CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Tuesday, August 7, 2018

असम फिर उबल रहा है

असम फिर उबल रहा है
असम इनदिनों उबल रहा है । एनआरसी को लेकर चारों तरफ आंदोलन चल रहे हैं। दीवारों पर लिखे नारे अगर कुछ कहते हैं तो उनका बहुत बड़ा राजनीतिक अर्थ   हो सकता है। दीवारों पर लाल और काली स्याही में अंग्रेजी में लिखा नजर आ रहा है "असम फॉर असमीज़" या "बंगाली गो बैक " यानी,  असम असम वासियों के लिए है ,बंगाली वापस जाएं । हाल में अखिल असम स्टूडेंट यूनियन का दुबारा गठन हुआ अब यही बात नारों में कही जा रही है और हिंसा की चेतावनी दी जा रही है। कहा जा रहा है कि विदेशी लोग अहोमिया संस्कृति को समाप्त रहे हैं। इन विदेशी लोगों में बंगाली, मारवाड़ी और सर्वत्र व्याप्त बांग्लादेशी  शामिल हैं।
      एक दशक पहले यही छात्र संघ "आसु" बहुत हिंसक था। उसके बाद एक ताकतवर क्रांतिकारी गिरोह उल्फा का उदय हुआ। अब फिर लगभग वैसा ही होने जा रहा है। उस समय विदेशियों को खासकर कोलकाता से गये मारवाड़ियों को हथियार के बल पर भगाया जा रहा था।  चाय बागानों में हड़ताल हो रही थी। दिनदहाड़े खून हो रहा था।  अब फिर राजनीतिज्ञ खून में सने हुए नारे देख रहे हैं ।उस समय समाधान खोजा गया। कांग्रेस ने  पैर जमाने का फैसला किया और अवैध घुसपैठिया अधिनियम 1983 लागू किया गया। लेकिन जब घुसपैठियों को निकालने का मौका आया यह कानून बेकार हो गया। उस समय यह प्रमाणित करना होता था कि निकाले जाने वाला आदमी विदेशी है । अगर विदेशी की शिनाख्त हो गई   तो पुलिस को अधिकार था कि वह तलाशी ले और उसे पकड़ ले। घुसपैठिए दूसरे जिलों में भागने लगे।
        आंकड़े बताते हैं कि 1962 से 1984 के बीच लगभग 30 लाख विदेशियों को असम से निकाला गया। लेकिन  1983 के बाद के दशक में खबरों के अनुसार केवल 15 सौ लोगों को निकाला जा सका। बहुत खून खराबा हुआ। अंततोगत्वा, प्रधानमंत्री राजीव गांधी को "आसु" के साथ असम समझौते पर हस्ताक्षर करना पड़ा। इस समझौते के बाद आई एम डी टी अधिनियम बेकार हो गया। पड़ताल, शिनाख़्त और निष्कासन असम समझौते का मूल था और समझौता केवल कागज पर ही रह गया।
     इसके बाद से असम में सत्तारूढ़ दल का टाल मटोल चलता रहा । 2006 के चुनाव के दौरान मीडिया की खबरों के अनुसार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि "उनकी पार्टी असम में अल्पसंख्यकों के अधिकार के लिए प्रतिबद्ध है और उसने विदेशी अधिनियम  के तहत विदेशी आदेश 2006 लागू किया है। यह आदेश गैरकानूनी बांग्लादेशी घुसपैठियों की रक्षा करेगा क्योंकि इस आदेश के तहत गैरकानूनी घुसपैठियों की पड़ताल , शिनाख्त और उन्हें बाहर निकाला जाना बहुत ही कठिन तथा समय साध्य हो गया।
     इस से साफ जाहिर होने लगा कि कांग्रेस पार्टी एक ऐसी पार्टी है जो अवसर हाथ से नहीं जाने देती  है यह गलत नहीं है । 2018 के मानसून सत्र के बाद उसने दोमुंही बात शुरू कर दी। यदि तरुण गोगोई गर्व पूर्वक  कहते हैं कि यह उनके दिमाग की उपज है तो  कांग्रेस के बड़े नेता उनसे अलग हो जाते हैं। असम प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद विपुल बोरा ने कहा कि एनआरसी की कार्रवाई संदेहास्पद है । पार्टी के नेता आनंद शर्मा में सर्वदलीय बैठक बुलाई ताकि राष्ट्रीय जनमत तैयार किया जा सकता है । अगर असम में जो कुछ भी हो रहा है उस पर यदि किसी ने ईमानदारी से कुछ कहा है तो वह कांग्रेस के पूर्व सांसद कृपा चालिहा हैं । चालिहा को यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि "यद्यपि कांग्रेस को इसका विरोध करना चाहिए लेकिन उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर  कहा  कि घुसपैठ से इनकार नहीं किया जा सकता।"
      भाजपा की आंख  2015 में खुली। उधर इस पूरी प्रक्रिया में हाशिए पर खड़े सुप्रीम कोर्ट के जज रंजन गोगोई ने इसे और भी उलझन भरा बना दिया। न्यायाधीश ने धार्मिक दबाव के कारण भागने वाले विदेशियों के सामने एक लकीर खींच दी। इन विदेशियों में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यक खास तौर से शामिल थे। गृह मंत्रालय द्वारा 2015 में जारी  अधिसूचना के मुताबिक बांग्लादेशी और पाकिस्तानी अल्पसंख्यक जैसे हिंदू, सिख, इसाई, जैन, पारसी और बौद्ध समुदाय के लोगों को धार्मिक अत्याचार के चलते भारत में शरण देने को बाध्य हैं।
       दूसरे शब्दों में भाजपा बराक घाटी के मुस्लिम बहुल जिलों में हिंदू बंगालियों से किए गए अपने चुनावी वायदे को पूरा कर रही है। 2015 की अधिसूचना के तुरंत बाद नागरिकता अधिनियम 2016 में संशोधन हुआ।  असम गण परिषद के सर्वानंद सोनोवाल ने इस कानून को चुनौती दी और 2016 का संशोधन अमल में नहीं लाया जा सका। संतुलन भाजपा के खिलाफ गया। सोनोवाल भी लोकप्रियता खोने लगे । क्योंकि असम की जनता नागरिकता अधिनियम को असम समझौते के विपरीत मानती थी। कांग्रेस के लिए बड़ी अजीब स्थिति हो गई। यह हमेशा विदेशियों के पक्ष में खड़ी रहती थी लेकिन यदि  अब एनआरसी का विरोध करती है तो असमी लोगों के वोट को खो बैठेगी।  असम वासी चाहे वह अहोमिया हो  या मुस्लिम या हिंदू सब मानते   हैं कि  असम असामियों के लिए है।  अब क्योंकि लोकसभा चुनाव नजदीक है और 40 लाख लोग चिंतित है कि उनका क्या होगा? कांग्रेस और भाजपा एनआरसी को पकड़े हुए हैं और  छोड़ नहीं सकते हैं प्रश्न है कि दीवारों पर लिखी इबारत कौन अंततः पढ़ पाता है?

0 comments: