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Wednesday, November 30, 2016

बेबसी का एक समंदर दूर तक फैला हुआ

बेबसी का एक समंदर दूर तक फैला हुआ

बेबसी का एक समन्दर दूर तक फैला हुआ 

और कश्ती कागजी पतवार के साये में है

नोटबंदी के बाद हमारे शहर कोलकाता का यही मंजर है। रोजगार का संकट है। इस शहर में रोज कमाने और उस कमाई को खाकर खुद और अपने परिवार को जीवत रखने वाले लोगों का बहुल्य है। जिनसे मिलो वही कहेंगे  कि हम रोज कुआं खोदने और प्यास बुझाने वाले लोग हैं। नोटबंदी ने इन्हें सबसे ज्यादा आघात पहुंचाया है। इनका कहना है कि हम कैसे जियेंगे अगर सरकार अचानक हमारे हाथ बांध दे और कुआं खोदने की मुमानियत कर दे। नोटबंदी के इक्कीसवें दिन , हावड़ा और अन्य इलाकों में जहां निम्न मध्यवर्गीय लोग या दिहाड़ी करने वाले लोग ज्यादा रहते हैं वहां बैंकों के सामने कतारें दिख रहीं हैं। चेहरे पर एक खास किस्म की बेचारगी और बेबसी। बैंक ाटों बाद खुलेंगे , कतारें सुबह से लगी हैं और वह भी फकत दो हजार रुपयों के लिये। अमीर घरों के काम का बोझ अपने घुटनों पर उठाये रखने वाली महिलाएं बैंकों के सामने सुबह से कतार में हैं। उनपर दोहरी मार पड़ रही है काम पर नहीं जायेंगी तो पैसे कटेंगे और यहां दो हजार रुपये नहीं निकाल पायी तो चूल्हा कैसे जलेगा।
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है

उसी के दम पे रौनक आपके बंगले में आयी है

 कैशलेस समाज बनाने के चक्कर में कैशविहीन समाज बनता जा रहा है। कतार में खड़े मिल जायेंगे असम , बिहार, बंगाल, झारखंड , उत्तर प्रदेश और नेपाल के मजदूर। लापियरे का सिटी ऑफ जॉय कहा जाने वाला यह एक अजीब शहर है जहां खास काम के मजदूर खास इलाके में चौराहे पर बैठे मिलते हैं। मजदूरी कराने वाले लोग उन्हें वहां से ले जाते हैं बुलाकर , काम करवाते हैं और मजदूरी देते हैं। चाहे वह तालों की चाबी बनाने वाले हों या पानी का पाइप सुधारने वाले या सफेदी करने वाले या हाथ रिक्शा या ठेला खीचने वाले, गाड़ियों से सामान उतारने वाले या ठेले पर हिमालय लेकर चलने वाले वाहकों को पुल की चढ़ाई पर पीछे से ठेलने वाले ,सब के सब मिलेते हैं खास खास जगहों में बैठे हुये। यह इनके अड्डे हैं। इनको काम मिलना बंद हो गया और बंद हो गया है पेट भरने का इंतजाम। यही शादियों का मौसम भी है। कुछ मजदूरों को शादियों में झाड़ू बुहारी , बर्तन धोने या अतिथियों की अन्य सेवायें करने का काम मिलता है तो उन्हें ठेकेदार पुराने पांच सौके नोट देता हे जिसका बस वाल छुट्टा नहीं देता और कई कई किलोमीटर चल कर वे वहां आते हैं जहां फुटपाथ उनका बसेरा है। इनकी पीड़ा का क्या होगा, वे केसे जियेंगे। 
रोटी कितनी महंगी है ये वो औरत बतायेगी

जिसने जिस्म गिरवी रख के ये कीमत चुकाई है
अगर कोई यह बात उठाता है तो समर्थक उसकी खिलली उड़ाते हैं। इस नोटबंदी से सबसे ज्यादा उतपीड़ित हुए हैं तो कोलकाता या उसके आस पास के उपनगर जैसे स्थान। मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने विरोदा का स्वर दिया तो उनकी हंसी उड़ायी जा रही है। उनके प्रयास को राजनीतिक स्वार्थ साधना बताया जा रहा है। 
जहर देते हैं उसको हम कि ले जाते हैं सूली पर 

