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Tuesday, January 4, 2011

किसानों की आत्महत्याओं के निहितार्थ


साल का अंत हो गया, पूरा दशक इतिहास के गर्भ में समा गया और शुरू हो गया नया साल। यों तो 25 दिसम्बर क्रिसमस से ही जश्न का माहौल कायम रहा। इसी बीच एक ऐसी खबर आयी कि मन उदासी से भर गया।
केंद्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो के मुताबिक हर साल हजारों किसान आत्महत्या कर लेते हैं। अगर किसानों की आत्महत्या को किसानों की स्थिति का पैमाना माना जाए तो सन् 2009 में किसानों के हालात बदतर हुए हैं। सन् 2009 में देश में 17368 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं।
किसानों के हालात बुरे हुए हैं, इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि किसानों की आत्महत्या की ये घटनाएँ, सन् 2008 के मुकाबले 1172 ज्यादा हैं। इससे पहले सन् 2008 में 16196 किसानों ने आत्महत्याएं की थीं।
जिन राज्यों में किसानों की स्थिति सबसे ज़्यादा खराब है उनमें महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ सबसे आगे हैं।
इसके बाद कर्नाटक में सबसे ज़्यादा 2282 किसानों ने आत्महत्याएँ कीं। केन्द्र शासित प्रदेशों में पांडिचेरी में सबसे ज्यादा 154 किसानों ने आत्महत्या की। पश्चिम बंगाल में 1054, राजस्थान में 851, उत्तर प्रदेश में 656, गुजरात में 588 और हरियाणा में 230 किसानों ने आत्महत्याएं की। अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आकंडों के अनुसार बीते दशक में भारत में 2 लाख 16 हजार 500 किसान आत्महत्या कर चुके हैं।
इन आंकड़ों को मानना ही पड़ेगा क्योंकि गरीबी और अनिश्चितता के कारण किसानों ने आत्महत्याएं कीं। सरकार आंकड़ों में हेर-फेर करती ही है ताकि आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवारों को मुआवजा न देना पड़े। नेशनल क्राइम रिकॉड्र्स ब्यूरो का कहना है कि सन् 1999 से सन् 2005 के अंतराल में 1.5 लाख किसानों ने आत्महत्याएं कीं। सरकार मुआवजा न देने के सौ बहाने बनाती है। अगर जमीन बाप के नाम पर है और सारा काम बेटा करता है और भुखमरी के हालत में आत्महत्या कर लेता है तो सरकार उस किसान की आत्महत्या को गणना में नहीं लेती है क्योंकि खेती की भूमि उसके नाम न होकर उसके बूढ़े बाप के नाम है। फिर सरकार कहती है कि इस हालत में किसान के बेटे ने कर्ज से उत्पन्न समस्याओं के कारण आत्महत्या नहीं की। परिवार का बड़ा लड़का बाप के बूढ़े होने के कारण खेती का काम तो संभाल लेता है परंतु उसको विचार यह कभी नहीं आ सकता कि बाप के होते हुए भूमि अपने नाम करवा ले। सरकार के मंत्री किसानों की आत्महत्या को रोक नहीं पाये और न ही उनके पास प्रबल इच्छा और समय है। परंतु यह समस्या हर साल बढ़ती ही जा रही है। किसान आत्महत्या न करें इसके लिए उनको आमदनी के साधन बढ़ाने होंगे।

भारत इतना बड़ा देश है और साधन संपन्न होने के कारण किसानों को खुशहाल बनाना संभव है। परंतु कारगर नीतियां बनाने के लिए हमारे मंत्रियों को इस ओर ध्यान और समय देने की आवश्यकता है। नीतियां बदलने की इच्छा हुई तो किसानों को खेती के साथ-साथ आमदनी के दूसरे साधन जुटाने होंगे। कृषि प्रधान देश होने के नाते भारत के किसानों को दूध के उत्पादन से बहुत अधिक आमदनी हो सकती है। इसके लिए हमारे उद्योगपतियों को डेरी फॉर्मिंग में अधिक रुचि लेनी चाहिए। वह किसानों से दूध अधिक-से-अधिक और अच्छे दामों में खरीदें। इस समय की स्थिति यह है कि कई छोटे देश भी दूध और दूध से बनी वस्तुओं का निर्यात कर अपने किसानों की खुशहाली बढ़ा रहे हैं। और फिर हमारे देश में तो देशी गाय का दूध तो अमृत तुल्य माना जाता है। हमें चाहिए कि दूध और दूध से बनी वस्तुओं का आयात करनेवाले देशों को ठीक-ठीक बताएं कि वास्तव में दूध तो देशी गाय का पौष्टिकता के साथ-साथ शरीर के किसी प्रकार के रोग को पास फटकने नहीं देता और बुद्धिवर्धक तथा सर्वांगीण विकास में भी मदद करता है। इस समय न्यूजीलैंड के दूध और उससे बनी वस्तुओं का निर्यात 86 खरब डॉलर का है। खेद है कि भारत में उल्टी गंगा बहती है। जिस देश में कभी दूध की नदियां बहती थीं और आज भी बह सकती हैं, अगर नीतियों में बदलाव किया जाए और मंत्रियों को कहा जाए कि हम राजनीति न करके ऐसी नीतियां बनाएं जिससे किसानों को लाभ हो। आज की परिस्थिति में किसान को गरीबी से निकालने के लिए उद्योगपतियों को डेरी फार्मिंग के काम में जाना चाहिए। भारत सरकार को हमारे उद्योगपतियों की मीटिंग बुलानी चाहिए जिसमें उद्योगपतियों को ऐसा सुझाव दिया जाए कि वे डेरी फार्मिंग के धंधे में सक्रिय भाग लें ताकि किसान दूध को बेचकर अपनी आमदनी बढ़ाएं और उनको आत्महत्या का सहारा न लेना पड़े।

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