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Monday, January 30, 2012

बंगाल में ममता और मारवाडिय़ों ठनी

- हरिराम पाण्डेय
पश्चिम बंगाल में इन दिनों प्रवासी राजस्थानियों , जिन्हें यहां मारवाड़ी कहा जाता है, और सरकार में तनाव पैदा हो गया है। आमरी अस्पताल कांड में गिरफ्तार निदेशकों के मामले में फिकी के बयान पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की प्रतिक्रिया से राज्य मारवाड़ी काफी नाराज से प्रतीत हो रहे हैं अस्पताल में आग की दुखद घटना के बाद अस्पताल के केवल मारवाड़ी निदेशकों को ही गिरफ्तार किया गया जबकि बंगाली निदेशकों को कार्रवाई के दायरे से बाहर रखा गया। हालांकि, एएमआरआई घटना से संबंधित बिल्कुल अव्यवस्थित तरीके से चयनित गिरफ्तारियां निश्चित रूप से निंदनीय हैं, लेकिन बंगाल में व्यापार और राजनीति के रिश्तों की बदलती प्रकृति को जानना रोचक है।
याद कीजिए 60 का दशक जब नक्सलियों के पूंजीवाद विरोधी आंदोलन के दौरान कोलकाता (तब कलकत्ता) में किसी भी मारवाड़ी व्यापारी पर कोई हमला नहीं हुआ। 80 के दशक तक खेतान, गोयनका, खेमका, चितलांगिया, कनोडिय़ा और कोठारी, लोढ़ा, रुइया और तोदी बंधुओं ने तेजी से अपना व्यापार साम्राज्य खड़ा करना शुरू कर दिया। इनमें से ज्यादातर औद्योगिक साम्राज्य उन ब्रिटिश कंपनियों के अधिग्रहणों से स्थापित हुए, जिनके प्रवतज़्क विदेशी मुद्रा विनिमय अधिनियम लागू होने के बाद भारत छोड़ गए थे। अधिनियम लागू होने के बाद उनके लिए भारतीय सहायक इकाइयों में हिस्सेदारी घटाना जरूरी था। गौर करने वाली बात यह रही कि लगातार हड़ताल और तालाबंदी की वजह से राज्य में उस दौरान काम का नुकसान होने वाले दिनों की संख्या बढ़ती जा रही थी, लेकिन मारवाड़ी समुदाय को कोई परेशानी नहीं हुई और उनकी कमाई क्षमता भी नहीं घटी। मसलन, 70 के दशक के अंत तक जूट उद्योग बड़े पैमाने पर मारवाडिय़ों के हाथों में चला गया। मजदूरी को लेकर मिलों के कर्मचारी काम बंद करते रहे और मिल मालिक अक्सर तालाबंदी की घोषणा करते रहे, नतीजतन जूट किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। ऐसे दशकों पुराने मामलों के प्रति वैचारिक रूप से सवहारा वर्ग की खैरख्वाह पार्टी का ध्यान जाना चाहिए था, लेकिन ऐसे दलों के प्रतिनिधियों ने इन मसलों की कोई परवाह नहीं की।
इसके बाद पश्चिम बंगाल की राजनीति में बनर्जी के उभार से वर्षों पुराना समीकरण बड़े पैमाने पर बिगडऩे लगा क्योंकि उद्योगपतियों ने वाम मोर्चे पर भरोसा किया था, वे भी अब बंगाल से कदम पीछे खींच रहे हैं।
जबसे ममता बनर्जी ने सत्ता संभाली तबसे उन्होंने उद्योग विरोधी अपनी छवि को खत्म करने के लिये कई उपक्रम किये। जिसमें बंगाल लीड्स ताजा उदाहरण है। बंगाल लीड्स के परिणाम के बारे में प्राप्त जानकारी के मुताबिक उद्योगपतियों ने ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखायी है। यहां यह बता देना जरूरी है कि राज्य के वित्त मंत्री अमित मित्रा को यह पद इसलिये मिला कि वे फिकी के