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Monday, October 16, 2017

अब ज्ञान पुरानी बात हो गयी

अब ज्ञान पुरानी बात हो गयी 

पुराने जमाने में कहा जाता था कि “ स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान: सर्वत्र पूज्यते. ” यह सुभाषित शिक्षकगण छात्रों को सुना कर उन्हें ज्ञान अर्जित करने के लिए प्रेरित करते थे. पार आज के  जमाने ज्ञान पुरानी बात हो गयी और दुनिया यह मानती है कि सूचना सबसे प्रबल है  और ज्ञान दोयम दर्जे की बात है और भाषा कामकाजी यंत्र है , एक डिवाइस है. इतिहास की उम्र फकत 10 साल होती है. ग्यानी लोगों को लोग अब बेवकूफ समझने लगे हैं और वे अनुपयोगी हो गए हैं. दुनिया यह जानती है कि नरेंद्र मोदी और डोनाल्ड ट्रंप राजनीति के नाम पर लंतरानियाँ हांकते हैं. छात्रों को यह बताया जाता है कि इतिहास केवल 10 साल पहले से शुरू होता है. अब बात है कि क्या यह ज्ञान का समाज (नालेज सोसाइटी ) है. जहां तक सूचना का प्रश्न है यह सुनाने वालों और उसे संप्रेषित करने वालों के ज्ञान और प्रतिबद्धताओं पर निर्भर करता है. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान हेनरिक गोयबल्स ने मिथ्या सूचनाओं को सही साबित करने का नुस्खा बताया था और इन दिनों सोशल मीडिया में पोस्ट ट्रुथ या आवांतर सत्य से परिपोषित सूचनाओं की जंग चल रही है. मनोशास्त्री विक्टर फ्रान्कल के अनुसार “ हमारी आज़ादी उकसावे और उसके बीच में कायम दूरी पर निर्भर है.” मनुष्य का जीवन संकुचित होता जा रहा है और हमारा मन सस्ती उत्तेजनाओं की चाह और खतरे के पूर्वगृह से आक्रान्त है. विश्वास का विनाश हो रहा है. बहुत कम लोग हैं जो एक दूसरे पर भरोसा करते हैं. ऐसा महसूस हो रहा है कि हम किसी विषयासक्त युग में जी रहे हैं जहां विचार का कोई महत्त्व नहीं है , बहस के लिए कोई जगह नहीं है. यह सोचना कि विचार एक समुदाय को जन्म देता है और विवेचनात्मक ज्ञान जीवन को सुखी बनाता है. आज के किसी नौजवान छात्र से हन्ना अरेंट के राजनितिक दर्शन की बात करें या फासीवाद की चर्चा करी या स्टालिनवाद की विवेचना करें तो वह आप पर हंसेगा. आज का नौजवान समाज केवल सूचना पर निर्भर है. कांट  के सिद्धांत से ज्यादा प्यारा उसके लिए मोबाइल फोन है. यही कारण कि गांधी के हत्यारे के दस्तावेज दुबारा खोले जा रहे हैं. उनसे भारत विभाजन की बात करें तो वे बातें नहीं करेंगे. ऐसा नहीं कि वे पुरानी बातों को कुरेदना नहीं चाहते बल्कि दुखद तो यह है कि उन्हें इसकी मालूमात नहीं है. भाषा                                       संकुचित होती जा रही है. अच्छे पढ़े लिखे लोग किसी भी भाषा में 10 लाइन शुद्ध नहीं लिख पाते. बच्चे उपन्यास नहीं पढ़ते क्योंकि वे एंट्रेस की परीक्षा की तैयारी में लगे रहते हैं. ऐसे ही लोगों के बीच मोदी जी की इज्ज़त है क्योंकि वे ज्ञान को तरजीह नहीं देते. उनके लिए और उनके जैसे कई अन्य लोगों के लिए विश्वविद्यालय सर्टिफिकेट जारी करने का केंद्र है. आज तक किसी भी सरकार ने विश्वविद्यालयों की इतनी अवमानना नहीं की जितनी वर्तमान  भा ज पा सरकार कर रही है. वर्तमान सरकार या इस काल में विशेषज्ञ वहीँ तक महत्वपूर्ण हैं जहां तक नीतियों का प्रश्न है.  आज विज्ञान और मानविकी पर लोग हँसते हैं और सवाल पूछना फैशन से बाहर हो गया है तथा विवेचनात्मक प्रश्न तो राष्ट्र विरोधी हो गए  हैं. अगर यह कहा जाय कि ज्ञान के संह में यह युग दोयम दर्जे का है तो गलत नहीं होगा. इसका कारन है कि मोदी औत्रंप जैसे लोग विचारों पर बंदिश  लगना चाहते हैं. मिया चाट हो रही है, अखबार ख़त्म हो रहे हैं , इसलिए नहीं कि तकनिकी तौर पर पिछड़ रहे हैं बल्कि इसलिए कि समाचार  के रूप में उनमें विचारों का अभाव होता जा रहा है.विचार समाप्त हो रहे हैं. समाज में सुरक्षा, विकास , देशभक्ति, कालाधन  जैसे चंद सरकारी शब्दों का ही बोलबाला है . मोदी जी विदेशों में जाकर बड़ी - बड़ी बातें करते हैं और बेचैन रहते हैं बात में असर के लिए , चाहते हैं कि कोई उन्ह उर उनके देश को गंभीरता से ले पर देश में विचारशून्यता को बढ़ावा देते हैं. हमारिन दिनों सी ट्रेजेडी है कि हम अज्ञानता के उपभोक्ता हो गए हैं विचारों के रचयिता नहीं. वाम पंथ और दक्षिणपंथ की बौद्धिक बहस ख़त्म होती जा रही है यह बड़ी बात नहीं है दुखद तो यह है कि बौधिक बहसों की ज़मीन पर विचारशून्यता का कब्जा होता जा रहा है.  

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