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Friday, March 31, 2017

कश्मीर में पत्थरबाजी का रहस्य

कश्मीर में पत्थरबाजी का रहस्य
अभी हाल में कश्मीर में फिर से उपद्रव शुरु हो गए और वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बन गया। अभी जो हालात हैं वहाँ इसासे भारी चिंता होती है कि आखिर ऐसा क्यों होता है? जहां सुरक्षा बलों के जवान आतंकियों से मुकाबला कर रहे हैं उसी स्थल पर अचानक कुछ नौजवान जमा होकर सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने शुरू कर दे रहे हैं। इसासे ऑपरेशन में बढ़ा होती है और आतंकी निकल जाते हैं दूसरी तरफ जब सुरक्षा बलों के जवान पत्थर बाजों के खिलाफ कार्रवाई करते हैं तो घाटी में बवाल मच जाता है। अभी तीन दिन पहले बडगाम जो हुआ वह इस तरह की कार्रवाईयों का ताज़ा उदाहरण है। वहाँ सुरक्षा बलों से आतंकियों की  मुठभेड़ चल रही थी और एक आतंकी जैसे ही मारा गया आसपास के नौजवानों ने सुरक्षा बलों पर हमला कर दिया, उन्होंने  उनपर पत्थर फेंकने शुरू कर दिए जिससे 60 सुरक्षा कर्मी आहत हो गए और सुरक्षा बल की कार्रवाई में 3 पत्थरबाज आहत हुए। उधर छिपे हुए आतंकी बाख कर निकल गए। इस तरह की कोशिशें वहाँ अक्सर होती हैं । जब भी आतंकी घुसते हैं और सुरक्षा कर्मी उनपर कार्रवाई करते हैं तो उनपर पत्थर फेंके जाने लगते हैं। ऐसी ही घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में सेनाध्यक्ष बिपिन रावत ने चेतावनी दी थी और इसे आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई में बाधा पैदा करना कहा था तो इसपर भी बयानबाजियां शुरू हो गईं थीं। लिहाजा यह चेतावनी बेअसर हो गयी।
  इन हालात से कश्मीरी नौजवानों की पत्थरबाजी पर ना केवल शक पैदा होता बल्कि  उन्हें रोकने के लिए सुरक्षा बन द्वारा इस्तेमाल किये गए तरीकों और उन तरीकों के औचित्य पर सवाल भी उठते हैं। सबसे पहला जो सवाल है  कि सुरक्षा बल कश्मीर के पत्थरबाजों और देश के अन्य भागों के हिंसक प्रदर्शनकारियों में फर्क मानते हैं। यहां यह समझ लेना जरूरी है कि किसी कार्रवाई के दौरान , खासकर आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई के दौरान सुरक्षा बलों के घेरे पर दूसरी तरफ से हमला आतंकवादियों की मदद मानी जायेगी। ऐसे में जब सेनाध्यक्ष रावत ने चेतावनी दी थी तब देश भर में कुछ लोगों ने इसका प्रचंड विरोध किया था। लेकिन क्या यह जायज है? जो प्रदर्शनकारी आतंकियों को फरार होने में मदद करते हैं या सुरक्षा बलों के जवानों की मौत का कारण बनते हैं , उनके खिलाफ कार्रवाई जरूरी है और भी उपलब्ध हथियारों से। यह केवल भारतीय क़ानून के तहत ही नहीं बल्कि राष्ट्र संघ के नियमों के मुताबिक भी सही है। इसका सबसे प्रमुख जो पहलू है वह कि प्रदर्शनकारियों और आतंकियों में क्या सम्बन्ध  है?  जो लोग आतंकियों को भागने का अवसर प्रदान करते हैं या सुरक्षा बलों के जवानों की मौत या आहत होने का कारण बनते हैं वे अपराधी हैं और उनपर कार्रवाई जरूरी है। क्योंकि इसासे भारतीय संप्रभुता को ख़तरा है, भारतीय एकता और अखण्डता को ख़तरा है और ऐसी स्थिति में कार्रवाई ना हो यह भी गलत है। यहाँ घाटी में राष्ट्रसंघ के निर्देश और सुरक्षा बलों की कार्रवाई की समीक्षा ज़रूर होनी चाहिए। राष्ट्र संघ का निर्देश है कि कश्मीरियों पर कार्रवाई के दौरान पहले वे उपाय किये जायें जिससे जान को नुक्सान काम पहुंचे और जब इसासे कलाम ना बने तो सख्ती बढ़ाई जाए। यही कारण है कि पहले भीड़ को तितर बितर करने के लिए लाठी चार्ज होता है तब पानी के फव्वारे छोड़े जाते हैं और उसके बाद पैलेट गन और तब अंत में फायरिंग होती है वह भी एकदम नियंत्रित ढंग से , बिलकुल जब और जितनी ज़रूरी हो।अंधाधुंध फायरिंग कभी नहीं होती है। इसके पहले भीड़ को समझ में आनेवाली भाषा में चेतावनी दी जाती है। यह सब वहाँ मौजूद कमांडर के आदेश से होता है। अब कश्मीर में जो कुछ भी किया जा रहा है वेह एक कवक उपद्रवी और हिंसक भीड़ के खिलाफ कार्रवाई नहीं हैं बल्कि आतंकवादियों के ऐसे हिंसक मददगारों के खिलाफ कार्रवाई है जो उन्हें बाख कर निकल जाने का मौका देते हैं। यह शांतिपूर्ण प्रदर्शन नहीं है । इसलिए कश्मीर में पथराव करती भीड़ का देश के अन्य भागों की हिंसक भीड़ से तुलना करना बेमानी है, मानवाधिकार और लोकतंत्र के चश्मे से देखना गलत है।