यही हर दौर के मंसूर का अंजाम होता है

उन गरीबों की भूख के बारे में साचें जिनके पास आधार कार्ड नहीं है और इस के कारण उन्हें बैकों से वापस कर दिया गया। वे अपने पैसे तक का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। इन्हें कुछ दलाल अपने आधार कार्ड देकर हजार पांच सौ के नोट बदलवाने के लिये कतार में खड़े कर देते हैं। ये लाग मामूली मजदूरी पर यह कार्य करते हैं। नोटबंदी से किस काले धन पर रोक लगेगी यह तो प्रभु ही जाने पर इन गरीबों के जीवन का दुख तो बढ़ ही जायेगा। 
गर चंद तवारिखी तहरीर बदल दोगे 

क्या इनसे किसी कौम की तकदीर बदल दोगे

हमारे देश की अर्थ व्यवस्था में गरीबो की गणना शायद ही कभी होती है क्योंकि उन्हें सब्सीडी भकोसने वाला और देश के तीव्र आर्थिक विकास में रोड़े अटकाने वाला माना जाता है। उनसे यह उम्मीद की जाती है कि स्मार्ट सिटी बनाने के लिये या उद्योगीकरण के लिये अगर उनकी जमीन ले ली जाय तो वे बोलें नहीं , उनकी झोपड़ियां तोड़ दी जाय तो कराहें तक नहीं। इस अपेक्षा के बावजूद इतनी निर्दयता और अड़ियलपन कि रातों रात देश की अर्थव्यवस्था का 86 प्रतिशत भाग रद्दी घोषित कर दिया जाय और इनके बारे में सोचा तक ना जाय। 
उधर जम्हूरियत का ढोल पीटे जा रहा है वो 

इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है ,नबाबी है
सरकार ने उन लाखों लोगों के बारे में सोचा क्या जिनके पास कार्ड नहीं हैं, वे दूधपीते बच्चे, बूढ़े और बीमार लोग क्या करेंगे?जिस अच्छे दिन के सपने हमारे प्रदानमंत्री जी दिखा रहे हैं वह तो दु:स्वप्न साबित हो रहा है और आम लोगों पर जोर दिया जा रहा है कि वे इसे सुहाना तथा रचनाशील बतायें। 

तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है 

मगर ये आंकड़े झूठे हैं, ये दावा किताबी है

नोटबंदी के कारण जो विपत्ति आयी है वह गरीबों और साधनहीनों को सर्वाधिक उत्पीड़ित कर रही है लेकिन उनसे अपील की जा रही है कि वे इस दुख को बर्दाश्त करें। नेता के समर्थक तालियां बजाते हैं। 
एक जन सेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिये

चार छ: चमचे रहें, माइक रहे माला रहे

Tuesday, November 29, 2016

भारत का ज्ञान संकट

भारत का ज्ञान संकट
हमारे देश की शिक्षा की सबसे बड़ी विडम्बना है कि हम या हमारी समाज या शासन व्यवस्था शिक्षा के ‘इनपुट’ पर ज्यादा जोर देती है ‘आउटपुट’  पर नहीं। भारत ने इस साल पहली बार ‘प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टुडेंट असेसमेंट (पीसा)’ में भाग लिया और बड़े शर्म के साथ कहना पड़ता है कि हमारी रैंकिंग 74 में से 72वें स्थान पर थी। देश में शिक्षा की स्तिथि की वार्षिक रपट ‘एनुअल स्टेटस ऑफ एडुकेशन रिपोर्ट (ए एस इ आर)’ एक साल के स्थगन के बाद इस वर्ष जारी हुई। 2014 के पहले 10 साल तक हर साल इस रपट में यह बताया गया कि दाखिला भी पूरा नहीं पड़ता और साथ ही पढ़ाई की भी स्थिति ठीक नहीं है। 2005 में जब ए एस ई आर को चालू  किया गया था तब भी कोई शिक्षा के बारे में यानी बच्चे कितना जान पा रहे हैं इस पर बहस नहीं थी बल्कि शिक्षण पर बहस ही शिक्षा पर बहस का मान दंड थी। बहस होती थी संसाधन पर। जैसे शिक्षकों की नियुक्ति, शिक्षा संस्थानों की संख्या में वृद्दि इत्यादि। यही कारण है कि विगत कुछ वर्षो में देश के कोने कोने में मंहगे और तड़क भड़क वाले शिक्षण संस्थान खुल गये। गांव गांव में अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की भरमार हो गयी। काई यह नहीं देखता कि बच्चे या छात्र क्या पढ़ रहे हैं चर्चा का मुद्दा रहता था कि वे कहां पढ़ रहे हैं। यहां तक कि जब 2010 में शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुआ तब भी सारा जोर इनपुट पर था इसके लाभ पर नहीं था। इसी दिशा में पांच साल की और यात्रा के बाद अब शिक्षा यानी बच्चे सचमुच शिक्षित हो पा रहे हैं या नहीं जिसे अंग्रेजी में कहते हैं ‘लर्निंग’ पर  बहस शुरू हुई है ना कि संसाधनों पर। आज कल राज्य स्तरीय आकलन पद्धतियां चालू की गयीं हैं। एन सी ई आर टी ने एन ए एस चालू किया है। मानव संसधन मंत्रालय गणना आकलन (सेसस असेसमेंट) पद्धति भही चालू करने जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ससटेनेबल डेवेलपमेंट गोल (एस डी जी) चालू होने वाला है। इसमें शिक्षा र्कंी उपलब्धियों और संसाधनों दोनो का आकलन होगा न कि केवल संसाधन का। यह सब बड़ा ही प्रोत्साहन जनक है। इससे उम्मीद की जा सकती है कि नीति निर्माण में शिक्षा की उपलब्धियों यानी ज्ञान को स्थान दिया जायेगा। यह इससे भी पता चलता है कि सरकार लगभग तीन दशकों के बाद नयी शिक्षानीति का मसौदा तैयार कर रही है। लेकिन अपनी पीठ खुद थपथपाने के पहले हमें यह देखना जरूरी है कि इस नयी नीति के लिये किन रेकार्ड्स या अभिलेखों को आधार बनाया जा रहा है। यदि हम ए एस ई आर के विगत दस वर्षों के शिक्षा की उपलब्धियों(लर्निंग) के आंकड़े देखें तो पायेंगे कि 2010 से बुनियादी शिक्षा या बुनियादी ज्ञान की स्थिति में उत्तरोत्तर गिरावट आयी है। आधे से ज्यादा बच्चे प्राइमरी कक्षा पार कर जाते हैं और पढ़ना नहीं सीख पाते हैं। इसका असर आगे की शिक्षा पर पड़ता है। आप सोच सकते हैं कि ऐसे बच्चे ऊंची कक्षा में जा कर क्या करेंगे। इसके अलावा जब बच्चे ऊंची क्लास में जाते हैं तो उनकी आगे की यात्रायानी ट्रेजेक्ट्री एकदम सपाट होती है। एक बार अगर बच्चा पीछे छूट जाता है तो ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि वह दुबारा उस विंदु पर पहुंच जाय जहां और बच्चे हैं। इसके कारण लगातार शिक्षा या ज्ञान की हानि होने लगती है। इसका साफ असर दिखता है कि ऊंची कक्षा में भी कई छात्र ठीक से पढ़ नहीं पाते। उनके पाठ अशुद्दा होते हैं, उच्चरण अशुद्ध होते हैं।  2014 में किये गये एक सर्वे के मुताबिक आठवीं क्लास के 25 प्रतिशत  छात्र कक्षा दो के पाठ का ठीक से या कहें शुद्ध वाचन नहीं कर पाते थे। यही नहीं बच्चे आगे की कक्षा में लगातार मंद होते जा रहे हैं। फर्ज करें एक बच्चा 2009 में कक्षा 3 में अपनी पठन यात्रा आरंभ करता है। तो 2010 में वह चौथी कक्षा में और 2011 में पंचवीं कक्षा में वह जायेगा। लेकिन अगर उसके सहपाठियों का आकलन करेंगे तो पता चलेगा कि वे पिछली कक्षा से मंद हैं। इसका मतलब है कि बच्चें में शिक्षा का गुणत्मक प्रभाव उत्तरोत्तर घट रहा है। यह खतरनाक संकेत है पर पर यह नया नहीं है और ए एस ई आर कोई पहली संस्था नहीं है जिसने इस ओर संकेत किया है। एन सी ई आर टी ने एन ए एस के माध्यम से यह बताया कि बच्चों के ज्ञान के स्तर में लगातार गिरावट आ रही है। अब जब पहली बार ‘एडुकेशन इनिशियेटिव’  द्वारा किये जा रहे सर्वेक्षण   ‘पीसा’ में  भारत ने भाग लिया तो वह 74 देशों में 72 वें स्थान पर आया। यानी 71 देशों में शिक्षा की ज्ञान प्रदाता स्थिति हमसे बेहतर है। इस सर्वेक्षण से एक बड़ी दिलचस्प बात उभर कर आयी कि बड़े और महंगे इलीट स्कूलों के छात्र भी अच्छा नहीं कर रहे हैं, उनके ज्ञान का स्तर भी सही नहीं है। हालांकि यह आकलन आखिरी नहीं है और भी आकलन की जरूरत है और भी सर्वेक्षण की आवश्यकता है। सभी स्कूलों के गणना आकलन की भी जरूरत है। लेकिन इससे पहले जरूरी है कि इसके लिये हमारा उद्देश्य क्या है। हमारा उद्देश्य हो कि इन समस्याओं को कक्षा में ही सुलझाया जाय। हम अपना ध्यान ज्ञान की ओर ले जा रहे हैं और देश में इस समय ज्ञान का संकट है। इसमें सिर्फ सर्वेक्षण आकलन ही जरूरी नहीं है। 

