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Tuesday, October 25, 2011

तमसो मा ज्योतिर्गमय



हरिराम पाण्डेय
26 अक्टूबर 2011
आज दीपावली है, अंधेरे को दूर भगाने का त्योहार है। इस त्योहार का भारतीय लोकजीवन में विशेष आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व है। दीपावली की रात दीपक जलाकर हम अंधेरे पर उजाले की विजय का उत्सव मनाते हैं। अंधेरा असत्य, अन्याय या नकारात्मक पक्ष का सूचक है, वहीं उजाला सत्य, न्याय और सकारात्मक पक्ष का सूचक है। समाज में व्याप्त बुराइयों पर अच्छाई की विजय का प्रतीक भी है दीवाली। यह पर्व सुख और समृद्धि का प्रतीक भी है। इस पर्व का व्यक्तिगत जीवन में भी काफी महत्व है। इस दिन हम दीप जलाकर अन्याय, असत्य और अंधेरे को दूर भगाने के साथ ही मन के मलिन पक्ष को भी स्वयं से दूर करते हैं। उजाला हमारे अंदर सत्य, न्याय और अच्छे गुणों का समावेश करता है।
यहां एक बात उठती है कि अंधेरा यदि प्रकाश की अनुपस्थिति है, तो छाया अंधेरे और प्रकाश के बीच की एक ऐसी स्थिति है जो होकर भी नहीं है और न होकर भी है। यहां एक दर्शन है। अंधकार का अर्थ है एक काला आकार जो अंधेरे का समुद्र है। आंख बंद करते ही सब अंधेरा ही अंधेरा है। उसका कोई रूप - रंग नहीं होता लेकिन छाया ऐसी नहीं है। छाया का अर्थ प्रकाश तो है, किन्तु उसके मार्ग में कोई बाधा आ गयी है। उस बाधा की पृष्ठभूमि में प्रकाश उपस्थित रहता है। उसकी किरणें उस वस्तु को न भेद कर उसके इधर-उधर बिखर गयी हैं। उस वस्तु का बिम्ब ही छाया है। इस छाया को पहचानना बहुत ही कठिन है। यह तो बताया जा सकता है कि यह पेड़ की छाया है या किसी वस्तु की छाया है। पर यह बताना बड़ा कठिन है कि यह किस विशेष वृक्ष या वस्तु की वास्तविक छाया है। जब तक कि उस वस्तु को पहले न देखा हो। छाया विश्रामस्थल तो हो सकती है लेकिन वहां स्पष्टता नहीं हो सकती; क्योंकि वहां प्रकाश नहीं। जहां प्रकाश नहीं, वहां स्पष्टता भी नहीं होगी। बिना ज्ञान के चलना अंध मार्ग पर चलना है। इसीलिए ज्ञान प्राप्ति को ब्रह्म और मोक्ष का मार्ग व द्वार बताया गया है। प्रकाश के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है। प्रकाश का अवरोध ही छाया का निर्माण करता है लेकिन व्यक्ति की पृष्ठभूमि में प्रकाश की उपस्थिति छाया का निर्माण नहीं करती अपितु वह परछाई बनाती है। परछाई में छाया तो है, लेकिन वह 'परÓ अर्थात दूसरे की है। भला स्वयं उसकी छाया को दूसरे की छाया कैसे कहा जा सकता है?
हम जो कुछ भी कर रहे हैं, कह रहे हैं, वह सब दूसरों का ही तो है, सिवाय इस शरीर के, तो बात स्पष्ट है कि इस शरीर से जो कुछ भी हो रहा है, वह अपनी छाया न होके परछाई ही तो है। साथ ही यहां जिस प्रकाश की बात कही गयी है, वह प्रकाश स्व-बोध का प्रकाश है, यह स्व को जानने का है, स्व को पा लेने का है। और जब व्यक्ति अपनी निजता को पा लेता है, तो उसका समूल परिवर्तन हो जाता है क्योंकि वह दुनिया के सामने मौलिक व्यक्तित्व के रूप में सामने आता है। इसलिए वह विद्रोही मान लिया जाता है। दूसरों का अन्धानुकरण न कर व्यक्ति को अपने स्वतंत्र और मौलिक अस्तित्व का निर्माण करना चाहिए। इसी प्रकार के व्यक्तित्व दूसरों के लिए छाया बनते हैं। छाया कल्याणकारी होती है, पर परछाई किसी भी रूप में कल्याणकारी नहीं होती। प्रकाश बनने का प्रयास करना चाहिए, यदि प्रकाश न बन सकें तो छाया भी बन सकते हैं लेकिन परछाई नहीं बनना चाहिए, उसमें न तो सुख है और न ही आनन्द। प्रकाश के समस्त अवरोधों को गिराकर हमें प्रकाशमय बन जाना चाहिए : तभी हम प्रकाशपुंज होकर ज्योतिर्मय हो सकते हैं।
ऋषियों ने इसीलिए बड़े स्पष्ट शब्दों में प्रार्थना की-'तमसो मा ज्योतिर्गमयÓ। इन साधारण से लगने वाले शब्दों में अत्यंत गंभीर भाव छिपे है। इसमें भौतिक अंधेरे से प्रकाश की ओर ले जाने की प्रार्थना तो है ही, साथ ही हमें अविद्यान्धकार से छुड़ाकर विद्यारूपी सूर्य को प्राप्त कराने की भावना और प्रार्थना अंतर्निहित है। हमारे पूर्वज वैदिक ऋषियों ने सभी प्रकार की सामाजिक समस्याओं को तीन श्रेणियों में बांटा-ये है अज्ञान, अन्याय और अभाव। चाहे कोई भी देश हो, कैसा भी समाज हो, सब जगह ये समस्याएं रहेंगी ही। इन तीनों समस्याओं में भी अज्ञान की समस्या सबसे बड़ी है। यदि ये कहा जाए कि अन्य दोनों-अन्याय और अभाव की समस्याएं भी अज्ञान के कारण ही जन्म लेती है, तो अनुचित नहीं होगा।

Tuesday, October 4, 2011

विजयादशमी: 'विरथ रघुवीरÓ की विजय यात्रा



हरिराम पाण्डेय
6अक्टूबर2011
दशहरा यानी विजयदशमी। बुराई पर अच्छाई की विजय। लेकिन इस विजय का अर्थ क्या है? क्या यह आधिपत्य है, अथवा यह कोई अपने लिए किसी वैभव की प्राप्ति है? यदि हम प्राचीन दिग्विजयों की कथाओं का विश्लेषण करें तो तीन बातें स्पष्ट होती हैं -
एक तो इन दिग्विजयों का उद्देश्य आधिपत्य स्थापित करना नहीं रहा हैं। कालिदास ने एक शब्द का प्रयोग किया है - 'उत्खात प्रतिरोपणÓ। यानी उखाड़ कर फिर से रोपना। यह उस क्षेत्र के हित में होता है। उसी क्षेत्र के सुयोग्य शासक को वहां का आधिपत्य सौंपा जाता हैं। उस क्षेत्र की दुर्बलताएं अपने आप नष्ट हो जाती है।
दूसरी बात इस प्रकार की विजय यात्रा में निहित थी कि किसी सामान्य जन को सताया नहीं जाय। विभीषण किसी भी प्रकार रावण की चिता में अग्नि देने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे। राम ने कहा कि बैर मरने के बाद समाप्त हो जाता हैं।
तीसरी बात यह थी कि दिग्विजय का उद्देश्य उपनिवेश बनाना नहीं था, न अपनी रीति नीति आरोपित करना था। भारत के बाहर जिन देशों में भारत का विजय अभियान हुआ, उन देशों को भारत में मिलाया नहीं गया, उन देशों की अपनी संस्कृति समाप्त नहीं की गई, बल्कि उस संस्कृति को ऐसी पोषक सामग्री दी गई कि उस संस्कृति ने भारत की कला और साहित्य को अपनी प्रतिभा में ढाल कर कुछ सुंदरतर रूप में ही खड़ा किया।
अब प्रश्न है कि केवल राम का ही विजयोत्सव क्यों इतना महत्वपूर्ण है? इसका कारण है वह अकेले 'एक निर्वासित का उत्साहÓ है, जिसने राक्षसों से आक्रांत अत्यंत साधारण लोगों में आत्मविश्वास भरा और जिसने रथहीन हो कर भी रथ पर चढ़े रावण के विरुद्ध लड़ाई लड़ी।
ऐसी यात्रा से ही प्रेरणा ले कर गांधी जी ने स्वाधीनता के विजय अभियान में जिन चौपाइयों का उपयोग किया वे 'रामचरितमानसÓ की हैं - 'रावनु रथो बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा।Ó ऐसी विजय में किसी में पराभव नहीं होता, राक्षसों का पराभव नहीं हुआ, केवल रावण के अहंकार का संहार हुआ। राक्षसों की सभ्यता भी नष्ट नहीं हुई। उसी प्रकार जैसे अंग्रेजों का पराभव नहीं हुआ। अंग्रेजों की सभ्यता नेस्तनाबूद करने का कोई प्रयत्न भी नहीं हुआ, केवल प्रभुत्व समाप्त करके जनता का स्वराज्य स्थापित करने का लक्ष्य रहा। इसलिए विजयादशमी आज विशेष महत्व रखती है। हमारे लिए विजययात्रा समाप्त नहीं होती, यह फिर से शुरू होती है, क्यों कि भय और आतंक से दूसरों को भयभीत करने का विराट अभियान जब तक है, कम हो या अधिक, विरथ रघुवीर को विजययात्रा के लिए निकलना ही पड़ेगा। सभी विज्ञापनदाताओं , पाठकों और हितैषियों की यह विजययात्रा शुभ हो।

