CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Thursday, November 9, 2017

जनरल साहब थोड़ा कम बोलें पि

जनरल साहब थोड़ा कम बोलें

पिछले हफ्ते भारत के पहले सेना प्रमुख फील्ड मार्शल करिअप्पा की मूर्ती का अनावरण करते हुए भारत के सेना प्रमुख जनरल विपिन रावत ने कहा की “ फील्ड मार्शल करिअप्पा को भारत दिया जाना चाहिए. अगर यह औरों को मिल सकता है तो फील्ड मार्शल को क्यों नहीं. मैं इस मामले को आगे बढ़ाऊंगा.” बेशक जनरल की भावनाओं की कद्र की जानी चाहिए लेकिन उनका बयान हैरत में डाल देने वाला है क्योंकि  सेना प्रमुख का काम भारत रत्न की लिए सार्वजनिक अनुशंसा  करना नहीं है. यदि ऐसा करना भी हो तो तरीका यह है कि वे राष्ट्रपति को एक निजी पत्र लिख कर अपनी बात कह सकते हैं ना कि इस तरह से सार्वजानिक रूप में. सही तो यह है कि इस बात पर पहले सेना के हलकों में बात होनी चाहिए थी. इससे अन्य नाम भी विचार के लिए सामने आ सकते थे. फील्ड मार्शल करिअप्पा की खूबी यही है कि वे पहले भारतीय सेना प्रमुख थे. यकीनन वे सर्वोत्तम नहीं थे. सैन्य इतिहासकार जनरल के एस थिमैया  को उनसे बेहतर बताते है. इतना ही नहीं एयर चीफ मार्शल अर्जन सिंह अबतक के योग्यतम  माने जाते हैं. जनरल रावत ने अपना बयान देने के पहले यह सब नहीं सोचा. इसके पहले भी उन्होंने कई बार सार्वजानिक विषयों पर बयान दिए हैं जो एक सेना प्रमुख को नहीं करना चाहिए. इससे उनका और फ़ौज का नकारात्मक प्रचार होता है. मसलन उन्हें कश्मीर के पत्थरबाजों को आतंकी नहीं कहना चाहिए और ना यह कहना चाहिए कि सेना ढाई मोर्चों पर एक साथ युद्ध लड़ने को तैयार है. दोनों बातें चारित्रिक रूप में सही हैं पर दोनो का असर गलत पडेगा. जनरल रावत की बातों पर सवाल उठ सकते हैं और कुछ बातों पर  उनपर कारवाई हो सकती है. मुंबई में रेलवे ओवर पास बनाने के काम में सेना का उपयोग करने की केंद्र सरकार की बात का जम कर विरोध हुआ था. बाद में सरकार को डैमेज कंट्रोल करने के लिए काफी मेहनत  करनी पड़ी थी यहाँ तक कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को वहाँ जाकर तसवीरें खिंचवानी पड़ी थीं. सरकार का फैसला और सेना प्रमुख द्वारा उसपर अमल रेलवे के इंजीनिअरों के मनोबल पर भी नकारात्मक प्रभाव डालता. सेना को आपात स्थिति के अलावा अन्य असैनिक  कार्यों में  उपयोग सांगठनिक ख़तरा भी पैदा करता है. बिना सोचे समझे असैनिक  कार्यों में सेना के उपयोग का राष्ट्र  पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकता है. इसकी राष्ट्र को भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है . पिछले कई दशकों से सार्वजनिक संस्थानों में सियासी दखलंदाजी को भारत भुगत रहा है. विगत कई दशकों से यह देश सार्वजानिक संस्थानों में सियासी दखलंदाजी को भुगत रहा है. इंदिरा गाँधी के ज़माने से पुलिस , ब्युरोक्रेसी , कर और कस्टम्स अधिकारियों , जांच अधिकारियों ने अपनी स्वायतत्ता खोयी है. उन्होंने जो शुरू किया उसे अन्य दल अपना रहे हैं. हालांकि ऐसे कुछ अफसर हैं जो कानून के मुताबिक़ काम करते हैं और राजनीतिज्ञों की नहीं सुनते. ऐसे लोग केंद्र सरकारों में भी हैं और राज्य सरकारों में भी हैं बाकि तो पार्टी के दफ्तर का एक्सटेंशन बन गया है. जिन संस्थानों का अभी राजनीतिकरण नहीं हुआ है उनमें चुनाव आयोग, भारतीय रिजर्व बैंक, सुप्रीम कोर्ट और सेना है. लेकिन यहाँ भी स्वतंत्रता सापेक्ष है ना कि चरम. यदि वे सिद्धांतवादी लोगों के नेतृत्व में हैं तो उनकी स्वायतत्ता कायम रहेगी और वे अछा काम काज करेंगे, यदि नहीं तो उनमें राजनितिक दखलंदाजी होगी और काम काज अपेक्षा से कम होंगे. चुनाव आयोग के मुख्य आयुक्त टी एन शेसन , एस वाई कुरैशी या आर बी आई के रघुराम राजन सबको याद होंगे. बाकी नाम क्यों नहीं याद हैं.  सेना में भी एक बार जनरल करिअप्पा सार्वजनिक मंचों पर भाषण देने जाने लगे थे तो तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु ने उन्हें पत्र लिख कर ऐसा करने से मना किया था. आशा है वैसी ही सलाह प्रधानमंत्री जी जनरल रावत को देंगे.

0 comments: