की मांग और आपूर्ति के बीच अंतर बढ़ रहा है। उत्पादन कम होने से मांग पूरी नहीं हो पा रही है। ऐसे में कीमतें तो बढ़ेंगी। मांग-आपूर्ति से आगे बेशक, कीमतें बढऩे के पीछे मांग में तेजी का प्रमुख हाथ होता है। मगर मांग और आपूर्ति के बीच अंतर 10 पर्सेंट का हो और कीमतें 100 पर्सेंट बढ़ जाएं तो इसे क्या कहा जाएगा?
दूसरे सवाल का जवाब भी इस तरह दिया जा सकता है कि मार्केट में वस्तुओं की किल्लत को लेकर मनोवैज्ञानिक दबाव है, इसके चलते कीमतें बढ़ रही हैं या बढ़ाई जा रही हैं। सवाल यह उठता है कि फिर सरकार की भूमिका क्या है ? महंगाई नियंत्रित करने के लिए सही समय पर कारगर क्यों नहीं कदम उठाए जाते?

सांप निकलने के बाद लाठी क्यों पटकी जा रही है ? यूपीए सरकार में इस वक्त अर्थशास्त्रियों की जो फौज बैठी है, उसके सामने आर्थिक क्षेत्र में कई बड़ी चुनौतियां हैं। इनमें प्रमुख हैं, बढ़ती आबादी, गरीबी, बेरोजगारी, गांवों में इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी, ग्रामीणों का शहरों की तरफ पलायन और भ्रष्टाचार। इसके अलावा कुछ तकनीकी चुनौतियां भी हैं। जैसे आर्थिक विकास दर को बढ़ाना, कृषि से लेकर खुदरा तक सभी क्षेत्रों में निवेश बढ़ाना। मार्केट को इतना विस्तार देना कि प्राइवेट सेक्टर फले-फूले और नौकरियों की तादाद बढ़े।
अगर महंगाई पर तत्काल प्रभाव से अवरोध नहीं लगाया गया तो अर्थव्यवस्था को गंभीर नतीजे भुगतने होंगे। इससे एक खराब चक्र को बल मिलेगा। मजदूरी और लागत में वृद्धि एक बार फिर कीमतों में बढ़ोतरी कर देगी। इससे जरूरी वस्तुओं की कीमतों में और वृद्धि होगी। इस कुचक्र से अर्थव्यवस्था से जुड़ी कई चीजों को धक्का लग सकता है। यहां तक कि राजनीतिक अस्थिरता का कारण भी बन सकती है महंगाई, आत्मसंतोष की प्रवृत्ति एक घने जाल की तरह है। यह विकास के रास्तों को वापस मोड़कर उलटी यात्रा शुरू करा सकती है। बिना जरूरी उपाय किए उम्मीदें पालते रहना अप्रत्याशित नतीजों का कारण बन सकता है।
वर्तमान में खाद्य महंगाई दर 17 फीसदी के स्तर पर पहुंच चुकी है। भारतीय लोकतंत्र के लिए महंगाई की ऊंची दर असहनीय हो रही है। सरकार का इस मामले में खास तव्वजो न देना जता रहा है कि महंगाई के दर्द से कराह रहे राष्ट्र का दर्द पूरी शिद्दत से महसूस नहीं किया जा रहा है।
अर्थव्यवस्था में आया कोई भी नकारात्मक परिणाम लंबे समय तक पूरे देश को पीड़ा का अनुभव कराने के लिए काफी होगा।