जाके बैरी चैन से सोये, वाके जीवन पर धिक्कार

हरिराम पाण्डेय
4अक्टूबर2011
इन दिनों पश्चिमी देशों में खास कर अमरीका में एक बहस चल रही है कि क्या फांसी की सजा जायज है? अमरीका में 1970 के पूर्व फांसी की सजा पर पाबंदी थी पर 1970 में सुप्रीम कोर्ट ने उसे लागू किया और आज उस पर फिर सवाल उठाये जा रहे हैं लेकिन उसमें कहीं भी यह बहस नहीं है कि देशद्रोह के अपराधी को फांसी नहीं दी जाए, लेकिन हमारे देश भारत में संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को क्षमा देने के प्रस्ताव पर क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के लिए हमारे राष्ट्रीय दलों-कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी तथा राज्य के प्रमुख दलों-नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी ने जिस तरह की शर्मनाक भूमिका निभाई उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि इन पार्टियों में राष्ट्रीय स्वाभिमान और राष्ट्रप्रेम का कोई भी जज्बा नहीं है। अफजल गुरु को क्षमादान देने का प्रस्ताव विधानसभा में आना ही नहीं चाहिए था और अगर वह आ गया था तो इन चारों राजनीतिक दलों का यह फर्ज था कि वे सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित कराते कि अफजल गुरु को जल्द से जल्द मृत्युदंड दिया जाए। इसके विपरीत इन दलों ने ऐसा माहौल बनाया जिससे इस प्रस्ताव पर कोई चर्चा ही न हो सके। सबसे पहले भाजपा के विधायकों ने नारेबाजी करके सदन के काम में बाधा डाली जो निश्चय ही प्रस्ताव का विरोध माना जा सकता है, मगर कांग्रेस के उप मुख्यमंत्री सहित उसके विधायकों ने प्रस्ताव का विरोध करने के बजाय इन विधायकों की ही सदस्यता समाप्त करने की मांग उठा दी। दरअसल, विधान परिषद के चुनावों में भाजपा के कुछ विधायकों ने दूसरे दलों के पक्ष में वोट डाले थे। भाजपा ने इन्हें निलंबित कर रखा है मगर विधानसभा में इनकी सदस्यता बनी हुई है। कांग्रेस की इस मांग का औचित्य अपनी जगह है मगर इस समय विरोध करने का अर्थ इस बात के अलावा और क्या हो सकता है कि सरकार में नेशनल कान्फ्रेंस की सहयोगी कांग्रेस को नहीं मालूम कि संबंधित प्रस्ताव का विरोध किया जाए या समर्थन? उसने, जाहिर है, ऐसी रणनीति बनाई जिससे प्रस्ताव पर चर्चा ही न हो सके और बात विधानसभा के अगले सत्र तक के लिए टल जाए क्योंकि नियमों के अनुसार सदन की विषय सूची में दर्ज किसी विषय पर अगर निर्धारित दिन विचार नहीं होता तो फिर उस सत्र में उस पर विचार ही नहीं हो सकता। संसद पर हुआ हमला देश पर हुए आक्रमण के समान था, जिसमें कुछ पाकिस्तानी आतंकवादी मौके पर ही मार डाले गए थे। कश्मीरी आतंकवादी अफजल गुरु की हमले की साजिश में भूमिका मानकर सुप्रीम कोर्ट उसे मौत की सजा दे चुका है मगर हमारे ढीले राजनीतिक नेतृत्व की वजह से उस पर अमल नहीं हो पाया है। क्या कांग्रेस उसकी सजा के खिलाफ है? यदि नहीं तो कांग्रेस के विधायकों के लिए इस प्रस्ताव पर ह्विप क्यों नहीं जारी किया गया और क्यों मामला उनकी अंतरात्मा पर छोड़ दिया गया? जहां तक नेशनल कान्फ्रेंस का सवाल है तो यह आग ही मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की लगाई हुई है, जिन्होंने राजीव गांधी के हत्यारों को क्षमादान देने के तमिलनाडु एसेंबली के प्रस्ताव के बाद अपने यहां भी एक शोशा छोड़ा था और जिसे एक निर्दलीय विधायक शेख अब्दुल राशिद ले उड़े। विपक्षी पीडीपी की भूमिका तो और भी ज्यादा खतरनाक है जिसके विधायक सदन में भले ही शांत बैठे रहे हों मगर जिसने क्षमादान का समर्थन किया था। लोकतंत्र में न्याय का हर दरवाजा सभी के लिए खुला रहना चाहिए, मगर अफजल, भुल्लर और राजीव गांधी के हत्यारों को क्षमादान दिलाने के लिए वोटों की खातिर जो गंदी राजनीति की जा रही है, वह देश के लिए अंतत: खतरनाक होगी। क्योंकि अब तक एक राष्टï्र के रूप में हमारी छवि एक 'डरपोक राष्टï्रÓ की बन चुकी है और आहिस्ता- आहिस्ता यह छवि एक दब्बू और नालायक देश की बन जायेगी। इससे ज्यादा शर्म की बात क्या हो सकती है कि चार -छ: हथियारबंद लोग उस तरफ से आते हैं और हमारी संसद को उड़ाने का साहस कर लेते हैं, हाथ में ए के रायफलें लेकर हमारे सबसे बड़े कारोबारी शहर में सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार देते हैं और हमारे नेता उन्हें बचाने में लगे हैं। यह देश की जनता के मुंह पर तमाचा है और कानून से बदतमीजी।
जाके बैरी चैन से सोये
वाके जीवन पर धिक्कार

मंदी का कारण पूंजी संचय की नीति है

हरिराम पाण्डेय
3अक्टूबर2011
आर्थिक मंदी, कामकाजी वर्ग में बढ़ती कंगाली और राजकोषीय पूंजी के बारे में सन्मार्ग कार्यालय में एक बहस के दौरान एक आर्थिक सलाहकार ने बड़ी दिलचस्प बात कही। पूंजी के आगमन और उसके विनियोग में भारी अंतर पैदा होता जा रहा है। मसलन किसी को किसी वित्तीय संस्थान से 100 करोड़ की सहायता मिलती है। अब वह निवेशक उसका आधा संचित कर लेता है और आधा ही विनिवेश के लिये प्रयुक्त होता है, इससे विकास सुस्त पड़ जाता है। ऐसी स्थिति में वह कटौती के लिये कदम उठाता है, नतीजतन कामकाजी वर्ग में गरीबी फैलने लगती है और धीरे- धीरे मंदी बढऩे लगती है। आज दुनिया का आर्थिक संकट, उससे निपटने के लिए सरकारों द्वारा कटौती उपायों की घोषणा और जनता द्वारा कथित मितव्ययिता के उपायों का विरोध विकास की खगोलीय अवधारणा की विफलता के साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए खतरे की नयी आहट है। ब्रिटेन, यूनान, स्पेन से लेकर इटली और पूर्वी यूरोप तक के सभी राजनेता और अर्थशास्त्री संकट के कारणों से अधिक पूरी बहस को संकट के उपायों पर केंद्रित कर रहे हैं। कई देशों का कर्ज उसके सकल घरेलू उत्पाद के नब्बे या सौ प्रतिशत से भी अधिक हो चुका है। इस ऋण भार से निपटने के लिए यूरोपीय देशों की सरकारें अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और यूरोपीय सेंट्रल बैंक के निर्देश पर राजकोषीय घाटे में कमी लाने की कोशिश कर रही हैं। अब इस कटौती का भार मध्यवर्गीय परिवारों के जेबों से निकालने के लिए पूरी पश्चिमी दुनिया वालों के खर्च में कटौती की शुरुआत हो चुकी है। इससे उस वर्ग की वास्तविक आय और सामाजिक सुरक्षा बुरी तरह प्रभावित हो रही है। यह कटौती जहां मध्यवर्गीय कामगारों की आय और सामाजिक सुरक्षा को ध्वस्त कर रही है, वहीं बाजार के स्वामियों और उच्च मध्यवर्ग के लिए और अमीरी का कारण भी बन रही है। कमोबेश यही स्थिति भारत सहित सभी एशियाई देशों में पैदा हुई है। भारत का कुल ऋण उसके सकल घरेलू उत्पाद के 56 प्रतिशत के आसपास है। भारतीय विकास के नीति निर्माता ऊंची विकास दर के कारण इसे अपनी एक उपलब्धि कह सकते हैं। परंतु विकास के इस वितरण की तसवीर आर्थिक संकट में फंसे पश्चिमी देशों की तुलना में कहीं ज्यादा खराब है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के निर्देश पर मितव्ययिता का अर्थ है आम आदमी की आय में कटौती, जो निश्चय ही अर्थव्यवस्था में प्रभावी मांग को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगी। फिर मांग में गिरावट का अर्थ है मांग और आपूर्ति के संतुलन का बिगडऩा। मांग और आपूर्ति का संतुलन बिगड़कर ही अर्थव्यवस्था में मंदी का कारण बनता है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद केन्स के राजकीय हस्तक्षेप के सिद्धांत पर चलकर ही विश्व अर्थव्यवस्था ने 1930 की महामंदी को झेला था। अब आर्थिक विकास की खगोलीय अवधारणा के पैरोकार पूंजी संचय के जुनून में भूमंडलीकरण के इस विरोधाभासी संबंध को समझना ही नहीं चाहते कि वर्तमान आर्थिक संकट बढ़ते राजकीय व्यय के कारण नहीं, बल्कि उनकी उत्पादन-विरोधी पूंजी संचय की नीतियों के कारण है।

क्या आपको अपने यकीन पर यकीन है?