Thursday, March 30, 2017

आना योगी का

आना योगी का 
आज उत्तर प्रदेश में योगी का आना भारत के राजनीती के पंडितों के मुबाहिसे का सब बड़ा विषय है , लेकिन यह तो तय है की अगले दो वर्षों में योगी जी जो करेंगे उसी पर 209 के लोकसभा चुनाव में मोदी जी की किस्मत का फैसला होगा। अब सवाल है कली वे कुछ कर पाएंगे या नहीं?  अखबारों की खबर या उत्तर प्रदेश में बुद्धिजीवियों के बीच चल रही चर्चाओं में जो बात आ रही है उनसे साफ़ ज़ाहिर है कि देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य में शीर्ष पद पर वह गेरुआ धारी महंत चुप चाप नहीं बैठा है। जब योगी का इस पद के लिए चयन हुआ तो  तो उसपर बहुत मीन - मेख हुई। यहां तक कि भा ज पा के कई नेताओं ने भी नाक भौं सिकोड़ी। लेकिन शपथ ग्रहण के महज 10 दिनों के भीतर योगी जी ने यह बता दिया कि उनकले आलोचक गलत थे।वे जिस तरह काम कर रहे हैं वह अपने आप में एक आश्चर्य है। अब तक तो लोग सोचते थे कि योगी कट्टर हिंदुत्व के प्रतीक हैं , मुस्लिम विरोधी हैं और उनके दमन की बात करते हैं। लेकिन जब उन्होंने सबको साथ लेकर चलने की घोषणा की तो लोग अवाक रह गए। उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि किसी से भेद भाव नहीं किया जाएगा लेकिन तुष्टिकरण भी नहीं किया जायेगा।उन्होंपने यह भी घोषणा की कि " याद रखें , क़ानून से ऊपर नहीं है धर्म।" उन्होंने हिन्दू वाहिनी , जिसे उनकी निजी सेना कहा जाता है , को स्पष्ट चेतावनी दी कि " अपनी उत्तेजना को अपनी बुद्धि पर हावी न होने दें और अपने पर नियंत्रण रखें। अभी तो सब ठीक है पर आगे दो वर्ष कैसे चलेगा इसपर मोदी जी का भविष्य कायम है।उनके चुनाव क्षेत्र गोरखपुर के गोरख नाथ मंदिर के चदुर्तिक कारोबार क्लरने वाले या आसपास रहने वाले मुसलमानों ने बताया कि" कभी उन्होंने यानि योगी जी ने उन्हें परेशान  नहीं किया उलटे हम जब भी अपनी कोई समस्या लेकर उनके पास गए तो उन्होंने उसे हल करने की कोशिश की।"  आज भी गोरख नाथ मठ के आसपास बहुत मुस्लिम रहते हैं और काम काज करते हैं। पता नहीं गोरख नाथ मंदिर कबसे कट्टर हिंदुत्व प्रतिक बन गया लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश में आज भी मुसलमान योगी पाए जाते हैं जो नाथ पंथोयों की भांति गेरुआ पहनते हैं और सारंगी बजा कर गोपी चाँद और राजा भर्तहरि के बाबा गोरख नाथ के प्रभाव में आकर कैसे योगी बन गए यह गीत गाते घुमते हैं। लोग उन अनाज वगैरह देते हैं। वे बड़े चाव से बाबा गोरख नाथ की महिमा का वर्णन करते हैं। पूर्वी यू पी में योगियों केर दर्जनों गाँव हैं।
