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Friday, September 11, 2015

बिहार : सरल नहीं चुनावी गणित


10 सितम्बर 2015
आस्कर वाइल्ड ने कहा है कि‘सफलता एक विज्ञान है और यदि परिस्थितियां हैं तो परिणाम मिलेगा।’ देश की बदली- बदली सियासी फिजां में बिहार के चुनाव की तारिखें घोषित कर दी गयी हैं। पांच चरण के इस चुनाव में सब कुछ वही होगा जो अक्सर होता आया है। वैसे लम्ब चुनावी दौर हमेशा सम्पन्न दलों को लाभ पहुंचाता है। तारीखों की घोषणा के वक्त चुनाव आयोग ने खुद ईद, मोहर्रम, विजयादशमी, दिवाली और छठ पर्वों की चर्चा की और आश्वस्त किया कि सब कुछ ठीक गुजरेगा। राज्य की 243 सीटों के चुनाव को करीब तीन हफ्तों तक खींचने के पीछे आयोग का खास मकसद है। इस बार प्रत्येक पोलिंग स्टेशन पर केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती रहेगी। वोटरों को स्थानीय अराजक तत्वों की दहशत से मुक्त रखने की खास तैयारी है क्योंकि ऐसे मौकों पर लोकल प्रशासन या पुलिस अक्सर बेबस नजर आती है। बिहार के सर्वाधिक चर्चित महागठबंधन, जिसकी अगुवाई नीतीश व लालू कर रहे हैं। इस चुनाव में नीतीश और उनके साथी खुद को 100 और कांग्रेस को 40 सीटें दे रहे हैं। वे ऐसा क्यों कर रहे हैं यह समझ से परे है, जबकि 2010 के चुनाव में लालू फकत 22 सीट ही जीत सके थे उनका वोट भी 18% ही था, साथ ही, कांग्रेस भी सिर्फ 8% वोट के साथ 4सीट ही जीत पायी थी। इन 5 वर्षों मे दोनो ही पार्टियां हाशिये पर ही रही हैं और दोनों पार्टियों के पास कोई चमत्कारिक व्यक्तित्व का नेता भी नहीं है। उधर , मुस्लिम वोटर तीनों ही पार्टियों में बंटेंगे। जितना ज्यादा दलित वोट माझी के साथ शिफ्ट होगा उतना ज्यादा महागठबंधन को ही नुकसान होगा। 2010 में नीतीश और भाजपा साथ मिलकर चुनाव लड़े थे इसलिये अगड़ों का वोट भी नीतीश के साथ था मगर अलग होने के बाद नीतीश के साथ कितने हैं , यह देखना दिलचस्प रहेगा। त्योहारों के मौसम का विशेष फायदा यह मिलेगा कि देश के दूर-दराज इलाके में बसे करोड़ों बिहारी इस मौके पर अपने गांव घरों में मौजूद होंगे और वे उल्लास से अपने लोकतांत्रिक अधिकार का प्रयोग भी करना चाहेंगे। प्रवासी बिहारियों की मौजूदगी इस चुनाव के नतीजों में ठीक-ठाक उलटफेर की संभावना बनाएगी क्योंकि बाहर रोजी-रोटी कमाने की नियति इन्हें ऐसे अनुभवों से समृद्ध भी करती है जो परंपरावादी सोच को सफल चुनौती दे सके। बिहार को लेकर देश की सामान्य सोच हमेशा विरोधाभासों में दिखती है। बुद्धिमान लोगों का प्रांत कह कर इसकी तारीफ की जाती है तो छूटते ही ऐसी जगह भी बता दी जाती है जहां जात-पांत बिना कुछ नहीं चलता। यह चुनाव क्या इस विरोधाभास को मिटा पाएगा! मोदी जी ने बिहार के डी एन ए में दोष की बात कह कर जात पांत या बिहार की पुरानी मनोवृत्ति के कायम रहने का संकेत दिया है। जिन लोगों ने बायलॉजी पढ़ी है वे