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Tuesday, September 25, 2018

विकास के लिए अफसरशाही में बदलाव जरूरी 

विकास के लिए अफसरशाही में बदलाव जरूरी 
विख्यात इतिहासकार डॉक्टर बी बी मिश्र ने अपनी पुस्तक "ब्यूरोक्रेसी इन इंडिया" में लिखा है कि देश का विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक ब्रिटिश राज के मालगुजारी वसूलने वाले भारतीय सिविल सेवा को विकास केंद्रित और गरीबी दूर करने वाले तंत्र में नहीं बदला जाएगा। सिविल सेवा या सरकारी सेवा का वर्तमान ढांचा भारत के विकास में सबसे  बड़ा अवरोध है। बिना चालक के चलने वाली मोटर गाड़ी इस युग में बैलगाड़ी के चलने की तरह भारतीय अफसरशाही एक कालभ्रम है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था सरकार से चला हुआ एक रुपया जनता तक पहुंचते-पहुंचते पंद्रह पैसा हो जाता है।  यह अफसरशाही के विभिन्न स्तरों का एक सर्वेक्षण था । आज डिजिटाइजेशन और आधार योजना के कारण, सरकार का दावा है कि, 20 लाख ऐसे लोग बाहर निकल गए जो जालसाजी से लाभ लेते थे। लेकिन जो अफसरशाही का जो  तंत्र वह सरकार के नारों के अनुरूप होना, चाहिए न कि केवल कागजों पर । मंत्रियों से अक्सर सुनने में आता है कि एक दिन में उन्होंने कितनी फाइलों को निपटा दिया। यह उनके कठोर परिश्रम का सबूत है, लेकिन यह सब बेकार हो जाता है जब लाइसेंस राज के दिमागी ढांचे में वह फाइलें जा अटक कर रह जाती हैं । मंत्रियों का काम नीति तय करना और रणनीति बनाना है । वे यह देखते हैं कि फाइलों का बोझ  कम हो और सरकार का नियंत्रण कम से कम हो। दुख की बात है की अफसरशाही की प्रवृत्ति अभी भी नियंत्रण मूलक है। इसका कामकाज प्रक्रिया गत है ना कि परिणाम उन्मुख। भारत में 51 मंत्री है जो दुनिया के किसी भी देश के शासन में सबसे ज्यादा है लेकिन 53 विभागों और 83 आयोगों में फाइलों का अंबार लगा है और निर्णय में गैरजरूरी देरी  होती है। इसके चलते रिश्वत की परंपरा को बढ़ावा मिलता है। भ्रष्टाचार और अनिर्णय का पक्षाघात स्थितियों को और गड़बड़ कर देता है  भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए बने कानून ने स्वार्थी राजनीतिज्ञों और अफसरों के नापाक गठबंधन को और घातक बना दिया है।
      इन समस्याओं का प्रशासन पर सीधा असर पड़ता है। यदि निर्णयों में गति आ जाए तो कामकाज तेज हो जाएगा और अर्थव्यवस्था में भी गति आ जाएगी। भारतीय शासन पर 2017 में विश्व बैंक के रिपोर्ट में भारतीय सिविल सेवा की  राजनीतिक दबाव, नीतियों को तैयार करने तथा उन्हें लागू करने में उनकी दक्षता का आकलन किया गया था और इस क्षेत्र में दुनिया में भारत का 45वां स्थान था।  पिछले दो दशकों के मुकाबले में यह 10 रैंक के नीचे आ गया था। इसी से पूरी कहानी समझी जा सकती है।
      इसका उत्तर स्पष्ट है कि इसमें व्यापक व्यापक सुधार लाना होगा। वह सुधार प्रशासन संस्थान से विशेषज्ञ प्रशिक्षित करने तक सभी क्षेत्रों  में लाना होगा। इस बार जून में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि भारत शीघ्र ही 5 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने वाला है। अफसरशाही में सुधार नहीं लाया गया तो यह  दिवास्वप्न बनकर रह जाएगा।
  लोकतंत्र में सामने जो दिखतें हैं वे हमारे राजनीतिज्ञ हैं। ऐसे में नाकामी के लिए राजनीतिज्ञों को दोष देना बहुत आसान है। क्योंकि , वे अपनी स्वार्थ लिप्सा के कारण हर हर काम का श्रेय खुद को देते हैं और इसके फलस्वरूप जब बाजी उल्टी पड़ जाती है तो किनारा कर लेते हैं या बातें बनाने लगते हैं। लेकिन असफलताओं के लिए सबसे ज्यादा दोषी अफसरशाही का ढांचा है।  सरकारों के प्रति मोह भंग में जितना योगदान अफसरशाही का है उतना और किसी का नहीं। रोजमर्रा की स्थितियों से जब सरकार नाकाम हो जाती तो आम आदमी गुस्से से भर जाता है और इस गुस्से में वह एक राजनीतिक चालबाज समूह छोड़कर दूसरे चालबाज समूह को वोट दे देता है । राजनीति की शास्त्रीय भाषा में हम इसे "सत्ता विरोधी रुझान" कहते हैं। लेकिन सच तो यह है कि शासन की नाकामियों के खिलाफ मतदान होता है। विभिन्न स्तरों पर हमारी सरकार भ्रष्टाचार और दु:प्रबंधन में आकंठ डूबी हुई है यह किसी से नहीं छिपा है और यही कारण है कि अच्छे सरकारी स्कूल ,अच्छे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और पीने के साफ पानी जैसे मूलभूत सुविधाएं भी जनता को उपलब्ध नहीं हो पाती। हमारे नेता लगातार एक दूसरे पर दोष देते रहते हैं । लेकिन अफसरशाही ने हमें सबसे ज्यादा निराश किया ब्रिटिश विरासत से प्राप्त आईसीएस ढांचा आज हमारे लिए संस्थान बन गया है। 50 के दशक में जवाहरलाल नेहरू ने मिश्रित अर्थव्यवस्था की कल्पना की थी और उनके आसपास के अफसरों ने उन्हें "कंट्रोल" की लगाम पकड़ा दी। हमारी उद्योगिक क्रांति निष्फल हो गई। सत्ता संभालने  बाद मोदी सरकार ने "कम से कम सरकार और अधिक से अधिक शासन" का जो नारा दिया था वह नाकाम हो गया । हमने आरंभ में उनकी बातों पर भरोसा किया। हमने यह सोचा गरीबों के लिए अच्छा करेंगे और अफसरशाही में सुधार लाएंगे। इसपर भरोसा कर  हमने बड़ी-बड़ी उम्मीदें पाल ली। लेकिन कुछ हुआ नहीं। जनता निराश हो गई उसकी उम्मीदें धराशाई हो गयी। सरकारी कर्मचारी आज भी पहले की तरह निरंकुश, भ्रष्ट और गैर जिम्मेदार हैं। वे आश्वस्त हैं कि काम करें या ना करें तरक्की तो होनी है। मजबूरी यह है की प्रशासनिक ढांचे के आकार को घटाना आसान नहीं है लेकिन सरकार अफसरशाही को जवाबदेह और नागरिकों के प्रति ज्यादा संवेदनशील तो बना ही सकती है।

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