हरिराम पाण्डेय
2अक्टूबर2011
दुर्गापूजा के ढाक का रंग जम गया है और शहर के लगभग सभी पूजा पंडालों में मां दुर्गा की मूर्तियां आ गयी हैं और लोगों की भीड़ भी उमडऩे लगी है। इस भीड़ का अगर सामाजिक - मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो दो तथ्य दिखते हैं, पहला कि लोगों में धार्मिकता बढ़ गयी है और दूसरा कि लोग भाग्यवादी होते जा रहे हैं। अगर धर्म के लिए कोलकातावासियों का रुझान बढ़ा है तो हम मान सकते हैं कि लोग पहले से ज्यादा भले, इंसाफपसंद, सच्चे और उदार बन रहे होंगे। क्योंकि धर्म इंसान को अच्छे रास्ते पर चलने का सबक देता है। हम यह भी अंदाजा लगा सकते हैं कि लोगों को आध्यात्मिक शांति मिल रही होगी, क्योंकि वे जिंदगी के टुच्चे झगड़ों को अब बेमतलब मान रहे होंगे। इससे कुछ शांति पैदा हुई होगी। एक-दूसरे को सुनने-सहने की काबिलियत बढ़ी होगी। लेकिन क्या सचमुच? ज्यों-ज्यों साल 2011 अपने आखिरी महीनों में आगे सरक रहा है, 2012 में दुनिया के अंत की बातें रोजाना की बतकही में बार-बार लौट रही हैं। लोग तरह-तरह से इसका जिक्र करते हैं, लेकिन अगर वे अंदर से यकीन न कर रहे होते तो बात उनकी जुबान पर नहीं आती। कितना यकीन? आप कहेंगे 20 पर्सेंट। हो सकता है कोई 80 पर्सेंट तक भी जा पहुंचे। लेकिन 100 पर्सेंट यकीन का हलफनामा कोई नहीं देगा। कोई नहीं, क्योंकि हम शत-प्रतिशत यकीन करते ही नहीं। न 2012 पर, न भाग्य पर और न ही ईश्वर पर। इंसान की यही बेहद दिलचस्प खामी या खासियत है कि वह यकीन पर भी पूरा यकीन नहीं करता। वह यकीन पर भी शक करता है और खुद को कभी ऐसे वादे में नहीं बंध जाने देता, जिससे निकलने में उसका ईगो तकलीफ महसूस करे। कोई दूसरे ग्रह का आदमी धरती पर आए, इंसान के दिमाग में झांके तो उसे हैरानी होगी। शायद वह इसे सबसे बड़ा रहस्य मान बैठे। तर्क तो यही कहता है अगर आप ईश्वर पर यकीन करते हैं, मानते हैं कि उसी ने दुनिया बनायी और आपको इसमें एक रोल निभाने भेजा, तो फिर आपके जीवन में चिंता मिट जानी चाहिए। लेकिन हम इंसान हैं। हम ईश्वर पर यकीन के बाद उससे आंख चुराने के रास्ते खोज लेते हैं। हम भाग्यवाद की दुहाई देने के अगले पल संसार को चैलेंज करने निकल पड़ते हैं। वरना दूध पीने वाले गणेश जी के इस देश में उस चमत्कार के बाद अधर्म के लिए जगह बचनी ही नहीं चाहिए थी। दूध पी लेने से ज्यादा कोई ईश्वर अपने होने की और क्या गारंटी दे सकता है। क्या ईश्वर के साक्षात दर्शन कर लेने के बाद भी सांसारिकता बची रह सकती है? यही कारण है कि दुर्गा की प्रतिमा के सामने सिर नवाने वालों में कन्याओं पर फब्तियां कसते लोग भी दिखते हैं। ऐसा इसलिये होता है कि हम अधूरे हैं। हमारा यकीन अधूरा है। हमें अपने यकीन पर ही यकीन नहीं है। विश्वास का यह अधूरा सफर बहुत सी उलझनों को जन्म देता है। यह एक अनिश्चित दिमाग का संकेत है। आज हमारी त्रासदी का कारण यही है।

आज भी प्रासंगिक हैं गांधी



हरिराम पाण्डेय
1अक्टूबर2011
कल गांधी जयंती है। यह आलेख यहां एक दिन पहले केवल इसलिये लिखा जा रहा है कि हो सकता है कल यानी गांधी जयंती पर आपको इस पर विचार का अवसर ना मिले। यहां आप से एक सवाल है। कभी आपने कच्चे सूत की माला देखी है या कभी आपने तकली पर या चरखे पर किसी को सूत कातते देखा है या कभी आपने सूत काता है? नहीं न! तब आप गांधी को नहीं समझ सकते। सूत कातना और उसकी माला बनाना , काफी लम्बा सिलसिला होता है उसमें। सूत बार-बार टूटता है और माला कितनी मोटी हो गयी उसे देखने के लिये रह रहकर उसको छूते रहने का जो अनुभव है उस तरह का मांसल अनुभव अब लगभग समाप्त होता चला गया है , खास कर के हमारी शिक्षा में। आजकल तो मांसलता को शिक्षा से जुदा करने का राष्टï्रीय कुचक्र चल रहा है।
जो लोग आजादी के बाद के एक डेढ़ दशक में पैदा हुए हैं उनके लिये अपने बचपन को याद करने और उसके बाद की दुनिया को टूटने बिखरने के ऊपर यह एक विलाप का समय है क्योंकि उन लोगों के संस्कार उस दशक में जैसे बने, वह आज सब की आंखों के सामने बड़ी आसानी से, बड़ी निर्ममता के साथ टूटे। एकाएक टूटते तो शायद वे लोग एक नए तरह के दौर से गुजरते, उन्हें ज्ञान होता। लेकिन वह धीरे-धीरे टूटा और इसलिए वह हमें लगातार उस टूटन में समाहित करता गया। हमें आदत डाली गयी कि वह सब टूटता चला जाय और हम जीते चले जाएं। और जो बचा है, उसमें भी सब टूटने के हम आदी होते चले जायें। 'भारतÓ 26 जून, 1975 की आधी रात के बाद खंडित हुआ। फिर बहुत सा वह नवम्बर, 1984 के शुरू में टूटा और फिर जो बाकी बचा हुआ था वह 6 दिसम्बर, 1993 को टूटा। अब सचमुच हमारी ही पीढ़ी के लिए जो कि आजादी के बाद के वर्षों में पैदा हुई थी, यह लड़ाई, एक तरह से पूछती है कि गांधी का सपना किसने तोड़ा था? हम सब धीरे-धीरे उस सपने के टूटने के बाद बचे हुए को बर्दाश्त करने और बर्दाश्त करने की आदत डालने के एक तरह से प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। सचमुच यह गलत होगा, यदि इस अवसर पर केवल विलाप किया जाये। गांधी विलाप का नाम नहीं है। हममें से करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्होंने गांधीजी को नहीं देखा। आज यहां जो कुछ भी लिखा जा रहा है मूलत: एक संवाद है उस अनदेखे से । संवाद की विशेषता यह होती है कि वह विपरीत विचार के बिना नहीं हो सकता। आपको अपने से विपरीत सोचने वाले को इसीलिए जीवित रखना पड़ेगा। बल्कि पूरा आदर देकर जीवित रखना होता है जिससे कि आप अपनी बात उसके बहाने से कह सकें। वरना आपकी बात कैसे जन्म लेगी? विपरीत बात का, विपरीत बुद्धि का इसमें आदर है। संवाद का अगर कोई अर्थ है तो मेरी समझ में यही है। संवाद की यह विशेषता है कि वह अपने विपरीत मत का समावेश करने का निरंतर प्रयास करता है। इस सिलसिले में ऐसा लगता है कि हमें गांधी के अपने जीवन को एक लम्बा संवाद देखते हुए समझने का प्रयास करना चाहिए। उसको किसी एक घटना में बांधकर देखना गलत है। गांधी के जीवन का संक्षेप न केवल उन परिस्थितियों में है जिनमें वे सफल सिद्ध हुए, और न ही उनके जीवन का यह संक्षेप, यह संवाद उन घटनाओं में है जिनमें वे निराशामय दौर में घिर गये और असफल हुए, और असफल वह न भारत के विभाजन में हैं और न नमक सत्याग्रह की सफलता में हैं। गांधी के जीवन को संवाद और उदारता से पूरी सजगता के साथ समझना होगा। उसके बाद वह संवाद-संक्षेप जिस दिन हमें छूने की हालत में मिल जायेगा, उस दिन गांधी की उपयोगिता, गांधी की बात करने की जरूरत हमारे सामने और स्पष्ट प्राथमिकता ग्रहण कर लेगी। छोटा सा प्रयास भी हम कर सकते हैं या उसकी शुरुआत करने का दावा कर सकते हैं। जरा गांधीजी के जीवन के विषय पर ध्यान दें। गांधीजी के जीवन में टकराहट के नाटकीय स्वरूप हैं। इनमें से अजीब सी रोशनी निकलती है। ऐसा लगता है कि आप कोई नाटक देख रहे हैं। उसमें अचानक एक परिस्थिति उत्पन्न होती है। वही मंच, कोई साज - सज्जा नहीं है। वह एकाएक मंदिर में तब्दील हो जाता है। कभी मंदिर की जगह पुलिस का थाना बन जाता है। तस्वीर बदल जाती है। गांधीजी के जीवन के ऐसे कई प्रसंग हैं, जिनमें उनकी शिरकत में एक सम्पूर्ण परिदृश्य वैसा नहीं रहा जैसा वह था। गांधीजी अराजक व्यक्तित्व हैं। अगर गांधीजी का कोई इस्तेमाल हमारे जीवन में है, तो यह है कि सत्ता के केन्द्रों की वाणी को चिन्तन के केन्द्रों से अलग रखिए। स्वतंत्रता के गुण को, विचार को, सत्ता के केन्द्र से अलग रखिए। विचार के लिए जगह बनाइए। मेहरबानी करके विचार और सत्ता को साथ-साथ बैठने मत दीजिए, नहीं तो आप विचार को नष्ट कर देंगे। विचार और सत्ता का जब आमना-सामना होता है तो उसमें विचार ही नष्ट हो जाते हैं। सत्ता की नगरी में विचार हिचकिचाहट-सा हो सकता है, अमूर्त ही हो सकता है, कभी स्पष्ट नहीं हो सकता। जो सत्ता के ठीक नीचे रहते हैं उनकी बहुत बड़ी समस्या यह है कि इस अराजक व्यक्तित्व का क्या किया जाये। हमारी कोशिश रहेगी कि स्वतंत्र विचार को सुरक्षित रखा जाय। विचार की यही जगह है। लेकिन हम एकदम अक्षम स्थिति में हैं। इसलिए यह विलाप का क्षण नहीं है, पहचानने का क्षण है। एक अराजक व्यक्तित्व का क्या करें? ऐसे व्यक्तित्व का ऐसी नगरी में क्या करें?