भ्रष्टाचार, गरीबी और रीयल इकॉनमी

कामनवेल्थ गेम्स में भ्रष्टाचार की लगातार खबरें मिल रहीं हैं, लेकिन उसके जिम्मेदार लोग बड़े इत्मीनान से टहल रहे हैं। यह हमारे सिस्टम की सबसे बड़ी नाकामी है कि गलत काम करने वालों के मन में किसी तरह का खौफ नहीं है। अगर आप गरीब आदमी हैं और आपने कोई छोटा-मोटा जुर्म किया है, तो आपको तुरंत सजा मिल जाएगी, लेकिन अगर आप रसूखदार हैं और आपने अरबों रुपये का हेरफेर किया है, तो आपके खिलाफ जांच बैठ जाएगी। इससे भी दुख का विषय है कि प्रधानमंत्री जो अर्थशास्त्री भी हैं, ने सोमवार ( छह सितंबर) को फरमाया कि देश में 37 प्रतिशत गरीब (भुक्खड़) हैं उन्हें सरकार मुफ्त नहीं खिला सकती। एक तरफ तो यह हाल है और दूसरी ओर घोटालों पर घोटाला करें, अरबों डकार जाएं और अगर आप सरकारी कर्मचारी हैं, तो आपको सस्पेंड करके आपके खिलाफ जांच बैठा दी जाएगी। थोड़े वक्त बाद जांच में अपने रसूख का इस्तेमाल करके रसूखदार व्यक्ति निर्दोष साबित हो जाता है, जबकि सरकारी कर्मचारी दोबारा बहाल कर दिया जाता है। हजारों में से एक केस में अगर किसी की नौकरी भी चली जाए, तो भी वह घपलों-घोटालों से इतना पैसा कमा चुका होता है कि उसे उस नौकरी की कोई जरूरत नहीं रह जाती। जनहित में मुकदमा वापस लेने का भी प्रावधान किया गया है, जिसका इस्तेमाल बाकायदा रसूखदारों और राजनेताओं को फायदा पहुंचाने के लिए किया जाता है। यह छोटा सा आख्यान केवल यहां इसलिये कहा गया कि पैसा सबसे ताकतवर है।
पैसा ही पावर है लेकिन पैसे को लेकर कुछ मिथक भी हैं। जहां पावर आती है, वहां किस्से भी बनते हैं। लिहाजा एक पापुलर इकनामिक्स ने असली अर्थशास्त्र की जगह ले रखी है और यह इतना पावरफुल है कि समाज के कई फैसलों पर असर डालता है। तो पैसे से जुड़ा सबसे बड़ा मिथक यह है कि जब किसी समाज में कुछ लोग बहुत अमीर होने लगते हैं, तो गैरबराबरी में इजाफा होता है।

इन दिनों दुनिया के सबसे नामी अमीर वॉरेन बफेट और बिल गेट्स ने एक मुहिम शुरू की है, जिसके तहत अमरीका के सबसे अमीर लोगों से कहा गया कि वे अपनी दौलत का आधा हिस्सा जरूरतमंदों की भलाई के लिए दान कर दें। इन अमीरों के पास बेहिसाब दौलत है। जिन कंपनियों को वे चलाते हैं, उनका कारोबार कई देशों की जीडीपी से ज्यादा बैठता है। इनके दान का जो आंकड़ा बनेगा, वह जल्द ही किसी भी इंटरनेशनल एजेंसी को पीछे छोड़ देगा। अमरीका के बाद बफेट और गेट्स इस मुहिम को सारी दुनिया में फैला रहे हैं। उन्होंने चीन के चुनिंदा 50 अरबपतियों को 29 सितम्बर की रात के खाने पर बुलाया है लेकिन खबर है कि उनमें कम ही लोगों ने इस आमंत्रण को स्वीकार किया है। बहुत से लोगों का रिएक्शन इस पर यह रहा है कि ये लोग कोई तीर नहीं मार रहे, पब्लिक का पैसा पब्लिक को ही लौटा रहे हैं।

