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Sunday, July 8, 2018

शिक्षा से नहीं मिटेगा जाति का दुर्गुण 

शिक्षा से नहीं मिटेगा जाति का दुर्गुण 
बेशक हमारा भारत स्मार्ट फोन और इंटरनेट के साथ आगे बढ़ रहा है पर अभी कुछ ऐसे मामले हैं जिसे लेकर हम पुराने विचारों में उलझे हुए हैं।  अभी हाल में एक खबर आई थी  कि महाराष्ट्र के एक गाँव में  तीन किशोर दलित लड़कों को बुरी तरह पीटा गया और नंगा कर घुमाया गया।  उनका दोष केवल यह था कि वे ऊंची जाति के एक कुएं में उतरे हुए थे।  मार पीट करने वालों ने  इस पूरी घटना का वीडियो बनाया ताकि वे दलितों को यह चेतावनी दे सकें कि जाति पाँति की सीमाएं अभी भी कायम हैं।  वे यह मानने को तैयार नहीं हैं कि इतिहास की हद काफी पीछे छूट चुकी है और नए सामाजिक नियमों ने उनकी जगह ले ली है।  इस मानसिकता का मुख्य कारण है कि मौजूदा राजनीतिक वातावरण में एक उम्मीद नज़र आने लगी है कि पुराने दिन वापस आएंगे।  यह घटना हमें याद दिलाती है कि  जब पाइप से पानी नहीं आता था तो कुएं सामाजिक जीवन में अपनी भूमिका निभाते थे और जातिगत बंटवारे के लिए वह एक औजार के रूप में उपयोग में लाए जाते थे। आंगन में एक कुएं का होना सामाजिक श्रेष्ठता का प्रतीक था। उस जमाने में  सार्वजनिक कुएं भी हुआ करते थे, जो अक्सर सामाजिक उदारता की वकालत करते थे। विख्यात उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद की ऐसी कहानियां हैँ जिसमें कुए के चारों तरफ की घटनाओं और संघर्षों का जिक्र है। "ठाकुर का कुआं" कहानी बहुतों को याद होगी । इसकी रचना 1930 के पूर्वार्ध में हुई थी। इसकी पृष्ठभूमि बहुत छोटी थी और खतरनाक थी ।  इसमें हिंसा का उतना ज्यादा उल्लेख नहीं है  फिर भी बताया गया है कि एक अछूत   मजदूर की पत्नी ने एक ठाकुर के कुएं से पानी लाने का प्रयास किया।  वह रात का समय था और उसका पति बीमार था उसे प्यास लगी थी । हालांकि महिला के घर के समीप एक कुआं था लेकिन उसका पानी काफी बदबूदार था क्योंकि एक पशु उसमें गिर कर मर गया था ।  महिला जोखिम से परिचित थी लेकिन उसने कदम आगे बढ़ाया अभी वह पानी निकालने ही वाली थी कि किसी ने उसे देख लिया ।  वह घर पहुंची तो देखा कि उसका पति गंदा बदबूदार पानी पी रहा है । हम में से कई लोग यह सोचेंगे यह पुराने दिनों की बात है और अब यह सब खत्म हो चुका है ।  महाराष्ट्र की घटना ने प्रमाणित कर दिया यह सब अभी खत्म नहीं हुआ है । प्रेमचंद की कहानी देश के कई भागों में पढ़ाई जाती है और इसे कोई भी इंटरनेट पर देख सकता है चाहे ऑडियो चाहिए वीडियो  । सभी पाठों के बाद शिक्षक छात्रों को यह बताते हैं कि प्रेमचंद ने किस तरह से अछूत और अन्य सामाजिक समस्याओं को उठाया है और उन्हें रेखांकित किया है । उन्होंने इशारा किया है कि इन्हें दूर किया जाना चाहिए।    यह अंधविश्वास है   । इन कहानियों का मर्म समझना जरूरी है ,यदि परीक्षा में अच्छे नंबर लाने है तो।शिक्षक अक्सर समझाते हैं कि यह सब पुराने दिनों की बात है अब जाति-पाति नहीं है । यह सब समाप्त हो चुका है। लेकिन यह अक्सर दिखाई पड़ जाता है। वह भी दूरदराज के गांव में । इन पाठों का का उद्देश्य है कि छात्र अमानवीय कार्यों तथा रिवाजों से मुकाबला करें।