प्रधानमंत्री की बिगड़ती छवि



हरिराम पाण्डेय
29सितम्बर 2011
आप मानें या ना मानें नवरात्र की निसबत सत्ता से भी है और उसके पहले दिन जब कोई आदमी सत्ता के शीर्ष पर बैठे इंसान की छवि को लेकर चिंता जाहिर करता है तो बेशक सोचना पड़ता है। कहते हैं कि 'सत्ता का रास्ता जनता को हटाकर बनता है।Ó लेकिन पिछले कुछ दिनों में जनता ने सत्ता को थोड़ा सा हटाकर अपना रास्ता बनाया है।
सत्ता ताकतवर होती है। उसे अपने होने का बहुत गुरूर होता है। इसलिए शायद वह स्वीकार न करे कि ऐसा हुआ है। ये बहसें होती रहेंगी कि आज जो कुछ भी हो रहा है वह सही है या गलत। लेकिन इस बात पर कोई बहस नहीं हो सकती कि इस स्थिति ने एक ऐसे शख्स की धज बिगाड़ दी, जो विवादों से और शंकाओं से परे था। और वो शख्स है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह। एक बरस पहले तक वे इस सरकार के मुकुट थे। सरकार के धुर विरोधी भी उन पर बड़े एहतियात के साथ आरोप लगाते थे। लेकिन पिछले एक बरस ने इस छवि को निर्ममता के साथ बदल दिया है। अभी भी उनकी ईमानदारी पर सवाल नहीं उठ रहे हैं लेकिन लोग महसूस कर रहे हैं कि वे बेईमानी को रोक नहीं पाए।
टेलीकॉम घोटाले से लेकर राष्टï्रमंडल खेलों के घोटाले तक जो बयान प्रधानमंत्री ने दिए वे एक-एक करके गलत साबित हुए हैं। कहते हैं न कि 'बात निकली तो बहुत दूर तलक जायेगीÓ, अगर निकली हुई बात सचमुच दूर तक गयी तो नोट के बदले वोट वाले मामले में भी उनकी किरकिरी हो सकती है। जनलोकपाल के मामले में उनकी सरकार ने एक के बाद एक जिस तरह से फैसले लिए उसने एकबारगी उनकी राजनीतिक समझ पर प्रश्नचिन्ह लगा दिये हैं। एक आंदोलन जो भ्रष्टाचार के खिलाफ था, उसे मनमोहन सिंह की सरकार ने अपनी नासमझी से अपनी सरकार के खिलाफ बना लिया। चोर की दाढ़ी में तिनका मुहावरा शायद ऐसे ही मौकों के लिए बना होगा। वर्ष 2009 के चुनाव के बाद विश्लेषकों ने कहा था कि मनमोहन सिंह ही यूपीए के तारणहार साबित हुए हैं। उन्होंने ये भी कहा कि अगर आडवाणी ने उन्हें 'निकम्मा प्रधानमंत्रीÓ न कहा होता तो एनडीए को इतना नुकसान नहीं होता। अब आडवाणी या किसी और नेता में वही पुराना आरोप दुहराने की हिम्मत नहीं है लेकिन अब अगर कोई ऐसा ही आरोप लगाएगा तो शायद जनता बुरा नहीं मानेगी। आज मनमोहन सिंह वैसा ही बर्ताव कर रहे हैं जैसा कि अमरीकी राष्ट्रपति अपने दूसरे कार्यकाल में करते हैं। उन्हें पार्टी की तो चिंता होती है लेकिन वे अपनी छवि की बहुत चिंता नहीं करते क्योंकि उन्हें अगला चुनाव नहीं लडऩा होता। जिस तरह से राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की चर्चा गाहे-बगाहे हो रही है, उससे मनमोहन सिंह को ये समझने में दिक्कत नहीं है कि यह उनकी आखिरी पारी है।
मनमोहन सिंह एक सफल नौकरशाह रहे हैं और प्रधानमंत्री की भूमिका भी वे उसी तरह निभाना चाहते हैं। एक राजनीतिक आंदोलन पर लोकसभा में उनका बयान एक राजनीतिक की तरह नहीं आता, किसी नौकरशाह की तरह ही आता है। लोकतंत्र में प्रधानमंत्री के पद पर लोग एक राजनेता को देखना चाहते हैं। अनिर्णय में फंसे किसी ऐसे नौकरशाह को नहीं तो अपने लिए किसी आदेश की प्रतीक्षा कर रहा हो। अभी इस सरकार के पास इतना समय है कि वह अपनी डगमगाती नैया को भंवर से निकाल ले और इतना ही समय प्रधानमंत्री के पास है कि वे अनिर्णय से निकलकर कुछ ठोस राजनीतिक कदम उठाएं। इतिहास बहुत निष्ठुर होता है और वह किसी को माफ नहीं करता और जनता सबक सिखाने पर उतर आये तो किसी से सहानुभूति नहीं रखती।

अब बड़ी उम्मीदों से दो चार होना पड़ेगा ममता को



हरिराम पाण्डेय
28सितम्बर 2011
पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस नेता और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपना चुनाव भारी मतों से जीत लिया। उन्हें कुल 77.46 प्रतिशत मत मिले और मजे की बात कि राज्य की सत्ता में विगत 3 दशक से ज्यादा अवधि तक राज्य करने के बाद भी उनके प्रतिद्वंद्वी माकपा के उम्मीदवार को मिले मतों का अनुपात बुरी तरह गिरा है। पिछले 34 साल के इतिहास में किसी भी वाममोर्चा नेता ने सत्ताधारी गठबंधन की ऐसी हार की कल्पना तक नहीं की होगी, जैसी हार आज उन्हें देखनी पड़ रही है। 'परिवर्तनÓ अब महज नारा नहीं है, यह पश्चिम बंगाल के युवा और उस मध्यवर्ग के लिए अब 'आदर्श वाक्यÓ की तरह है, जो कभी वामपंथी विचारधारा के रीढ़ की हड्डïी हुआ करता था।
आज जिस तरह के परिणाम आए, उसकी उम्मीद तो उसी समय से थी जबसे चुनाव की चर्चा शुरू हुई। अगर ऐसा नहीं होता तो आघात लग सकता था। सीपीएम पोलित ब्यूरो के सदस्य अभी जमीन की हकीकत को नहीं पहचान पाये हैं और वे सामजिक परिवर्तन के उन गुमानों में ही खोये हुए हैं जिसकी अलख 19वीं शताब्दी में कार्ल माक्र्स और 1940 के दशक की शुरुआत में माओ ने जगायी थी। प्रकाश करात, सीताराम येचुरी, बिमान बोस, मोहम्मद सलीम जैसे नेता टेलीविजन स्टूडियो में बैठ सकते हैं, गरीबों और पददलितों को लेकर लंबे-चौड़े व्याख्यान दे सकते हैं लेकिन इन लोगों ने इस बात का रत्ती भर भी प्रयास नहीं किया कि जो ये जनता के बीच बोलते हैं, उसे अमलीजामा पहनाया जाए। तृणमूल कांग्रेस की आज की सफलता पूरी तरह से सिर्फ एक ममता बनर्जी के करिश्मा का नतीजा है। महाभारत का एक प्रसंग याद आता है कि 'जब कृष्ण को द्रोपदी के चीरहरण के बारे में जानकारी मिली, तो उन्होंने कौरवों को चेताया था- किसी नारी के स्वाभिमान को कदापि ठेस मत पहुंचाओ, क्योंकि उसके प्रतिशोध की कोई सीमा नहीं रह जाएगी।Ó अब ममता इस बात की जीती-जागती मिसाल बन गयी हैं। पश्चिम बंगाल में सरकार से जनता की आशा अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच चुकी है। अब पश्चिम बंगाल का भविष्य और यहां के निवासियों की नियति पूरी तरह से इस बात पर निर्भर है कि ममता बनर्जी अब के बाद कैसा काम करती हैं। जहां तक जनता की बात है, वह दुबारा ममता बनर्जी में अपना यकीन वोट के जरिए जता चुकी है। अब ममता बनर्जी को यह साबित करना होगा कि वे एक योग्य और दृढ़प्रतिज्ञ प्रशासक हैं। ऐसे कई सवाल हैं जिनके जवाब आने वाले दिनों में ही मिल पाएंगे- क्या बेरोजगार युवकों को रोजगार दिये जाएंगे, जैसा कि ब्रिगेड मैदान की सभा में उन्होंने वादा किया था? क्या किसान अपनी उपज बढ़ाने के लिए अच्छी सिंचाई सुविधा पा सकेंगे? क्या राज्य में निवेश की रफ्तार जोर पकड़ सकेगी? क्योंकि अभी निवेश नाम मात्र का है। क्या जनता ममता बनर्जी में भरोसा बरकरार रख सकेगी, जो कि मुख्यमंत्री के रूप में अब तक रखती आयी है। ममता जी की सद्य: विजय में मौजूद एक तथ्य को कतई नदरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि पश्चिम बंगाल सचमुच एक लोकतांत्रिक प्रदेश है। यहां का वोटर गरीब, उपेक्षित या असहाय हो सकता है, पर बेजबान नहीं हो सकता है....और जब वोटर बोलता है, तो बड़े बड़ों की बोलती भी बंद हो जाती है। इस बात को लेफ्ट फ्रंट के नेताओं से बेहतर और कौन महसूस कर सकता है?