सेक्रेटरी जनरल रह चुके हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि फिकी , जिसमें अभी भी मारवाड़ी समुदाय के उद्योगपतियों का बाहुल्य है। मित्रा बखूबी जानते हैं कि यह भारतीय उद्योगपतियों का स्वदेशी मंच हुआ करता था और उसे पक्का राज मल्टीनेशनल्स के संगठन एसोचेम के मुकाबले जी डी बिड़ला ने आरंभ किया था। परंपरागत तौर पर फिकी के अधिकांश सदस्यों के व्यवसायिक सम्पर्क कोलकाता से थे और हैं। ये लंबा सम्पर्क प्रमाणित करता है कि बंगाल में बंगाली मारवाड़ी विभाजन नहीं था। यहां तक कि चुनाव के पहले वित्त मंत्री अमित मित्रा ने कहा था कि - ममता जी मारवाड़ी समुदाय की जरूरतों, भावनाओं और अपेक्षाओं को अच्छी तरह समझती हैं और मैं समझता हूं कि राज्य में पूंजी का निवेश कैसे होगा-इसी कारण से उम्मीद थी कि यहां इस तरह के सामुदायिक विभेद नहीं होगा। यहां तक अमित मित्रा ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान साफ कहा था कि एक अर्थशास्त्री के तौर मैं विगत कई वर्षों से देख रहा हूं कि यहां से पूंजी का पलायन हो रहा है और राज्य का आर्थिक विकास हतोत्साहित हो रहा है। अगर हम बहुत जल्दी इस प्रवृत्ति को उलटने का प्रयास नहीं करते हैं तो काफी विलम्ब हो जायेगा और बात बिगड़ जायेगी। लेकिन हकीकत कुछ और ही नजर आ रही है। हालांकि मारवाड़ी समुदाय के प्रति नकारात्मक रुख रखने के लिये मशहूर पूर्ववर्ती माक्र्सवादी सरकार के लेजेंड मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने अपने सम्बंध सुधार रखे थे। उनके बारे में कहा जाता था कि सी पी एम के एम का अर्थ मारवाड़ी है।
परंतु आमरी कांड के बाद ममता जी की टिप्पणियों से पूरा समुदाय क्षेभ में है। यहां तक कि शहर के मशहूर औद्योगिक घराने के मुखिया का कहना है कि वे यहां अब और निवेश के मूड में नहीं हैं। जबकि वे महानुभाव पहले ममता जी के हर आयोजन में दिखते थे। बंगाल लीड्स सम्मेलन में भी उद्योगपति बहुत ज्यादा उत्साहित नहीं दिखे। कई बड़े उद्योगपति तो दिखे ही नहीं। कई बड़े परिवार जो अस्पताहल के धंधे में थे उनहोंने कारोबार समेटना शुरू कर दिया है और कई अस्पताल बंद हो रहे हैं। शहर के एक मशहूर अस्पताल श्री विशुद्धानंद अस्पताल के ्रदरवाजे बंद होने के बाद सरकार के आश्वासन के बाद खुला है। लेकिन कई बड़े मारवाड़ी परिवार जिन्होंने आजादी के बाद यहां की अर्थ व्यवस्था को सुधारने मे बहुत बड़ा योगदान किया है, वे अब पूंजी समेटने के चक्कर में हैं और अनमें से कई ने तो खुल कर कहना भी आरंभ कर दिया है कि वे अब यहां से कारोबार समेट कर गुजरात या राजस्थान में पूंजी लगायेंगे। यहां तक कि मारूति के पूर्व प्रबंध निदेशक जगदीश खट्टïर का कहना है कि आमरी के निदेशकों के खिलाफ जो भी कार्रवाई की जा रही है वह कानून के अनुरूप होनी चाहिये वरना इससे पूंजी निवेश प्रभावित होगा।
