CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Friday, June 17, 2016

वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा

  अभी कुछ ही दिन हुए जब बिहार में इंटरमिडीएट की परीक्षा में गड़बड़ी के कारण अयोग्य छात्र टॉप कर गयी/ इस मामले में कई लोगों को जेल जाना पडा/ इसके कुछ साल पहले तस्वीर आयी ठगी कि परीक्षा में नक़ल कराने के लिए लोग दीवार के सहारे चौथी मजिल पर चले गए थे/ हर साल परीक्षाओं के समय इस तरह की कई घटनाएं सुनाने में आती हैं और जब नतीजे निकलते हैं तो धांधली से लेकर आत्महत्या तक की खबरें आने लगती हैं/ यह ज्वर जब उतरता है तो निजी स्कूलों के विज्ञापन का दौर शुरू हो जाता है/ जिसमें अछे परिणाम से पास होने वाले छात्रों की तसवीरें प्रकिषित होती हैं/ यही नहीएँ इसके आसपास खराब नतीजे पाने वाले बच्चों की कब्रें आती हैं और यह साल भर चलता है/ जब तक  अगली परीक्षा ना आ जाय/  इसका क्या कारण हो सकता है/ इसका कारण छात्रों और अभिभावकों की उम्मीदें हैं/ ये उम्मीदें सामाजिक प्रतिस्था और भविष्य में रोजगार के अवसरों से जुडी हैं/ जब उम्मीदें नहीं पूरी होतीं तो ये बच्चे अपना जीवन तक समाप्त कर लेते हैं/ और कुछ नहीं तो हमें इन बच्चों के बारे में सोचना होगा/ दर असल बचपन से अबतक तो वे अपने माँ बाप की उम्मीदों को पूरा करने वाले यंत्र बन कर रह गए हैहैन/ माँ बाप अपने बच्चो को डॉक्टर , इन्जिनीयर या बड़ा अफसर बनाना चाहते हैं और बच्चे उन अरमानो को पूरा करने की मशीन बन जाते हैं/ वे अपना बच्ज्पन खो देते हैं/ उनके भीतर की चंचलता खात्मा हो जाती है/ केवल पढ़ना और पढ़ना/ ये बच्चे समाज से अलग एक नया समाज अपने भीतर गढ़ लेते हैं और जब असफलता सामने आती है तो उस नए समाज में उसकी कोई दवा नहीं होती और वे बच्च्चे खुद को खत्म कर लेते है या फिर बहार वाले समाज को खत्म करने की सोचने लगते हैं/ विख्यात शिक्षाविद डॉ. जाकिर हुसैन ने बुनियादी शिक्षा पर अपनी रपट में लिखा था कि “ हमारे देश में लागू परीक्षा प्रणाली शिक्षा के लिए अभिशाप है/” 80 वर्ष पहले की इस रिपोर्ट में यह बताया गया था की परीक्षा की प्रणाली व्यर्थ है/ वास्तविकता तो यह है कि इस रिपोर्ट के आने से पहले से भी हमारे देश में यह प्रणाली लागू रही है/ दिलचस्प तथ्य तो यह है कि जब 1904 तत्कालीन गवर्नर जेनरल ने भारतीय शिक्षा नीति लागू की थी तो लिखा था कि “ प्राचीन भारत में ऐसी परीक्षा प्रणाली अज्ञात थी/” 1854 में जारी विख्यात वुड्स रिपोर्ट में भी परीक्षा को भारत में बहुत महत्वपूर्ण नहीं बताया गया था/ 1882 -83 की हंटर आयोग की रिपोर्ट ने भी किसी प्रांतीय स्तर  या बोर्ड स्तर  की परीक्षा की अनुशंषा नहीं की थी/ लेकिन अंग्रेजी शिक्षा पद्धति की नक़ल कर भारत में परीक्षा की प्रणाली लागू कर दी गयी/ हालाँकि बाद में अंग्रेजों ने भी मिडिल स्कूल तक परीक्षाओं को रद्द कर दिया/ इससे यह तो पता चलता है कि शिक्षा पर  यह अभिशाप लगभग सौ वर्षों से चल रहा है/ आजादी के बाद से अबतक जो भी आयोग या कमिटी बनी उसने परीक्षा की प्रणाली और खास कर परिणामो के रिवाज को व्यर्थ बताया और कहा की यह क्षमता का सही आकलन नहीं है/ जब से शिक्षा के अधिकार की नीति लागू हुई तब प्राथमिक शिक्षा में विस्तृत परीक्षाओं को खत्म कर अनवरत और व्यापक मूल्यांकन की तरफदारी की गयी/ लेकिन  सार्वजानिक शक्षा प्रणाली में इसे लागू नहीं किया जा सका और ना ही कोई तरजीह दी गयी/ ऐसा नहीं होने का कोई एक कारण नहीं है, कई ऐसे करक है जो रोकते है/कुछ करक तो शिक्षा प्रणाली के भीतर ही मौजूद हैं/ मसलन नयी  प्रणाली के प्रति गंभीरता, नयी  प्रनाली  में प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव , संसाधन की कमी इत्यादि/ लेकिन इसे रोकने वाला जो सबसे बड़ा और ताकतवर कारक है वह है हमारी सामाजिक पद्धति जिसपर बहुत कम ध्यान दिया जाता है/ वास्तव में हमारा समाज जातियों में बनता है और जातियों के कर्म जनम से ही तय रहते हैं/ आजादी की जंग के समय से ही इसे खत्म करने की कोशिशे हर स्तर पर चल रहीं है और बेशक इसकी ताकत घटी है पर अभी तक खत्म नहीं हुई है/ क्योकि सामाजिक स्तर से प्रतिस्था जुडी है और अंग्रेजों ने दिमाग में भर दिया की शिक्षा ही एक साधन है जिससे प्रतिस्था बची रह सकती है या बढ़ सकती है/ एक गरीब भील एकलव्य का अंगूठा काटा जाना , परशुराम को काना का शाप इस मनोवृति का उदाहरण कहा जा सकता है/