ताजा विवाद को सरकार दृढ़ता से निपटाये

हरिराम पाण्डेय
27सितम्बर 2011
देश की राजनीतिक स्थिति अत्यंत अप्रत्याशित होती जा रही है। सत्तारूढ़ गठबंधन जहां एक ओर अपने घटक दलों के नेताओं से तालमेल बिठाने में कठिनाई महसूस कर रहा है वहीं पार्टी के भीतर भी तनाव बढ़ता जा रहा है। इसमें सबसे ताजा तनाव का कारक है पूर्व वित्तमंत्री पी चिदम्बरम को टू जी घोटाले में भेजी गयी चि_ïी। इस चि_ïी से ऐसा लगता है कि स्थापित नियम 'पहले आओ पहले पाओÓ को रद्द कर उन्होंने ही स्पेक्ट्रम की नीलामी की अनुमति दी थी। यही नहीं वित्त मंत्रालय से प्रधानमंत्री कार्यालय को भी इस महत्वपूर्ण मसले पर एक पत्र भेजा गया था। वह पत्र भी अभी पार्टी के बाहर और सार्वजनिक मंचों पर तनाव और चर्चा का विषय बना हुआ है। प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने बात को तूल दे दिया है और उसने इस घोटाले में संप्रग सरकार के शीर्ष लोगों पर भी उंगली उठानी शुरू कर दी है। यहां तक कि उसने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी लपेटे में ले लिया है। हालांकि देर से ही सही प्रधानमंत्री ने साफ कहा कि वे चिदम्बरम का बचाव करेंगे और वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने भी उन्हें महत्वपूर्ण सहयोगी बताया है। लेकिन जब तक वे लोग इस पर कोई कदम उठाएं या बयान दें तब तक हालात बेलगाम हो चुके थे। अब यहां यह सवाल उठता है कि क्या इस ताजा स्थिति से निपटने के लिये कांग्रेस ने कुछ नहीं किया? मंत्रिमंडल में मतभेद के कारण हैं कि सरकार में अपने मामलात से ठीक से निपटने का हुनर थोड़ा कम है। अभी जरूरत है कि सरकार ऐसा प्रदर्शित करे कि सब कुछ एकजुट और ठीक- ठाक है लेकिन दिखायी तो ऐसा पड़ रहा है कि भीतर झगड़ा मचा हुआ है और सरकार अपना बचाव करने में लगी है। वैसे भी सक्षम राजनीतिक प्रबंधन सरकार में कभी दिखा ही नहीं। जबसे संप्रग-2 की सरकार बनी तबसे अब तक मंत्रिगण एक दूसरे को नीचा दिखाने और अपना हित साधने के काम में लगे दिखायी पड़े। टेलीकम घोटाले के उजागर होने के काफी समय के बाद जब सरकार ने ए राजा से पल्ला झाड़ा तब से ही वातावरण में संदेह के काले बादल मंडराने लगे थे और सरकार के हर फर्द पर घोटाले का शुबहा होने लगा था। प्रणव मुखर्जी के पत्र के प्रकाश में आने पर यह शुबहा और बढ़ गया है। एक दूसरे पर कीचड़ उछालने के चक्कर में दो तथ्यों के बीच का अंतर खत्म हो गया। पहला कि 'पहले आओ पहले पाओÓ का नियम मंत्रिमंडल की नीतियों के अंतर्गत था और यह राजग के काल में भी कायम था। अब सवाल है कि स्पेक्ट्रम की नीलामी या 'पहले आओ पहले पाओÓ के आधार पर आवंटन सही था या गलत, यह एक ऐसा मामला है जिसके गुण - दोष पर बहस हो सकती है। लेकिन जहां तक निर्णय का प्रश्न है तो यह एक सरकारी फैसला है और इस तरह का फैसला करने का हर सरकार को हक है। यहां यह पूछा जा सकता है कि क्या स्पेक्ट्रम की नीलामी के कारण मोबाइल टेलीफोन का उपयोग सस्ता नहीं हुआ है? इसे 'पहले आओ पहले पाओÓ मामले से अलग कर देखा जाना चाहिये क्योंकि इस प्रक्रिया में भी 'अयोग्यÓ टेलीकॉम कम्पनियों को 'उनकी बारीÓ से पहले आवंटित किये जाने का मामला उठता रहा है। ऐसे मतभेदों को निपटाना कांग्रेस के लिये बड़ी बात नहीं है लेकिन इसके पहले जरूरी है कि कांग्रेस इसे शर्मिंदगी का विषय ना बनने दे और इसे समुचित स्तर पर निपटा दे। भाजपा भी यदि भ्रष्टïाचार को खत्म करने के मामले में गंभीर है तो उसके लिये भी जरूरी है कि वह घोटाले की कालिख में डूबी एक ही कूंची से सबके चेहरे काले कर राजनीतिक लाभ उठाने का काम बंद कर दे, क्योंकि इस कार्य में एक ऐसा बिंदु भी दिखाई पड़ रहा है जहां जाकर आम जनता भाजपा को गंभीरता से लेना बंद कर देगी।

बदलाव की आकांक्षा के बावजूद भ्रम की स्थिति

हरिराम पाण्डेय
26सितम्बर 2011
आज देश एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक मोड़ पर है। देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा परिवर्तन की आकांक्षा से भरा हुआ है। लेकिन देश में गंभीर भ्रम की स्थिति पैदा हो गयी है। ऐसी स्थिति 1930 के भारत में देखी गयी थी जब एक तरफ भारत का जनसमुदाय आजादी के लिये कुछ भी कर गुजरने को तैयार था तो दूसरी तरफ आर्थिक अस्थायित्व से देश को मुकाबला करना पड़ रहा था। लेकिन उस काल में नेता के रूप में गांधी थे आज वह सम्बल अनुपस्थित है। आज नेतृत्व का संकट है। अण्णा हजारे ने हालांकि बहुत बड़ा काम किया है। उन्होंने दुनिया की सबसे दुर्गम और अभेद्य सरकारों में से एक में सकारात्मक रूप से सेंध लगाने में कामयाबी पायी। उन्होंने युवाओं के दिल में बदलाव की आकांक्षा की एक चिंगारी पैदा की। उन्होंने भारत की जनता में मूल्यों की पुन: प्रतिष्ठा करने की प्रक्रिया भी प्रारंभ की, जिसकी सख्त जरूरत थी। हां, हममें से अधिकांश अब भी भ्रष्ट हैं, लेकिन हममें कुछ ऐसे भी हैं, जो भलाई की राह पर चलना चाहते हैं। इस कारण से हमारे भीतर भलाई की चाह मजबूत हुई है। यकीनन, कोई भी बदलाव रातोंरात नहीं होता, लेकिन समय के साथ हम निश्चित ही बेहतर व्यक्ति और बेहतर समाज बन सकते हैं। हालांकि हमें इन उपलब्धियों की कीमत चुकानी पड़ी है। आज हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं, जो इस आदर्शवाद से कोसों दूर है। दुखद तथ्य है कि हमारे बौद्धिक कुलीनों ने इस स्थिति से उबरने के लिये राह नहीं बतायी है कि हम एक व्यापक सर्वसम्मति का निर्माण कर पाते। जब कि 30 के दशक में यह स्थिति नहीं थी। अब ऐसा भी प्रतीत हो रहा है कि स्थिति को ठीक से समझने का प्रयास नहीं किया जा रहा। क्योंकि लोकतंत्र में सरकार नाम की संस्था एक बुनियादी धारणा के आधार पर संचालित होती है और वह है जनता का विश्वास। यदि जनता का भरोसा डिग जाए तो ऐसी कोई संस्था संचालित नहीं हो सकती। यहां एक छोटा-सा उदाहरण पेश है। हम अपने जेब में कागज के जो नोट लिए घूमते हैं, उनका मूल्य केवल तभी तक है, जब तक हम उन्हें मूल्यवान मानते हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं, जब किसी देश की जनता ने अपनी मुद्रा में भरोसा गंवा दिया। भारत के राजनेता और खासतौर पर भारत की सरकार भरोसे के इसी संकट से जूझ रही है। जनता अब सरकार पर भरोसा नहीं करती। सरकार के बयानों से हालात और बदतर हो गये हैं। हमारे राजनेताओं ने अपने रवैये की यह कीमत चुकायी है कि अब लोग उन पर भरोसा नहीं करते। जनता का विश्वास जीते बिना नियमों का हवाला देने से कुछ नहीं होगा। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि एक बेहतर भारत के निर्माण के लिए हमें बेहतर नेताओं की जरूरत है और बेहतर नेताओं की खोज हम सभी को मिल-जुलकर ही करनी पड़ेगी।