आज योगी आदित्य नाथ देश के दूसरे सबसे ताकतवर पद पर हैं । उन्होंने आगे बढ़ने के लिए आक्रामक हिंदुत्व का रास्ता चुना और अब जब वे एक मुकाम पर पहुँच गए तो एक दूसरे फ्रेम में दिखने लगे। अब उन्होंने सबको शामिल करने के  नाम पर एक नै पारी शुरू की है । जहां भा ज पा ने विधान सभा चुनाव में एक मुस्लिम उम्मीदवार नहीं खड़ा किया था वहीँ योगी जी ने मंत्रिमंडल में एक मुस्लिम मंत्री शामिल किया है। योगी ने अपने चंद  दिनों  के शासन काल में यह आश्वासन देने का प्रयास किया है कि वे सुशासन प्रदान करना चाहते हैं। सरकारी कार्यालयों, पार्कों, थानों इत्यादि में उनकी औचक यात्राएं यह साफ़ बताती हैं यह गेरुआधारी सी एम कुछ करना चाहता है। योगी के पिछले दिनों को अगर देखें तो एक बड़ी खूबी दिखती है कि वे भाजपा नेतृत्व को भी नहीं छोड़ते थे। कई बार उनके बयानों से पार्टी ने खुद को अलग कर लिया है। अभी पिछले चुनाव में ही कैराना से हिंदुओं के पलायन की बात उठाते हुए उन्होंने कहा था कि हम " यू पी को कश्मीर नहीं बनाने देंगे' हिन्दू अब भागे नहीं।" दरअसल उन्होंने ने पी एम् को यह संकेत दिया कि शासन कब्रिस्तान के लिए पैसा देता है तो श्मशान के लिए क्यों नहीं?  इसके पहले "लव जिहाद या घरवापसी"  पर तो उन्होंने ऐसी ऐसी टिप्पणियां की थी जिसे यहाँ लिखना संभव नहीं है। योगी ने सी एम बनाने के बाद यह भी कहा है कि अफसर 18 घंटे काम करें और 15 दिनों में अपनी संपत्ति का ब्यौरा दें और जो ऐसा करना पसंद नहीं करते वे अपने लिए दूसरी जगह खोज लें। भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी कार्रवाई आज यू पी में चर्चा का विषय है। किसानों का कर्ज नहीं माफ़ करने से मोदी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं  लेकिन 29000 करोड़ का कर्ज कैसे माफ़ कर सकेगा केंद्र यह भी खुद में एक प्रश्न है और योगी के लिए एक चुनौती भी है। इसासे भी ज्यादा सबकी निगाह राम मंदिर पर टिकी है। इस मामले में उनका  बड़बोलापन नहीं सुना जा रहा है। लेकिन योगी के काम काज को देख कर यह समझा जा सकता है कि वे आलोचकों की बोलती बंद करने में लगे  हैं।

Wednesday, March 29, 2017

विदेशी  कंपनी  को भारतीय करेंसी छापने का अनुबंध 

विदेशी  कंपनी  को भारतीय करेंसी छापने का अनुबंध 

पकिस्तान के नोट छपाई कारोबार से जुड़ी है वह फर्म 

कारखाना लगाने के लिए महाराष्ट्र में 10 एकड़ जमीन एलॉट 
7सौ करोड़ रूपए के निवेश के लिए समझौता हस्ताक्षरित 

हरिराम पाण्डेय 

कोलकता : एक तरफ देश में 2000 के जाली नोटों का खौफ बढ़ता जा रहा है और दूसरी तरफ पकिस्तान से गहरे सम्बन्ध रखने वाली एक ब्रिटिश-स्विस  कंपनी को भारतीय नोट छापने के लिए  10 एकड़ जमीन औरंगाबाद में  महाराष्ट्र ओद्योगिक विकास निगम के परिसर  में  मुहैय्या कराई गयी है साथ ही 10 रूपए के प्लास्टिक नोट  छापने का कथित तौर पर ठेका भी उसी को दिया गया है। इस कंपनी के निर्माण में 700 करोड़ रुपयों की लागत का बजट है और इसके लिए संझुता हो चुका है।
      इस मामले में वित्त मंत्रालय के अफसरों से जब सन्मार्ग जानकारी चाही तो उन्होंने ऐसी किसी बात से साफ़ इंकार कर दिया जबकि प्रधान मंत्री कार्यालय के अधिकारी इसे स्वीकार करते पाए जाते हैं । उस कंपनीके सलाहकार फर्म बर्न्सवीक  ने भी इसे स्वीकार किया है।
      काफी लंबी पड़ताल के बाद यह पाया गया कि यह कंपनी ईस्ट इंडिया कंपनी के नियंत्रक परिवारों के उन्ही लोगों की है जिन्होंने विजय माल्या को शरण दे रखी है। यही नहीं पता चला है कि उसे मध्य प्रदेश में कहीं करेंसी नोट के लिए कागज़ बनाने का कारखाना लगाने के लिए जमीन दी जाने वाली है। यह पहला अवसर है जब भारतीय नोट छापने का ठेका एक विदेशी कंपनी को दिया जा रहा है और वह भी ऐसी कंपनी को जो पकिस्तान की करेंसी छापने के काम से जुडी है। इसके भारत के करेंसी नोट की छपाई से एक और विदेशी कंपनी जुडी है। वह स्विस कंपनी नोट छापने की हाई सिक्युरिटी इंक का उत्पादन करती है। महाराष्ट्र सरकार के अफसरों के मुताबिक वह कंपनी अपनी  उत्पादन क्षमता का 90 प्रतिशत विदेशी नोट छापने में लगाएगी, बाकी 10% क्षमता में भारतीय बड़े नोट छपेगी। सूत्रों के मुताबिक यह ठेका यू के - इंडिया डिफेन्स एंड इंटरनेशनल सिक्युरिटी पार्टनरशिप अग्रीमेंट के तहत दिया गया है और दिलचस्प तथ्य यह है कि यह समझौता 9 नवम्बर 2016 को हुआ जिस के एक दिन पहले नोटबंदी की घोषणा की गई। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि उस कंपनी के सी ई ओ मार्टिन सदरलैंड नोट बंदी की घोषणा के पहले ही भारत क्यों आ गए थे? चर्चा तो यह भी भाई कि ब्रिटिश प्रधान मंत्री टेरेसा मई की 7-9 नवम्बर की यात्रा की मध्यस्थता सदरलैंड ने ही की थी। ये अनुत्तरित प्रश्न हैं और सन्मार्ग इसका उत्तर ढूंढ रहा है।