वतज़्मान माहौल में मारवाडिय़ों के खिलाफ सख्त शब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है। ज्यादातर मारवाडिय़ों ने कारोबार के विस्तार की योजनाएं बनाई थीं, लेकिन उनके ताजा निवेश पर विराम लग गया है। उनमें से कुछ तो कंपनी बोर्ड छोडऩे पर भी विचार कर रहे हैं, जहां वे स्वतंत्र निदेशकों की भूमिका में हैं।
ममता बनर्जी मैनिकियन (एक विशेष और प्राचीन पंथ जहां अच्छे और बुरे की सतत लड़ाई चलती है) ब्रांड की राजनीति करती हैं, जिसका मतलब है कि वामपंथ के प्रति उनका निष्ठुर रवैया हमेशा बरकरार रहेगा। लिहाजा वाम
मोर्चे से जुड़ाव का खमियाजा मारवाड़ी समुदाय को भी झेलना होगा। एएमआरआई त्रासदी से भी यही संदेश मिला है और यह देखना है कि कौन सा पक्ष इससे क्या सबक लेता है। - लेखक वरिष्ठï पत्रकार हैं

Tuesday, January 10, 2012

हिमाचल प्रदेश और हरियाणा में सर्वाधिक प्रसारित समाचार पत्र ..आज समाज.. में 10-1-2012 को प्रकाशित आलेख

Saturday, January 7, 2012

31 दिसम्बर 2011 को दिल्ली और चंडीगढ़ से प्रकाशित आज समाज में सम्पादकीय पेज पर प्रकाशित लेख


व्यापक मानवाधिकार क्रांति की जरूरत
- हरिराम पाण्डेय
आजादी के तुरत बाद नेता और प्रशासन मीडिया को 'मैनेजÓ कर समाज और विभिन्न जनसमुदायों में अपने कार्यो के प्रति धारणाओं का निर्माण करती थी। इसी 'मैनेजमेंटÓ के बल पर कई शासनकाल स्वर्णिम हो गये। इसके बाद एक परिवर्तन आया। उसमें सरकार मडिया से मिलकर जनता में बनने वाली धारणाओं को 'मैनेजÓ करती थी। आपातस्थिति के दौरान यह प्रयोग नाकाम साबित हुआ। अब एक नयी स्थिति पैदा हो गयी है। अब धारणाओं को ही नियंत्रित करने का प्रयास किया जा रहा है। पश्चिम बंगाल की ताजा राजनीति में दो स्थितियां इसका स्पष्टï उदाहरण हैं। पहली स्थिति है उद्योगीकरण के विरोध में ममता बनर्जी का लोगों के दिलो दिमाग पर छा जाना और दूसरा अस्पताल अग्निकांड में सरकार के कामकाज के प्रति प्रकार के विरोध के स्वर का अभाव।
वाम मोर्चा ने विगत 30 वर्षों के शासन काल में यहां के समाज की सामाजिक धारणाओं को एक रेखीय कर दिया था। जिसमें सत्ता को आदर्शों से जोड़ कर जनधारणाओं में विरोध को न्यूनतम कर दिया गया था। वर्ग संघर्ष का नारा देने वाली सरकार ने सबसे ज्यादा हानि संघर्ष को ही पहुंचायी लेकिन तब भी कुछ नहीं हुआ। समाजिक स्तर पर किसी प्रकार के विप्लव की चिंगारी नहीं दिखी। धारणाओं को 'मैनेजÓ करने का इससे बढिय़ा उदाहरण नहीं मिलेगा। उद्योगीकरण के उद्देश्य से भूमि अधिग्रहण को ममता जी ने बंगाल के विपन्न समाज की एक रेखीय मानसिकता को जनता के अस्तित्व से जोड़ दिया और उससे उत्पन्न स्थिति को बदलाव का कारक बना दिया। लेकिन समाज के सोच का ढांचा नहीं नहीं बदल सका। ममता जी ने इसके लिये ठीक वही 'ऑडियो- विजुअल Ó तरीका अपनाया जो आजादी की लड़ाई के आखिरी दिनों में महात्मा गांधी ने अपनाया था। इसमें धारणाओं को 'मैनेजÓ नहीं बल्कि उन्हें नियंत्रित किया जाता है। इसका ताजा उदाहरण है आमरी अस्पताल कांड।
