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Sunday, March 25, 2012

क्या हम इस तंत्र को लोकतंत्र कह सकते हैं



हरिराम पाण्डेय ( 24.3.2012)
सरकार और जनता के रिश्तों पर बात करनी हो तो बड़ी कठिनाई होती है। अब पिछले साल राम लीला मैदान में आधी रात को हुई पुलिस कार्रवाई की ही बात लें। इस पर गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया। फैसले ने उस सबसे बड़े सवाल को रेखांकित कर दिया है जिससे हमारा लोकतंत्र मौजूदा दौर में जूझ रहा है। वह है विश्वास की कमी। देश की आम जनता अगर शांतिपूर्ण विरोध के मकसद से इक_ा होती है और वह किसी तरह की तोडफ़ोड़ जैसी गतिविधियों में शामिल नहीं होती, शांतिपूर्वक मैदान में बैठी रहती है तो यह सोचने का कोई कारण नहीं बनता कि अगले दिन कुछ ज्यादा लोग जमा हो जाएं तो कानून व्यवस्था के लिए खतरा पैदा हो जाएगा। आखिर सरकार अपने ही लोगों से इस कदर आशंकित क्यों रहती है कि शांति भंग होने की आशंका से निपटने के लिए उसकी पुलिस को शांति भंग करनी पड़ जाती है? इस आशंका को किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए स्वाभाविक तो नहीं ही कहा जाएगा।
मगर, बात दूसरी तरफ भी जाती है। लोगों का भी सरकार पर वैसा ही अविश्वास है। उनका अपने नेताओं पर, अपने मंत्रियों पर, अपने विधायकों-सांसदों पर कोई यकीन नहीं रह गया है। यह बात एक बार नहीं बार-बार रेखांकित हुई है। तो सवाल यह है कि आखिर जनता अविश्वसनीय नेताओं को क्यों स्वीकार किए हुए है? इस सवाल के दो ही जवाब हो सकते हैं। पहला जवाब तो वे सारे नेता और वे सब लोग देते हैं जिन्हें शासकों की जमात में शामिल किया जा सकता है। वह जवाब यह है कि दरअसल लोगों का अपने प्रतिनिधियों, नेताओं, मंत्रियों यानी शासकों पर अविश्वास है ही नहीं। मीडिया और अण्णाा हजारे, बाबा रामदेव जैसे चंद निहित स्वार्थी तत्व दुष्प्रचार करते हैं। अगर जनता का नेताओं पर भरोसा नहीं होता तो वह इन्हें क्यों कर बर्दाश्त करती? वह इन्हें बर्दाश्त किए जा रही है, अपने आप में यही एक तथ्य काफी है यह साबित करने को कि जनता नेताओं पर भरोसा करती है और कमोबेश असंतोष के साथ उनके नेतृत्व को स्वीकार करती है।
दूसरा जवाब यह है कि जनता का अपने नेताओं पर कोई भरोसा नहीं रहा है। वह अगर इन्हें बर्दाश्त कर रही है तो उसकी इकलौती वजह यह है कि उसके पास कोई बेहतर विकल्प नहीं है। इस जवाब के पक्ष में सबूत के तौर पर यह दलील ठोकी जाती है कि जब भी जनता को बेहतर विकल्प मिलता दिखता है - चाहे वह अण्णा हजारे हों या कोई और- तो वह उस विकल्प की ओर बढ़ती है। ऐसा गैर राजनीतिक विकल्प आम जनता में जिस तरह का जोश अचानक जगा देता है, उसी से साबित हो जाता है कि आज के पूरे राजनीतिक वर्ग से जनता किस कदर खफा है।
सबूतों के अभाव में किसी एक फैसले पर पहुंचना मुश्किल होने की वजह से हर कोई अपनी सुविधा और सहूलियत के हिसाब से किसी एक दलील को स्वीकार कर लेता है। इतना तय है कि अगर आप पहला जवाब चुनते हैं तो आपको यह मानना होगा कि आज के नेता-मंत्री जो भी कर रहे हैं उसी में देश का भला है। जहां तक थोड़े-बहुत असंतोष की बात है तो उससे निपटने के लिए कभी अलां, कभी फलां को चुनते रहें। 'सभी नेता चोर हैंÓ और 'सारे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैंÓ जैसे बयान देने का अधिकार आपके पास नहीं रह जाएगा।
अगर आप दूसरे जवाब को चुनते हैं तो और बड़ी दिक्कत में फंसेंगे। उस केस में आप इतना कहकर नहीं बच पाएंगे कि जनता ने सभी दलों को खारिज कर दिया है। आपको नया लोकतांत्रिक विकल्प भी सुझाना पड़ेगा। अगर आपको भी कोई विकल्प नहीं सूझ रहा हो तो फिर नया विकल्प खोजने या नया विकल्प बनाने की जिम्मेदारी भी आपके सिर आएगी। इन दोनों कठिन जवाबों में से कौन सा जवाब चुनना चाहिए इस कठिन सवाल पर आप माथापच्ची करें, हम उस सवाल पर लौटते हैं जिसे सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने रेखांकित किया है, विश्सवनीयता की कमी का सवाल। तो अगर नेताओं को जनता पर और जनता को नेताओं पर भरोसा नहीं रह गया है और फिर भी दोनों एक-दूसरे का पल्लू थामे हुए हैं तो सोचिए क्या हम इस तंत्र को लोकतंत्र कह सकते हैं?

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