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Wednesday, June 28, 2017

पीट-पीट कर मार डालना

पीट-पीट कर मार डालना
ईश्वर अल्लाह तेरे नाम के हिमायती हमारे देश भारत में इन दिनों गऊ की रक्षा के नाम पर लोगों को पीट पीट कर मार दिया जा रहा है। अभी विगत गुरूवार को पश्चिम बंगाल के दक्षिण दिनाजपुर में गऊ तस्करी के संदेह में तीन लोगों को पीट पीट कर मार दिये जाने की घटना के साथ में 2015 के आखिरी दिनों से अब तक गऊ रक्षा के नाम पर 16 घटनाओं में 24 लोग मारे गये। कुछ लोग कह सकते हैं कि भारत जैसे देश में यह संख्या बड़ी नहीं है पर ऐसी घटनाओं का देशव्यापी प्रसार का अर्थ होता हे कि हिंदु मनोवृति में बदलाव की शुरूआत। यह शुरूआत गलत है या सही यह अलग तर्क तथा विश्लेषण का विषय है पर उससे अलग जिस देश ने केवल सत्तर साल पहले हिंदू और मुसलमान के नाम पर इतना बड़ा खून खराबा देखा हो जिसकी विश्व इतिहास में मिसाल नहीं है उस देश में ऐसी मनोवृति के विकास के लक्षण सचमुच भयानक संकेत दे रहे हैं। सत्तर साल पहले जब इन्हीं दो सम्प्रदायों के नाम पर देश बंट गया था तो उस पक्रिया में लगभग 2लाख लोग मारे गये थे और 33 हजार हिंदू सिख महिलाओं को पाकिस्तान में रोक​ लिया गया था। ऐसी खून की नदी में  एक देश के दो टुकड़े बह गये और टोबा टेक सिंह इस मनोवृत्ति की पड़ताल करते- करते सीमा पर पर मर गया। तबसे यह मनोवृत्ति दोनों देशो में किसी ना किसी रूप में दिख रही है। अभी सियालकोट में जो हुआा वह भी ऐसी ही घृणा की अभिव्यक्ति है। हमारे देश में भी 1947 के बाद से दंगे होते रहे और आ यह नयी प्रक्रिया शुरू हुई है। इस तरह अी अबिव्यक्ति आरोप से जन्में आतंक के पहियों पर दौड़ती हैं और लोगों के गुस्से के ईंधन का उपयोग करतीं हैं। जब कभी ऐसा होता है तो कारण और तर्क केवल उफनते गुस्से तथा हिंसा के पक्ष में होते हैंऔर भीड़ जमा करने के लिये भावनात्मक ज्वार चल रहा होता है। ऐसा होता क्यों है और इसके पीछे का मनोविज्ञान क्या है?विख्यात आचार शास्त्री और नोबेल पुरस्कार विजेता जैव विज्ञानी कोनार्ड लोरेंज के मुताबिक जब कोई मनुष्य ऐसा करता है तो वह अपने भीतर एक दैवीय सिहरन का अनुभव करता है। लोरेंज ने अपनी पुस्ष्तक ‘एग्रेसन’ में लिखा है कि ‘ऐसा करते समय मनुष्य एक दैवीय अनुभूति को अपनी धमनियों में दौड़ता महसूस करता है। ऐसे कर्मो को वह अपने समुदाय या अपनी बिरादरी या अपने मत के लोगों के लिये वीरोचित कार्य मानता है। ’ एक छोटे से मसले पर चाहे वह गोमांस हो या गऊ तस्करी या इससी तरह का अन्य मसला, लोग देखते रहते हैं तथा इल्जामशुदा आदमी को काट डाला जाता है तथा सब लोग इस बर्बरता पर तालियां बजाते हैं अपने स्मार्टफोन से वीडियो बनाते हैं। हाल में चाहे वह भारत हो या पाकिस्तान या अन्य देश सत्ता के माध्यम से समाज में या सियासत में धर्म को पेवस्त कर दिया गया है। नतीजा यह होता है कि कोई भी आदिम विचार संस्कृति के नाम पर समाज में संचरित हो जाता है। स्कॉटिश विचारक चार्ल्स मैके ने अपनी किताब ‘एक्सट्रा ऑर्डिनरी पोपुलर डेल्यूजंस एंड मैडनेस ऑफ क्राउड’ में लिखा है कि ‘इंसान समूह में सोचता है। ऐसा देखा गया है कि समूह के उकसावे पर इंसान पागल हो जाता है जबकि वह धीरे धीरे शांत होता है।’ अब जब कोई बीड़ के उकसावे के प्रभाव आ जाता है तो  वह वह वही करता है जो भीड़ कर रही होती है। वह सही गलत नहीं सोच सकता। प्राणीशास्त्री रिचर्ड डॉकिन्स के मुताबिक संस्कृति के नाम पर फैलने वाले ये ये विचार हस्तांतरणीय होते हैं और उनहें केवल अनुकरण या अनुकृति की मदद से जन से समुदाय तक फैलाया जा सकता है। इनका कोई तार्किक कारण नहीं होता। चहाहे वह गणेश को दूदा पिलाने का मामला हो या गांवों में ओझा- भूत का मसला हो या किसी सिनेमाई चरित्र या राजनीतिक नेता के बोलचाल के ढंग या उसके लिबास का मामला हो। ये धार्मिक सांस्कृतिक विचार किसी समुदाय या समूह में एक दूसरे के दिमाग में छूत की बीमारी की तरह फैलते हैं। इन धार्मिक सांस्कृतिक विचारों का स्वरूप चाहे बिम्बों में हो या उद्धरणों एक मन से दूसरे मन में केवल ‘कट-पेस्ट’ होते हैं। संचार की तीव्रता के कारण इस प्रक्रिया में भी तीव्रता आ गयी है। यही नहीं आजकल के नौजवान इसे बहुत तेजी से स्वीकार कर भी लेते हैं। जब कोई भीड़ के साथ सक्रिय होता है तो उसके अवचेतन में एक यही तथ्य काम करता है कि जबतक वह खुद को सुरक्षित समझता है। फ्रायड ने अपने ‘थ्योरी ऑफ क्राउड बिहेवियर’ में कहा है कि जब कोई समुदाय में काम करता है तो खुद को ज्यादा ताकतवर महसूस करता है। गऊ रक्षा के पीछे ताकत का यही अहसास और दार्मिक सांस्कृतिक दैवीय चेतना का सिहरन काम करती है।  

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