Monday, November 28, 2016

तीन हफ्तों में दो बार रोये पी एम

तीन हफ्तों में दो बार रोये पी एम
नोटबंदी को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने आर्थिक सर्जिकल स्ट्राइक कहा है। इस सर्जिकल स्ट्राइक का शिकार हुये देश को खास कर देश की जनता को तीन हफ्ते हो गये। देश में मौजूद कालधन को खत्म करने के लिये प्रदागनमंत्री नरेंद्र मोदी ने जादू की छड़ी घामायी और एक ही झटके में हजार- पांच सौ के नोट बेकार हो गये, बिल्कुल रद्दी के मानिंद। देश के 87 प्रतिशत नोट चलन से बाहर हो गये। जब मोदी जी ने नोटबंदी की घोषणा की तो  मुख्य कारण यह था कि कारोबार से सरकार को उचित टैक्स नहीं मिल रहे थे। यह जानकर देश ने इस घोषण का स्वागत किया। इसके लिये सरकार ने एक और कारण बताया कि वह जाली नोटों के आतंक को खत्म करना चाहती है तथा आतंकवाद को मिलने वाले धन पर लगाम लगाना चाहती है। बेशक जली नोट एक गंभीर समस्या बन रहा था। क्योंकि जितने  नकली नोट पकड़े गये थे उनमें 41 प्रतिशत 500 के थे 35 प्रतिशत हजार के थे। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि अप्रैल में 500 रुपयो के 1646 करोड़ नोट और हजार के 1642 करोड़ नोट चलन थे। इनकी संख्या को देखते हुये जाली नोट कोई बड़ी संख्या में नहीं थे। इतनी बड़ी तो नहीं थे कि व्यवस्था में कुछ करके उन्हें हटाया नहीं जा सकता था। लेकिन देश विरोधी होने के इल्जाम के बावजूद यह कहा जा सकता यह कदम अधूरी तैयारी के आधार पर उठाया गया और देश की अर्थ व्यवस्था अवरुद्ध हो गयी। इससे करोड़ों ऐसे लोगों के सामने कठिनायी पैदा हो गयी जो रोज कमाते खाते थे, सब्जी , फल इत्यादि बेचते थे। जो लोग खेतो में फसल की कटाई में लगे थे या बुवाई का सपना देख रहे थे। लोग मोदी की कार्यशैली पर टीका टिप्पणी करने लगे। अपने चौड़े सीने पर गौरव के बावजूद विगत बीस दिनों में दो बार मोदी जी की आंखें भर आयीं। पहली बार गेवा में भाषण के दौरान और दूसरी बार पिछले मंगलवार को एन डी ए के सदस्यों को सम्बोधित करत समय। अब देखना यह है कि ऐसा क्या हुआ कि मोदी जी की आंखें भर आयीं। कारण साफ है। नोट हमारे जनजीवन की गतिविदि की जान हैं। इस जान पर बवाल डालने के पहले उन्हें पर्याप्त नोटों की व्यवस्था कर लेनी चाहिये थी। यही नहीं सरकार को 100 रुपयों के नोटों या अन्य छोटे नोटों का भी प्रचुर बंदोबस्त कर लेना चाहिये था। समस्या इतनी ही नहीं है इसके अलावा नोटों की कमी को भरने में रिजर्व बैंक को काफी वक्त लगेगा। देश के करेंसी नोट प्रिटिंग प्रेस की क्षमता इतनी नहीं है कि सरकार जल्दी से या दो एक महीनों में हजार पांच सौ के नोट छाप कर कमी को पूरा कर सके। भारत सरकार के पास नोट छापने के चार प्रेस हैं, इनमें एक मध्य प्रदेश के देवास में है, दूसरा महाराष्ट्र के नासिक में है , तीसरा कर्नाटक के मैसूर में है और चौथा पश्चिम बंगाल के सालबनी में है। रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक अर्थ व्यवस्था में हजार और पांच सौ के कुल नोट की संख्या 22 अरब थी। मूल्य के आधार पर देश में 86 प्रतिशत हजार पांच सौ के नोट है जिसका मूल्य 14 खरब है।  