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Sunday, August 6, 2017

देश में  कितने गाँव , सरकार को मालूम नहीं 

देश में  कितने गाँव , सरकार को मालूम नहीं 
हम बड़े फख्र से कहते हैं भारत माता ग्रामवासिनी और किसानों को अन्नदाता कहते हैं, कृषि के लिए योजनाएं  बनाते हैं , ग्रामोत्थान के लिए बड़े बड़े कोष आवंटित होते हैं पर इन सबका जो आधार है वह गांव है , सरकार इस बारे में निश्चित नही है कि इस देश में कितने गांव हैं. सरकार कर विभिन्न आंकड़ों के मुताबिक देश में 6 लाख से 10 लाख गांव हैं और म्हे की बात है कि हर आंकड़े में गायों की परिभाषा अलग अलग है. इस कारण गांव के विकास के लिए जो योजनाएं बनती हैं वह प्रभाव शाली नहीं हो पातीं. 2011 की जनगणना के अनुसार 6 लाख 49 हज़ार 481 गांव हैं. यह सर्वाधिक प्रामाणिक माना जा सकता है. इनमें से 5 लाख 93 हजार 615 गांव में आबादी है. महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कार्यक्रम ( मनरेगा) गांव को और उसके टोलों को अलग अलग मानता है और इस अनुसार गांवों की संख्या 10 लाख से ज्यादा हो जाएगी. इसासे अलग पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय ने डाटाबेस में गायों की संख्या 6 लाख 8 हज़ार 662 दर्ज की है. स्वच्छ भारत अभियान(ग्रामीण) की रिपोर्ट के अनुसार गांवों की संख्या 6 लाख 5  हज़ार 805 है. अब यह साफ है कि देश में गांवों की संख्या को लेकर कोई  अधिकृत आंकड़ा नहीं है.
गांव की परिभाषा सरकार के मुताबिक , आबादी वाला ऐसा क्षेत्र, जहां की जनसंख्या 5000 से कम हो, गांव कहा जाता है. इसमें चिरागी और बेचिरागी दोनों तरह के गांव आते हैं. साथ ही 50 प्रतिशत से ज्यादा आबादी परंपरागत पेशे, खेती और इस तरह के अन्य व्यवसाय से जुड़ी है.इसके अलावा आकार, घनत्व, व्यावसायिक संरचना और प्रशासनिक व्यवस्था को भी आधार बनाया जाता है, जो सेकेंड्री होता है. नगर और गांव की प्रशासनिक व्यवस्था अलग होती है. लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत नगर की प्रशासनिक जवाबदेही नगरपालिका या नगर पर्षद की तथा गांवों की प्रशासनिक जिम्मेवारी ग्राम पंचायत की होती है.जनगणना में पूरे देश को दो समूहों में रखा जाता है. नगर और ग्रामीण क्षेत्र. शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए सरकार की अलग-अलग योजनाएं हैं. दोनों क्षेत्र की जनसंख्या के लिए सरकार की सेवा और जमीन के टैक्स की दर भी अलग-अलग है. दोनों की प्रशासनिक व्यवस्था भी अलग-अलग है. भारतीय दंड संहिता में कुछ ऐसे अपराध हैं, गांव और शहर के आधार पर अलग-अलग दृष्टि से देखा गया है, लेकिन जनसंख्या में इस वर्गीकरण का कोई प्रशासनिक या कानूनी पक्ष नहीं होता है. यह सामाजिक मानकों को संस्कृति के संदर्भ में समझने और विकास सूचकांक की तुलनात्मक स्थिति को दर्शाने में मददगार होता है.
यह तो सब जानते हैं कि योजनाएं बनाने तथा वित्त प्रदान करने के लिए संख्या का निश्चित होना ज़रूरी है. लोक प्रशासन के नज़रिए से भी या वित्त व्यवस्था के लिए भी संख्या का निश्चित होना ज़रूरी है. यह अंग्रेजों के ज़माने से कायम है. उस काम में जिला मजिस्ट्रेटों को जिले के अंतर्गत होल्डिंग्स  से टैक्स वसूलने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी. वही होल्डिंग आज के ज़माने में गांव कहे जाने लगे. राजस्व विभाग ने भी उसे ही स्वीकार  कर लिया. जिसका  नतीजा यह हुआ कि अब कोई मंत्रालय , फ़र्ज़ करें ग्रामीण विकास मंत्रालय , एक नए गांव की पड़ताल करता है तो वह स्वमेव राजस्व विभाग की सूची में नही जुड़ जाएगा. राजस्व की सूची में एक गांव तब ही आएगा  जब जनगणना शुरू होगी और यह हर दस वर्ष में  होता है.  इस बीच कुछ और गांव बस जाते हैं और कुछ उजड़ भी जाते है. जनगणना देश के डिमोग्राफिक, सामाजिक और आर्थिक सूचना के लिए जनगणना सबसे विस्तृत रिकार्ड है. अब सवाल उठता है कि भौगोलिक इकाइयों को परिभाषित करने के लिए इसका उपयोग क्यों नहीं किया जाता?  पहली बात जन गणना में जिन गांवों को सूचीबद्ध किया गया है वे राजस्व गांवों की संख्या से अलग हैं. इन में लगभग 50 हज़ार गांव ऐसे हैं जिनमें आबादी ही नहीं है. इसके अलावा जंगलों में बसे गांव भी हैं  जिनका रख  रखाव  वन  विभाग करता है.  भारत सरकार ने एक आधी सूचना जारी कर आदेश दिया था कि जंगलात के इन गांवों को और जिन गांवों को सर्वे में नही शामिल किया गया था , उन सबको राजस्व गॉंव में शामिल कर लिया जाय. ताकि इन गांवों में रहने वाले जो अधिकांश आदिवासी हैं, सबको कल्याण योजनाओं के तहत शामिल किया जा सके. 
अब इससे गड़बड़ी यह ह्यो रही है कि एक विभाग अलग आंकड़े का उपयोग करता है दूसरा अलग.  तालमेल के इस अभाव से के गांव सरकारी योजनाओं से वंचित रह जाते हैं. लेकिन ऐसा हो नहीं पाता और गांव की दुर्गति बनी रहती है.

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