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Friday, September 11, 2015

बिहार में वोटरों का विवेक कसौटी पर


7 सितम्बर 2015
बिहार की सियासत की एक भारी ट्रेजेडी है कि वहां से उठी कोई भी राजनीतिक धारा आगे बढ़ कर किसी राजनीतिक समुद्र में समाहित होने के बजाय पहले विभिन्न धाराओं में बंट जाती है और उनसे बने पठार अलग - अलग शक्ति केंद्रों में बदल कर प्रतिद्वंद्वीता बन जाते हैं। लोकनायक जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति के उद्घोष के बाद कांग्रेस के खिलाफ बनी जनता पार्टी कुछ ही दिनों में खंड - खंड हो गयी। उसके बाद कई तरह के समुच्चय बने पर चल नहीं पाये। इस बार फिर एक महागठबंधन बना। भाजपा या नरेंद्र मोदी को बिहार में धूल चटाने की गरज से तैयार महागठबंधन ‘टेक ऑफ’ करने के पहले ही फुस्स हो गया। इस राजनीतिक घटना से किसी को आश्चर्य नहीं है। इनके पूर्व के राजनीतिक चरित्र के कारण ही इस महागठबंधन के गठन के साथ ही इसके राजनीतिक जीवनकाल को लेकर अटकलें भी लगनी शुरू हो गई थीं, क्योंकि ये सभी दल अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए एकजुट हुए थे। ऐसे में बिहार चुनाव में धर्मनिरपेक्ष मतों में बिखराव रोकने की कोशिश अब नाकाम होती दिख रही है। हर कोई जानता है कि बिहार में सपा और एनसीपी का कोई आधार नहीं है। उनके अलग होने से जदयू, राजद और कांग्रेस गठबंधन को बड़ी क्षति नहीं होने वाली है। किंतु इस बदली राजनीतिक स्थिति के बाद तय हो गया है कि ये दल धर्मनिरपेक्ष मतों में सेंधमारी जरूर करेंगे। भाजपा की कोशिश थी कि किसी तरह वह धर्मनिरपेक्ष मतों को बांट दे, उनमें बंटवारा कर दे और इस नये घटनाक्रम से वह अपने काम में सफल हो गयी। महा गठबंधन से निकले दलों का इरादा बिहार में चुनाव जीतने का नहीं है, बल्कि महागठबंधन को कमजोर करने का है। अब इन दोनों दलों के अलग से चुनाव लड़ने की स्थिति में यादव और मुस्लिम मतों के बंटने की पूरी संभावना है। अगर आप इसके पूर्व के राजनीतिक घटनाक्रमों को याद करें तो देखेंगे कि मुलायम सिंह यादव ने सांसद बर्खास्तगी के मसले पर विरोधी दलों का साथ देने के बजाय उनके विरोध में यह कहते हुए खड़े हो गये कि लोकतंत्र के लिए संसद चलना जरूरी है। उस समय उनके इस राजनीतिक ‘‘चरखा दांव’ को भाजपा के साथ उनकी बढ़ती निकटता के तौर पर देखा गया था। उसके पीछे छिपे राजनीतिक कारण कुछ भी हों। कांग्रेस ने शरद पवार पर भाजपा से सौदेबाजी का आरोप लगाया था। आज महागठबंधन से सपा के अलग होकर चुनाव लड़ने की कहानी के पीछे भी कुछ ऐसा ही कारण माना जा रहा है। इस घटना के पीछे सीबीआई का भय माना जा रहा है। चर्चा यहां तक है कि मुलायम और शरद पवार के पांव अपनों के चलते फंसे हैं कि उन्हें वैसा ही करना पड़ रहा है जो वे कभी चाहते भी नहीं। उनका रिमोट कहीं और है। अपमान और सीटों का मामला तो महज जनता को भरमाने का बहाना है। लालू यादव से समधियाने के रिश्ते से मुंह फेरना यूं ही नहीं है। यह जनता भी समझ रही है। कुछ भी हो पर ये दोनों नेता अपनी राजनीतिक विश्वसनीयता की जमीन जरूर खोते जा रहे हैं। मुलायम सिंह के लिए यह पहला मौका नहीं है जब उन्होंने अपने फायदे के लिए अपनी राजनीतिक दोस्ती को ताक पर रख दिया है। 2002 के राष्ट्रपति चुनाव में वामदलों से बात किये बिना मुलायम ​सिंह ने अचानक अब्दुल कलाम का नाम प्रस्तावित कर दिया था। इसके बाद 2008 में परमाणु करार को लेकर मुलायम सिंह वामदलों का साथ छोड़कर कांग्रेस के साथ खड़े हो गए थे। इसी तरह 2012 में राष्ट्रपति चुनाव से ठीक पहले वे ममता बनर्जी के प्रणव विरोधी रुख को देखते हुए पलट गए थे। इससे ममता पूरी तरह अलग-थलग पड़ गयी थीं। ताजा राजनीतिक घटनाक्रम तो और भी दिलचस्प है। भाजपा को यह मालूम है कि लालू, नीतीश और कांग्रेस के वोटबैंक को विभाजित किये बगैर बिहार में चुनावी फतह आसान नहीं है। इसीलिए उसने नीतीश के वोटबैंक को विभाजित करने के लिए जीतनराम मांझी को अपने साथ लिया, यादव वोटरों को तोड़ने के लिए पप्पू यादव को लालू से अलग किया। राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रघुनाथ झा सपा में शामिल हो गए हैं। अब सपा लालू से अलग हुए पप्पू यादव और एनसीपी के साथ मिलकर नया मोर्चा बनाकर चुनाव में उतरने वाली है। यह नयी चुनावी रणनीति कितनी सफल होगी यह तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा। किंतु अभी से ही बिहार में इसे ‘‘वोटकटवा’ के रूप में देखा जाने लगा है। ऐसे में बिहार के मतदाताओं का विवेक एक बार फिर कसौटी पर है।



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