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Tuesday, August 8, 2017

परीक्षा प्रणाली में गड़बड़ी खतरनाक 

परीक्षा प्रणाली में गड़बड़ी खतरनाक 

सरकार देश में शिक्षा प्रणाली में " सुधार" के नाम पर परीक्षा पद्धति में बदलाव लाने की कोशिश में है. मामला अदालत तक गया.सरकार के उच्च पदों पर आसीन लोग , जिन्हें नीतियां गढ़ने का अधिकार है, जानते हैं कि सारा मामला कुछ अंकों की गलत जानकारी और उसकी भ्रामक व्याख्या का है फिर भी वे निहित स्वार्थ और अपने राजनीतिक आकाओं के लाभ के लिए वही कर रहे हैं जो नहीं करना चाहिए. कहा  तो जा रहा है कि यह अंकों  के अनुकूलन का मामला है पर यह ऐसा नहीं है. अंकों का अनुकूलन एक जटिल सांखियिकी प्रक्रिया है. सारा मसला राजनीतिक स्वार्थ का है. यह सामान्य बात है कि माध्यमिक परीक्षा तक पहुंचने वाले छात्र अधिकांश 18 वर्ष या उससे ऊपर की उम्र के होते हैं. ये देश के अमूल्य मतदाता हैं या होने वाले हैं. इन्हें मनोवैज्ञानिक तौर पैर अपना समर्थक बनाने के लिए समय समय पर यह चाल चली जाती है. अगर उत्तर प्रदेश में हाई स्कूल परीक्षा पास करने वाले छात्रों के आंकड़े देखें और उससे सत्ता में बदलाव की समीक्षा करें तो हालात स्पष्ट हो जाएगी. 1992 में भा  ज पा की सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने हाई स्कूल परीक्षा में ककल रोक दी थी और नतीजतन पास करने वाले छात्रों का अनुपात 57 प्रतिशत  से गिर कर 14.7 प्रतिशत हो गया. इसके बाद सरकार का क्या हवाल हुआ यह सब जानते हैं. यू पी में जब जब सपा की सरकार बनी है तब तब उत्तीर्ण होने वाले छात्रों का प्रतिशत आसमान छूने लगता है. अंकों को घटाने बढ़ाने को लेकर 1971 में ए ई टी बैरो की एक रपट आई थी जिसमें सख्त सांख्यिकी पद्धतियों के उपयोग की वकालत की गई थी, पर उन अनुशंसाओं को  कभी अमल में नही लाया जा सका. देश में लगभग 60 माध्यमिक और उच्च माध्यमिक बोर्ड हैं  जिनसे पास छात्रों को नंबरों के आधार पर कॉलेजों में दाखिला मिलता है. बोर्ड की परीक्षाओं में नंबर देने के तरीकों को देखते हुए कहा जा सकता है कि कॉलेजों में दाखिले का आधार गलत है. 80 प्रतिशत का स्कोर बंगाल,  बिहार या यूपी बोर्ड से लाने और सी बी एस ई के बोर्ड से लाने  में अंतर है , खास कर प्रतिभा के मामले में. अब एक सामान्यीकृत पद्धति के अभाव ने अपने स्कूल बोर्ड्स के सामने अपने छात्रों के नंबर बढ़ाने  का दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति पैदा कर दी है. जिन बोर्डों में ग्रेडिंग प्रक्रिया कठोर है वहां के स्कूल दूसरे बोर्डों का रुख कर लेते हैं. बंगाल में कई स्कूलों ने राज्य बोर्ड को छोड़ कर इसलिए केंद्रीय बोर्डों को अंगीकार कर लिया कि राज्य बोर्ड की ग्रेडिंग प्रणाली कठोर थी. आंकड़े बताते हैं कि 2004-16 के बीच सी बी एस ई के मध्यम प्रतिशत स्कोर में 8 प्रतिशत का उछाल आया. लैंग्वेज , प्रैक्टिकल और प्रोजेक्ट वर्क में बेतहाशा वृद्धि की अवधारणा का सबसे बुरा असर पड़ा. लेहमन द्वारा प्रस्तुत 2017 के   सी बी एस ई के ग्रेड 12 के 5लाख 25 हज़ार छात्रों के भौतिक विज्ञान के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता हैं कि थेओरी पेपर में 40 प्रतिशत छात्रों शत  प्रतिशत अंक मिले. 88 प्रतिशत छात्रों को प्रैक्टिकल में 90 प्रतिशत अंक मिले. इसी तरह का रुझान केमिस्ट्री और कम्प्यूटर साइंस में भी देखा गया. यही नही 2016 और 17 में सी बी एस ई में गणित में क्रमशः 16 और 11 नंबर का ग्रेस दिया गया लेकिन अंकों को 95 पर सीमित कर दिया गया. अब 79 नंबर लेन वालोए छात्र भी 95 पाए और 94 अंक पाने वाले को 95 वही मिला. यह विषमता पढ़े लिखे बेरोजगारों की फौज खड़ी करती है. ऐसी स्थिति देश की प्रगति को बाधित करती है साथ ही स्वार्थी  राजनीतिज्ञों को अपनी रोटी सेंकने का अवसर भी देती है. इसे रोकने का एक मात्र उपाय है कि परीक्षाओं एवं मूल्यांकन मानकों की निगरानी  के लिए एक तंत्र का गठन हो.  जब तक ऐसा नही होगा तबतक खुले हाथों अंक बांटने वाले छात्र कॉलेजों में काबिज होते रहेंगे और सही पठन पाठन करने वाले छात्र कुंठित होते रहेंगे. इससे भविष्य में भयावह स्थिति पैदा हो सकती है. 

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