सरकार के सभी नोट प्रेस मिल कर 2015-16में हजार पांच सौ के  5 अरब नोट  छापे थे और 2016-17 में 8 अरब नोट छापने का आर्डर था।  अगर देश के सभी प्रेस को केवल दो हजार और पांच सौ के नोट छापने के काम लगा दिया जाय तब भी ये साल भर में 23 अरब नोट छाप सकेंगे इसमें 100 ओर उससे छोटे मूल्य के नोट नहीं शामिल हैं। यहां देश में दो हजार और पांच सौ के 22 अरब नोटों की जरूरत है। अब अगर सारे बड़े नोट आ जाते हैं तब भी अव्यवस्था फैल जायेगी। अतएव हालात सुधरने में साल भर से ज्यादा लग सकता है। मंगलवार को पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राज्य सभा में कहा कि इस नोटबंदी से जी डी पी में 2 प्रतिशत की गिरावट आयेगी। बडझे अर्थशा​िस्त्रयों का भी मानना है कि इससे जी डी पी में 2.2 प्रतिशत की गिरावट आयेगी।  इससे निकट भविष्य में भारी त्रासद स्थिति आ सकती है। सोचिये कि कुल जी डी पी का में अनौपचारिक क्षेत्र का हिस्सा 45 प्रतिशत है और उसका सकल  कारोबार नगदी में होता है। यही नहीं देश में 16.5 करोड़ लोगों के बैंक खाते नहीं हैं। सरकार की जन धन योजना ने बहुत लोगों के खाते खुलवाये। लेकिन आधे खातों में कुछ भी नहीं है। जीरो बैलेंस है।  यही नहीं जरा इस नोटबंदी से होने वाली हानि को देखें। देश में 45 करोड़ लोग मजदूरी करते हैं। इनमें केवल 7 प्रतिशत या 3.10 करोड़ लोग संगठित क्षेत्र में हैं और 41.5 करोड़ लोग असंगठित क्षेत्र में हैं। इनमें आदो तो खेती या निर्माण के काम या खुदरा कामों में हैं। इनमें से अधिकांश लोग दिहाड़ी पर काम करते हैं। इसलिये सरकार ने जिन नोटों को रद्द किया उनमें से अधिकांश  दरअसल चलन में थे, कालेधन के रूप में जमा नहीं थे। हो सकता है अर्थ व्यवस्था पूरी तरह अवरुद्ध ना हो जाय पर बहुत से घर ऐसे हैं जहां इसके कारण चूल्हा नहीं जल पा रहा है। अब आर्थिक अव्यवस्था को संभाल पाने में अक्षम प्रदानमंत्री जी ने नया हथ्कंडा अपनाया और आंखों में आंसू भर कर कहने लगे कि वे गरीबों के लिये लड़ रहे हैं। इन गरीबों को उच्च वर्ग यानी अमीर वर्ग ने अब तक लूटा है। यानी वे उच्च वर्ग या अमीरों को गलत बता रहे हैं और एक तरह से माओ और लेनिन की तरह वर्ग संघर्ष की ज्वाला भड़काने की मनोवैज्ञानिक कोशिश कर रहे हैं। यही नहीं वे कहने लगे हैं कि ‘‘मेरी जान को खतरा है। ’’ इसकी सोशल मीडिया में काफी  खिल्ली उड़ाई गयी है। अब सवाल उठता है कि क्या वे कदम पीछे करेंगे और100 रुपये या उससे छोटे नोटों की बड़ी संख्या छपवा कर बाजार में डालेंगे। हो सकता है इससे उनकी थोड़ा अपमान हो पर इस स्थिति में और कुछ नहीं किया जा सकता है।

