CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Tuesday, March 15, 2016

बदलाव के मौके और जरूरत

15 March 2015

मोदी शानदार ढंग से सत्ता में आये और देश की हसरतों को थाम लिया। आप यह अंदाजा लगा पाये कि कल क्या होगा, इससे पहले अगला दिन आपकी गिरेबान पकड़ लेता है। बदलाव के अलावा आज किसी बात का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है। हमारे अधैर्य से प्रेरित बदलाव। लंबे समय तक कोई सुरक्षित नहीं है, कुछ भी सुरक्षित नहीं है। अधीरता ही हमारे वक्त की लत है। हम लगातार और की मांग करते हैं, इसलिए नहीं कि हमें अधिक आवश्यकता है। हम ऐसा इसलिए करते हैं, क्योंकि अधिक की मांग करना हमारी आनु‌वांशिकी में शामिल हो गया है। हर सीजन में शॉप विंडो में कोई नई चीज आ जाती है। नया उपभोक्तावाद हमारे अधैर्य पर ही पल रहा है जैसे कि नई राजनीति। अब कुछ भी हमें संतुष्ट नहीं करता। हम हमेशा किसी नए जुनून की तलाश में रहते हैं। कन्हैया हो या रोहित वेमुला हो, स्मृति ईरानी का भाषण हो या राहुल गांधी की स्पीच। हम हर वक्त अधीर रहते हैं। हमेशा कुछ ना कुछ बदलता रहता है। हमेशा बदलाव की जरूरत से हम ग्रस्त हैं। अधीरता तो नजर न आने वाली बारूदी सुरंग की तरह हो गई है। आप शायद सबसे खराब स्थिति के लिए तैयार होंगे। किताबें छोटी होती जा रही हैं। कोई ‘यूलिसिस’ जैसा मोटा उपन्यास पढ़ने को तैयार नहीं है। लियो टालस्टॉय का ‘वॉर एंड पीस’ तो फिलहाल आउट ऑफ प्रिंट हो गया है यानी छप ही नहीं रहा। अब ज्यादा लोग शास्त्रीय संगीत के सम्मेलनों में नहीं जाते। ऐसी बात नहीं है कि उन्हें अब किशोरी अमोणकर का गायन पसंद नहीं है, लेकिन शास्त्रीय संगीत रवानी में आने के लिए बहुत वक्त लेता है और इसके औपचारिक माहौल में यह सुविधा नहीं होती कि आप चाहे जब भीतर आ जाएं और चाहे जब उठकर चलते बनें। राजनीति में चतुर लोग अपने व्यक्तित्व की खासियत बरकरार रखकर शुरुआत करते हैं। वे एक बदलाव की उम्मीद दिखाते हैं। यही बात उन्हें तत्काल अाकर्षण का केंद्र बना देती है। उन्हें आगे ले जाती है, लेकिन इस रास्ते पर बने रहना इतना आसान नहीं है। परिस्थितियों से मजबूर होकर आखिरकार प्रतिद्वंद्वी एक-दूसरे के आसपास मंडराने लगते हैं। फिर वे एक-दूसरे जैसे दिखने लगते हैं। आप वही व्यक्ति हो जाते हैं, जिसे आप सबसे ज्यादा नापसंद करते थे। राजनेता यह कड़वी हकीकत स्वीकारने के बजाय मरना पसंद करेंगे। किंतु सच यही है कि कुछ समय बाद वे एक-दूसरे जैसे दिखने लगते हैं, बातचीत की शैली समान हो जाती है अौर व्यवहार भी। आर्थिक सुधारक नरेंद्र मोदी के लिए यह एकदम सही मौका था कि वे आगे बढ़कर पुरानी रूढ़ि को नई परिभाषा देते, नए विचार आजमाते, नई चुनौतियों का सामना करने का जोखिम लेते। उनके पास उस राष्ट्र पर शासन करने के तीन वर्ष ही बचे हैं, जो खुद को दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में देखता है। इसके बजाय कि वे बीड़ा उठाकर दुनिया को बताते कि वे बदलाव को अपने तरीके संभव बना सकते हैं, उन्होंने उसी विचारधारा की नकल की, जिसकी उन्होंने इतनी खिल्ली उड़ाई, तिरस्कार किया। नतीजे में ऐसा बजट देखने को मिला है, जो दिखने, महसूस करने और सुनने में ठीक वैसा है, जैसा इतने वर्षों से हम देखते रहे हैं। मोदी जी बदलाव का मौका खो बैठे हैं और एक बार फिर हमें अहसास हो रहा है कि हम किसी को भी वोट दें, उनकी विचारधारा कोई भी क्यों न हो, परिणाम हमेशा समान ही होगा। सत्ता में वामपंथी हों या दक्षिणपंथी, चाहे कम्युनिस्ट शासन करें या जो खुद को राष्ट्रवादी कहते हैं- जैसे यह विचारधारा उनकी बपौती है- शासन करने की घिसी-पिटी बातें अक्षुण्ण बनी रहती हैं। हम वहीं अटके पड़े रहते हैं, जहां दशकों से हैं। भारत में शासन का एक ढर्रा है और जो भी सत्ता में आता है, खुद -ब-खुद इसे स्वीकार कर लेता है।

 

0 comments: