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Tuesday, March 20, 2018

यहां पर सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं

यहां पर सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं

पिछले कुछ महीनों से जो कुछ हो रहा है उसे देखकर लगता है कि हम निष्क्रिय समाज बनते जा रहे हैं । राजनीतिक विभाजन के इस युग में अपने आसपास को महसूस करने , उस एहसास को लोगों को बताने और उसे अभिव्यक्त करने की हमारी ताकत खत्म होती जा रही है। हम बिना किसी  भीतरी अजेंडा के  कुछ भी नहीं कर पाते। यह अब हमारे उदारवादी वामपंथियों के लिए भी लागू होता है। हर हफ्ते हम दलितों और कमजोर लोगों पर हमले की घटना की कहानी सुनते आ रहे हैं। एक जगह एक राजनीतिक पार्टी  जीतती है तो पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगते हैं एक जगह कोई एक नेता की जय बोल देता है तो  उसका सिर काट लिया जाता है। सांप्रदायिक स्तर पर दोस्ती और दुश्मनी तय होती है। ऐसे कई  वाकये  देखने और सुनने जिसमें आधार कार्ड को लेकर ज्यादतियों की घटनाएं होती है। पूरा समाज राजनीतिक दल बंदियों में  विभाजित हो चुका है ।   करप्ट व्यापारी  बैंकों से रुपया लेकर देश छोड़ देते हैं  और गरीब किसान महाजन के  कर्ज के डर से खुदकुशी कर लेता है।  हम रोज ऐसी घटनाओं के बारे में सुनते हैं अब यह हमारे लिए आम बात हो गई है। अब तो ऐसा लगता है अगर किसी दिन इस तरह की घटना नहीं हुई तो हम आश्चर्यचकित हो जाएंगे। कई लोग इसे मामूली बात कहते हैं कई लोग इसे ईर्ष्यावश वायरल की गई कहानी बताते हैं  और कुछ लोग इसे मीडिया का प्रचार बताते हैं। कोई भी घटना घटती है तो कुछ लोग इसे किसी खास राजनीतिक  पार्टी की करतूत  बताते हैं या फिर यह प्रमाणित करने की कोशिश करते हैं। अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक समाज या  मुगल राजा या ब्रिटिश राज अथवा कांग्रेस की देन  बताते हैं।  वह इन घटनाओं को खारिज कर देते हैं नरेंद्र मोदी कीर्तन करने लगते हैं।

   

कई फाके बिताकर मर गया जो उसके बारे में

 वह सब कहते हैं कि अब ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा  

 

दूसरी तरफ  हमारे समाज में  ऐसे भी लोग बसते हैं जो  इन घटनाओं के बारे में जनता को बताना चाहते हैं लेकिन उन्हें गालियां सुननी पड़ती है ,उन पर तोहमतें लगाई जाती  हैं।  कुछ लोग हैं जो हर बात के लिए बिना सोचे समझे सरकार को ही दोषी बता देते हैं। हमारा सहारा समय और सारी ऊर्जा इस दोष लगाने और दोष को खारिज करने में खत्म हो जाती है। इससे ज्यादा हम कुछ नहीं कर पाते। क्या ऐसा नहीं लगता , अब समय आ गया है कि हम थोड़ा रुकें,सोचें  और तब  बताएं की हकीकत क्या है और इसमें हमारी भूमिका क्या होनी चाहिए।  हम ऐसी जगह पर आकर खड़े हो गए जहां ऐसा लगता है कि किसी को भी समाज की चिंता में बस हम केवल अपने अपने राजनीतिक एजेंडा को पूरा करने में लगे हैं। हर पक्ष या तो मोदी के गुणगान करने में लगा है या उसे भला बुरा कहने में। हम लगातार मोदी को स्थापित करने या उसे गद्दी पर से हटाने के बारे में ही सोचते और हर घटना को बारूद की तरह इस्तेमाल करने की सोचते हैं। यहां बात राजनीतिज्ञों की नहीं हो रही है और ना उनके झंडाबरदारों की। यहां बात हमारी और आपकी है जो इस गृह युद्ध में शरीक  हैं।

   इन घटनाओं में सच  गुम हो गया सा लगता है।... और खो गए से लगते हैं वे लोग जो इसके चपेट में आकर या तो मर गए या घायल होकर  पड़े हुए हैं। गरीब और किसान हाशिए पर चले गए हैं तथा केवल बहस का  मसला  भर हैं।  यह सुनने में बड़ा असंवेदनशील और कठोर लग रहा है लेकिन जरा सोचें तो हम क्या हो गए हैं।

    अगर हमें एक संवेदनशील समाज के रूप में कायम रहना है हमें बदलना होगा यह समय आ गया है। अन्यथा मोदी के जाने के बाद भी हम वही रहेंगे जैसा बन चुके हैं ।अपने समाज के बंटवारे को खत्म नहीं कर पाएंगे और ना उन चीजों को मिटा पाएंगे जो इन दिनों घटना के रूप में सामने आ रही है  तथा  हमें एक इंसान के तौर पर दूसरे इंसान से अलग कर रही है। हम एक इंसान के रूप में उस महापंक  में फंसे रहेंगे जिसे इस सरकार ने तैयार किया है।

 

गजब यह है कि अपनी मौत की आहट सुनते नहीं

 वह सब के सब परेशान  हैं  वहां पर क्या हुआ होगा

 

हम एक बहुत बड़ी विपदा वह हमारे ऊपर आने के पहले अगर नहीं चेत जाते हैं तो कल क्या होगा इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। हम घटनास्थल पर घटना के बाद  पहुंच सकते हैं  और राजनीतिक तरफदारी के आधार पर उसका विश्लेषण कर वहां से हट सकते हैं लेकिन इससे कुछ होगा तो नहीं जरूरत है कि हम आम लोगों के हाथ में हाथ डालकर और इतनी जोर से हंसें कि  गद्दी पर बैठा नेता सहम जाए कि उसकी हकीकत खुल गई है। हम समाज को या  समाज के  किसी एक  हिस्से  को  को नजरअंदाज कर बहुत ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रह सकते । यह एक सबक है जो हमें दक्षिणपंथी सियासत में सिखाया है। उदारवादी आवाज हरगांव से होनी चाहिए हर शहर से उतनी चाहिए स्कूल और कॉलेज  से उठनी चाहिए और  एक दूसरे के  द्वारा सुनी भी जानी चाहिए।नकारात्मकता का जहर चारों तरफ फैल चुका है।  यह फैलाव  बताता है कि हम क्या हैं। दलबंदियों ने  एक समाज के रूप में हमारी कमजोरियों को पकड़ लिया है और उस का शोषण कर रहे हैं। हम उन्हें अपने दिमाग को कुंद नहीं करने देंगे। हम बिना किसी  राजनीतिक  लैंप पोस्ट  के   एक समाज के तौर पर  कायम रहना चाहते हैं तो इन राजनीतिक दलबंदियों से  ऊपर उठकर इंसान के हक में सोचना होगा। आज जो हमारी हालत है उसे तो देख कर यही लगता है

यहां सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं

 खुदा जाने यहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा

 

 

 

 

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