केंद्र सरकार के दावे और हकीकत

केंद्र सरकार  के दावे और हकीकत
देश में अजीब माहौल बना हुआ है। एक तरफ तेजी से बढ़ती महंगाई, नोटबंदी को लेकर भ्रामक हालात और सीमा पर तथा आसपास के इलाकों में आतंकवादी हिंसा और गोलबारी। हर ओर एक अजीब अनिश्चयता तथा अराजकता। नोटबंदी को लेकर प्रधानमंत्री संसद में बोल नहीं रहे हैं और बाहर विपक्ष को उकसा रहे हैं। संसद में विपक्ष प्रधानमंत्री से जवाब मांग रहा है और जवाब के नहीं मिलने पर संसद में हंगामा तथा काम काज बंद। समाचर मीडिया दो या तीन गुटों में बंट गया है और गुट खुद को सही बता रहा है। क्या हो रहा है इस लोकतंत्र में। राजनीतिक तार्किकता से साहेचें तो कितना अस्तव्यस्त है सब कुछ। नोटबंदी को लेकर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आंदोलन को हवा दी। सरकारी पक्ष कह रहा र्है कि ‘यह केंद्रीय राजनीति में जगह बनाने का उनका प्रयास है। उन्हें राज्य की जनता के कल्याण के लिये सोचना चाहिये। ’ अब्पा इस तरस बोलने वालों से पूछा जा सकता है कि क्या नोटबंदी का असर बंगाल की जनता पर नहीं पड़ रहा है। हकीकत तो यह है कि अगर यही हालात रहे तो बंगाल में अकाल पड़ सकता है। तो क्या उसका विरोध किया जाना राजनीतिक स्वार्थ है। सरकार ने कहा कि नोटबंदी का उद्देश्य नकली नोटों की बाढ़ को ख्त्म करना है। प्रश्न है कि देश में अब तक कितने नकली नोट पाये गये। रिजर्व बैक के आंकड़े बताते हैं कि 2015-16 में कुल भारतीय नोटों में से केवल 0.0007 प्रतिशत ही नोट नकली पाये गये हैं। यानी , हर दस लाख नोट पर 7 नोट नकली पाये गये। आलोच्य अवधि में भारत में कुल नोटों की संख्या 90.26 अरब थी जिसका मूलय 16.41 लाख करोड़ था। अगर मूल्य के हिसाब से देखें तो इनका मूल्य सिर्फ 29.64 करोड़ था। इसमें पुलिस और अन्य एजेंसियों द्वारा जब्त किये गये नोटों की गिनती शामिल नहीं है। लोकसभा में 18 नवम्बर 2016 को पेश राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 2015 में 43.8 करोड़ रुपये जली नोट पकड़े गये। साथ ही 30 सितम्बर 2016 तक 27.8 करोड़ के जाली नोट पकड़े गये। इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टीट्यूट और नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी के संयुक्त अध्ययन के अनुसार हर दस लाख नोट पर केवल 50 नोट नकली हैं। इस अध्ययन के मुताबिक हर साल 70 करोड़ रुपये मूल्य के जाली नोट बाजार में आ जाते हैं। 2012 में भारत के तत्कालीन वित्तमंत्री पणव मुखर्जी ने एक श्वेतपत्र जारी कर बताया था कि देश में 3.7 प्रतिशत से 7.4 प्रतिशत कालाधन पाया गया है। उदाहरण के लिये 2011-12 में 9289 करोड़ रुपये मूल्य की अघो्रशत सम्पति पायी गयी जिनमें 499 करोड़ रुपये यानी 5.4 प्रतिशत ही नगद थे। आयकर विभाग के आंकड़ों के मुताबिक 1 अप्रैल 2016 से 31 अक्टूबर तक लोगों ने 7700 करोड़ रुपये