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Thursday, June 29, 2017

हम गरीब क्यों हैं

हम गरीब क्यों हैं
हमारा देश भारत जहां करोड़ो लोग गरीब हैं और गुरबत लगातार बढ़ती जा रही है जबकि कहाह जाता है कि हमारा देश तेजी से बड़ती हुई अर्थ व्यवस्था है। जब गरीबी पर बात आती है तो हमारे नेता और अर्थ शास्त्री हाथ मलते हुये कहते हैं कि दरअसल देश में संसाधनों का अभाव है। सच तो यह है कि इस तरह के बोलने वालों के इरादों में अच्छाई की कमी​ है तथा असहयोग की प्रवृत्ति है। गरीबी इसलिये कम नहीं हो रही है कि हमारे नीति निर्माताओं के विचार का तरीका गलत है या वे विचार गलत है जिसके तहत वे गरीबी का मूल्यांकन करते हैं। सच कुछ और है। सरकार जो कह रलह रही है वह आधा सच है। अब देखिये सरकार ककिहना है कि 1990 केआर्थिक विकास का यह फल है। लेकिन आंकड़े बताते हैं कि 1993 में देश में 45 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे थी जो 2004 में 37 प्रतिशत हो गयी और 2011 में ाट कर 22 प्रतिशत हो गयी। यह कहना आसान है कि देश में आर्थिक विकास हो रहा है। परंतु सच तो यह है कि हर आकलन के समय गरीबी रेखा नीचे खिसका दी जाती है। नतीजतन कुछ लोग जो पहले उस रेखा के नीच थे अचानक ऊपर आ जाते हैं और आंकड़ों में दर्ज हो जाता है कि उनकी संख्या में गिरावट आयी है। वर्तमान में हमारे देश की गरीबी रेखा दुनिया के अत्यंत कम विकसित देशों में निर्धारित रेखा से भी नीचे हैं। फिलहाल भारत में जो व्यक्ति 1.90 डॉलर(लगभग 100 रूपये) प्रतिदिन खर्च कर सकता है वह गरीब नहीं माना जाता है सरकार की नजर में। 2015 के आंकड़े के अनुसार अब 1.90 डालर टाइप लोगों की देश की औसत जनसंख्या में 60 प्रतिशत तथा ग्रामीण आबादी में 70 प्रतिशत अनुपात है।  जो लोग कृषि पर निर्भर होते हैं उनके साथ एक दिक्कत है कि मौसमों की अनिश्चितता उनकी गरीबी को और बड़ा देती है। क्योंकि फसल मारी गयी तो खर्चे भी कम हो गये इस लिये इनका अनुमान लगाना कठिन हो जाता है। यही नहीं किसानों की व्यय वृत्ति फसल कटाई के बाद कुछ होती है और फसल की बुवाई के समय कुछ और होती है। इसलिये इनके बारे में निश्चित अनुमान लगाना या गणना कर पाना कठिन होता डहै और जो आंकड़े आते हैं वे फरेबी होते हैं। यही नहीं भारत में एक बहुत बड़ी आबादी ऐसी है जिनकी औसत आय में काफी उतार चढ़ाव होता है। ऐसे लोग कई बार गरीबी से उबर जाते हैं और कई बार गरीबी के शिकंजे में फंस जाते हैं। उनकी गणना सरकार अलग से नहीं करती। चूंकि ऐसे लोगों के अस्तितव के बहारे में सरकार को कुछ मालूम नहीं ह तो उनके लिये अलग से बंदोबस्त कैसे किया जा सकता है। अतएव फाइलों में सबकुछ गुलाबी- गुलाबी दिखता है। अगर ऐसी आबादी , जो यकीनन बहुत बड़ी है, का अलग से आकलन किया जाय तो गरीबी की सही जानकारी मिल सकेगी। एक गैर सरकारी आंकड़े के अनुसार देश में लगभग 55 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जो साल भर में कई खंडों में गरीबी झेलते हैं। खास कर असंठित क्षेत्र के मजदूर , दिहाड़ी मजदूर और छोटे किसान। यही नहीं सरकार या नीति निर्माण के समय गरीबी दूर किये जाने के उपायों में सबसे अच्छा उपाय माना जाता है कि गरीबी की रेखा के नीचे वालों को ऊपर लाया जाय। लेकिन यहां दो सवाल हैं पहला कि लोग गरीब होते क्यों हैं और दूसरा कि क्या गरीब लोग गरीब ही पैदा होते हैं?बेशक एक गरीबी का एक भाग पीढ़ियों से चला आता है। इसके विपरीत कुछ लोग पहले सही थे, खाते पीते थे और काल के प्रवाह में गरीब हो जाते हैं। हाल के अध्ययन से पता चला है कि भारत में गरीब हो जाने की घटनाएं तेजी से बड़ीं हैं। गरीबों की तादाद में लगभग आधे लोग ऐसे हैं जो गरीब पैदा नहीं हुये थे। बाद में अपने जीवनकाल में वे गरीब हो गये। गरीबी की चाल और फितरत दो तरफा होती है। कुछ लोग खाते पीते होते हैं और गरीब हो जाते हैं और कुछ गरीबी से उठकर सम्पन्न हो जाते हैं। सरकारी अफसर जब् किसी खास समाज में गरीबी का आकलन करते हैं तो यह नहीं देखते कि इसमें से कितने बाहर जा चुके हैं और कितने नये गरीब बन चुके हैं। वे यह नहीं ध्यान देते कि समाज के हर खंड के लिये गरीबी का मापदंड अलग अलग होता है। वे यह भी देखते कि 1.90डालर वाली स्थिति से ऊपर उठ कर 2.00 डालर के हाशिये पर निते लोग खड़े हैं और कितने लोग आगे निकल गये हैं। सरकार की नजर में 1.90 डालर वाली श्रेणी से उठते ही आदमी अमीरों में शुमार होने लगते हैं।

अब सवाल उठता है कि भारत सरकार गरीबी दूर करने के जो प्रयास कर रही है वह कितना असरदार है। दो कठिनाइयां सरकार के प्रयास को सीमित कर देती हैं। इसमें पहला है कि ऊपर से नीचे तक सामूहिक दृष्टिकोण। सरकार का मानना है कि सबको एक ही फारमूले से हल किया जा सकता है। यह फारमूला सार्वदैशिक है। दूसरी कठिनायी है कि सरकार जो राष्ट्रीय कार्यक्रम लागू करती है उसमें इस बात पर जोर नहीं होता है कि आखिर गरीबी बढ़ी क्यों है? ये सारे कार्यक्रम गरीबी के कारणों पर बल नहीं देते और ना उसे कम करने के उपायों पर ​विचार करते हैं। वे लोगों की क्षमता को विकसित कर गरीबी का स्थाई समाधान नहीं करते बल्कि गरीबी मिटाने के नामपर राजनीति की रोटी सेंकते हैं।

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