देश का बड़े से बड़ा उद्योगपति पब्लिक के पैसे से अरबपति बन जाता है। इनकी दौलत दरअसल देश या समाज की ही दौलत है, क्योंकि जब कोई शख्स पैसा बनाने लगता है, तो वह समाज की कुल दौलत में में अपना हिस्सा बढ़ा लेता है, जबकि दूसरों का घट जाता है। इस बात का रोना तो मीडिया में भी अक्सर रोया जाता है कि देश की कुल दौलत का 80-90 फीसदी हिस्सा 10-20 फीसदी अमीरों के पास है, जबकि बाकी 10-20 फीसदी दौलत 80-90 फीसदी आबादी को मयस्सर हुई है।
रीयल इकनामिक्स में दौलत कोई स्थिर चीज नहीं है। वह उद्यम, पूंजी, जोखिम, श्रम और कच्चे माल से पैदा होती है और लगातार बढ़ती रहती है। लिहाजा ऐसा नहीं है कि जब कोई शख्स अपनी उद्यमिता से दौलतमंद होने लगता है, तो वह दूसरों की दौलत छीनता है। वह नयी दौलत पैदा करता है। इससे गैरबराबरी दिखने लगती है, क्योंकि जो लोग इस तरक्की में शामिल नहीं हुए हैं, वे इनकम के दूसरे छोर को पुराने लेवल पर ही रोके रखते हैं। लेकिन इससे यह नतीजा नहीं निकाला जाना चाहिए कि गैरबराबरी दूर करने के लिए पहले छोर पर इनकम में बढ़ोतरी को रोक दिया जाए। जो लोग ये मानते थे कि बराबरी लाने के लिए अमीरों की दौलत छीनकर सभी को बराबर बांट दी जाए, उन्हें हिस्ट्री ने ठिकाने लगा दिया है। इसलिए हमें उन लिस्टों का स्वागत करना चाहिए, जो देश में बढ़ते दौलतमंदों का हिसाब देती हैं।
अगर देश की 90 फीसदी दौलत 10 प्रतिशत लोगों के हाथ में है, तो इसका मतलब ये है कि हमारे लोगों ने जबर्दस्त दौलत पैदा की है, उन्होंने उद्यमिता के रेकॉर्ड कायम कर लिए हैं। और अगर चंद लोग इतने कामयाब हो सकते हैं, तो बाकी 90 फीसदी की जरा सी भी मेहनत कमाल दिखा सकती है।
दौलत पैदा होने से गैरबराबरी नहीं आती। गैरबराबरी इसलिए है कि ज्यादातर आबादी को दौलत पैदा करने का मौका नहीं मिल रहा। या फिर गैरबराबरी बढ़ती है ऐसी कमाई से जिस पर मेहनत नहीं लगती। ट्रेड और कामर्स में ऐसा तबका होता है, जो मुनाफाखोरी करता है, लेकिन उसकी मुनाफाखोरी आमतौर पर उतनी बुरी नहीं होती, जितनी सिस्टम को चलाने वालों की मुनाफाखोरी, जिसे हम करप्शन या भ्रष्टाचार का नाम देते हैं।
रीयल इकनामिक्स में भी भ्रष्टाचार का सिलसिला आखिर में वहां रुक जाएगा, जहां भ्रष्टाचार के चांस ही नहीं होंगे, यानी सबसे गरीब पर। हर भ्रष्टाचार की मार उसे झेलनी पड़ेगी, लेकिन ऊपर के तबके भी अपनी करनी से अछूते नहीं रहेंगे। उन्हें खराब सर्विस, ज्यादा टैक्स, ज्यादा खर्च, क्राइम और अदालती देरी के तौर पर इसकी कीमत अदा करनी होगी। भ्रष्टाचार के बारे में एक मजेदार मान्यता यह भी है कि बेईमान का पैसा देश के काम ही आता है। दौलत काली हो या सफेद, अगर वह उपभोग में लगती है, तो अर्थव्यवस्था को आगे ले जाती है, लेकिन भ्रष्टाचार की दौलत अक्सर दुबकी रह जाती है। और अगर वह चलन में आती है और किसी तरह नए रोजगार पैदा करती है, तो भी उसकी कीमत बाकी समाज उन तकलीफों के तौर पर भुगत चुका होता है, जिनका जिक्र अभी मैंने किया। कुल मिलाकर यह हारा हुआ खेल है।
दिक्कत यह है कि अमीरों की दौलत को लेकर जितनी मिर्च हमें लगती है, उतनी भ्रष्टाचार को लेकर नहीं। पापुलर इकनामिक्स इस तरह बेईमानों के पक्ष में काम करने लगता है और उन लोगों को विलेन बना देता है, जो वाकई देश को आगे ले जा रहे हैं। यह एक गरीब देश की कुदरती नफरत की वजह से हो सकता है या फिर लेफ्टिस्ट खयालों का असर, जिन्हें पालिटिकल अखाड़े में तो सपोर्ट नहीं मिल सका, लेकिन पापुलर आइडियालाजी में किसी तरह हिट हो गए। इक्कीसवीं सदी में सबसे तेज रफ्तार देश बनने जा रहे भारत को इस पापुलर इकनामिक्स से पल्ला झाड़ लेना चाहिए।