मूल्य के कालेधन की घोषणा की जिनमें केवल 408 करोड़ रुपये ही नगद थे यानी 5 प्रतिशत ही नगदी थी बाकी 95 प्रतिशत विबिन्न निवेशों और बेनामी बैंक खातों के रूप में थी। कुल मिला कर कहा जा सकता है निक कालाधन या जालीनोट बहुत बड़ी समस्या नहीं है। सरकार ने मच्छर मारने के लिये तोप चला दिया। सरकार फौज को सामने रख कर एक उन्मादी देशभक्ति का वातावरण तैयार करने की कोशिश कर रही है ताकि सीमापर होने वाली हानियों पर पर्दा डाला जा सके। शनिवार को पाकिस्तान में नये सेनाध्यक्ष के नाम की घोषणा हुई और इधर भहारत के रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने ललकारा कि  ‘हम लड़ने को बेचैन नहीं हैं लेकिन अगर किसी ने हमपर बुरी नजर डाली हम उसकी आंखें निकाल कर उसके हाथ में रख देंगे। हमारे पास इतनी ताकत है।’ उन्होंने कहा कि सीमा पर पिछले तीन दिनों से फायरिंग नहीं हुई है , हम जैसे को तैसा जवाब दे रहे हैं ये बात वे समझ गये हैं। लेकिन अगर अखबारों की रपटों का सर्वेक्षण करें तो पता चलता है कि सर्जिकल हमले के बाद से अब तक यानी दो महीनों में सीमा पर निंयत्तण रखा के उल्लंघन के दौरान गोलीबारी और सीमा पर फौजियों पर हमलों के कारण हमारे 20 जवान शहीद हो गये। औसतन तीन दिनों एक जवान देश पर शहीद हो रहा है। इसमे वह घटना भी शामिल है जिसमें 22 नवम्बर 2016 को उत्तर कश्मीर के कुपवाड़ा जिले में माछिल सेक्ट में तीन जवान देश के काम आ गये जिनमे एक का सिर काट कर दुश्मन ले गया। रक्षामंत्री जी को यह घटना मालूम होगी। उसदिन कहा गया था कि इस कायराना हरकत का उचित जवाब दिया गया था। आज पांच दिन में क्या कुछ हुआ रक्षामंत्री जी नहीं बता रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि 15 नवम्बर 2106 तक सीमा पर  279 झड़पें हुईं। एस ए टी पी द्वारा जारी आंकड़े के अनुसार जममू कश्मीर में 20 नवम्बर 2016 तक आतंकवाद से जुड़ी विभिन्न घटनाओं में 74 जवान शहीद हो गये। यह संख्या 2009 के बाद सबसे ज्यादा है। 2015 के मुकाबले 81 प्रतिशत ज्यादा सैनिक इस साल शहीद हुये हैं और हमारे रक्षामंत्री जी ताल ठोंक रहे हैं। यहां एक और बात नजर आ रही है कि इस वर्ष आम  आतंकवादियों के हाथों नागरिकों के मारे जाने की घटनाएं कम हुई हैं। 2015 के मुकाबले इस वर्ष 45 प्रतिशत कम नागरिक मारे गये। इससे पता चलता है कि आतंकी फौजियों पर हमले ज्यादा कर रहे हैं। यह एक नयी रणनीति की ओर संकेत दे रहा हे। आतंकियों के आकाओं ने कश्मीर की जनता को तंग नहीं करने का संभवत:  फैसला किया हो। यह देश से बगावत को हवा देने की कोशिश के अंतर्गत तो नहीं किया जा रहा है। दो दिन पहले फारुख अब्दुल्ला क्या क्या बोल गये यह सरकार ने सुना ही। बुरहान वानी के बाद की घटना सबने देखा है। कहीं यह नयी रणनीति तो नहीं है। वीरता के बड़बोलेपन की खुशफहमी से दूर इस ताजा संकेत का विश्लेषण जरूरी है।