राहुल गांधी के लिए अंतिम मौका

राहुल गांधी के लिए अंतिम मौक़ा 
देश में  बहुत लोगों का मानना है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गंधियो एक नाकामयाब नेता हैं। इस धारणा के क्रांस्वरूप उनका तर्क है कि हर बार वे असफल होते पाए गए।उधर कांग्रेस मुख्यालय से खबरें मिल रहीं हैं कि राहुल गांधी को जल्दी ही शीर्ष पद पर आसीन किया जाएगा।उत्तरप्रदेश की करारी पराजय के बावजूद कांग्रेस यह निर्णय करने जा रही है। राहुल गांधी के विरोधी या यों कहें आलोचकों का कहना है कि यह आत्मघात है, पार्टी खुद को बर्बाद करने की ओर कदम बढ़ा रही है , कुछ कह रहे हैं कि यह " हाराकिरी" है। लेकिन उनके समर्थकों का मानना है कि आज नहीं कल राहुल एक अपराजेय नेता बनेंगे, हपनी नाकामयाबियों से सीखेंगे। पार्टी के एक महासचिव का कहना है कि क्या प्रधान मंत्री बनने के पहले नरेंद्र मोदी की वर्षों  आलोचना नहीं हुई थी। पार्टी के वरिष्ठ नेता शकील अहमद का  कहना है कि" राहुल गांधी को जितनी जल्द हो हमारा सर्वोच्च नेता और पार्टी का अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए। लेकिन यह सोनिया गांधी पर निर्भर करता है कि वे क्या फैसला करती हैं। ये वह तय करेंगी कि कब राहुल को पार्टी की कमान सौंपी जाय। लेकिन पार्टी में सब चाहते हैं कि राहुल हमारे अगले अध्यक्ष बनें।" जो संकेत मिल रहे हैं उन्हें अगर माना जाय तो कहा जा सकता है कि मोदी की भूमि और गुजरात की प्रयोगशाला गुजरात में चुनाव के पहले राहुल गांधी को पार्टी का अध्यक्ष बनाया दिया जाना चाहिए। इसका अर्थ है कि राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाया दिया जाना लगभग तय है और प्रियंका गांधी उनकी मदद करेंगी। इस  बार राहुल के ही नेतृत्व में कांग्रेस गुजरात में मोदी की चुनौतियों का सामना करेगी। कहा तो यह जा रहा है कि देश भर के प्रति कार्यकर्ता चाहते हैं कि प्रियंका गांधी ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाये। अब यह प्रियंका गांधी पर निर्भर करता है कि वे अमेठी और राय बरेली से आगे कदम बढ़ाएं। यह भी हो सकता है कि गुजरात चुनाव के पहले राहुल गांधी को अध्यक्ष ना भी बनाया जाय।  उन्हें उपाध्यक्ष के रूप में ही "समर संयोजन" का एक मौक़ा दिया जाय , क्योंकि 2014 के लोक सभा चुनाव से अबतक उनकी कजमान में पार्टी हारती रही है और इसके चलते वे मोदी के समर्थकों के लिए   हंसी और व्यंग्य के पात्र बन गए हैं। यहां सबसे बड़ा प्रश्न है कि 2019 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की समर नीति क्या रहेगी? कुछ लोगों का मानना है कि राहुल गांधी की प्रोन्नति सही नहीं कही जा  सकती है, क्योंकि लगातार पराजयों ने साफ़ कर दिया है कि वे नेता के तौर पर माकूल नहीं कहे जा सकते हैं। पार्टी में तो यह भी शिकायत है कि राहुल से मुलाक़ात ही मुश्किल है।" वे पहले पार्टी कार्यकर्ताओं से जुड़ें तब न जानता से जुड़ेंगे।" पार्टी के कार्यकर्ताओं का कहना है कि उनके मुकाबले सोनिया गांधी से मिलना ज्यादा सरल है। दूसरी बात जो पार्टी के नेता कहते सुने जा रहे हैं कि प्रियंका गांधी उनसे ज्यादा समझदार है और उनके साथ काम करना ज्यादा सरल है। 
राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने का फैसला ऐसे वक़्त पर किया जा रहा है जब कांग्रेस दो रहे पर खड़ी है और भा ज पा रोजाना  नए नए राज्यों में जगह बना रही है और सही या गलत जैसे हो नए क्षत्रों में प्रकवेश कर रही है , इससे विपक्ष का दायरा सिकुड़ता जा रहा है।कांग्रेस की नीतियों पर भी भारी आघात पहुंचाए जा रहे हैं। कांग्रेस के सामाजिक न्याय के सूत्र वाक्य " सेकुलरिज्म" का अर्थ मुस्लिम तुष्टिकरण बताया जा रहा है और यही सही यह लोगों को विश्वास दिलाया जा रहा है साथ ही बड़े ही गूढ़ ढंग से बहुलतावादी नीतियों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। 500 और 1000 रुपयों के नोट को बंद किये जाने के मोदी के निर्णय ने उन्हें गरीब हितैषी के रूप में चित्रित कर दिया जो कभी कांग्रेस का स्वरुप था। कांग्रेस के " गरीबी हटाओ"के नारे में अब वह आकर्षण नहीं रहा। कांग्रेस का संगठन भी ढीला पड़ रहा है। सभी राज्यों में अंतः कलह और भितरघात बढ़ रहे हैं। राहुल गांधी जिस तरह राज्य पार्टी अध्यक्षों का चयन किया उससे राज्यों में पुराने और नए नेताओं में जोर आजमाइश बढ़ रही है। वास्तविकता तो यह है कि जब कांग्रेस केंद्र में शासनारूढ थी तो राहुल या सोनिया गांधी ने संगठन पर ध्यान दिया ही नहीं।राहुल के सामने दूसरी बड़ी चुनौती है मोदी क्ले लोगों तक पहुंचने की योजनाओं का मुकाबला। भा ज पा और खुद मोदी भी जिस तरह " मोबाइल मैसेज " के माध्यम से लोगो से जुड़ रह है हैं , वह राहुल के लिए भारी पड़ रहा है। खुद मोदी एक अच्छे " कम्युनिकेटर" हैं और वे हरदम इसी कोशिश में रहते हैं कि उनका सन्देश जनता तक सही पहुंचे। कांग्रेस या यों कहें यू पी ए के शासन के खात्मे का सबसे बड़ा कारण था कि इसके तीन बड़े नेता , सोनिया गांधी, राहुल और मनमोहन सिंह' वर्षों तक जनता के बीच गए ही नहीं, किसी से कोई बात ही नहीं की। राहुल को 2013 में कांग्रेस उपाध्यक्ष बनाया गया और साल भर बाद 2014 में लोक सभा चुनाव हुए। इस चुनाव में पार्टी को महज 44 सीटें मिलीं। यह इसका अबतक का सबसे खराब प्रदर्शन था। लेकिन यह अर्धसत्य है। पूरी सच्चाई यह है कि इस चुनाव में कांग्रेस को 19.3% मत प्राप्त हुए थे जबकि भा ज पा को 31% , इसासे ज़ाहिर होता है कि विपक्ष मुकाबला कर सकता है। वह ध्वस्त नहीं हुआ है। राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता। सोनिया गांधी 1998 से पार्टी अध्यक्ष है और 1996 से 2004 तक पार्टी विपक्ष में रही है। इसके बाद पार्टी फिर उठ खड़ी हुई थी। पार्टी को इस समय कड़े फैसले लेने होंगे और निहित स्वार्थी तत्वों से छुटकारा पाना  होगा। राहुल का  राजनीतिक करियर असफलताओं और चुके हुए राजनीतिक अवसरों से  भरा है और यह उनके लिए बेहतरीन प्रशिक्षण की अवधि भी कही जा सकती है। भारतीय युवा कांग्रेस और राष्ट्रीय छात्र संघ का राहुल द्वारा लोकतंत्रीकरण किये जाने की पार्टी में सबने प्रशंसा की। हालांकि इसकी भी आलोचना हुई थी कि अमीरों और ताकतवर लोगों को ही ऊपर लाया गया है। राहुल के सामने कठिन लक्ष्य है और उन्हें दृढ़ता से काम करना होगा। यह उनके लिए आखरी मौक़ा है। सहस के साथ बढाए गए कदम का ही सब अनुसरण करते हैं।

