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Thursday, March 10, 2016

हमारे सपनों का दंड बच्चों को


9 मार्च 2016

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट में दर्ज यह आंकड़ा कितना खतरनाक है, कितना डरावना है। आंकड़े में बताया गया है कि एक साल के दौरान देश में 18 साल से कम उम्र के 10,900 किशोरों ने आत्महत्या की। आत्महत्याओं की दर परीक्षाओं के मौसम में सबसे ज्यादा होती है। जब परीक्षाएं एकदम सिर पर होती हैं, और उम्मीदों का पूरा का पूरा बोझ अपनी संतानों, अपने विद्यार्थियों पर डाल दिया जाता हो, तब हर दिन अखबार में बच्चों से संबंधित एक खबर ऐसी जरूर पढ़ने को मिल जाती है। यानी वे बच्चे हैं, जिनमें जिन्दगी को लेकर सबसे ज्यादा उमंग होती है, जिस अवस्था को हर कोई अपना गोल्डन पीरियड बताता है, उस उम्र में किसी फंदे पर लटक जाना! बता दें कि आत्महत्या जैसे कदम उठाने वाले लोगों में तकरीबन छह प्रतिशत स्टूडेंट की श्रेणी में दर्ज हैं। सोचिए, 2014 में तकरीबन 1,121 बच्चे ऐसे थे, जो परीक्षा में असफल होने के कारण आत्महत्या कर बैठे! कौन है दोषी? किन पर लगना चाहिए उनकी 'हत्या' का आरोप? क्या इतना कमजोर हो चला है हमारा समाज, जो असफल बच्चों तक को दोबारा मौका नहीं दे सकता? यही नहीं हमारे समाज में बच्चों का यौन शोषण भी एक ऐसा मसला है जो उन्हें भीतर से कमजोर बना देता है। आपको हैरत होगी कि हमारे देश में हर तीन घंटे में एक बच्चे का यौन शोषण होता है और आत्महत्या करने वाले बच्चों में यौनशोषित बच्चों की संख्या दस प्रतिशत से कुछ ही कम है। अभी हाल में आयी एक खबर को पढ़कर तो हर आदमी हिल गया होगा। उस खबर में बताया गया था कि एक बच्चा था जो म्यूजिक का मास्टर था। 10 साल की उम्र में उसने अपना बैंड बना लिया, लेकिन पता नहीं क्या हुआ। रातों-रात अपनी जिन्दगी खत्म कर ली। ऐसे एक-एक बच्चे की अपनी कहानी है, अपना टैलेंट है, अपनी दक्षता है, लेकिन यह तो हमारी ही नालायकी है, जो हम बच्चों को पहचान नहीं पाते। उनके हुनर को बाहर नहीं ला पाते। घर भी, बाहर भी, स्कूल भी। बच्चे जाएं तो जाएं कहां? जब परीक्षाएं चल रही होती हैं, तो अखबारों में यह खबर मिल ही जाती है कि बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं, उन पर भारी दबाव है। दबाव के कारण आत्महत्या जैसे कदम तक उठा रहे हैं। तो इसके बीज तो हमने खुद ही बोए हैं, हम खुद ही अपराधी हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि कॉम्पीटिशन बच्चों का नहीं, पालकों का अधिक हो रहा है। इज्जत दांव पर उनकी ज्यादा लगी है। बच्चों को मोहरा बना दिया गया है। कितना खतरनाक है यह! कॉम्पीटिशन की बात आने पर एक वाकया याद आता है कि एक स्कूल में पहली पेरेंट्स-टीचर्स मीटिंग थी। प्रिंसिपल सभी अभिभावकों से मुखातिब थीं। उन्होंने अभिभावकों के सामने एक प्रस्ताव रखा - 'नए सत्र से हम कॉम्पीटिशन तो सारे करवाएंगे, लेकिन क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जीते कोई नहीं, हारे कोई नहीं। सभी को प्राइज़ मिले। सभी को बराबर की शाबाशी मिले।' इस विचार के समर्थन में कोई दो-चार ही हाथ खड़े हुए। अधिकतर पेरेंट्स का मानना था कि कॉम्पीटिशन होना ही चाहिए, किसी न किसी को पहले-दूसरे और तीसरे नंबर पर आना ही चाहिए। प्रिंसिपल महोदय का यह प्रस्ताव भरभराकर गिर गया। हमने 'तारे जमीन पर' या ‘थ्री इडियट्स ’ फिल्म में नवाचारी, बोझरहित और अपने मन की शिक्षा को कुछ रुपहले परदे पर जाना था। इससे बहुत साल पहले गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने विश्व भारती में इस तरह की शिक्षा शुरू की​ थी। गुरुदेव ने स्थानीय परिवेश के मुताबिक पाठ्यक्रम तैयार किया था। बहुत रोमांचक होता था, मक्खी, तितली और मेंढक का जीवनचक्र पूरे होता देखना, फूलों को खिलता देखना, उनका जीवन चक्र देखना और उसके माध्यम से 'संयोग और संभाविता' को समझना। ऐसा भी नहीं कि वहां के बच्चे पिछड़ जाया करते थे। पर अब , अब दिखावा तो वही है पर असलियत समाप्त हो गयी। प्रोफेसर यशपाल का यह कथन सही है कि 'वर्तमान शिक्षा प्रणाली बच्चों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति पर ताले लगाती है।' किसी कवि ने कहा है ,

बच्चो,याद रखना,हम नहीं बदलेंगे

शिक्षा की ऐसी व्यवस्था को,

जो तुम्हें आत्महत्या की तरफ ले जाती है।

यदि आप बच्चों से ईमानदारी से पूछें तो वे बताएंगे कि 'उन्हें ज्यादा मजा प्लेग्राउंड में आता है,' इसीलिए क्योंकि हमारी शिक्षा व्यवस्था ने उन्हें बोझिल बना दिया है। शिक्षकों का भी एक पक्ष हो सकता है, उनकी ट्रेनिंग में कमी हो सकती है, एक-एक शिक्षक के माथे पूरा-पूरा स्कूल संभालने की चुनौती भी हो सकती है। परंतु अपने घर को तो ऐसा मत बनाइए कि बच्चे अपनी जिन्दगी ही खत्म कर बैठें। हम क्यों अपने सपनों का दंड अपने बच्चों को दे रहे हैं। हम अभिभावक अंत में यही कहेंगे कि ,

बच्चो, हमारा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है,

शिक्षा से हो रहे इस युद्ध में

तुम जीत सको...!

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