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Saturday, April 2, 2011

एक खतरनाक संकेत



हरिराम पाण्डेय
भारत सरकार ने देश में ताजा जनगणना की अंतिम रपट जारी कर दी है। उन आंकड़ों में कई सकारात्मक संकेत हैं जो हमारे देश के विकास और अच्छे भविष्य की ओर इशारा करते हैं। हमारे देश की आबादी बढ़ी है यानी मानव संसाधन में इजाफा हुआ है और पहले से ज्यादा पढ़े- लिखे लोगों की संख्या भी बढ़ी है यानी खुशहाली के नये रास्ते खुलने वाले हैं। बढ़ती आबादी बेशक कई मोर्चों पर थोड़ी समस्या बन सकती है पर यदि उसके साथ शिक्षा या हुनर का विकास होता है तो यह आबादी सकारात्मक फल भी देती है। लेकिन उन आंकड़ों में एक तथ्य खतरनाक संकेत कर रहा है और यदि इसे नहीं रोका गया तो उसके परिणाम अत्यंत त्रासद हो सकते हैं। यह तथ्य आबादी में खासकर 6 साल से छोटी उम्र के बच्चों में लड़कियों का घटता अनुपात। यह हमारे सामाजिक तथा सांस्थागत तौर पर विफलता एवं एक समाज के रूप में हमारे सोच के दिवालियेपन का सबूत है। यह अनुपात प्रति 1000 लड़कों पर 914 लड़कियों का है। यह आंकड़ा आजादी के बाद सबसे कम अनुपात का आंकड़ा है। हालांकि आबादी में लड़कियों का अनुपात तो 1961 से घट रहा है पर इस बार तो स्थिति खतरनाक स्तर पर पहुंच गयी है। 1991 में अनुपात प्रति 1000 लड़कों में 985 लड़कियों का था जो 2001 में घटकर 927 हो गया और इसबार यानी 2011 में यह 914 हो गया। यह खतरनाक इसलिये कहा जा रहा है कि विगत 10 वर्षों में कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिये काफी प्रयास किये गये हैं। लिंग निर्णय और लिंग चयन के विरुद्ध कड़े कानून बनाने हैं और लोगों में चेतना को बढ़ाने के लिये व्यापक प्रयास किये गये हैं। लेकिन आंकड़े बताते हैं कि ये सारे प्रयास फलदायक नहीं हो सके। सारी कोशिश व्यर्थ हो गयी। हिमाचल प्रदेश , गुजरात , तमिलनाडु, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, हरियाणा और पंजाब को छोड़ कर देश के सभी राज्यों और कानून शासित राज्यों में यह अनुपात गिरा है। हालांकि पंजाब और हरियाणा में अभी अनुपात बहुत असंतुलित है। इसका स्पष्टï अर्थ हे कि हमारी सरकार और समाज का कथित चैतन्य वर्ग यह संदेश फलदायक बनाने में असफल हो गया कि कन्या भ्रूण हत्या चाहे जिस विधि में हो या शिशु कन्या की मौत हत्या का अपराध है। शहरों , कस्बों और गांवों में गर्भस्थ शिशु के लिंग को जानने की जांच करने वाले क्लीनिक धड़ल्ले से चल रहे हैं और कानूनी प्रावधानों के बावजूद उनका कुछ नहीं हो पा रहा है। इस प्रवृत्ति को रोकने या उसे ह्रïासोन्मुख बनाने के लिये अदम्य सियासी इच्छाशक्ति की जरूरत है। कानून कुछ कर नहीं सका, हालांकि कानून एक खास किस्म की सामाजिक वर्जना का प्रतीक तो है ही। आबादी में बच्चियों का घटता अनुपात बच्चियों और भविष्य में महिलाओं के साथ गंभीर भेदभाव का सूचक है। इस स्थिति को परिवर्तित करने के लिये जरूरी है लोगों के सोच और प्रवृत्ति में परिवर्तन लाया जाय। इसके लिये कानूनी और सामाजिक स्तर पर आंदोलन की आवश्यकता है। अगर अभी नहीं चेता गया तो देवी पूजकों का यह देश मातृहंताओं की बदनाम भूमि में बदल जायेगा।