जानते हैं कि डी एन ए यानी ‘डीऑक्सीरीबो न्यूक्लिक एसिड’ , यह अनुवांशिक अच्छाइयां या बुराइयां आगे बढ़ाता है। यानी आसान है, चुनाव का भी डी एन ए होता होगा और उससे चुनाव की मोटे तौर पर रूप रेखा तय होती होगी। लेकिन मोटे तौर पर अगर किसी चुनाव का यही डी एन ए होता है तो बिहार के चुनाव का डी एन ए तो पूरा गड़बड़ा गया लगता है। अब देखिये ना, जो विपक्ष (लालू यादव) पिछले दस साल से सत्ता से बाहर है और उसे सबसे ज्यादा सत्ता की कमियां गिनानी चाहिए, वह मन मारकर सत्ता पक्ष की तारीफ़ कर रहा है। कैसी विडम्बना है कि राजद के हर नेता ने मन में नीतीश कुमार की सरकार की बखिया उधेड़ने के लिए न जाने कितने अलंकारों से सुसज्जित बयान तैयार रखे होंगे, लेकिन सब धरे के धरे रह गए। सियासत की मजबूरी है कि पार्टी प्रमुख लालू यादव ने चुनाव से ठीक पहले नीतीश कुमार से हाथ मिला लिया। अब कार्यकर्ता से लेकर प्रवक्ता तक सब चाहें न चाहें, नीतीश जी की तारीफ में जुटे हैं। अब बिहार चुनाव के डी एन ए का एक दूसरा गड़बड़ाया पहलू भी देखिए। दस में से लगभग नौ साल मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहे नीतीश कुमार यानी सत्ता पक्ष, अपना काम गिनाने की बजाए ये गिनाने में जुटा है कि प्रधानमंत्री जी ने देश की जनता को कैसे ठगा है और अब बिहार को कैसे ठगने की योजना बना रहे हैं। पर उनकी भी मजबूरी है। नीतीश जी के इन दस सालों की सत्ता में से लगभग आठ साल ऐसे थे जब बीजेपी उनकी सरकार का हिस्सा रही। ये पहला चुनाव है जहां विकास मुद्दा नहीं, क्‍योंकि विकास के पैमाने पर नीतीश और नरेंद्र मोदी दोनों खरे उतरते हैं। दोनों के राजनीतिक करियर में यही एक समानता है कि जब भी इन्हें मौका मिला, इन्होंने अपने नेतृत्व से विकास की एक ऐसी लकीर खींची, जिसके इनके विरोधी भी कायल रहे। तब सवाल है कि आखिर वह कौन सा मुद्दा है जिसने बिहार के चुनावी इतिहास में ऐसा व्‍यक्तिगत और हाई प्रोफाइल, हाई टेक प्रचार अभियान नहीं देखा। आखिर ये कौन सा ऐसा मुद्दा है कि नीतीश कुमार, लालू यादव और कांग्रेसी नेताओं के घर जाते हैं और अपने समर्थकों के तमाम विरोध के बावजूद उन्हें मनमानी सीट भी देते हैं। इसीलिए राजनीतिक रूप से जागरूक माने जाने वाले बिहार के वोटर को समझना होगा कि तकरीबन 61 प्रतिशत की साक्षरता वाले बिहार में, जहां 40 प्रतिशत आबादी तो सीधे-सीधे ये नहीं समझती कि डी एन ए होता क्या है और जो बाकी की 61 प्रतिशत आबादी है उसमें से भी डी एन ए के बारे में जानकारी रखने वालों का भी आंकड़ा बहुत बड़ा नहीं होगा, वहां डी एन ए चुनाव का मुद्दा क्यों बन रहा है या बनाया जा रहा है। चुनाव का डी एन ए भले गड़बड़ा रहा हो लेकिन अगर वोटिंग का डी एन ए नहीं गड़बड़ाए और विकास और सिर्फ़ विकास को देखकर हीं वोट पड़ें तो सब खुद ब खुद सुलझ जाएगा।


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