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Tuesday, December 12, 2017

कलकत्ते का जो जिक्र किया तूने हमनशीं"

"कलकत्ते का जो जिक्र किया तूने हमनशीं"

सात दशक पुराना शहर 

हरिराम पाण्डेय

वैसे तो इतिहास के पन्ने  बताते हैं कि कोलकाता शहर कोई सवा तीन सौ वर्ष पुराना है ओर इस शहर के इतिहास को पढ़ कर एक ही बात सहसा मन में आती हे कि " पत्थर जैसी छाती में फूल जैसा दिल। " सारा शहर स्लेटी और भूरे पत्थरों  की इमारातों, कंक्रीट और लोहे छड़ों से बनी बिलिडंग्स या सीमेंट की पनालीदार प्लेटों और फूस की झोपड़ियों से बना है। यह शहर बेशक  तीन सौ सत्ताइस बरस पुराना है  पर जन्म से ही इतिहास ने इसमें बार बार उथल पुथल किया है। यह शहर बन बन कर बिगड़ा हे। कम्पनी बहादुर के राज के दोरान काम के घंटे तय करने के लिये मजदूरों का भयंकर तांडव उसके 1857 का गदर झेल कर यह शहर अभी सुस्ता ही रहा था कि आजादी की लड़ाई शुरू हो गयी। नमक का आंदोलन और चुटकी भर नमक की जरूरतों ने सारे देश को घुटनो के बल खड़ा कर दिया। जैसे तैसे 1946 तक की यात्रा पूरी हुई और शहर भयानक दंगों की गिरफ्त में फंस गया। हर गली और हर सड़क लाशों से पट गयी। 1947 में बंगाल के सीने पर खून की लकीर खींच कर मुल्क को तकसीम कर दिया गया। कलकत्ता शहर पूर्वी पाकिस्तान से आये शरणार्थियों की पनाहगाह बन गया। इसी समय कहा जा सकता है कि कलकत्ता शहर एक बार फिर बिगड़ कर बना। देश आजाद हो चुका ओर "जन गण मन अधिनायक" ने इसे अपने हाथों  संवारा और पूरा शहर मुक्त कंठ से बोल उठा "बंदे मातरम।" हमारी जरूरतें चाहे जो हों पर कहा जा सकता है कि कोलकाता का आधुनिक इतिहास इसी कालखंड में शुरू होता है। फकत 70 वषों में गुजरे कुछ हजार दिन और रातें। 

लेकिन ये 70 वर्ष बहुत शुभ नहीं हुये इस शहर के लिये। पहला बड़ा बदलाव आया 1952 में जब नेशनल लाइब्रेरी इस्प्लेनेड से उठ कर अलीपुर चली गयी और शहर के ज्ञानपिपासुओं के लिये ज्ञान का सुगम स्रोत थोड़ा दूर हो गया। यही नहीं , शहर आर्थिक कठिनाइयों में फंसता गया। 2010 में मामूली आर्थिक विकास हुआ पर शहर गरीबी, प्रदूषण और ट्रैफिक जाम जैसी शहरीकरण की समस्या में फंस गया। परंतु इस शहर का क्रांतिकारी तेवर कम नहीं हुआ। आजादी की लड़ाई के बाद वामपंथी आंदोलन, ट्रेड यूनियनों की हड़ताले और अन्य राजनीतिक क्रांतियां शहर में होती रहीं। दरअसल , कलकत्ता क्रांतियों, राष्ट्रवाद , राजनीति और कई अन्य तरह की गड़बड़ियों का पर्याय रहा है ओर यही कारण है कि ब्रिटिश शासन काल में भी यह दंडित होता रहा है ओर आजादी के बाद भी। 1967 के बाद शहर वामपंथ की ओर झुक गया। 1967 में यहां भयानक नक्सली आंदोलन हुये। नक्सली व्यवस्था में बदलाव चाहते थे पर लोकतांत्रिक तरीके से नहीं बोल्शेविक शैली में। इस बीच बंगलादेश की आजादी की जंग शुरू हो गयी और 1971 में लगभग 20 लाख  शरणार्थी यहां आ गये। शहर एक बार फिर आर्थिक समस्या में उलझ गया। नतीजा  यह हुआ कि वामपंथी नारों के प्रति लोगों में मोह पैदा होने लगा। जनता में मनोवैज्ञानिक परिवर्तन हुआ ओर सी पी एम की सरकार सत्ता में आयी। यह व्यवस्था 34 वर्षों तक कायम रही। ऐसा इसलिये नहीं कि उन्होने बहुत अच्छा काम किया, बल्कि इसलिये कि विपक्ष बिखरा हुआ था ओर नेतृत्वविहीन था। ममता बनर्जी ने इसी का लाभ उठाया और 2011 में वामपंथी सत्ता को पलट कर वह शासन में आ गयीं।  लेकिन समसया हल नहीं हो सकी। इसका मुख्य कारण है कि यह शहर पूर्वोत्तर भारत के 8 प्रांतों , पूर्वी अत्तर प्रदेश , बिहार , ओडिशा ओर खुद  प​िश्चम बंगाल कुल मिलाकर  दो लाख 75 हजार वर्गमील की लगभग 20 करोड़ आाबादी के लिये इकलौता महानगर है। यहां रोजगार की उममीद में आने वाले हजारों लोगों की शरणस्थली बन गया। नतीजा यह हुआ कि कोलकाता महानगरीय क्षेत्र की आबादी तेजी से बढ़ने लगी। यहां की उपजाऊ जमीन और नमी भरा वायुमंडल अत्यधिक उद्योगीकरण या स्वउद्यम के लिये मुफीद नहीं है लिहाजा यहां के लोग स्वभावत: आलसी होते गये। वे शरिीरिक श्रम से कतराने लगे। लेकिन कुदरत  ने यहां के लोगों को कलात्मक प्रतिभा से नवाजा है इसलिये गृहउद्योग यहां पनपने लगे। बड़ी संख्या में मूर्तिकार, चित्रकार , गायक, नर्तक, लेखक और कवि यहां दिखायी पड़ने लगे। अब चूंकि कलाकार बेहद मूडी होते हैं और परम्परागत अनुशासन से आबद्ध नहीं होते अतएव शहर की अधिकांश आबादी आजाद ख्याल हो गयी। 

 हुगली के किनारे उत्तर से दक्षिण फैला  यह शहर लगभग 7 किलोमीटर चौड़ाई और 10 किलोमीटर लम्बाई में आयताकार स्वरूप में बसा हुआ है। जहां की ज्यादातर इमारतें चार मंजिली​ हैं। शहर का उत्तरी भाग , जो कई बार बना ओर कई बार मिटा, विगत 70 वर्षों से यहां की बहुत बड़ी आबादी की रिहाइश बन गया। गंदी गलियों और संकरी सड़कों के दोनों तरफ बनी इमारतों की मंजिलें  कुछ ऐसी लगतीं हैं जैसे लोहे के बक्से एक दूसरे पर सजे हों। कलकत्ते की एक तिहाई आबादी इसी इलाके में रहती है। उत्तर से दक्षिण की तरफ फैले इस शहर की उत्तरी-दक्षिणी सीमा का निर्धारण पार्क स्ट्रीट करता है। पार्क स्ट्रीट से दक्षिण चौड़ी सड़कें, सुदर इमारतें-बंगले- चमकदार शॉपिंग कॉम्प्लेक्स इत्यादि हैं।  

नीम अंधेर में डूबा यह शहर विगत सात दशकों में चमकदार महानगर बनगया। बिजली के खंबो से झूलती रोशनी के उदास कतरों  के कंधे पर 2011 के बाद तीन बत्तियों वाले लाइट पोस्ट ने हाथ रखा और शहर दूधिया रोशनी से नहा उठा। गमगीन सी लगतीं सड़कें रोशनी के ​लिबास पहन कर इठलाती सुंदरियों  की तरह "खूब भालो " लगने लगीं। अलग अलरग हिस्सों में बने फ्लाई ओवर शहर की सांस और रफ्तार को तेज करने लगे। यातायात के लिये फोन र्कब्स की मामूली सुविधा के अलावा डकुछ नहीं बदला। वही 60 के दशक की भीड़ से घिघियाती बसें और सड़कों पर विकलांग की तरह जहां तहां खड़ी होकर सड़के बंद करने वाली ट्रामें और घोड़े की तरह जुते आदमी द्वारा खिंचे जा रहे रिक्शे अब भी कायम हैं। जानकर हैरत होगी कि इस शहर में लगभग 40 हजार निबंधित - अनिबंधित हाथ रिक्शे हैं जिन्हें रात- दिन मिलाकर 90 हजार लोग खींचते हैं। यह दुनिया में अकेला ऐसा उदाहरण है जो विगत 70 साल में नहीं बदला। शहर के बीच  में लगभग दो मील लम्बा और एक मील चौड़ा मैदान ,जो यहां की एकलौती खुली जगह है ,  के चारों ओर यहां की मशहूर इमारतें हैं जो पुराने दिनों में बनीं ओर अब तक अपनी भव्यता का राग वलाप रहीं है। इनमें बने हैं लगभग 100 छोटे छोटे क्लब्स और खेल के मैदान। राजनीतिक रैलियों के लिये भी आदर्श जगह है यह। उत्तर पूर्वी सीमा पर है विख्यात इडेन गार्डन्स। विगत सात दशकों में फुटबॉल की दीवानगी क्रिकेट के पागलपन में बदल गयी। कभी फुटबॅल मैच के लिये जान देने पर उतारू दर्शक इन दिनों किकेट मैच में दीवाने हो उठते हैं। इडेन गार्डन्स से उत्तर है गॉथिक वास्तुकला से बना कलकत्ता हाई कोर्ट। 

कोलकाता की सुंदरियों और मिष्टी ( मिठाइयों) की बात ना हो तो बात अधूरी रह जायेगी। विगत सात दशकों में इस क्षेत्र में कोई खास बदलाव नहीं हुआ। मुस्कुराते होठ और आंखों की अल्केमी जैसे गालिब के काल में थी आज भी है। शिमला बाजार की न जाने किस नाजनीन को देखकर गालिब कह उठे थे ,

सब्रआज्मा जो उनकी निगाहों के हफनजर  

ताकतरुबा वो उनका इशारा कि हाय हाय  

और बंगाली मिठाइयों की तो बात ही निराली है " वो मेवा हाये ताजा ए शीरीं के वाह वाह "। संभवत: कोलकाता दुनिया पहला शहर है जहां शुगरफ्री मिठाइयां मिलतीं हैं। जहां की मिठाई कवियों से प्रेरित होती है या क्रांति का वाहक बनती हैं। मसलन रसगुलला कविगुरू रवींद्रनाथ टैगोर की प्रेरणा से बना था और कहते हैं कि संदेश गदर के जमाने में समाचार का माध्यम था।   

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