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Friday, April 6, 2018

कैसे पढ़ेगा इंडिया

कैसे पढ़ेगा इंडिया

मेक इन इंडिया ,डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया के लगातार तिलस्मी नारों की पसलियों से मवाद की तरह रिसता प्रश्न पत्र लीक का मामला ,फसादात के मामले और बढ़ती बेरोजगारी के बीच स्कूली शिक्षा की अनदेखी।  सरकार इतनी नादान नहीं है कि यह ना समझे। यह अनदेखापन   सारी बुनियाद को खराब कर देगा।  समस्त बड़ी-बड़ी योजनाएं नाकाम  हो जाएंगी। भारत की आबादी का लगभग साढ़े सत्ताईस प्रतिशत  भाग 14 साल से कम उम्र का है। यह देश के  मुख्य डेमोग्राफिक डिविडेंड की निशानी है ।लेकिन क्या यह लाभांश मिल सकेगा ? शायद नहीं । अफसोस तो यह है की उत्तर प्रदेश बिहार और मध्य प्रदेश समेत कई भारतीय राज्यों में किशोर उम्र की इस जनसंख्या में शिक्षा का भयानक अभाव है या शिक्षा के नतीजे बहुत खराब हैं।  ए एस ई आर  के आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में सन 2016 में सरकारी स्कूलों में तीसरी कक्षा के 7% से कम बच्चे दूसरी कक्षा के पाठ्य पुस्तक को ठीक से पढ़ पाने में सक्षम थे। तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले एक चौथाई बच्चे साधारण जोड़ घटाव नहीं कर पाते थे। यह केवल उत्तर प्रदेश का ही मामला नहीं है लगभग सभी राज्यों की स्थिति ऐसी ही है । क्या इन पर गर्व किया जा सकता है ? आखिर बात क्यों शिक्षा के विकास की निरंतरता  खत्म हो गई ? दुर्भाग्य है स्कूलों में अच्छे शिक्षकों ,अच्छे पाठ्यक्रम के साथ बुनियादी सुविधाओं का भयानक अभाव है। जब तक इन तीनों सुविधाओं को बच्चों को मुहैया नहीं कराया जाता है।  
  शिक्षा के नाम पर सभी राज्यों में कई तरह के खर्च किए जाते हैं लेकिन एकीकृत जिला सूचना प्रणाली के आंकड़ों के अनुसार देश के लगभग ढाई लाख स्कूलों में बहुत कम बच्चे हैं और 7200 स्कूल तो ऐसे हैं जहां बच्चे ही नहीं है । यही नहीं स्कूली शिक्षा में शिक्षकों की कमी बड़ी तेजी से हो रही है । सोचने की बात है कि 6000 से ज्यादा प्राइमरी स्कूल ऐसे हैं जहां एक भी शिक्षक नहीं है।  ऐसे भी स्कूल हैं जहां 6-7 कक्षाएं चलती हैं और 2 या 3 शिक्षक या मुट्ठी भर शिक्षकों से सभी कक्षाओं में कई तरह के विषय पढ़ाने की उम्मीद की जाती है । स्कूली सिलेबस भी चिंता का विषय है। बच्चों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा मुहैया करने की बहुत ज्यादा वकालत होती है लेकिन क्षेत्रीय भाषा और अंग्रेजी के बीच संतुलन कायम रखना बड़ा कठिन हो गया है। विभिन्न विषयों की पाठ्यपुस्तक कैसी हैं, छात्रों में उनके प्रति दिलचस्पी होती है या नहीं , छात्र केवल  पढ़ते हैं ? यही नहीं बुनियादी सुविधाओं के नाम पर बस स्कूल की इमारतें ही सामने दिखतीं है । स्कूलों में खेल के मैदान में नहीं हैं, बिजली नहीं है,शौचालय नहीं है पर चल रहे हैं। 26.84 प्रतिशत स्कूल ऐसे हैं जिनमें कंप्यूटर  ही नहीं है ।  ऐसा तो नहीं है कि सरकार इन जरूरतों को नहीं समझती होगी । तो , वह चुप क्यों है? देश की इस किशोर आबादी को अनपढ़ बनाए रखने की यह साजिश तो नहीं है क्या।

