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Monday, March 26, 2018

साधारण सूचनाएं भी संवेदनशील हो सकती  हैं

साधारण सूचनाएं भी संवेदनशील हो सकती  हैं

पिछले हफ्ते एक खबर आई माता का विश्लेषण करने वाली एक कंपनी नए डोनाल्ड ट्रंप चुनाव में 5करोड़ फेसबुक उपयोगकर्ताओं डेटा का  अनुमति के बिना उपयोग किया और जो समुदाय या समाज उसके निशाने पर  था उनका साइकोग्राफिक प्रोफाइल तैयार किया। इसके बाद उनके मनोवैज्ञानिक रुझान का लाभ उठा कर चुनाव के नतीजे अपने पक्ष में कर लिए।  एक पूर्व डाटा वैज्ञानिक क्रिस्टोफर वाईले  के अनुसार  इस फर्म ने  मनोवैज्ञानिक डेटा तैयार कर उसके आधार पर मतदाताओं का एक माइक्रो समूह तैयार किया। वाइले  के अनुसार इस तरह से ना केवल एक समाज पर मतदाता के रूप में नजर रखी जाती है बल्कि उसके व्यक्तित्व की  भी निगरानी की जाती है। इस रहस्य के पता चलने के बाद एक महत्वपूर्ण सवाल उठने लगा कि डेटा जमा करने की टेक्निक का समाज पर क्या प्रभाव पड़  रहा है? खास करके 2016 में अमरीकी  राष्ट्रपति चुनाव में  उसके उपयोग के संदर्भ में यह सवाल और भी महत्वपूर्ण हो गया। यही नहीं एक बुनियादी सवाल यह भी आता है डेटा के इस  दौर में हमारे पास इनकी हिफाजत के लिए क्या कानून है? आज भारत में यह राष्ट्रीय बहस का विषय हो गया है। खास तौर पर हम एक ऐसे सच के मुक़ाबिल हैं  जहां हमारे विभिन्न पहलू एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। उनको आसानी से लोग जान सकते हैं इसमें वे  पहलू भी शामिल हैं जिनके बारे में  हम बताना नहीं चाहते। सोचिए इतनी जटिल स्थिति है कि  अपने अस्तित्व का या व्यक्तित्व का कुछ हिस्सा पोशीदा रखना चाहते हैं और उसे लोग जान जा रहे हैं। डेटा  उखाड़ने की यह तकनीक अब हकीकत बन चुकी है तो हम सोचने लगे हैं संवेदनशील आंकड़े क्या हैं और क्या  नहीं हैं । हमारे व्यक्तिगत आंकड़ों को महफूज रखने के लिए जो हमारे देश में इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी कानून 2000  के तहत जो कानून है वह डेटा हिफाजत के लिए पर्याप्त नहीं है।  संवेदनशील व्यक्तिगत  डेटा  6 तरह के होते हैं। पहला पासवर्ड, दूसरा  वित्तीय सूचनाएं, तीसरा स्वास्थ संबंधी दशा, चौथा    यौन   प्राथमिकता,  पांचवा मेडिकल रिकॉर्ड और हिस्ट्री तथा  छठी  बायोमेट्रिक सूचनाएं। इस कानून के तहत यह होना चाहिए था कि इस तथ्य से सुनिश्चित होना चाहिए कि  जो लोग इस देटा  का इस्तेमाल करते हैं उनके पास सुरक्षा के पर्याप्त साधन हैं या नहीं , या वे उसे  पूरी तरह महफूज रख पाते हैं कि नहीं । जो लोग डेटा  संग्रह करते हैं वह पूरी तरह से अपनी शर्तों पर स्वतंत्र होते हैं।  यहां तक की डेटा हिफाजत की उनकी प्रक्रिया उसका असर या प्राइवेसी पालिसी सब उन की अपनी होती है।  संस्थाओं को उन लोगों से लिखित अनुमति लेनी चाहिए जो अपने डेटा उन्हें सौंपते हैं । पर ऐसा होता नहीं है । वे लोग बिना सोचे समझे “ मैं सहमत हूं ” पर क्लिक कर देते हैं।  क्योंकि शर्तों की सूची इतनी लंबी होती है कि कोई उसे पढ़ता नहीं है।  चाहे जो हो यह कानून पुराना पड़ चुका है और इसमें भारी संशोधन की जरूरत है खास करके आज की दुनिया को देखते हुए और इसी के तहत फेसबुक  बस द्वारा डेटा  एकत्र करने प्रक्रिया भी आती है। फेसबुक इस्तेमाल करने वालों के डाटा को गोपनीय विज्ञापन तकनीक की मदद से  इस तरह के संदेशों को बदल देता है कि वह  चुनाव पर प्रभाव डालने लगता  है। इस दौरान इस डाटा को सार्वजनिक  करने पर उपयोगकर्ता को हानि पहुंच सकती है।  दुनिया भर में कई  ऐसे सर्विस प्रोवाइडर हैं जो इसी तरह से डेटा का विश्लेषण करते हैं। उपयोगकर्ताओं को ज्यादा से ज्यादा सेवा देने के नाम पर सेवा प्रदाता बड़ी चतुराई से “ सिंगल कस्टमर विंडो” का भी उपयोग करते हैं इस विधि से उपयोगकर्ता  को और भी गंभीरता से समझता जा सकता  है।  मतलब फेसबुक ने  जो नया तकनीक अपनाया है वह उपयोगकर्ता की  धार्मिक आस्था और यहां तक कि उसकी  जाति और नस्ल के बारे में भी सूचनाएं प्राप्त करता है। अब इस तकनीक के तहत कई ऐसे डाटा पॉइंट हैं  जो वर्तमान कानून के अंतर्गत बहुत संवेदनशील नहीं माने जाते हैं । अब समय आ गया है कि  व्यक्तिगत डेटा विश्लेषण के नतीजों का उपयोग कहां और क्यों हो रहा है इसकी भी जांच हो या इसकी विधिवत सूचना रखी जाए।  यह दोनों संभव है । डेटा उखाड़ने के इस दौर में अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो समाज को निहित स्वार्थी तत्त्व अपनी मर्जी से हांकना आरम्भ  कर देंगे जिसका परिणाम अत्यंत घातक होगा ।

 

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