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Tuesday, January 16, 2018

अस्तव्यस्त होता सच

अस्तव्यस्त होता सच

भारत में जो पहला अखबार निकला था , हिकीज गजट, उसका शिरोवाक्य था " वी इन्फार्म, वी एजुकेट , वी रिफार्म " अगर इसकी व्याख्या करें तो यह कहा जा सकता है कि हम सूचना के जरिये ​शिक्षित करते हुये सुधार करते हैं। दुनिया में जितने भी समाचार श्रोत  यानी जिनसे सार्वजनिक सूचनाएं हासिल होती हैं उनता लगभग यही उद्देश्य था या माना जाता था। परंतु आज सूचना का संजाल इतना जटिल हो गया है कि इसमें सूचना पाना कठिन हो गया है। यहां कहने का अर्थ यह नहीं है कि सूचनाएं गलत हैं। कहने का अर्थ है कि सूचनाएं भ्रमित कर रहीं हैं और उससे इंसान के भीतर एक खास किस्म का तनाव पैदा डहो रहा है। तनाव इस लिये कि उन सूचनाओं का उपभोक्ता यह तय नहीं कर पाता कि सही क्या है, सकारात्मक क्या है और सव्स्थ क्या है? यह अनिर्णय की ​स्थिति तनाव पैदा करती है जो स्वास्थ्य के लिये सही नहीं है। आज हमारा समाज या कहें कि दुनिया एक खास किस्म के ध्रुवीकरण से गुजर रही है जहां मध्य विन्दु अनुपस्थित है। एक स्वस्थ समाज के लिये इसका होना आवश्यक हे क्योंकि अंधेरे -उजाले के बीच एक विभाजक छायफा होती है जहां खड़े होकर अंधेरे पर या उजाले पर बात हो सके। उसी तरह नकारात्मकता ओर सकारात्मकता के मदय एक ऐसी जगह जरूरी है जहां हम वहां खड़े होकर विचार कर सकें। भारतीय जीवन पद्धति में इसका संकेत आरंभ काल से है। गीता में स्पष्ट वर्णित है कि महाधारत के युद्ध के आरंबह में जब फौजों की गहमा गहमी शुरू हुई और दोनों पक्षों की भ्रामक सूचनाएं आने लगीं तो अर्जुन ने कृष्ण से कहा कि उन्हें " बैटल लाइन " के मध्य में खड़़े करें ताकि वह देख सकें कि धर्म के पक्ष में ओर धर्म के विरुद्ध संघर्ष के लिये कौन कौन उपस्थित है, " सेनयोरुभयोर्मध्ये रथस्थपय मेऽच्युत। योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥ " इसके बाद अर्जुन मोहग्रस्त हो गये। यहां कहने का अर्थ है कि खबरें तनाव पैदा कर रहीं हैं ओर खासकर जब जीवन इतना जटिल हो गया है तब खबरों के तनाव शरीरिक और तदन्तर से सामाजिन स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाल रहे हैं। हालात यहां तक बिगड़ गये हैं कि व्यज्क्तगत स्तर पर कोई कुछ नहीं कर पा रहा है। सोचिये कि जब पिछले दिन की चिंताओं से थोड़ी निजात पा कर सो जाता है और सो कर उठने के पश्चत उसे जब यह सुनने को मिलता है कि एक बच्ची का बलात्कार हो गया या थाने में शिकायत करने गयी युवती से सिपाहियों ने मुंह काला किया  या सुप्रीम कार्ट के जज विरोधी दलों से प्रभावित थे इसलिये उन्होंने व्यवस्था पर उंगली उठायी। तो कितना बड़ा आघात लगता होगा। विश्वसनीय संस्थाएं जीवन रक्षा में असफल हैं तो किन पर भरोसा करें। अगर शारीरिक स्वास्थ्य मन से है तो व्यथित मानस शरीर पर कहीं ना कहीं असर डालेगा और यहीं से बीमारी की शुरूआत है। 

   कभी आपने  सोचा है कि ढोंगी बाबओं के पास इतनी भीड़ क्यों लग जा रही है? व्यथित और परेशान समाज मानतसिक शांति की तलाश में वहां आता र्है। अभी कुछ दिन पहले पुरी पीठाधीश्वर शंकराग्चर्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती से मुलाकात हुई। सामाजिक शांति पर उनसे हुई लम्बी वार्ता का मूल ही था कि " सामनस्य, सामंजस्य और ऐकमत्य ही शांतिपूर्ण समाज का आधार है। " इनदिनों खबरें इसी आधार को समाप्त कर रहीं हैं। खबरों या कहें सूचना का मूल ही यही होता है कि श्रोता या पाठक उसमें अपने वजूद को तलाश करे। पाठकीयता का यही उद्देश्य होता है। सूचनाओं के संजाल से यहीं विकृति आरंभ होती है। कश्मीर में फौज पर पथराव, उड़ीसा और आंध्र, छतीसगढ़ में नक्सलियों का आतंक, बिहार में घोटाले का राज , उत्तर प्रदेश में फैलता सम्प्रदायवाद, बंगाल में दिनोंदिन उत्तेजक होता वातावरण और उसपर चौबीसे घंटे सोशल मीडिया का दुष्चक्र - हे भगवान यह कैसा समय है। इन दिनों खबरें नहीं मतभेद के वाकये ज्यादा आ रहे हैं जो सच को अस्तव्यस्त कर दे रहे हैं। इनकी रोकथाम के लिये उपाय जरूरी है। 

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