गंभीर चुनौती है राष्टï्र के समक्ष



हरिराम पाण्डेय
25सितम्बर 2011
एक बड़ी विचित्र स्थिति से देश गुजर रहा है। दो दिन पहले विश्व हिंदू परिषद के प्रमुख नेता और धर्माचार्य आचार्य धर्मेंद्र से मिलना हुआ। वे देश के विभाजन को खत्म कर अखंड भारत बनाने के अभियान में जुटे हैं और समस्त अहिंदुओं को विदेशी या उन्हें देश विरोधी करार दे रहे हैं जो भारत माता की जय अथवा वंदे मातरम् बोलने से गुरेज करते हैं। उधर अण्णा के अनशन के वक्त मौलाना बुखारी ने साफ - साफ फतवा दिया था कि वंदे मातरम् या भारत माता की जय इस्लाम विरोधी है। नरेंद्र मोदी ने सद्भावना के नाम पर उपवास किया लेकिन एक बार भी अपने 'कियेÓ का पश्चाताप नहीं किया। दूसरी तरफ सरकार के नेताओं पर जनता का विश्वास घटता जा रहा है और सरकार पर आस्था कम होती जा रही है। वैश्विक मंदी बढ़ती जा रही है और रुपये का मूल्य गिरता जा रहा है। यानी कुल मिला कर एक गंभीर विभ्रम की स्थिति नजर आ रही है। ऐसे में अक्सर समाज के आम आदमी के भीतर से एक नेता उत्पन्न होता है और वह समय की धारा को बदल देता है। पहले विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद लगभग ऐसी ही स्थिति हुई थी। पूरा यूरोप कंगाल और बेरोजगार हो गया था और भारत सहित एशिया के अन्य देशों में अराजकता का बोलबाला था। ऐसे में गांधी का आना इतिहास की एक बहुत बड़ी देन थी आप गांधी से चाहे जितने भी असहमत हों लेकिन उन्होंने विश्व को अपनी बात पर सोचने को बाध्य तो किया। यही नहीं उनके बाद आजाद से लेकर पटेल तक कई लोग परिद्श्य पर उभरे। इसका कारण था भारतीय मध्य वर्ग का राष्टï्रीयता के प्रति रुझान और अंग्रेजी शिक्षा के कारण यूरोपीय लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आस्था। जो हालात उस समय सामाजिक परिवर्तन का कारक बने वे हालात आज मौजूद नहीं हैं। हमारे नेता अपनी बातों से स्थितियों का भ्रामक आकलन कर रहे हैं और मीडिया एक खास किस्म की सौदागरी में लगी है। ऐसे में सामाजिक परिवर्तन के कारक तत्व या तो अनुपस्थित हैं अथवा गौण। यह स्थिति गड़बड़ी और अराजकता का बुनियादी लक्षण है और राजनीति एवं लोकतंत्र के प्रति आम जनता के भरोसे को खत्म करती नजर आ रही है। अगर इन सब बातों को दरकिनार भी कर दें तब भी ये हमारी सियासत की रोजमर्रा की गतिविधि और समग्र रूप से राजनीति के अस्तित्व पर गंभीर चुनौती प्रस्तुत कर रही है। इस स्थिति से निपटने के लिये जरूरी है कि सभी दल एक मंच पर आएं और देश को समाने रख कर कोई मान्य उपाय खोजें। एक ऐसा उपाय जिसमें परिवर्तन और परिशोधन की पूरी गुंजाइश हो। अगर ऐसा नहीं हुआ तो जिस अराजकता की आहट सुनायी पड़ रही है वह देश के लिये घातक साबित होगी।

मध्य वर्ग शासन को बदल कर रहेगा



हरिराम पाण्डेय
23सितम्बर 2011
प्रसिद्ध इतिहासकार बी बी मिश्र ने भारतीय मिडल क्लास पर लिखी अपनी विख्यात पुस्तक में कहा है कि 'भारत में आजादी की लड़ाई में उतनी तीव्रता नहीं हुई होती अगर यहां के मिडल क्लास ने उसमें हिस्सा नहीं लिया होता। मिडल क्लास एक ऐसी ताकत है जो किसी भी स्थिति का बदलने के लिये बाध्य कर सकती है।Ó मिड मध्य वर्ग यानी मध्य वर्ग का हल्ला हम बरसों से सुनते आये थे, लेकिन अब जाकर वह वक्त आया है, जब भारत ही नहीं दुनिया भर में 'मिडल क्लास रेवॉल्यूशनÓ हो रहा है। इसकी वजह तरक्की है। आमदनी बढऩे के साथ बहुत बड़ी तादाद में गरीब आबादी मध्य वर्ग के दायरे में कदम रख रही है। लेकिन ज्यादा उपभोग और ज्यादा सहूलियतों से जो बड़े फर्क इस बदलाव के साथ आने वाले थे, उनका अंदाजा किसी को नहीं था। नतीजा, तमाम मुल्क खुद को अचानक एक ऐसे चैलेंज से रूबरू पा रहे हैं, जिसके मुकाबले की तैयारी सिस्टम ने नहीं की गयी थी।
अण्णा आंदोलन और मध्य वर्ग पर काफी कुछ पढ़ा और सुना जा चुका है। अत: उसे दोहराने की जरूरत नहीं है। इस पर बात आगे बढ़े उससे पहले दो बातों पर गौर कर लेना जरूरी है। एक, मुद्रास्फीति की दर और दूसरा सरकार से रिश्ता। 'मिडल क्लासÓ की पहचान थोड़ी उलझी हुई है, लेकिन एक पैमाना यह है कि 2 से 20 डॉलर तक रोजाना कमाने वालों को 'मिडल क्लासÓ मान लिया जाए। इस हिसाब से लगभग चालीस करोड़ लोग भारत के मध्य वर्ग में होंगे। यह बहुत बड़ी तादाद है। लेकिन आमदनी के इस मोटे हिसाब से भी बड़ी बात मुद्रास्फीति की है, यानी वह मुकाम जहां से चीजें जबर्दस्त तरीके से बदल जाती हैं। भारत में यह बिंदु है औसत आय का 1000 डॉलर (लगभग 45000 रुपया) पर पहुंचाना। यह मोड़ अभी-अभी आया है और इसके बाद इस्तेमाल और मांग में जोरदार उछाल की उम्मीद की जा रही है। लेकिन गुंजाइश एक और है- तंगी से थोड़ा राहत पाते ही लोग अपनी सरकार से भी बेहतर सेवा की मांग करेंगे। अगर भ्रष्टïाचार के नाम पर इतना बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया तो यह इसी मांग का नतीजा है, यानी वह मुद्रास्फीति बिंदु पार करती मध्य वर्ग आबादी का युद्ध घोष था। लेकिन इस एलान में भी यह दम नहीं होता, अगर साथ में जनता का रवैया नहीं बदल गया होता। गरीब जनता सरकार से इतनी दबी होती है, कि उसे माई-बाप समझती है। लेकिन तरक्की और सहूलियतों से लैस मध्य वर्ग सरकार को सिर्फ 'सर्विस प्रवाइडरÓ समझता है और अपने टैक्स के बदले बेहतरीन सेवा की गारंटी मांगता है। सरकार और पब्लिक के बीच यह बदलता रिश्ता शासन के हर तौर-तरीके को पलटने जा रहा है। तो सवाल उठता है कि इस मोड़ पर हम अपने सफर को किस दिशा में जाता हुआ देख रहे हैं?
लगता है कि सरकारें उम्मीद के मुताबिक नहीं बदल पाएंगी, क्योंकि उन्हें बदलाव की ताकत का अभी एहसास ही नहीं हुआ है। उनके पास वह मिजाज और इंतजाम भी नहीं है। लिहाजा सुस्त शासन से इस बेहद जवान देश की बेताबी का टकराव लाजिमी होगा। हम आने वाले वक्त में शहरी आंदोलनों में तेजी आती देख सकते हैं, जो हिंसक भी हो सकती हैं। हलचल, नाराजगी और टकराव का दौर बरसों तक चलेगा और हालात बदलने के लिये मजबूर हो जाएंगे।
लेकिन इसके साथ शासन में बदलाव आना भी तय है। सरकार छोटी होती जाएगी, हमारी जिंदगी से उसका दखल घटेगा और उसकी कार्य क्षमता बढ़ेगी। यह उसकी नरमदिली की वजह से नहीं, बाहरी दबाव से होगा। जन-लोकपाल जैसे इंतजाम अपनी जगह हासिल करेंगे। हालांकि रोजमर्रा की जिंदगी से भ्रष्टïाचार पूरी तरह खत्म नहीं होगा, लेकिन उसके लिए मौके काफी घट जाएंगे।
लोकतंत्र के लिए यह दौर अच्छा साबित होगा, क्योंकि अपनी ख्वाहिशों के लिए मध्य वर्ग को सियासत में रुझान दिखाना होगा। हम सियासी बहस का दर्जा ऊपर उठता देखेंगे और चुनाव में भागीदारी बढऩे लगी। लेकिन देश सिर्फ मध्य वर्ग नहीं है। अब तक यह क्लास बिखरा हुआ था, जात और मजहब के नाम पर उसे बांटा जा सकता था, जबकि परंपरागत तौर पर गरीबी की सियासत का सिक्का चल रहा था। गांव और गरीब के फोकस में रहने के चलते सरकारें कई योजनाएं चला रही थीं। मुखर मध्य वर्ग संसाधनों के इस बंटवारे को बदलने पर मजबूर कर सकता है। नतीजतन शहरों से दूर के मुद्दे और भी दूर सरकाए जा सकते हैं।
नए शहरी मध्य वर्ग भारत की सियासत हैरतअंगेज तरीके से जुदा होगी। उसके मुद्दे अलग होंगे, मिजाज और चेहरे अलग होंगे। क्या क्षेत्रीयता, जात और मजहब का जज्बा उसमें भी बचा रहेगा? लगता है भारत को अपनी इन फितरतों से छुटकारा पाने की कोई जल्दबाजी नहीं है। लेकिन ये बातें धुंधली जरूर पडऩे लगेंगी, हालांकि भेदभाव के दूसरे मुद्दे जनम ले सकते हैं। यूरोप के तरक्की याफ्ता मुल्कों को देखिए। पैसा और सहूलियतें भी नये किस्म के असंतोष पैदा करते हैं। तब नस्ल, बाहरी आबादी, स्कूली फीस और गैर- बराबरी जैसे मुद्दों पर हंगामा होने लगता है। लेकिन उस भविष्य की बात क्यों करें। फिलहाल भारत को अपने हिस्से के हंगामे में कदम रखने दीजिए।