       किताबों से अलग या साहित्य से अलग शायद ही किसी राज्य में जातिगत मामलों से निपटने के लिए कुछ सही कदम उठाए जाते हों । अभी भी जाति हमारे समाज में एक मसला बनी हुई है। बेशक इस पर सीधी बातचीत नहीं होती है और ना इसे किसी बड़े सामाजिक दुरावस्था के रूप में देखा जाता है। किसी स्कूल में भी इस पर गंभीर चर्चा नहीं होती । यहां तक की शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालयों में भी इस से बचा जाता है। हां, जिस विषय पर बात होती है वह है आरक्षण की नीति और इसका सांविधानिक उद्देश्य। यह उम्मीद की जाती है कि जाति संबंधित दुर्गुण धीरे धीरे समाप्त हो जाएंगे और यदि समाप्त नहीं भी होते हैं तो दब जाएंगे। शिक्षा से यह उम्मीद की जाती है वह यह सब कर देगी। लेकिन ,कोई भी यह नहीं सोचता की शिक्षा कैसे काम करती है और जाति के मसले पर इन संस्थाओं को कैसे उपयोगी बनाया जा सकता है।
     अगर हम इन दो सवालों के जवाब  खोजेंगे तो हमें कुछ स्पष्टीकरण भी प्राप्त होंगे। पहला प्रश्न कि क्या शिक्षा से नीची जातियों में संपन्नता और सामाजिक मेलजोल बढ़ा है और दूसरा कि क्या शिक्षा से  जाति को लेकर दुराग्रह खत्म हुए हैं? पहले प्रश्न का उत्तर हां में होगा और दूसरे प्रश्न का उत्तर यह हो सकता है या नहीं भी हो सकता है । दूसरे प्रश्न के उत्तर का उदाहरण विश्वविद्यालयों से लेकर सियासत तक पाए जा सकते हैं । जाति का असर हर जगह देखने को मिल जाता है । बहुत से नौजवान इससे कोई दिक्कत नहीं महसूस करते ।कॉलेज में दोस्तों के बीच इस पर बातचीत नहीं होती। लेकिन तब भी जाति को लेकर जो दुराग्रह  है  उसके बारे में सही शिक्षा शायद दी जाती है । यह भरोसा किया जाता है कि पाठ्यक्रम इसे अपने आप दुरुस्त कर देंगे। कई स्कूल और शिक्षा संस्थाएं जाति संगठनों द्वारा स्थापित की गई हैं और वह भी चाहती हैं की जाति का जादू छात्रों के मन में कायम रहे। यही हालत शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालयों की भी है। आप किसी भी छात्र या शिक्षक को जाति व्यवस्था के बारे में बहस उभारने वाली पुस्तकें पढ़ने के लिए तैयार नहीं कर सकते। निर्दयी विचार और पुरानापन अभी भी कायम है और राजनीति के साथ फल-फूल रहा है। यह सब देश की छवि को नष्ट कर देगा। अंबेडकर ने सही कहा था कि जाति देश के बौद्धिक विकास में बाधा है और दमन का एकतंत्र है। दार्शनिक जॉन डेवी ने लोकतंत्र में बहस को मुख्य आधार बनाया है। अंबेडकर ने यह बताने की कोशिश की है कि किस तरह से जातियां और उनकी प्रणालियां विचारों और शिक्षा को प्रवाहित होने से रोकती हैं। जॉन डेवी की तरह अंबेडकर को भी शिक्षा पर पूरा भरोसा था कि यह लोकतंत्र के संपोषण के लिए जरूरी है। लेकिन हमारी शिक्षा पद्धति इस मामले में बेहद कमजोर है और सामाजिक समूह में एक दूसरे को लेकर बंधन बनाने में नाकामयाब है। यहां तक कि कई बार विज्ञान, इंजीनियरिंग या मैनेजमेंट के छात्रों में भी इस दुर्गुण को पाया गया है। रोजमर्रा की जिंदगी में तो जिनमें यह दुर्गुण है उन पढ़े-लिखे लोगों को सामान्य समझा जाता है। अगर आप शहरी मध्यमवर्गीय सदस्य हैं तो आप धीरे-धीरे सीख लेते हैं जातियों से अलग रहना लेकिन तब भी यह आपके रोजमर्रा के जीवन में कहीं न कहीं कायम रहता है और आपकी जाति की पहचान को बनाए रखता है।

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