Wednesday, September 1, 2010

ड्रैगन की गुस्ताखियां और भारत की नीतियां

चीन ने भारतीय सेना के उत्तरी कमान के प्रमुख ले. जनरल जसवाल को विजा देने से इनकार कर दिया। भारतीय अखबारों में इसकी चर्चा जम कर हुई। चर्चा में इतनी ज्यादा आलोचना थी कि हो सकता है राजनयिक लीपापोती के लिये विदेश मंत्रालय में...श्वेत कपोतों... का गिरोह शांति की कोशिशों में लग जाय। घटना के बाद चीनी मीडिया ने अपनी कई दिनों की चुप्पी के बाद सोमवार को कहा कि ऐसी बातों और घटनाओं से भारत- चीन समरनीतिक सम्बंधों पर कोई आंच नहीं आयेगी।
चाइना इंस्टीट्यूट ऑव इंटरनेशनल स्टडीज के उपमहानिदेशक रांग टांग को चीनी अखबारों ने यह कहते हुए उद्धृत किया है कि भारत-चीनी सम्बंध और गठबंधन अति सशक्त है। चीनी शासन इतना ज्यादा अपारदर्शी है कि यह जानना कठिन है कि यह काम किसका होगा।
वैसे नयी दिल्ली में चीनी दूत ने इसके प्रति अनभिज्ञता जाहिर की। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यह काम यकीनन पी एल ए का होगा। सवाल यह उठता है कि भारतीय जनरल को विजा न देने के पीछे चीन का सोच क्या है ? क्या वह किसी रणनीति के तहत भारत के साथ इस तरह पेश आ रहा है? इसे कभी भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
आखिर चीन का रुख अचानक इतना कड़ा क्यों हो गया है ? क्या इसलिए कि जम्मू-कश्मीर के अक्साई चिन इलाके पर उसने अनधिकृत कब्जा जमा रखा है? इसके अलावा 1963 में 5000 वर्ग मील वाली शक्सगाम घाटी के जिस इलाके को चीन ने पाकिस्तान से हड़प लिया था, वह भी जम्मू-कश्मीर का ही हिस्सा है। इसलिए जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानने पर उसे अक्साई चिन और शक्सगाम घाटी को भी भारत का मानना होगा। लेकिन यदि चीन जम्मू-कश्मीर को विवादित इलाका मानता है तो वह पाक अधिकृत कश्मीर में बड़ी परियोजनाएं क्यों लागू कर रहा है ?
चार साल पहले चीन ने जब सिक्किम को भारत का अंग मान लिया था तो भारत में यह उम्मीद की जाने लगी थी कि दोनों देशों के रिश्तों को वह सकारात्मक दिशा में ले जाना चाहता है। अब केवल एक बड़ा मसला सीमा का बचा है जिसके बारे में भी चीनी राष्ट्रपति ने 2006 के दौरे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ एक साझा सैद्धांतिक फॉर्मूला दिया कि दोनों देश सीमा मसले के हल के दौरान यह देखेंगे कि एक -दूसरे की बसी हुई आबादी के हितों के अनुरूप ही कोई सहमति विकसित की जाए।
भारत में करीब दो लाख तिब्बती रह रहे हैं और भारत यही चाहता है कि वे तिब्बत लौट जाएं। लेकिन चीन ने भारतीय सैन्य कमांडर को अपने यहां इसलिए नहीं जाने दिया कि वह एक कथित विवादित इलाके की रक्षा के लिए तैनात थे, वह जम्मू -कश्मीर पर भारत की संप्रभुता पर ही चोट करता है। भारत में यह माना गया कि चूंकि अरुणाचल प्रदेश में रहने वाले लोग भारत से अपना जुड़ाव महसूस करते हैं इसलिए चीन अप्रत्यक्ष ढंग से इस पर अपना दावा छोड़ रहा है। लेकिन सीमा मसले के हल के लिए तय इन राजनीतिक सिद्धांतों का चीन ने अचानक तोड़मरोड़ कर विश्लेषण करना शुरू किया और इसके बाद से ही चीनी सेना ने अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अक्सर अतिक्रमण और घुसपैठ की वारदातें शुरू कर दीं।
भारत की ओर से चीन की घुसपैठ को यह कहकर अनदेखा किया जा रहा है कि सीमा का स्पष्ट निर्धारण न होने से दोनों देशों के सैनिकों को पता नहीं चलता कि सीमा कहां खत्म हो रही है और वे एक-दूसरे के इलाकों में गलती से चले जाते हैं। हाल में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के मुद्दे पर भी उसने भारत के खिलाफ पर्दे के पीछे से राजनीति की है। पाकिस्तान के साथ परमाणु सहयोग का समझौता उसने अंतरराष्ट्रीय परमाणु संधियों और व्यवस्थाओं को नजरंदाज करते हुए किया है। चीन के इस रुख के मद्देनजर भारत को उसके साथ अपने भविष्य के रिश्ते तय करने की नयी रणनीति बनानी होगी।
भारतीय कूटनीतिज्ञों के लिए यह काम आने वाले सालों में सबसे बड़ी चुनौती साबित होगा।