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Saturday, March 12, 2016

महानगरों को बचाइये

एक तरफ भारत में स्मार्ट शहर बन रहे हैं तो दूसरी तरफ महानगर दुर्दशा के शिकार होते जा रहे हैं। पिछले दिनों, दिल्ली सरकार ने प्रदूषण और ट्रैफिक जाम के समाधान के लिए सम-विषम नंबर का एक फॉर्मूला लागू किया जिसने दिल्ली ही नहीं पूरे देश में सुर्खियां बटोरीं। इसके सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिले। लेकिन दिल्ली या कोलकाता जैसे महानगरों में बढ़ता प्रदूषण और आनुपातिक रूप से सार्वजनिक परिवहन साधनों की कमी तो समस्या का प्रत्यक्ष रूप है। दरअसल, कोलकाता जैसे शहरों में क्षमता से कई गुना ज्यादा लोग रह रहे हैं। इससे ना तो कोलकाता खुश है ना अपना घर-परिवार छोड़कर यहां आने वाले लोग खुश हैं। इससे प्रदूषण बढ़ रहा है, जीवनयापन महंगा और गुणवत्ताविहीन हो रहा है, अपराध का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है, भीड़भाड़ के चलते बदलती जीवनशैली कई बीमारियों का कारण बन रही है, ना पीने को साफ पानी उपलब्ध है ना खाने को शुद्ध-स्वच्छ खाना। करोड़ों लोग खुले में बिकने वाला धूल से सना खाना खाने को मजबूर हैं। सुरक्षित समझे जाने वाले फल जो सड़कों पर काट कर बेचे जाते हैं वे बेहद खतरनाक साबित हो रहे हैं। तमाम समस्याओं का मूल कारण यह है कि हम समस्या के मूल तक जाना ही नहीं चाहते। यदि महानगरों का बोझ कम करना है और छोटे शहरों का भी समान रूप से विकास करना है तो कुछ बेहद जरूरी कदम उठाने पर ध्यान देना चाहिये। कोलकाता या अन्य बड़े शहरों में रोजगार एक ऐसी उम्मीद है जिसके चलते लोग आते हैं। अगर छोटे शहरों में भी कल कारखाने लगाये जाते हैं तो कुछ लोग वहां भी जाएंगे, इससे शहरों पर बोझ कम होगा। सबसे पहला कदम औद्योगिक विकास का विकेंद्रीकरण हो सकता है। फिलहाल बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर और ट्रांसपोर्ट कनेक्टिविटी की जरूरत के चलते छोटे शहर इसके लिए ज्यादा अनुकूल नहीं माने जाते हैं। ऐसे में डीआईडी की शुरुआत उन उद्योगों से की जा सकती है जिनमें प्रोडक्ट को लाने-ले जाने के लिए ट्रांसपोर्ट कनेक्टिविटी की जरूरत नहीं होती। फिलहाल बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर और ट्रांसपोर्ट कनेक्टिविटी की जरूरत के चलते छोटे शहर इसके लिए ज्यादा अनुकूल नहीं माने जाते हैं। ऐसे में डीआईडी की शुरुआत उन उद्योगों से की जा सकती है जिनमें प्रोडक्ट को लाने-ले जाने के लिए ट्रांसपोर्ट कनेक्टिविटी की जरूरत नहीं होती। ऐसे उद्योगों को अपेक्षाकृत कम विकसित इन्फ्रास्ट्रक्चर वाले स्थानों पर शिफ्ट किया जा सकता है। इनमें टेलिकॉम, बीपीओ आदि जैसे सर्विस सेक्टर को महानगरों से दूर करने में प्राथमिकता दी जानी चाहिये, क्योंकि इनका संचालन छोटे शहरों में भी किया जा सकता है। साथ ही ये उद्योग उन शहरों के राजस्व में भी वृद्धि करेंगे, जिससे वहां भी वे तमाम सुविधाएं और इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित करने में मदद मिलेंगी जो आज नहीं हैं।
इसके बाद लगातार बढ़ रही जनसंख्या भी तमाम समस्याओं की जननी है। इस महासमस्या से निपटने के लिये क्या अब ये जरूरी नहीं कि भारत में भी ‘हम दो, हमारे दो’ के नारे को कानूनी रूप दे देना चाहिये, ताकि संभवतः करीब 20 साल बाद हमारे पास देश की जनसंख्या के अनुपात में संसाधन भी उपलब्ध होंगे। बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या कई समस्याओं की जड़ है; चाहे वो सड़कों पर दौड़ती भीड़ हो या भयानक जाम हो या एक नौकरी के लिए हजारों आवेदन जैसी गंभीर समस्या हो। जनसंख्या नियंत्रण के नुस्खे में हम चीन से काफी कुछ सीख सकते हैं। चीन ने अपने यहां ‘वन चाइल्ड पॉलिसी’ लागू की थी, जिसे 30 साल बाद हाल ही में ‘टू चिल्ड्रन पॉलिसी’ में तब्दील किया गया है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो दो लोग मिलकर बच्चे को जन्म देते हैं, इसलिये एक के बजाय दो बच्चों की नीति ज्यादा कारगर साबित हो सकती है इससे जन्म-मृत्यु दर का अंतर संतुलित होगा, अचानक आबादी में युवाओं का अनुपात कम होने की समस्या का सामना भी नहीं करना पड़ेगा। भले ही हम सीना तानकर आज यह बात कह रहे हैं कि हम विश्व के सबसे युवा देश के निवासी हैं और युवा हमारी ताकत हैं। लेकिन देश की स्थिति देखकर हम यह बात बेहद अच्छे से जानते हैं कि यही युवा जब बेकार बैठता है तो देश की सबसे बड़ी समस्या को जन्म देता है और कई असामाजिक गतिविधियों को अंजाम देता है। दूसरी तरफ हम भले ही श्रम शक्ति की उपलब्धता का दावा करते हैं, लेकिन ज्यादातर विकसित देश भारतीयों को मजदूरों की तरह ही देखते हैं। भले ही हम सीना तानकर आज यह बात कह रहे हैं कि हम विश्व के सबसे युवा देश के निवासी हैं और युवा हमारी ताकत हैं। लेकिन देश की स्थिति देखकर हम यह बात बेहद अच्छे से जानते हैं कि यही युवा जब बेकार बैठता है तो देश की सबसे बड़ी समस्या को जन्म देता है और कई असामाजिक गतिविधियों को अंजाम देता है। यही समस्याएं ही सारी मुश्किलों की जड़ हैं।

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