इस अस्पताल के बेसमेंट में एक रात अचानक आग लग गयी और पूरा अस्पताल गाढ़े धुएं से भर गया। दर्जनों मरीज मारे गये। सरकार ने आनन-फानन में अस्पताल प्रबंधन के लोगों को गिरफ्तार करने का आदेश दिया और मुआवजे की घोषणा कर दी। विदेशी नेताओं ने भी सहानुभूति जाहिर की। सरकार से किसी को भी कोई शिकायत नहीं। लेकिन इस डर से इंकार नहीं किया जा सकता कि अगले चंद दिनों में ऐसी भयानक घटना फिर होगी। यह घटना इतिहास में गुम हो जायेगी। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
इसमें सबसे हैरतअंगेज बात है कि यह कांड प्रशासन और सिविल सोसायटी के सामुदायिक चिंतन की असफलता का प्रतीक है। धारणाओं को नियंत्रित करने वाले इस शासन तंत्र में उम्मीद है कि इस दिशा में कभी भी जोरदार ढंग से बात नहीं उठेगी। लोकतंत्र में ऐसी घटना हुई और अब तक कोई सार्थक कारवाई नहीं हो पायी यह न केवल स्तम्भित करने वाली घटना है बल्कि निंदनीय भी है। हमारा राज्य या हमारा मुल्क कहां है और उसका भविष्य क्या होगा वह इसीसे पता चलता है कि ऐसी घटनाओं पर सरकार क्या कार्रवाई करती है और इसके रोकथाम के लिये कितने कारगर कदम उठाये जा रहे हैं। इस घटना के प्रति जो रुख देखा गया है उससे नहीं लगता कि भविष्य सही है। आखिर क्यों?
चलिये डाक्टरों से शुरू करते हैं, क्योंकि यह एक वर्ग है जिस पर हमारे देश का स्वास्थ्य टिका है। डाक्टर जब स्नातक हो कर निकलते हैं तो 'हिप्पोके्रटीजÓ की शपथ लेते हैं। इस शपथ में कहा जाता है कि 'वे अपने रोगियों को किसी भी तरह का नुकसान नहीं पहुंचने देंगे।Ó लेकिन जो खबरें मिल रहीं हैं उससे तो लगता है कि आग लगने के बाद फायर ब्रिगेड को बुलाने के बदले वहां से डाक्टर ही सबसे पहले भागे। क्या यह मामला गैर इरादतन हत्या का नहीं है? क्या उनपर मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिये? यही बात अस्पताल के कर्मचारियों और पहरेदारों पर भी लागू होती है। हैरत होती है कि क्या प्रभावित रोगियों के परिजनों की ओर से एक सामूहिक याचिका क्यों नहीं दायर की गयी और यह भी नहीं लगता कि हमारी अदालतें इसे समुचित अवधि , मान लें कि 6 माह में, निपटा सकेगी। अब बात आती है अस्पताल के मालिकों की। जो पता चला है उसके मुताबिक अस्पताल में कई नियमों का उल्लंघन किया गया था। अग्निशमन नियमों! की पूरी अनदेखी की गयी थी। भवन निर्माण कानून की बिल्कुल परवाह नहीं की गयी थी। ऐसा लगता है कि मालिकों ने किसी भी नियम या कानून की परवाह नहीं की। वरना कोई भी सोचने समझने वाला इंसान इस घटना की पहले ही कल्पना कर सकता था। यह स्थिति साफ बताती है कि उनपर भी गैर इरादतन मानव वध का मुकदमा चलाया जाना चाहिये। दुनिया के हर सभ्य देश में इस अपराध के लिये मृत्युदंड है। अब आती है बात सरकार की। वर्तमान राज्य सरकार ने राज्य की बीमार स्वास्थ्य सेवा को ठीक करने के लिये कई कदम उठाये। उन कदमों का जम कर प्रचार भी हुआ। अस्पताल में जब आग लगी तो मुख्यमंत्री अविलम्ब घटनास्थल पर पहुंच गयीं। उन्होंने मुआवजा भी घोषित किया और दोषियों कठोर दंड की भी घोषणा की। लेकिन क्या सरकार दोषी नहीं है। सरकारी महकमों को मालूम था कि इस अस्पताल में अग्निशमन और भवन कानूनों का पूरी तरह उल्लंघन हुआ है। तब उन्होंने अस्पताल को इतने दिनों तक क्यों चलने दिया जबकि वे अनुमान लगा सकते थे कि इतनी बड़ी घटना हो सकती है। अथवा यह सरकार इतनी नाकारा है कि उसकी एजेंसियों ने कोई खबर ही नहीं दी और इतने लोगों की जान चली गयी। अगर ऐसा है तो अभी कहां - कहां कितने लोगों की जानें जाएंगी यह भगवान ही जानें। अगर सरकार जानती थी तो उसने आंखें क्यों मूंद रखी थी। बेशक किसी सरकार पर गैर इरादतन हत्या का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता लेकिन कोई सरकार अगर ऐसे संस्थानों! को बढ़ावा देती है तो क्या होगा इसका अंदाजा सहज ही लगया जा सकता है। सरकार को इतनी आसानी से नहीं बख्शा जा सकता। यह सिविल सोसायटी और कोर्ट दोनों के लिये अवसर है कि अपनी ताकत दिखाये और सरकार को इसके किये की सजा दे।
लोकतंत्र का मूल उद्देश्य जनता के जीवन, स्वतंत्रता और खुशी की पड़ताल है। जनता के प्रतिनिधियों का यह कर्तव्य है कि वह लोकतंत्र के इन आदर्शों की रक्षा करें। सरकार इस कसौटी पर बिल्कुल नाकार साबित होती है। एक अस्पताल जो अपने यहां इलाज के लिये काफी ऊंची कीमत वसूलता है वह नियमों! को ताक पर रख कर अपना कारगोबार करता है और सरकार को कोई चिंता नहीं। इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है? लोकतंत्र में सरकार द्वारा जनता के विश्वास के सर्वनाश का इससे बड़ा उदाहरण हो ही नहीं सकता।
यही हाल ह हमारी केंद्र सरकार का। रिकार्ड तोड़ घोटाले और उसके बाद भी नीचता भरी बेशर्मी से शासन करना यह लोकतंत्र के साथ गद्दारी नहीं तो और क्या है। सरकारों के इस रवैये से आम जनता के भीतर इतनी कुंठा व्याप गयी है कि उसका विरोध मर गया। यही कारण है कि लाशों पर लाशों के अंबार लग रहे हैं और जनता के बीच से आवाज नहीं उठ रही है। सिविल सोसायटी चुप है। इसके लिये कौन दोषी है? या भारत की जनता की किस्मत ही है कि उस पर वही सरकार शासन करेगी जिसमें अपनी सुरक्षा और उसके अधिकारों का कोई ख्याल नहीं है। यह बेहद खतरनाक स्थिति है। ज्वभिन्न सरकारों ने देश की सामूहिक अभिज्ञा को लगभग समाप्त कर दिया है और अब विभिन्न तंत्रों से उसे जो सूचनाएं दी जा रहीं हैं वह धारणाओं को नियंत्रित कर उसके प्रभावों को निर्देशित कर रहीं हैं। हमारे देश में एक शून्य निर्मित हो गया है। इस शून्य को भरने के लिये एक अभिज्ञ और सक्रिय सिविल सोसायटी की जरूरत है जो सूचना के निश्चेतना जनक प्रभावों को समझे। एक ऐसी सिविल सोसायटी जिसका मुख्य उद्देश्य अपने समाज के लोगों की हिफाजत , अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकार की रक्षा हो तथा जो एक ऐसे स्वतंत्र न्यायिक प्रणाली का भागीदार हो जो मुख्य उद्दश्यों! को आघात पहुंचाने वाले तत्वों को निर्दयतापूर्वक कुचल दे। बस केवल आशा की जा सकती है कि ये घटनाएं देश में एक नयी सिविल सासायटी के उद्भव का पथ तैयार करेगी और इसके बाद एक शक्तिशाली मानवाधिकार क्रांति आयेगी जो वास्तविक अर्थों में भारत को स्वतंत्र बना देगी। अगर ऐसा नहीं होता है तो हम इससे भी खराब स्थिति में जीने के लिये अभिशप्त होंगे। - लेखक वरिष्ठï पत्रकार हैं