जन्मे नहीं जगत में अर्जुन कोई प्रतिबल तेरा

टंगा रहा है  इसी पर ध्यान आज तक मेरा

एकलव्य से लिया अंगूठा कधी ना मुख से आह

रखा चाहता हूँ निष्कंटक बेटा तेरी राह

 

 

एक सुचिंतित  शिक्षा प्रणाली जातियों से जुडी प्रतिष्ठा को ख़तम कर सकती है/ इसलिए प्रतिष्ठा को बचाए रखने के लिए पुरानी परीक्षा प्रणाली को बचाए रखा जा रहा है/  हैरत की बात है कि जो ल्लोग इसे समझते हैं वे क्यों नहीं इसकी मुखालफत कर रहे हैं/ वे चुप क्यों हैं/

वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा

वह क्या है जो दिखता है धुआं धुंआ सा

इसके लिए साहस  की जरूरत है,संकल्प की आवश्यकता है/ बकौल अलबरूनी “भारतियों में इसका आभाव है/ “ अलबरूनी ने लिखा है कि “ भारतीय केवल शब्दों से लड़ते हैं वे धर्मं के मामले में अपना कुछ भी दांव पर नहीं लगा सकते/” लेकिन यहाँ एक कदम आगे बढ़ कर कहा जा सकता है कि वे नै प्रणाली को लागू करने के लिए भी कुछ दांव पर नहीं लगा सकते/ जबतक कुछ लोग अपना कुछ दांव पर नहीं लगायेंगे तबतक सकारात्मक परिवर्तन नहीं हो सकता है/ हम अपने बच्चों को इसीतरह ख़ुदकुशी करते हुए देखेंगे/ बकौल केदारनाथ सिंह

ज्यादा से ज्यादा सुख सुविधा आजादी

तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में

यह अलग अलग दिखता है हर दर्पण में

0 comments: