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Sunday, April 8, 2018

भारत बंद की खतरनाक सियासत 

भारत बंद की खतरनाक सियासत 

पिछले हफ्ते इसी सोमवार को भारत बंद था। इस दौरान देशभर में कई जगहों पर भारी हिंसा हुई । 11 लोग मारे गए ।सार्वजनिक संपत्ति को भारी क्षति पहुंची।मंज़र बेहद खतरनाक दिख। इससे भी ज्यादा खतरनाक तो वह दिखा जो तसवीरें मीडिया ने देशभर में दिखाई। कई जगह तो प्रदर्शनकारी खुल्लम खुल्ला हथियार लेकर घूम रहे थे और उसका उपयोग कर रहे थे। कई जगह लोगों को बसों में आग लगाते गाड़ियां फूंकते देखा गया। सड़कों पर अवरोध खड़े किए गए। दुकानें फूंक दी गयीं।  दुखद तो यह  लगा कि जिनको टी वी पर बोलते देखा गया वह खुद में अनिश्चित थे और भ्रमित थे।दरअसल मामला क्या था ? मामला यह था कि एक समूह ने अनुसूचित जाति और जनजाति पर अत्याचार अधिनियम 1989 को खत्म करने की मांग की थी । 
   इस अधिनियम के कठोर नियमों के मुताबिक एक अभियुक्त को बिना जमानत के जेल भेजा जा सकता है। हालांकि, इस कानून के अंतर्गत सजाएं बहुत कम हो रहीं हैं, लेकिन इसके दुरुपयोग की घटनाएं बहुत सुनी गयीं हैं। इसके दुरुपयोग की घटनाओं ध्यान में रखकर सुप्रीम कोर्ट ने अभियुक्तों की  गिरफ्तारी और मुकदमें पर रोक लगा दिया । इसमें  कहा गया  कि शिकायत की जांच होनी चाहिए और गिरफ्तारी के पहले वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक या नोडल अधिकारी की मंजूरी होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले में क्या गलत था? आपसे एक सवाल पूछना उचित होगा कि किसी आदमी के स्वतंत्रता के अधिकार को नजरअंदाज कर उसे गिरफ्तार करना, उसे अपमानित करना और बिना प्राथमिक सबूत के उसे जेल भेज देना क्या जायज है ? ऐसी सिफारिश की प्रशंसा किए  जाने के बदले अनुसूचित जाति और जनजाति के नेताओं ने संगठन में विरोध में झंडा उठा लिया और सरकार ने भी इस दबाव के आगे घुटने टेक कर समीक्षा याचिका दायर कर दी। 
  भारत में जो कानून है उसके मुताबिक जब तक दोष प्रमाणित ना हो जाए तब तक अभियुक्त निर्दोष होता है। लेकिन यहां सबसे बड़ी समस्या है कि दोष प्रमाणित होने के पहले सिर्फ दोष  लगाए जाने के आधार पर किसी को दोषी करार दे दिया जा रहा है । 
    सरकार द्वारा समीक्षा याचिका मात्र से भारत बंद नहीं रुका। यह बंद हुआ और सड़कों पर तांडव सबने देखा। आश्चर्य नहीं है कांग्रेस शासित कर्नाटक में और तृणमूल शासन वाले पश्चिम बंगाल में हिंसा या सामान्य जीवन  के अस्त व्यस्त  की घटनाएं कम हुईं। 
     जो इस तरह की घटनाओं को राजनीति प्रेरित या पेशेवर दंगाइयों द्वारा अंजाम दी गई  जाने की घटना ना समझें  वह अनाड़ी है, या उसे कोई जानकारी नहीं है। 
   भारत की शासन व्यवस्था और कानून तथा व्यवस्था की पुरानी मशीनरी ऐसी किसी घटना को नहीं रोक सकती जिसमें दंगाई आम नागरिक के वेश में विरोध के नाम पर तोड़फोड़ करते हैं , और हिंसा करते हैं । ऐसा बार-बार होता है जब बात अनुसूचित जाति जनजाति की आती है । 
   विपक्षी दलों ने  भा ज पा को आरक्षण विरोधी करार देने की या प्रमाणित करने की कोशिशें की है। मोदी सरकार ने रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाकर उनकी इस साजिश को नाकाम कर दिया। विपक्ष भाजपा विरोधी एक नया वोट बैंक तैयार करने में लगा था वह बेकार होता सा दिखा।  सरकार ने जो समीक्षा याचिका दी है उसके नतीजे अभी आने बाकी हैं।
  इसके पहले इस मामले पर इमानदारी पूर्वक सोचना जरूरी है।  अनुसूचित जाति और जनजाति के सदस्य भी सोचें  और खुद से पूछें कि क्या वह इस तरह की गोटी  बन सकते हैं जिसे  जो चाहे जब चाहे अपनी  चौपड़ पर फेंक दे, खासकर देश को बांटने के इस खेल  में।
   सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है हम सभी चाहे जिस जाति के हैं खुद से पूछें कि  गणतंत्र भारत के नागरिक होने का अर्थ क्या है? हम कब तक जात धर्म संप्रदाय भाषा सरीखे पहचान में तक्सीम होते रहेंगे । कुछ बेकार सी विशेष सुविधाओं के नाम पर कब तक मूर्ख बनते रहेंगे।  अंग्रेजों ने हमारे समाज का  विभाजन ह शुरू किया था और आज हमारे नेता इसका उपयोग कर रहे हैं । इसके जारी रहने के लिए कौन जिम्मेदार है? आज सत्तारूढ़ दल पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारों को दोषी करार दे सकती है , लेकिन क्या खुद संविधान के नियमों के अनुकूल काम करेगी? अपने राजधर्म का पालन करेगी ? क्या यह हमारा कर्तव्य नहीं है कि हम सही के पक्ष में खड़े हो जाएं ? बेशक इसके लिए कुछ राजनीतिक कीमत भी चुकानी पड़ सकती है। एक बार फिर वक्त आ गया है जब हम  हवा में हाथ लहरा कर कहें कि  सभी भारतीय एक हैं। क्या सब को  एक  या समान कानून से नहीं देखा जाना चाहिए? सबको न्याय का समान अधिकार मिलना चाहिए, सबको एक तरह के अपराध के लिए समान सजा मिलनी चाहिए। आइए हम इस पर एक बार फिर सोचें।

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