Friday, January 6, 2012

दैनिक अमर उजाला के 6 जनवरी 2012 के अंक में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख

इंदिरा भवन के मसले पर कांग्रेस- ममता भिड़े

टूट सकता है केंद्र में यूपीए गठबंधन
- हरिराम पाण्डेय
कोलकाता के इंदिरा भवन के नाम बदलने को लेकर पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस में बढ़ते तनाव का असर अब दिल्ली में दिखने लगा है। हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। कांग्रेस को नीचा दिखाने और राज्य में उसे अप्रासंगिक बना देने की कोशिश तो तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी आरंभ से ही कर रहीं हैं। पीछे की घटनाओं को अगर नजर अंदाज कर दें तब चुनाव में सीटों के बंटवारे को लेकर हुज्जत से बात बढ़ती हुई इंदिरा भवन तक आ पहुंची है और अब दोनों पाटियां सड़कों पर मुियां ताने दिखायी पड़ रहीं हैं। हालांकि इंदिरा भवन का मसला कांग्रेसी पाखंड से ज्यादा कुछ नहीं कहा जायेगा लेकिन जिस ढंग से ममता बनर्जी ने इसे उठाया है और जिस कवि के नाम पर नया नाम करण करना चाह रहीं है वह उनकी राजनीति महत्वाकांक्षा के अलावा कुछ नहीं है। हालांकि ममता जी अब भवन का नाम नहीं बदलने पर राजी हो गयीं हैं लेकिन उसमें नजरुल स्मृत्ति संग्रहालय की बात पर वह अड़ी हुई हंैं। यद्यपि इंदिरा जी के नेमप्लेट के भीतर नजरुल का संग्रहालय राज्य में एक खास किस्म की असंगति पैदा करेगा।
इंदिरा भवन 1972 के दिसम्बर में कांग्रेस अधिवेशन के लिये बना था। वहां इंदिरा जी ने प्रवास किया था। लेकिन इसके बाद कांग्रेस की सरकार रही नहीं और माकपा के मुख्यमंत्री ज्योति बसु का वह आवास बना। कांग्रेस का वह अधिवेशन पाकिस्तान पर विजय और बंग्लादेश के बनने के भावोन्माद के साये में आयोजित हुआ था और 40 साल के बाद उस भवन को लेकर बंगाल में सियासत गरमा रही है। मंगलवार को राइटर्स बिल्डिंग (बंगाल के सचिवालय) के इतिहास में सबसे लम्बे प्रेस कांफ्रेंस में ममता बनर्जी ने कांग्रेस पर सीधा आरोप लगाया कि 'उसने तृणमूल को राजनीतिक मात देने के लिये वामपंथियों से हाथ मिला लिये हैं। Ó ममता बनर्जी ने साफ कहा कि 'उन्होंने कभी भी एक लफ्ज मनमोहन सिंह या सोनिया गांधी के बारे में कुछ भी गलत नहीं कहा पर कांग्रेस के लोग सड़कों पर खड़े होकर मुझे अपशब्द कह रहे हैं।Ó ममता बनर्जी का गुस्सा चरम पर था।
दूसरी तरफ इस अवसर का राजनीतिक दोहन करने के लिये ममता बनर्जी के प्रेस कांफ्रेंस के तुरत बाद श्ीपीएम नेता सूर्य कांत मिश्र ने उनकी आलोचना करते हुये कहा कि 'दस वर्षों तक ज्योति बसु ने उस भवन में निवास किया पर उन्होंने नाम नहीं बदले। इस कदम से तो न इंदिरा जी को प्रतिष्ठïा मिलेगी और ना नजरूल को। जहां तक कांग्रेस और माकपा के हाथ मिलाने का सवाल है ममता जी पार्टी के कार्य कर्ता इसी बहाने से दोनों दलों के लोगों पर हमले कर रहे हैं।Ó
साथ ही नजरुल जन्मोत्सव कमिटि ने भी इसका विरोध किया है और कहा है कि सरकार का यह कदम इंदिरा गांधी और नजरुल इस्लाम दोनों का अपमान है। नजरुल जन्मोत्सव कमिटि की ओर से नजरुल अकादमी की अध्यक्ष प्रो. मिरातुल नाहर ने कहा कि 'एक आदमी का नाम हटाकर दूसरे का देने का अर्थ ह दूसरे को भी अपमानित करना।Ó
हालांकि यह सच है कि ममता बनर्जी विरोधों और अवसरों की परवाह नहीं करती हैं पर मनोवैज्ञानिक तौर पर वे बेहद महत्वोन्मादी हैं और अब वे शायद ही इस जगह पीछे हटें।
ऐसा होना कोई नयी बात नहीं है। कृषि या अभावग्रस्त पृष्ठभूमि वाली महिला राजनीतिज्ञों- नेताओं के साथ अक्सर ऐसा होता है। मयावती और जय ललिता का उदारण सामने है। विख्यात समाज वैज्ञानिक हैगन के अनुसार 'महिलाओं में वर्ग परिवर्तन, खास कर कृषि या उसी तरह के वर्ग से बाहर निकल कर उच्च वर्ग की और दौडऩे के साथ ही उनके व्यक्तित्व में भी बदलाव आ जाते हैं और वे बदलाव अधिकांश सृजनहीन और नकारात्मक होते है।Ó जहां तक ममता बनर्जी का सवाल है उन्होंने लोकतांत्रिक अपेक्षाओं को मानवीय स्वर दिया है लेकिन उनकी तानाशाह प्रवृत्ति इस पर असर डाल सकती है। वे इससे वाकिफ भी हैं और जब भी तृणमूल कांग्रेस में लोकतांत्रिक कायदों की कमी के बारे में पूछा जाता है तो वे तुरत बिगड़ï जाती हैं।
महज 19 सांसदों के साथ उन्होंने 206 सांसदों वाली मजबूत कांग्रेस को इस साल चार बार पटखनी दी है और हर बार अत्यंत अहम मामले में। उन्होंने बांग्लादेश में तीस्ता नदी जल बंटवारे पर बातचीत का हिस्सा बनने से इंकार कर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ठोकर लगाई। इसके बाद खुदरा कारोबार लेकर भी अड़ी रहीं और सरकार को वह प्रस्ताव मुल्तवी करना पड़ा। तेल की कीमतों को लेकर और फिर लोकपाल के मसले पर। हर बार कांग्रेस के अहं को उन्होंने ठोकर मारी है। वे कांग्रेस को बखूबी समझती हैं। वह वही विधि अपना रहीं हैं जो कांग्रेस पार्टी अपने गठबंधन के सहयोगियों के लिये अपनाती है। अगर फ्रैंक सिनात्रा की मानें तो कह सकते हैं कि 'बात मानो नहीं तो रास्ता लोÓ की तकनीक कांग्रेस अपनाती है और अब ममता जी अपना रहीं हैं। ममता कांग्रेस से दबेंगी नहीं, क्यों कि इसके लिये उनके पास कोई कारण नहीं हैं, क्योंकि उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने के आसार नहीं के बराबर हैं। उन्हें किसी पोल के खुल जाने का डर नहीं, क्योंकि उनके पास सीबीआई से छुपाने के लिए कोई बड़ा घोटाला ही नहीं है। इसलिए वे दिल्ली की ब्लैकमेलिंग को लेकर चिंतित नहीं हैं। वे नहीं जानतीं कि निरीह या दब्बू कैसे हुआ जाए। दिल्ली भी चुप है। इस सारे प्रकरण में जो सबसे महत्वपूर्ण सियासी गुत्थी है वह है कांग्रेस की शीर्ष नेता सोनिया गांधी की चुप्पी। ममता बनर्जी का हर प्रहार केवल कांग्रेस के अहं को ठोकर नहीं मारता बल्कि प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को कमजोर भी करता है। कांग्रेस पर यह प्रहार एक तरह से राहुल गांधी के लिये मदगार भी है। यही कारण है कि कांग्रेस ममता बनर्जी के प्रहार से बचने का कोई प्रयास नहीं कर रही बल्कि वह उनके 19 सांसदों को अप्रासंगिक बना देना चाहती है।
