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Friday, March 4, 2016

देश भक्ति और राष्ट्रवाद : एक प्रतिश्रुति की खोज

5 फरवरी 2016

जे एन यू के छात्र कन्हैया कुमार को राष्ट्रद्रोह के मामले में गिरफ्तार किया गया था और गुरुवार 3फरवरी 2016  को जेल से रिहा होने के बाद उसने जो बातें कहीं वह आज के संदर्भ में बेहद प्रासंगिक हैं। कन्हैया ने कहा कि , ‘हम भारत से नहीं लड़ रहे। हम भारत में आजादी मांग रहे हैं, हम समस्या से आजादी चाहते हैं।’ आज जबकि देश भक्ति और राष्ट्रवाद का ज्वार चल पड़ा है तो ऐसे में यह समझना जरूरी है कि दरअसल यह क्या है, इसकी अवधारणा क्या है? राष्ट्रवाद एक नितांत आधुनिक अवधारणा है। यह 'राष्ट्र-राज्य' की निर्मिति से जुड़ा है। एक निश्चित भूखंड एवं एक आम राजनीतिक एवं आर्थिक रूपवाली जनता के समुदाय के बीच 'एकत्व' के मनोवैज्ञानिक एहसास के साथ ही राष्ट्रीय पहचान अस्तित्व में आयी। एकत्व की यह प्रक्रिया जनता के आम रस्म-ओ -रिवाज तथा परंपरा से और तीव्र हो गयी। एंथनी डी स्मिथ ने अपनी पुस्तक ‘नेशन एंड नेशलिज्म इन ग्लोबल इरा (पेज 29)’ में लिखा है कि ‘राष्ट्रवाद का संबंध राष्ट्र के स्वरूप से है। मध्य-युग में राजनीतिक निष्ठा धर्माधारित थी। राष्ट्र एक आधुनिक अवधारणा है। यह आधुनिक पूंजीवाद, उद्योगीकरण, जन-संचार माध्यम और धर्मनिरपेक्षता का परिणाम है।’ साफ है कि अलग-अलग दौर में मातृभूमि या जन्मभूमि का दायरा और उससे जुड़ा दर्शन भी अलग-अलग रहा। राजा या बादशाह का वैश्विक सोच सिर्फ अपने साम्राज्य या राज्य का विस्तार करने तक सीमित था। तब कोई ‘भारत माता’ के लिए नहीं लड़ता था। क्योंकि ‘भारत माता’ और ‘वन्दे मातरम्’ का चिन्तन ही ब्रिटिश राज के दौरान विकसित हुआ। पौराणिक काल से लेकर अंग्रेजों के जमाने तक सैनिकों के नारे उनकी धार्मिक आस्था और प्रतीकों पर आधारित होते थे। आज भी भारतीय सेना के कई रेज़ीमेंट्स में उनके वही पुराने नारे कायम हैं, जैसे ‘जय भवानी’ और ‘सत श्री अकाल।’ अंग्रेजों ने भी यथासम्भव इन प्रतीकों को कायम रखा। क्योंकि यही प्रतीक सैनिक का मनोबल बढ़ाते थे, उन्हें प्राणोत्सर्ग के लिए प्रेरित करते थे। ब्रिटिश राज तक राजा के प्रति निष्ठा ही ‘देशभक्ति और राष्ट्रभक्ति’ का स्वरूप हुआ करती थी। तब सेनाएं अपने राजा की आन-बान-शान के लिए लड़ा करती थीं। ब्रिटिश राज में भी ‘भारतीय’ सैनिकों ने इंग्लैंड की महारानी के लिए युद्ध किया। तो क्या देशभक्ति की मौजूदा परिभाषाओं के मुताबिक, उस दौर के सैनिकों ने अंग्रेजों की शान के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करके ‘राष्ट्रद्रोह’ किया था? कतई नहीं। क्योंकि उस दौर की ‘राष्ट्रीयता’ का मतलब ही ‘स्वामी-भक्ति’ थी। इसे ही उन्होंने निभाया था। इसीलिए आजादी की लड़ाई के वक्त पर भारतीयों पर लाठियां बरसाने वाले और अंग्रेजों की नौकरी कर रहे पुलिस और सैनिकों को कभी गद्दार नहीं कहा गया।

