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Saturday, June 11, 2016

बैंक कानून में सुधार अपर्याप्त

सरकारी बैंक हर देश की अर्थ व्यवस्था के हालात के मानदंड हुआ करते हैं/ सरकार की आर्थिक खास कर मौद्रिक नीतियों का जनता के बीच संचालन का जिम्मा बैंकों पर ही हुआ करता है/ अगर बैंक मुनाफे में हैं तो आर्ट व्यवस्था चंगी है और अगर बैंक घटे में हैं उनकी हालत लड़खड़ाती सी है तो यह तय है की देश की अर्थव्यवस्था गंभीर तनावों का शिकार है/ हाल में आयी एक रपट के मुताबिक़ भारतीय बैंकों को कर्ज के तौर पर इस वर्ष  200 अरब रूपए का घाटा लगा है/ अर्थशास्त्री मानते हैं इस वर्ष सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि की दर 7.9 है/ यह अर्थ व्यवस्था में सुधार के संकेत हैं/ इससे बैंकों को अपनी कमजोरी को ठीक करने में सहायता मिल सकती है/ लेकिन एक आशंका यह भी है कि इसका उलटा असर पड़े / क्योकि बैंकों का सारा संकट उसके कर्जदारों द्वारा बनाया हुआ है/ भारत में 70 प्रतिशत बैंकिंग सिस्टम सरकारी कब्जे में है और उनकी सारी मुश्किलें परिसम्पदा को लेकर है/ रिजर्व बैंक ने जब सभी बैंकों को निर्देश दिया की वह अपने अतीत की भूलों से हुई हानि को खुद पूरा करे तो शेयर बाजार में बैंकों के शेयर लुढ़क गए/ 2011 में बैंक लोन का एक तरह से बूम आया था और बड़े पैमाने पर लोगों ने कर्ज लिए तथा उन्हें चुकाने के मामले में पीछे हट गए/ हालत इतने खराब हो गए की बैंकों को 17 प्रतिशत कर्ज की राशि बट्टे ख्हते में डालनी पड़ी/ इस समस्या को जटिल बनाने में बड़े व्यापारिक घरानों की बड़ी भूमिका थी/ कुछ कर्ज तो बदकिस्मती से डूब गए/ जैसे खदानों को दिए गए कर्ज उपभोक्ता वस्तुओं की बढती कीमतों के कारण डूब गये/ कुछ कर्जों के बारे में बैंकों ने खुद गलती की/ मसलन , ढाँचा गत निर्माण के लिए दिया गाया कर्ज सिर्फ गैरजरूरी   आशावाद  कके कारण डूब गया/ बैंकों को यह उम्मीद थी की ढाँचा गत निर्माण सफलता पूर्वक सम्पन्न हो जाएगा और उसके कर्ज वापस हो जायेंगे/ लेकिन बैंको ने भारत की अड़ियल अफसरशाही के बारे में सोचा नही/ इसके कारण वे कर्ज डूब गए/ कुछ तो गलत लोगों पर भरोसा करने के कारण डूबे/ पिछली सरकार में बड़े राजनीतिज्ञों ने अपने चमचे व्यापारियों को बड़े बड़े कर्ज दिलवा दिए और बाद में हाथ मलते रह गए/  इस मामले में नरेन्द्र मादी सरकार की प्रशंशा करनी होगी/ 2014 में सत्ता संभालने के बाद सरकार ने इस तरह के भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के कदम उठाये  और बहुत हद तक इसपर अंकुश लगा/ रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के सहयोग से सरकार ने आर्थिक प्रणाली की म्कुश्किलों को दूर करने की कोशिश शुरू कर दी/ अभी हाल में पारित दिवालियापन क़ानून लागू हो जाने पर कर्ज नहीं चुकाने वालों पर लगाम लगाएगा/ कर्ज नहीं चुकाने वालों की सूचि अगर देखेंगे तो हैरत पद जायेंगे/ इनमें कई बड़े व्यवसायी हैं जो बैंकों के भीतर अपना एक गिरोह बना रखे हैं/ सरकार की मंशा है की कई सरकारी बैंकों का आपास में विलय करा दिया जाय लेकिन यूनियन के विरोद रास्ता रोक रहे हैं/ सरकार को इस मामले में काफी दृढ होना पड़ेगा/ जिन कर्जों को चुकाया नहीं जा रहा है उसके प्रति कठोरता से पेश आना होगा/ बैंकों के इक्विटी को और गिरने से बचाने  के लिए  जो पूँजी आवंटित की गयी है वह पर्याप्त नहीं है/ केडिट रेटिंग कम्पनियां बार बार चेतावनी दे रहीं हैं कि बैंकों का संकट भारत की समस्त साख को आघात पहुंचाएगा/ इसमें उलझना तो और फंस जाना तो आजमायी हुई कोशिश है/ योरोप का उदाहरण तो सबके सामने है जब बैंको का विकास में मदद देना बंद हो गया था/ यह भारत में भी हो सकता है/ रिज़र्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक़ भारत में उद्योगों को दिया जा रहा ऋण महज दो प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है/ इसके ठीक विपरीत अमरीका ने 2007 – 2008 के आर्थिक संकट के बाद जबरदस्त पूँजी निवेश किया और इसके फलस्वरूप उसकी अर्थ व्यवस्था पटरी पर लौट आयी/ भारत को इस दिशा में कदम उठाना चाहिए/ मोदी सरकार खुद को बाजार समर्तक कहती है/ इसके लिए जरूरी है कि सरकारें जो कर्ज लेती हैं वह उनपर ही डाल दिया जाय/ एक तरह से निजी लोन की तरह/ देखने की बात यह है की निजी क्षेत्र के बैंको को कर्ज के मामले में उतना घाटा नहीं उठाना पडा है जितना सरकारी क्षेत्रों के बैंकों को/ मोदी जी को समाज वादी युग के उन नियमों को भी ख़तम करना होगा जिसमें बैंकों पर यह दबाव था कि वे 20 प्रतिशत कर्ज किसानों को देंगे और ग्रामीण क्षेत्रो में बैंक की शाखाएं खोलने की मजबूरी है/ सरकार को यह बात मन से निकालनी होगी की सरकारी बैंक ही कर्ज सही तौर पर देंगे/ अगर इस तरह के बदलाव नहीं लाये गए तो आर्थिक प्रणाली में बहुत सुधार संभव नहीं है/

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