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Friday, March 16, 2018

गणतंत्र  गिलोटिन पर 

गणतंत्र  गिलोटिन पर 

14 मार्च को सरकार ने बिना किसी बहस के लोकसभा में केंद्रीय बजट 2018 को पारित कर दिया। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने लोकसभा में वित्त विधेयक प्रस्तुत किया और उसे ध्वनिमत से पारित कर दिया गया। संसद के इस सदन में सत्तारूढ़ दल का पूर्ण बहुमत है सरकार ने इसे पारित करने के लिए गिलोटिन विधि का प्रयोग किया। जिसके तहत सारी बकाया मांगें एक साथ प्रस्तुत कर दी जातीं हैं और उन पर  मतदान हो जाता है, चाहे  उन पर बहस हुई हो या नहीं। यह दो विधायक- वित्त विधेयक और मुद्रा विधेयक - अब यहां से राज्यसभा जाएंगे लेकिन राज्यसभा को उनमें बदलाव करने का अधिकार नहीं है। अगर राज्यसभा इसे 14 दिनों में वापस नहीं करती है तो इसे पारित मान लिया जाएगा। इससे भी ज्यादा राष्ट्रपति को इसे रोकने और नामंजूर करने हक नहीं है क्योंकि उनका अधिकार वित्त विधेयक से संबंध नहीं है।

   जब यह विधेयक  गिलोटिन  विधि से पारित किया गया  तो संसद में विपक्षी दल चिल्ला उठे  कि  यह लोकतंत्र  की हत्या है। यह गलत नहीं है। यह संसदीय विधि का सत्तारूढ़ दल द्वारा अपमान है। क्योंकि  ये नियम इसलिए बनाए गए हैं  कि सत्तारूढ़ दल बहुमत का दुरूपयोग ना करें।

   हर मंत्रालय के खर्च और उसकी मांग पर संसद में बहस होती है। इस बहस के लिए बिजनेस एडवाइजरी कमेटी मोहलत तय करती है। अगर दूसरे किसी विषय पर बहस के कारण यह  अवधि खत्म हो जाती है तो  लोकसभा अध्यक्ष  गिलोटिन विधि का प्रयोग  करते हैं। इससे सारी बकाया  मांगे चाहे उन पर बहस हुई हो या नहीं,  एक साथ मतदान के लिए प्रस्तुत कर दी जातीं हैं। इससे पता चलता है कि यह विधि एक आपात व्यवस्था है और जब समय कम हो तो इसका उपयोग किया जाता है। लेकिन लगता है भाजपा विपक्ष को सुनना ही नहीं चाहती क्योंकि बजट सत्र 6 अप्रैल तक चलने वाला था तो फिर ऐसी क्या जल्दी थी कि देश का बजट बिना किसी बहस के घंटे भर में पास कर दिया गया।  इसके साथ जो और बहस के योग्य विषय था वह था जैसे फौरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट (एफसीआरए)  पर भी बात नहीं हो सकती और अब 1976 से अब तक भाजपा और कांग्रेस को विदेशों से जो चंदे मिले हैं  उसकी जांच  से मुक्ति मिल गई। जो बजट पारित हुआ उसमें रेल मंत्रालय, कृषि युवा मामले, सड़क परिवहन, हाईवे, सामाजिक न्याय और कल्याण जैसे  मंत्रालयों के भी बजट  थे। यह सभी विभाग मिलकर बजट का 28% बनते हैं जो देश की  एक- एक जनता से संबंधित है और इन पर बहस होनी थी लेकिन नहीं हुई।

   सरकार की दलील है  कि अगर इस पर बहस होगी तो विपक्ष   बेमतलब  की मांगों पर  प्रदर्शन करके समय बर्बाद करेगा और इससे वित्त विधेयक के पारित होने में समय लग जाएगा। इतने महत्वपूर्ण विधेयक पर प्रदर्शन और विरोध से किनारा करना बताता है की सत्तारूढ़ दल की मंशा क्या है।  ऐसे में संसद का मतलब ही क्या रह जाता है? बच्चों को नागरिक शास्त्र में पढ़ाया जाता है कि संसद में जो प्रतिनिधि बैठे हैं वे देश के हर नागरिक के प्रतिनिधि हैं और उनके हितों पर बहस करते हैं। लेकिन यहां मामला ही उल्टा है। सच तो यह है विपक्ष ने आरोप लगाया है कि  सरकार बहस,  विशेषकर बैंक घोटाले पर, बहस को रोकने के लिए जानबूझकर विवाद कर रही है। अब तक सदन में  जो भी विरोध हुए हैं वह विशिष्ट मुद्दों पर हुए हैं, जैसे आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा,  तमिलनाडु के लिए कावेरी वाटर बोर्ड इत्यादि इत्यादि।

  सरकार ने 13 मार्च को ही गिलोटिन का आवेदन किया था लेकिन विपक्ष ने यह मामला लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन के समक्ष उठाया। संसदीय नियम के मुताबिक   गिलोटिन के तारीख की सूचना और वित्त विधेयक की प्रति विपक्ष को दिए बिना इसे कार्य सूची में शामिल कर दिया जाना सही नहीं है। वित्त विधेयक और मुद्रा विधेयक को को शायद देश के संसदीय इतिहास पहली बार बिना बहस के पारित कर दिया गया। यह भाजपा की अगुवाई वाली सरकार का अंतिम और पूर्ण बजट है क्योंकि अगले साल चुनाव होने वाले हैं और सरकार आंशिक बजट ही पेश कर सकेगी। यह सब बताता है इस सरकार की नियत विपक्ष को नजरअंदाज करना है और  बाहर से किनारा करना है।  इससे तो ऐसा लगता है देश  देश की बात तो अलग संसद के भीतर भी भाजपा  मनमानी कर रही है।

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