कालान्तर में अंग्रेजी हुक़ूमत की सरहद को ही आधुनिक इंडिया की सरहद माना गया। हमारे सारे सीमा विवाद की बुनियाद यही है। अंग्रेजों का इंडिया कई ‘देशों’ से मिलकर बना था। इसीलिए वो एक देश नहीं था। इसीलिए अंग्रेजों ने भारत छोड़ते वक्त पुराने रजवाड़ों को सत्ता वापस सौंपने की बात की थी। हालांकि, अंग्रेजों की मुखालफत और आजादी की लड़ाई के दौरान भारतीय जनमानस में आधुनिक राष्ट्रवाद और देशभक्ति के ऐसे बीज पड़े, जिससे भारत को एक देश मानने का चिन्तन विकसित हुआ और इसी से मौजूदा भारत एक संघात्मक गणराज्य के रूप स्थापित हुआ। साफ है कि मौजूदा राष्ट्रवाद और देशभक्ति का अतीत ज्यादा से ज्यादा सौ साल पुराना है। जिन यूरोपीय सभ्यताओं ने हमें ‘नेशन’ की यह अवधारणा प्रदान की उनके लिए भारत को समझ पाने में दूसरी बड़ी दिक्कत ‘हिंदू’ के अर्थ को लेकर रही है। भारतीय सभ्यता की यूरोपीय समाज से गहरी दार्शनिक भिन्नता का नतीजा है कि भारतीय भाषाओं में ‘रिलीजन’ का कोई समानार्थी शब्द नहीं है और यूरोपीय भाषाओं में धर्म का। भारतीय परंपरा में जैन मत और बौद्ध धम्म जैसे अनीश्वरवादी धर्म भी हैं। जो यूरोपीय रिलीजन की समझ से बिल्कुल अलग हैं। यूरोप में अपनी समझ के हिसाब से धर्म का अर्थ रिलीजन ही मान लिया गया। अपनी बौद्धिक सीमा की सहूलियत के लिए यूरोप ने हिंदू को अपने हिसाब से सामाजिक वर्गीकरण के लिए मजहबी संप्रदाय की चौखट में बंद कर दिया। हिंदुत्व की यह अवधारणा भारत में पिछले दो सौ सालों में स्थापित हुई है। मध्यकालीन भक्ति साहित्य में भी कहीं हिंदू शब्द का संप्रदाय के रूप में प्रयोग हुआ नहीं दिखता है। धर्म को संप्रदाय का पर्याय बना कर और हिंदू का अर्थ इस तरह के धार्मिक संप्रदाय के रूप में स्थापित कर यूरोपीय साम्राज्यवाद ने भारत की बुनियादी एकता को तोड़ने का एक हथियार गढ़ लिया। समय कुछ इस तरह बदला है कि आज हमारे देश में राष्ट्र या देशभक्त और देशभक्ति एक विवेचनीय विषय हो गया है। ‘भक्ति’ और ‘भक्तों’ के बीच देश बेहाल नजर आ रहा है। अपनी भक्ति साबित करने के लिए भक्तों की भीड़ लगी हुई है। सवाल उठाया जा रहा है कि देश के असली भक्त कौन हैं? देश भक्ति के नाम पर देश में जो हंगामा हो रहा है, उसे देखकर ऐसा लगने लगा है कि क्या सच में जो लोग हंगामा कर रहे हैं, वह अपने देश से प्यार करते हैं या प्यार की नौटंकी। न्यायतंत्र के बजाए बाहुबल से कानून को लागू करवाने का यह अपूर्व मामला एक नई राजनीतिक व्यवस्था के जन्म होने के अंदेशे को भी बढ़ा गया है। मौजूदा प्रकरण ने मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था यानी वैधानिक लोकतंत्र को फिर परिभाषित करने की जरूरत पैदा कर दी है। कम से कम यह बात तो फिर से याद दिलाने की जरूरत दिख ही रही है कि हमारा लोकतंत्र एक वैधानिक लोकतंत्र यानी पोलिटी है, वरना भीड़ जमा करके फैसले लिए जाने की हालत बनाने में देर नहीं लगेगी। इसलिये , देश भक्ति और राष्ट्रवाद की इस गहमागहमी में यकीनन एक प्रतिश्रुति की खोज होनी चाहिये।

 

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