Tuesday, March 28, 2017

नए संवत्सर की बधाई

नए संवत्सर की बधाई 
आज हिन्दू नववर्ष का पहला दिन है। शास्त्रों में कहा गया है कि इसी दिन ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना आरम्भ की थी। भारतीय वैदिक ज्योतिर्विज्ञान के महान गणितज्ञ भास्कराचार्य के अनुसार "मधौ सितादेर्दिनमासवर्षयुगादिकानां युगपत्प्रवृतिः" , यानी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के प्रातः सूर्य की पहली किरण के साथ नववर्ष आरम्भ होता है। यही नहीं , ब्रह्मा ने इसी दिन  इस सृष्टि का सृजन आरम्भ किया था और इसी दिन भगवान् के मत्स्यावतार का प्रादुर्भाव भी माना जाता है " मत्स्यरूपकुमार्यांच अवतीर्णो हरि: स्वयं।" इतना ही नहीं अगर आपने ध्यान दिया होगा तो पाया होगा की आज के दिन का प्रकृति भी स्वागत करती है। प्रकृति में ख़ास किस्म की थिरकन शुरू हो जाती है।कोयल की कूक और अमराइयों मंजरी का आम के रूप में परिवर्तन तथा वहाँ फैली हलकी खुशबू कितनी मादक होती है इसकी कल्पना मात्र से मन बौरा जाता है।पेड़ पौधे अपने पुराने पत्तों को त्याग कर नाव पल्लव धारण करते हैं। हवा में तेजी आ जाती भाई लगता है कि पुराने गिरे हुए पत्तों की सफाई का अभियान चल रहा है। पलाश खिलने लगते हैं और हरी चुनरी तथा पीले दुपट्टे में सरसों नाचने लगती है, हवा में खुशबू भर जाती है , चारो तरफ मस्ती छ जाती है। ऐसा लगता है कि प्रकृति खुद आगे बढ़ कर नाव वर्ष का आलिंगन कर रही है। इसी में सुवासित हवा का इठलाना और इसमें कोयल की कूक का संगीत प्रकृति  के कत्थक पर किसी नवयौवना के पद संचालन की तरह महसूस होता है। चारो तरफ एक मादकता भर जाती है। धारा से अंतरिक्ष तक सुसज्जित हो जाता है। खेतों में नए अनाज की लहक , भगवान् राम के आविर्भाव के दिवस की आहट , शक्ति की आराधना का गूंजता शंख, बैशाखी का भांगड़ा और बँगला नव वर्ष की तैयारी में गुनगुनाती बंगाली बाला " ऐशो हे बोइशाख ऐशो ऐशो "  , सब मिल बेहद हर्ष के वातावरण का सृजन करते हैं। आज ही दिन चन्द्रमा की प्रथम कला का प्रथम दिवस है और समस्त वनस्पतियों - ओषधियों के आधार सोमरस का स्रोत चन्द्रमा ही है और इसी प्रतं देवास के लिए कई क्षेत्रों में आम के पल्लवों से घरों को सजाया जाताहै। यह प्रकृति के प्रति एक उदार आभार का द्योतक है, सुखद जीवन की अभिलाषा का परिचायक है। इसी दिन भास्कराचार्य ने पंचांग की रचना आरम्भ की थी। अतएव हिन्दू नाव वर्ष का केवल कैलेंडर मूल्य नहीं है बल्कि प्राकृतिक और आध्यात्मिक कीमत भी है। 
   जिस ग्रेगेरियन कैलेंडर से आज दुनिया का कार्य व्यापार संचालित हो रहा है हमारा कैलेंडर उससे ना केवल सूक्ष्म है बल्कि लगभग 57 वर्ष आगे भी है। आज जहां 2017 चल रहा है हमारा कैलेंडर 2074 तक पहुँच गया। यही नहीं हिन्दू कैलेंडर में ग्रहों की चाल और राशियों की हर करवट का उल्लेख होता है। जिन्होंने इतिहास पढ़ा है वे जानते हैं कि  मैकॉले ने जब वाराणसी में यह देखा की एक साधारण पंडित पंचांग देख कर और ज़मीन पर लकड़ियों से तरेखायें खींच कर चुटकियों में ग्रहों की चाल बता देता है जिसके लिये " हमारी" नवीनतम  ऑब्ज़र्वेटरी को कई दिन लग जाते हैं। मैकॉले सर चकरा गया और उसने तय किया कि " जब तक भारत का यह विज्ञान कायम रहेगा हमारे पांव नहीं जम  सकते।"  इसके बाद बहुत ही साजिश भरे ढंग से भारतीय शिक्षा , ज्ञान , विज्ञान, कला , शिल्प और समाज व्यवस्था को नष्ट किया जाने लगा। इसके बाद हमें यह भुला दिया कि विक्रमादित्य कौन थे, उज्जैनी में महाकाल का महत्व क्या है, वहीं से कालगणना का निर्णय क्यों होता है? इसका पूर्णतः वैज्ञानिक आधार है पर बड़े ही षड़यंत्र पूर्ण ढंग से इसे हमारी स्मृति से उड़ा दिया गया। विख्यात ज्योतिर्विद डा. मंगल त्रिपाठी के मुताबिक़" आज की पीढ़ी भूल गयी है कि   आकाश और अंतरिक्ष हमारे लिए एक विशाल प्रयोगशाला है जहां ग्रहों के आवागमन , युति स्थिति , उदय अस्त के माध्यम से हमें अपना पंचांग अंतरिक्ष में स्पष्ट दृति गोचर होता है। अमावस - पूनम को हम साफ़ देखते हैं, हम जान सकते हैं कि चित्र नक्षत्र के निकट पूर्ण चंद्र हो तो छात्र की पूर्णिमा, विशाखा के निकट हो तो वैशाखी पूर्णिमा और इसी तरह से उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र के आस पास चंद्र दर्शन होते हैं तो फाल्गुन मास की पूर्णिमा। यह नाव वर्ष की दस्तक देता है। बस अबसे केवल 15 दिन और शुरू हो जाती चाँद की उलटी गिनती।"  हम बिना पंचांग या कैलेंडर देखे नाव वर्ष को जान सकते हैं। हमारी नै पीढ़ी को मालूम नहीं कि उज्जैन में महाकाल क्यों हैं? मूर्तियां और कर्मकांड तो फकत एक बिम्ब है सच तो उसमें निहित दर्शन होता है। पश्चिम के इतिहास और दर्शन की शिक्षा हमें काल को विभाजित कर पढ़ना सिखाता है जबकि हमारा दर्शन और इतिहास अतीत को व्यतीत नहीं मानता वह  समय की धारा है जो अतीत से चलती हुई आज यानी वर्तमान में आयी है और भविष्य की और अग्रसर हो रही है। उज्जैन इसी काल गणना का केंद्र विंदु है " कालचक्रप्रवर्तको महाकालः प्रतापनः।"  सिद्धान्त शिरोमणि में भास्कराचार्य ने लिखा है " मेरुगतं बुधैर्निगदिता सा मध्य रेखा भुवः।" 
यहां कहने का अर्थ यह कि जिस काल की गणना इतनी शुद्ध और सटीक हो हम उस काल के आरम्भ को ना मान कर एक ऐसे नाव वर्ष की शुरुवात पर जश्न मनाते हैं जो आयातित है , हमारी रक्त कोशिकाओं में उसका स्पंदन नहीं है , जो हमपर थोपा गया है। आइये हम संकल्प करें कि हम अपने नाव वर्ष का पालन करेंगे , उसपर ही जश्न मनाएंगे। कदम तो बढ़ाएं ज़माना आपके पीछे चलेगा। यह गुरुदेव टैगोर का शहर है और उन्होंने कहा है " एकला चोलो रे।" 

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