अभी जो स्थिति है उसमें ममता बनर्जी के लगातार प्रहार दिखायी पड़ रहे हैं तो कांग्रेसी भी पीछे नहीं हैं। कांग्रेस ने किनारे से हमला बोलना शुरू कर दिया है। युवा कांग्रेस की नेता मौसम नूर ने इंदिरा भवन मामले में पश्चिम बंगाल सरकार के फैसले की कड़ी आलोचना की है। केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस तृणमूल कांग्रेस के लगातार विरोध से आजिज आ गई लगती है। यही वजह है कि पार्टी के भीतर तृणमूल कांग्रेस के बिना यूपीए गठबंधन को चलाने के लिए विकल्पों पर मंथन शुरू हो गया है। कांग्रेस ऐसे सहयोगी की तलाश कर रही है, जो हर तरह के हालात में उसके साथ रहे। पार्टी से जुड़े सूत्रों के मुताबिक उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद 22 सांसदों वाली समाजवादी पार्टी को कांग्रेस तृणमूल की जगह संभावित साथी के तौर पर देख रही है। कांग्रेस के कुछ रणनीतिकारों ने सलाह दी है कि तृणमूल को बाहर का रास्ता दिखाने के बाद कांग्रेस-सपा गठबंधन तैयार कर वामपंथी दलों के साथ पुराने रिश्ते में जान फूंककर 2014 के लोकसभा चुनाव में जाना बेहतर विकल्प होगा। कांग्रेस की हालत खासकर प्रधानमंत्री के टूटते अहं एवं विखंडित होती मर्यादाओं को देख कर लगता है कि ममता बनर्जी के सहयोग से सरकार बचाने से ज्यादा बड़ा शाप कुछ नहीं हो सकता।
तृणमूल कांग्रेस के नेता तो अब खुल्लम खल्ला कह रहे हैं कि उन्हें बंगाल में सरकार चलाने के लिये किसी की जरूरत नहीं है और कांग्रेस हाई कमान ने अपने कार्यकर्ताओं को ममता पर हमले करने की खुली छूट दे रखी है। लेकिन इसमें बंगाल के कांग्रेसियों का कुछ नहीं बनने वाला। वे सिर्फ दिल्ली के जहर को यहां उगल रहे हैं। इससे दोनों के रिश्ते नष्टï हो सकते हैं लेकिन बंगाल के कांग्रेसी नेता घाटे में रहेंगे। यह सियासी दूरंदेशी नहीं कही जा सकती है। कांग्रेस को अभी कुछ निर्णायक करनेे में लगभग तीन महीने का समय लग सकता है। उत्तर प्रदेश और अन्य 4 राज्यों में चुनाव के बाद ही कुछ हो पाने की संभावना है। उत्तर प्रदेश में जो सबसे आदर्श स्थिति होगी वह है सपा का सबसे बड़ी पार्टी के रूप में जीत कर आना लेकिन उस स्थिति में उसे सरकार चलाने के लिये कांग्रेसी सांसदों की मदद लेनी होगी। अगर ऐसा होता है तो दिल्ली ममता जी से पल्लाझाड़ सकती है और सपा को साथ ले सकती है। अगर सपा साथ आ जाती है तो 2014 तक उसके सांसद कांग्रेस के बंधुआ रहेंगे।
यह तब ही हो सकता है जब सपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरे। यदि ऐसा नहीं होता(जिसकी उम्मीद बहुत कम है) तब ममता से गठबंधन उसी समय तक रहेगा जबतक कांग्रेस के लिये मनमोहन सिंह अपरिहार्य हैं। दिल्ली के दरबार में सरगोशियां होने लगीं हैं और सियासत में कानाफूसी को शोर में बदलते देर नहीं लगती। सोशल मीडिया के इस दौर में यह शोर आनन फानन में व्यापक हो जाता है और उसके बाद जनमत का रूप ले लेता र्है। - लेखक वरिष्ठï पत्रकार हैं