   एक तरफ यह सब चल रहा है स्कूली शिक्षा को अनदेखा किया जा रहा है प्रधानमंत्री सारी चीजों पर चुप हैं ।  और प्रधानमंत्री की चुप्पी के परिप्रेक्ष में यदि सारे हालात हैं समाज वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए ऐसा लग रहा है यह सब एक सोची समझी  स्कीम है योजना है । स्किल इंडिया है बाहर से पुर्जे मंगाओ पेच कसो , अपना ठप्पा लगाओ और बाजार में बेच दो। उद्योगीकरण का कितना आसान नुस्खा है, कितनी सफाई से  सरकार उद्योगपति बनाने का सपना दिखाकर व्यापारी बना रही है और अपना कुछ इज़ाद नहीं करें बस  बाहर से सामान बनाकर परजीवी बने रहें।  
यही नहीं , शोषण के तरफ से नजर हटाने या उसे जायज़ ठहराने के लिए धर्म संप्रदाय वगैरह-वगैरह का सहारा लिया जा रहा है। दिनोंदिन सस्ते होते जाते कंप्यूटर - मोबाइल फोन बड़ी आसानी से चमत्कार का निर्माण करते हैं। जिसे देख - देख कर किशोर और मध्य वर्ग  विमुग्ध होता रहता है । सोशल मीडिया पर चलते सत्योत्तर समाचार और उसके साथ-साथ तरह-तरह कि चुटकुलेबाजी हमें या कहिए कि हमारे किशोरों को सोचने समझने लगे नहीं छोड़ती।
   जिस आविष्कार ने दुनिया में क्रांति पैदा कर दी थी वह था कागज । यानी चिंतन का दस्तावेज तैयार करने का साधन ।  कागज की बढ़ती कीमतें स्कूलों में पढ़ाई का अभाव यह सब एक तरह से देश की आने वाली पीढ़ी के  चिंतन को कुंद कर देना की कोशिश है।
   मीडिया खासकर तेजी से खबरें पहुंचाने के लिए मशहूर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया बड़े -बड़े पूंजीपतियों के हाथों में है और पूंजीपतियों की डोर सत्ता के हाथ में है । यानी स्वतंत्र कही जाने वाली मीडिया वस्तुतः स्वतंत्र नहीं है।  आजाद केबल किताबें हैं और वे या तो उपलब्ध नहीं है या फैशन से बाहर हैं। आप खुद अपने दिल पर हाथ रख कर देखिए कि आपने पिछले एक वर्ष में कितनी किताबें खरीदे और पढ़ी  हैं । ...और कैसी किताबें पढ़नी है शायद चिंतन - दर्शन से जुड़ी किताबें
इत्यादि की सूची बहुत छोटी होगी या बिल्कुल गैरहाजिर। क्या विडंबना है कि लेखकों  के लिए इनाम है ,पद है लेकिन जिस चीज ने ईनाम के लेखक बनाया वही गायब हैं । अभी दो-तीन दशक पहले तक की बात है,  हमारे नेताओं में दुनिया के प्रसिद्ध बुद्धिजीवी रहे हैं। राधाकृष्णन ,आचार्य नरेंद्र देव,  के एम मुंशी, राम मनोहर लोहिया ,जवाहरलाल नेहरू, भीमराव अंबेडकर ,राजगोपालाचारी जैसे नेता हमारे देश में थे जिनके पास राष्ट्र और राष्ट्र के लोगों को लेकर एक विजन था एक सपना था।  आज ऐसे लोग कहां है ? दुनिया का सबसे ताकतवर देश वही होता है जिसका सरोकार विज्ञान  से बहुत गहरा होता है, जहां चिंतन को प्रमुखता मिलती है । आज के किशोर रसल , सार्त्र, टालस्टाय, ग़ालिब ,जायसी या भूषण का नाम पूछने पर चौंक जाते हैं और कहते हैं कि हमारे ग्रैंडपा कुछ ऐसा ही नाम लिया करते थे।  90% किशोरों को मानस की पांच चौपाईयां नहीं याद होंगी।  बहरहाल , सरकार जानती है पढ़ना बहुत खतरनाक बात है इसलिए पढ़ने ही मत दो।  क्योंकि ,पढ़ने से कुछ सोचने और सोचने पर कुछ कहने का मानस बनता है। बात कहना सरकार को पसंद नहीं है।   सरकार की नजर में किताबें फालतू चीजें वे बूढ़े न जाने क्या छोड़ गए? इसलिए किताबों को बदलने की कोशिश चल रही है।  क्योंकि  उन किताबों को नष्ट नही किया जा सकता है और ना पढ़ने रोका जा सकता है । ऐसा लगता है हमारे देश में एक ऐसी संस्कृति का निर्माण हो रहा है जो  किताबों से दूर रहेगी।  पूरा देश स्वच्छता मिशन, मेक इन इंडिया वगैरह -वगैरह के नारों से गूंज रहा है लेकिन स्कूलों की  कक्षाओं में सन्नाटा है। शिक्षक जरूरत से कम हैं।  सरकार के लिए ऐसी ही आबादी मुफीद है क्योंकि आज जो किशोर हैं  वह कल नौजवान होंगे वोटर बनेंगे , सरकार से सवाल पूछेंगे। पढ़े लिखे होंगे तो ज्यादा सवाल पूछेंगे। चिंतनशील होंगे तो और कठिन सवाल करेंगे। फिर हालात का विश्लेषण करेंगे और यह सत्ता को नापसंद है। इसलिए इन किशोरों को पढ़ने ही ना दो। अगर किसी तरह से पढ़ भी गए तो सोचने समझने की सलाहियत ही ना रहेगी। मुंह छिपाते फिरेंगे तो सरकार के लिए ज्यादा अनुकूल  होंगे। अंत में यही कहा जा सकता है नही पढ़ेगा इंडिया ,नहीं पढ़े।

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