योजना आयोग की गरीबी रेखा एक साजिश है



हरिराम पाण्डेय
22सितम्बर 2011
योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि खानपान पर शहरों में 965 रुपये और गांवों में 781 रुपये प्रति महीना खर्च करने वाले शख्स को गरीब नहीं माना जा सकता है। गरीबी रेखा की नई परिभाषा तय करते हुए योजना आयोग ने कहा कि इस तरह शहर में 32 रुपये और गांव में हर रोज 26 रुपये खर्च करने वाला शख्स बीपीएल परिवारों को मिलने वाली सुविधा को पाने का हकदार नहीं है। अपनी यह रिपोर्ट योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को हलफनामे के तौर पर दी है। इस रिपोर्ट पर खुद प्रधानमंत्री ने हस्ताक्षर किए हैं। आयोग ने गरीबी रेखा पर नया क्राइटीरिया सुझाते हुए कहा है कि दिल्ली, मुंबई, बंगलोर और चेन्नई में चार सदस्यों वाला परिवार यदि महीने में 3860 रुपये खर्च करता है, तो वह गरीब नहीं कहा जा सकता। यह परिभाषा हास्यास्पद नहीं बेहद निर्मम है। सरकार ने 32 रुपये और 26 रुपये पर गरीबी रेखा खींच दी है। कहते हैं कि गरीबी की रेखा एक ऐसी रेखा है जो गरीब के ऊपर से और अमीर के नीचे से निकलती है।Ó यह परिभाषा किसी भी मायने में सैद्धांतिक न हो परन्तु व्यावहारिक और जमीनी परिभाषा इससे अलग नहीं हो सकती है। वास्तव में गरीबी की रेखा के जरिए राज्य ऐसे लोगों के चयन की औपचारिकता पूरी करता है जो इससे ज्यादा अभाव में जी रहे हैं कि उन्हें रोज खाना नहीं मिलता है, रोजगार का मुद्दा तो सट्टे जैसा है, नाम मात्र को छप्पर मौजूद है या नहीं है, कपड़ों के नाम पर कुछ चीथड़े वे लपेटे रहते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें विकास की प्रक्रिया में घोषित रूप से सबसे बड़ी बाधा माना जाने लगा है। हालांकि विकास का यह एक मापदण्ड भी है कि लोगों को गरीबी के दायरे से बाहर निकाला जाये, इस दुविधा की स्थिति में लगातार संसाधन झोंके जाते हैं। जिन्होंने इस रेखा का मापदंड तैयार किया है उन्हें मालूम नहीं कि गरीबी दरअसल होती क्या है?
गरीबी भूख है और उस अवस्था में जुड़ी हुई है निरन्तरता। यानी सतत भूख की स्थिति का बने रहना। गरीबी है एक उचित रहवास का अभाव, गरीबी है बीमार होने पर स्वास्थ्य सुविधा का लाभ ले पाने में अक्षम होना, विद्यालय न जा पाना और पढ़ न पाना। गरीबी है आजीविका के साधनों का अभाव और दिन में दोनों समय भोजन न मिल पाना। कुपोषण के कारण छोटे-बच्चों की होने वाली मौतें गरीबी का वीभत्स प्रमाण है और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में शक्तिहीनता, राजनैतिक व्यवस्था में प्रतिनिधित्व न होना और अवसरों का अभाव गरीबी की परिभाषा का आधार तैयार करते हैं। मूलत: सामाजिक और राजनीतिक असमानता, आर्थिक असमता का कारण बनती है। जब तक किसी व्यक्ति, परिवार, समूह या समुदाय को व्यवस्था में हिस्सेदारी नहीं मिलती है तब तक वह शनै:-शनै: विपन्नता की दिशा में अग्रसर होता जाता है। यही वह प्रक्रिया है जिसमें वह शोषण का शिकार होता है, क्षमता का विकास न होने के कारण विकल्पों के चुनाव की व्यवस्था से बाहर हो जाता है, उसके आजीविका के साधन कम होते हैं तो वह सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में निष्क्रिय हो जाता है और निर्धनता की स्थिति में पहुंच जाता है। शहरी और कस्बाई क्षेत्रों में बड़ी संख्या में महिलाएं और बच्चे कचरा बीनने और कबाड़ी का काम करते हैं। यह काम भी अपने आप में जोखिम भरा और अपमानजनक है । इस नजरिये से अगर इस रेखा का सामाजिक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो महसूस होगा कि यह सत्ता और सत्ता की दौड़ में शामिल सियासी दलों की साजिश है। कम्युनिस्टों और समाजवादियों का बुर्जुआ और सर्वहारा का वह विश्लेषण या वर्तमान योजनाकारों की ये रपटें सब एक साजिश की ओर इशारा करती हंै।
प्रो. एम रीन के अनुसार 'Óलोगों को इतना गरीब नहीं होने देना चाहिए कि उनसे घिन आने लगे या वे समाज को नुकसान पहुंचाने लगें। इस नजरिये में गरीबों के कष्ट और दुखों का नहीं बल्कि समाज की असुविधाओं और लागतों का महत्व अधिक प्रतीत होता है। गरीबी की समस्या उसी सीमा तक चिंतनीय है जहां तक कि उसके कारण, जो गरीब नहीं हों, उन्हें भी समस्याएं भुगतनी पड़ती हैं।Ó शायद इस विचार का अर्थ यह है कि गरीब को उस सीमा तक गरीब रहने देना चाहिए जहां तक उसमें प्रतिक्रिया करने की भावना न जागे। इसके लिए उसे इतना भोजन (पोषण नहीं) उपलब्ध करा दिया जाना चाहिए जिससे उसके शरीर में मौजूद भोजन की थैली भरी रहे, हो सके तो तन को कपड़े से ढांका जा सके और वह भीगे न, इसके लिये छप्पर का इंतजाम हो जाये। एक प्रश्न यह भी है कि उसका गरीब रहना भी क्या किसी के हित में हो सकता है? निश्चित रूप से गरीबी में जीवन- यापन करने वाला यह समुदाय मजदूर के रूप में सबसे ज्यादा उत्पादक समुदाय की भूमिका निभाता है और सत्ता के लिये यह मतहीन समुदाय मतदाता के रूप में सत्ता प्राप्ति का साधन है। इनकी गरीबी से मुक्त होने का मतलब बहुत ही खतरनाक है। जिस दिन गरीब, गरीबी से मुक्त हो जायेगा उस दिन वह निर्णय लेने लगेगा और अपने अधिकार हासिल करने की प्रक्रिया में शामिल होना चाहेगा ; उसे मालूम चल जायेगा कि शोषण की उत्पत्ति उसी के लिये हुई है। योजना आयोग की नयी रिपोर्ट इसी साजिश का उदाहरण है।

