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Tuesday, March 22, 2016

"भारत माता " पर इतना विवाद क्यों

इन दिनों भारत माता और भारत माता की जय जैसे वाक्यों को लेकर विवाद बढ़ता जा रहा है। महाराष्ट्र विधानसभा में एक विधायक को इसलिये निलंबित कर दिया गया कि उसने भारत माता की जय कहने से इनकार कर दिया था। देश के और कई भागों में भी इस पर बहस चल रही है। भारत की अजीब विडम्बना है कि यहां मां शब्द के दो अर्थ ही नहीं होते बल्कि दो अभिव्यक्तियां भी होती हैं। एक मां है जो जननी है जो जन्म देती है। वह जैविक माता है। दूसरी माता भाव प्रधान हाती है। यानी इमोशनल मदर। बस सारा झगड़ा यहीं है। भाव प्रधान माता की कल्पना हमारे देश में प्राचीन काल से दुर्गा के रूप में होती है जो एक शाक्त हिंदू बिम्ब है। अवनींद्रनाथ ठाकुर के भारत माता के बिम्ब इस बिम्ब पर भावों में सुपर इम्पोज होते हैं। 1905 में स्वदेशी आंदोलन के दौरान अवनींद्रनाथ टैगोर की कूची से जब भारत माता का स्वरूप अवतरित हुआ तो देश की आजादी का सपना देख रहे लोगों की कल्पनाओं को पंख लग गये। जब यह पहली बार एक पत्रिका में छपी तो शीर्षक था स्पिरिट आफ मंदर इंडिया। अवनींद्रनाथ टैगोर ने पहले इनका नाम बंग माता रखा था बाद में भारत माता कर दिया। अगर पहला नाम बंग माता ही रह जाता तो भारत माता की विकास यात्रा कैसी होती। उस बंगाल में इस तस्वीर से पहले आनंदमठ की रचना हो चुकी थी और वंदे मातरम् गाया जाने लगा था। इस भारत माता के चार हाथ हैं। शिक्षा, दीक्षा, अन्न और वस्त्र हैं इनके हाथों में। आजाद भारत की फिल्मों में यही रोटी कपड़ा और मकान बन जाता है। कोई हथियार नहीं है, कोई झंडा नहीं है। जल्दी ही देश भर में भारत माता की अनेक तस्वीरें बनने लगीं। क्रांतिकारी संगठनों ने भारत माता की तस्वीरों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। छापों के दौरान भारत माता की तस्वीर मिलते ही अंग्रेजी हुकूमत चौकन्नी हो जाती थी। अनुशीलन समिति, युगांतर पार्टी भारत माता की तस्वीरों का इस्तेमाल करती हैं तो पंजाब में भारत माता सोसायटी, मद्रास में भारत माता एसोसिएशन का वजूद सामने आता है। सब अपनी-अपनी भारत माता गढ़ने लगते हैं लेकिन धीरे-धीरे तस्वीरों में भारत माता का रूप करीब-करीब स्थाई होने लगता है।
भारत माता के चार हाथ की जगह दो हाथ हो जाते हैं। शुरू में ध्वज दिखता है फिर त्रिशूल और तलवार दिखने लगता है। यहीं आकर भारत माता पर देवी दुर्गा का भाव सुपर इम्पोज हो गया। भारत की हमारी कल्पना में एक भारत माता भी होनी चाहिए। देश केवल कागज का नक्शा नहीं होता। उसके साथ हमारा एक भावुक रिश्ता होता है। क्योंकि अगर भारत माता नहीं होगी, तो भारत एक शुष्क भूगोल का नाम होगा, हमारी नसों में बजने वाले संगीत का नहीं, हमारे होंठों पर तिरने वाली कविता का नहीं, हमारी रगों में दौड़ने वाले खून का नहीं। लेकिन यह समझना जरूरी है कि भारत माता का बार-बार नाम लेकर हम न भारत माता का सम्मान बढ़ाते हैं न भारत की शक्ति। यह ठीक वैसा ही है, जैसे हम वक्त की पाबंदी या सच्चाई या अहिंसा को लेकर रोज महात्मा गांधी के सुझाए रास्ते की अनदेखी करते हैं, और रोज उन्हें बापू या राष्ट्रपति बताते हैं। इससे महात्मा गांधी की इज्जत बढ़ती नहीं, उल्टे कम ही होती है। जब हम एक सहिष्णु लोकतंत्र होते हैं, तो देश बड़ा लगता है। जब हम एक कट्टर समाज दिखते हैं, तो देश छोटा हो जाता है। जब हम दंगों में खून बहाते हैं, तो भारत माता शर्मिंदा होती है, जब हम बाढ़ और सुनामी में लोगों की जान बचाते हैं, तो भारत माता की इज्जत बढ़ती है। शनिवार को भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अपने भाषण में अरुण जेटली ने कहा कि हमें लगता है कि यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर बहस की गुंजाइश ही नहीं है। भारत का संविधान असहमति के लिए पूर्ण स्वतंत्रता की अनुमति देता है लेकिन राष्ट्र को तहस- नहस करने की अनुमति नहीं देता। हमने पहले पहल भारत माता को कब देखा था, जिस रूप में आज देखते हैं?
शुक्रिया उन सभी का जिन्होंने 'भारत माता की जय बोलने' के विवाद को फिर से तूल दिया। यही विवाद कभी 'वंदे मातरम्' को लेकर होता था और होता रहा है। वंदे मातरम् और भारत माता की जय की विकास यात्रा में कई वर्षों का अंतर है, मगर कब दोनों एक-दूसरे के पूरक हो जाते हैं यह ठीक- ठीक बताना मुश्किल है। इन विवादों से हमें यकीन होता है कि घबराने की जरूरत नहीं है। हम कहीं गए नहीं हैं, वहीं हैं। भारत की राजनीति ने पहले भी इस विवाद का सामना किया है और आगे जब भी होगा तो सामना कर लेगी। भारत माता की जय बोलने में न तो समस्या है, न नहीं बोलने में। समस्या है कि आप कौन होते हैं बोलने वाले कि 'भारत माता की जय' ही बोलो या देशभक्त होने का यही अंतिम प्रमाण क्यों है। ध्यान रहे कि ,चर्चा और बहस बहुत जरूरी है। इससे वो दृष्टि मिलती है, जिससे दृष्टिकोण बनता है।

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