इस पूजा में भी रुलायेगी बारिश



हरिराम पाण्डेय
21सितम्बर 2011
पंडितों का कहना है कि इस बार पूजा में मां दुर्गा 'गजÓ यानी हाथी पर सवार होकर आएंगी। मतलब चारों तरफ सुख -समृद्धि रहेगी, क्योंकि गज लक्ष्मी का प्रतीक है। धन -धान्य से भरपूर। परंतु पूजा के दौरान महंगाई का ट्रेलर तो आपने देख ही लिया और असली सीन आयेगा तो पसीने छूट जाएंगे। इसके अलावा भूकंप ने उदासी का आलम बना दिया और इन सबके बाद कोलकाता की बारिश। हे मां दुर्गा! तुम्ही रक्षा करना। कोलकाता में जब भी बारिश हो, पानी टिप-टिप ही बरसना चाहिए। अगर बारिश झमाझम हो तो उससे सभी के तन-बदन में आग लग जाती है। ऐसी आग कि हर आदमी बेबस हो जाता है। सड़क पर हैं तो वहीं फंस गये, मेट्रो की रफ्तार थम गयी, एयरपोर्ट के रास्ते बंद हो गये और घरों-बाजारों में पानी भर गया। लंदन की तरह वल्र्ड क्लास सिटी बनाने के झिलमिल सपने को चंद मिनटों की बारिश दूर-दराज का एक पिछड़ा हुआ गांव बना देती है। तरक्की और विकास का दावा पल भर में धुल जाता है। हर कोई यह सवाल पूछता है कि आखिर ऐसा क्यों होता है लेकिन जवाब किसी के पास नहीं है। चूंकि इस नजारे से हर साल ही साक्षात्कार होता है, इसलिए अब कोई शर्म से पानी-पानी नहीं होता।
सरकारी विभाग हर साल इस जल जमाव का कोई न कोई बहाना तलाश कर लेते हैं और दोष दूसरों पर डाल देते हैं। कई बार तो दोष इंद्रदेवता पर भी चला जाता है कि जब इतनी बारिश होगी तो पानी जमा होगा ही, यह क्या कम है कि इतना पानी बरसा है। ग्राउंड लेवल की भी तो कुछ सोचो। यह यक्ष प्रश्न तब भी खड़ा रहता है कि आखिर ऐसा क्यों होता है।
महानगर में नालों की सफाई की जिम्मेदारी कोलकाता नगर निगम की है और यह स्वायत्तशासी संस्था है। इसमें एक विभाग है ड्रेनेज और एक विभाग है स्ट्रीट। नाले दोनों के कार्यक्षेत्र में आते हैं। यह विडंबना है कि सफाई के मामले में इनमें ही कोई तालमेल नहीं है। हालांकि चार फुट तक गहरे नालों की देखरेख नगर निगम के पास है और बाकी नाले भी रिकार्डों में तो अलग-अलग विभागों के पास हैं लेकिन सच तो यह है कि सफाई के मामले में सभी की हालत एक जैसी ही है।
पिछले सालों तक सावन-भादों से ठीक पहले सारे नालों की सफाई का अभियान छिड़ता था। अभियान के नाम पर येे विभाग करोड़ों खर्च कर डालते थे। नालों-नालियों का मलबा सड़क के किनारे फेंका जाता था और फिर उसका निपटान किया जाता था। इस काम में बहुतों के वारे-न्यारे होने लगे। नालों की सफाई कितनी होती थी, इसका सबूत बारिश है क्योंकि मीडिया को हेडलाइन मिल जाती थी 'पहली बारिश ने ही प्रशासन की पोल खोलीÓ।
इस बार कॉरपोरेशन ने नया फार्मूला निकाला- बारिशों से ठीक पहले विशेष अभियान क्यों चलाएं; नाले-नालियों की सफाई तो पूरे साल चलनी चाहिए। इस साल बारिशों से पहले लोगों को सिल्ट के ढेर सड़कों के किनारे नजर नहीं आए। पूरे साल कितनी सफाई हुई या होती रही है- यह इस बार भी बारिश ने साबित कर दिया। विशेष अभियान न चलाने का तर्क देने वाले अब कह रहे हैं कि कोलकाता ऐसे भी डूबता है और वैसे भी। यह सवाल तो अब भी बरकरार है कि कोलकाता डूबता क्यों है। सच तो यह है कि नाले-नालियों की सफाई हो या सड़कों से गंदगी हटाने का प्रयास, सफाई तो कुदरत ही करती है। जब जलजमाव की स्थिति पैदा होती है तो उसी से गंदगी बहकर निकल जाती है वरना सफाई के तमाम वादे तो झूठे ही हैं। सारे विभाग जिम्मेदारी का टोकरा एक-दूसरे के सिर पर सरकाते हैं या कहते हैं कि जनता ही जागरूक नहीं है। घर की गंदगी पॉलिथिन की थैलियों में भरकर नालियों में बहा दी जाती है जिससे नाले जाम हो जाते हैं।
बारिश आने पर पानी को रास्ता ही नहीं मिलता और सड़कों पर पानी भर जाता है। पाइप लाइनें बरसों पुरानी हैं जो बढ़ी हुई आबादी का बोझ बर्दाश्त नहीं कर पा रही हैं। कुछ हद तक बात में दम हो सकता है लेकिन नाले-नालियों की यह स्थिति तभी बनती है जब लगातार सफाई न हो। मामला चाहे जो हो रोते तो कोलकाता के आम आदमी ही हैं। अब मां दुर्गा चाहे हाथी पर आयें या नौका पर, स्थापना से विसर्जन तक उनके भक्तों को पानी और सड़क पर की गंदगी का मुकाबला तो करना ही होगा।

इस निर्मम देरी को क्या कहेंगे?



हरिराम पाण्डेय
20 सितम्बर 2011
बाढ़ और सूखे से पीडि़त इस देश की जनता को अब तक भूकंप जैसी आपदा से दो- चार होने का इस तरह का मौका नहीं मिला था। खास कर पश्चिम बंगाल की जनता को। इसके पूर्व कश्मीर और गुजरात में भूकंप आये थे और बेशक वे काफी विनाशक थे पर उसका प्रभाव इतना व्यापक और इतना विस्तृत क्षेत्र में नहीं फैला था। इस बार तो देश का लगभग समस्त पूर्वी और पूर्वोत्तर भाग ही हिल गया। यह देखना सचमुच दुखद है कि 6.9 तीव्रता (जी हां, 6.8 तीव्रता की शुरुआती सूचना बाद में संशोधित हो गयी थी) वाले भूकंप के 18 घंटे बाद भी हमारी खास तौर से प्रशिक्षित नेशनल डिजास्टर रिस्पॉन्स फोर्स (एनडीआरएफ) की टीम अभी तक पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी में बैठी हवाई जहाज का इंतजार कर रही है जिससे उसे सिक्किम के भूकंप प्रभावित एरिया में पहुंचाया जाना है। भूस्खलन की वजह से पश्चिम बंगाल से सिक्किम को जोडऩे वाली सड़क भी बंद हो गयी है।
हालांकि सीमित संसाधन की दिक्कत समझी जा सकती है, मगर फिर भी, शायद टाली जा सकने वाली यह देरी पीड़ादायक है। और यह पीड़ा तब गुस्से में बदल जाती है जब देश पर राज करने वाले नेताओं तथा अन्य बड़े लोगों द्वारा हवाई जहाजों के निर्मम दुरुपयोग का ख्याल आता है। जरा याद कीजिए उमर अब्दुल्ला की उन पिकनिकों को जो हाल ही में सुर्खियों में रही थीं और मायावती का पसंदीदा सैंडल मंगाने के लिए लखनऊ से मुंबई विमान भेजना भी।
ऐसा क्यों है कि जब बड़ी आपदा आती है तब हम मौके के अनुरूप प्रदर्शन करने में असमर्थ रहते हैं? हालांकि यह सच है कि कई मौकों पर प्रशासन ने तमाम बाधाओं के बावजूद बेहतरीन काम किया है, लेकिन यह अपवाद ही है। बल्कि, नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी का गठन ही ऐसी आपदाओं पर तुरत-फुरत और उचित कदम उठाने के लिए किया गया है। लेकिन, लगता है कि कुछ टॉप के राजनीतिज्ञ या बाबू जिन्हें यह तय करना होता है कि कब, क्या और कितना किया जाना है, उनकी सुस्त चाल के चलते सारे अच्छे इरादे धरे के धरे रह जाते हैं।
यह संभव है कि एनडीआरएफ की टीम को हवाई मार्ग से वहां पहुंचाने में देरी की वजह लॉजिस्टिक से जुड़ी हो। लेकिन, किसी भी आपातकालीन सेवा का मतलब ही यह है कि किसी आपदा के समय लालफीताशाही से परे हट कर तुरंत प्रशिक्षित कर्मचारियों को मौके पर तैनात किया जाए। सरकार और प्रशासन के लिए हेलिकॉप्टर्स की व्यवस्था करना और अलग- अलग निकायों ( जैसे, एयर फोर्स, सेना की एविएशन विंग, प्राइवेट हेलिकॉप्टर्स और आपदाग्रस्त राज्य से सटे राज्यों से सरकारी हेलिकॉप्टर्स) से जरूरी मशीनरी जुटाना कितना मुश्किल हो सकता है, वह भी तब जब वे वाकई गंभीर हों?
यहां तक कि एक स्कूली बच्चे को भी पता होता है कि जब आपदा आती है तो शुरुआती मदद सबसे जरूरी होती है, खासकर तब जब बात मेडिकल सहायता की हो। बाकी सब कुछ बाद में किया जा सकता है, पर पीडि़तों तक जितनी जल्दी संभव हो प्रशिक्षित मदद पहुंचना बेहद जरूरी हो जाता है। लेकिन, जब ऐसे क्षेत्र में मदद के लिए हाथ बढ़ाने वाले प्रशिक्षित कर्मचारियों को भी वहां तक पहुंचने वाले ट्रांसपोर्ट की तरह ही 18 घंटे लगें तो यह सवाल उठना लाजिमी है कि हम अपने देश के लोगों की जिंदगी को लेकर कितने सीरियस हैं।
सच तो यह है कि जब बात पूर्वोत्तर की सुख-समृद्धि की हो तो केन्द्र सरकार इसे नजरअंदाज कर जाती है। इस क्षेत्र के लोग शायद ही कभी खुद को भारत का हिस्सा मानते हैं और जब कोई देश के इस हिस्से के दौरे पर जाता है तो उसे अक्सर 'भारत से आयाÓ माना जाता है। लेकिन, एनडीआरएफ क र्मचारियों क ी तैनाती में होने वाली अक्षम्य देरी स्थानीय लोगों के ऐसे विश्वास क ो और मजबूत ही बनाती है।