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Monday, September 3, 2018

नगरीय नक्सलवाद का खतरा जायज

नगरीय नक्सलवाद का खतरा जायज
अभी हाल में देश के विभिन्न शहरों से 5 लोगों को गिरफ्तार किया गया। इन पर आरोप है कि वह भारत में नक्सल आंदोलन से जुड़े हैं। इस गिरफ्तारी पर कई क्षेत्रों में भारी बवाल खड़ा हो गया है। कुछ लोग सरकार पर उंगली उठाने लगे हैं। कुछ इसे दूसरा आपातकाल बताने लगे हैं। देश के बुद्धिजीवियों के एक हिस्से में गुस्सा भड़क उठा है । लेकिन ,इसके समाजशास्त्र पर अगर गौर करते हैं ऐसा लगता है कि यह भारत में नगरीय नक्सलवाद पर से ध्यान हटाने की कोशिश है । कुछ ऐसा लग रहा है कि अब चौथी पीढ़ी की जंग( फोर्थ जनरेशन वार) शुरू होने वाली है । सैन्य शास्त्री विलियम एस लिंड द्वारा जिस "फोर्थ जनरेशन वारफेयर" की कल्पना की गई थी वह भारत में शुरू होने वाला है । लिंड ने जिस जंग की कल्पना की थी वह अब तक की सबसे खतरनाक रणनीति है। क्योंकि ,यह राष्ट्र को भीतर से नष्ट कर देती है। लिंड ने 1989 में इस युद्ध के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था।
      पहली पीढ़ी का युद्ध मोटे तौर पर 1648 से 1818 के बीच हुआ था। यह युद्ध मोर्चे पर  और फौजी टुकड़ियों के माध्यम से लड़ा जाता था । इस समय युद्ध औपचारिक था और युद्ध क्षेत्र अत्यंत स्पष्ट था।  दूसरी पीढ़ी के युद्ध का विकास फ्रांसीसी सेना ने प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान किया इस युद्ध में गोला बारूद का जमकर प्रयोग होता था। तीसरी पीढ़ी का युद्ध जर्मन फौज ने आरंभ किया था । इसमें भयंकर बमबाजी होती थी । चौथी पीढ़ी के युद्ध  भीषणतम  है। इसका सिद्धान्त है कि सांस्कृतिक संघर्षों के माध्यम से समाज में इतनी अशांति तथा विघटन पैदा कर दिया जाए कि समाज बिखर जाए। इसके लिए किसी  बाहरी फौज की आवश्यकता नहीं है ना किसी प्रकार के हमले की । यह भीतर से शुरू होती है।
      भारत में हम देख रहे हैं की अलगाववादी वामपंथी ताकतें  अलग-अलग मुखोटे लगाकर समाज के भीतर विखंडन पैदा करने की कोशिश कर रहीं हैं।  यह कोशिश  अल्पसंख्यकों पर और दलितों पर हमले के प्रचार इत्यादि के रूप में की जा रही है। उनकी कोशिश है कि वह एक भारत विरोधी संगठन भारत के भीतर तैयार कर दें। जो इसे चुनौती देता है या इसकी आलोचना करता है उसे रूढ़िवादी घोषित कर दिया जा रहा है। ऐसे लोग स्वयंभू उदारवादी बने फिरते हैं । धुर वामपंथी ताकतें भारत के खिलाफ एक युद्ध शुरू कर रहे हैं और इनका तौर तरीका बड़ा विचित्र है । कई कट्टर वामपंथी संगठनों ने सांस्कृतिक संगठन के रूप में अपना निबंधन करवा लिया है । ये लोग भारत विरोधी भावनाओं को चारों तरफ भड़काते हैं। चाहे वह विश्वविद्यालय हो या और भी कोई स्थान। रोहित वेमुला मामला या सहारनपुर अथवा भीमा कोरेगांव की घटना इसका उदाहरण है। ये लोग मानवाधिकार के परदे में बहुत ही गोपनीय ढंग से नक्सलवाद और माओवाद को बढ़ावा दे  रहे हैं तथा समाज के भीतर राष्ट्र के विरुद्ध युद्ध छेड़ रहे हैं। यह स्मरणीय है कि  इसी तरह की एक  सांस्कृतिक क्रांति माओ ने भी चीन में शुरू की थी ।  जिन लोगों ने इस क्रांति का समर्थन किया वह बड़े गर्व से अपने को माओवादी कहते थे। ये लोग माओ के दर्शन , " बंदूक की नली से सत्ता का प्रवाह होता है" , का पालन करते थे । चीन में माओ द्वारा आरंभ की गई सांस्कृतिक क्रांति में लगभग 20 लाख लोग मारे गए। इनमें बुद्धिजीवियों की संख्या बहुत बड़ी थी। विडंबना है कि कट्टरवादी वामपंथी आदर्श की शुरुआत माओ ने की थी वह अभी भी कायम है।  इसे उन लोगों ने अपना रखा है जो खुद को उदारवादी या देश में मतभेद का समर्थक बताते हैं। सच तो यह है कि दुनिया भर में इस सोच के लोग मतभेद के समर्थकों को दबाने में लगे हैं। "ब्लैक बुक ऑफ कम्युनिज्म" के मुताबिक पूर्ववर्ती सोवियत रूस में कम्युनिस्ट शासनकाल में ढाई करोड़ लोग मारे गए थे, चीन में 6.30 करोड़ और कंबोडिया में 17 लाख लोगों की जान गई थी। हर कम्युनिस्ट शासन में यही  होता है और भारत में भी इससे अलग नहीं होगा, अगर हम नगरीय नक्सलवाद को हावी होने देते हैं। वस्तुतः हमने पश्चिम बंगाल ,केरल और त्रिपुरा में नक्सलवादी आंदोलनों को झेला है । अभी भी माओवादियों द्वारा कई जगहों पर हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया जाता है। नगरीय नक्सलवाद कितना खतरनाक है यह जानने के लिए हमें माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी के दस्तावेज "अर्बन पर्सपेक्टिव" को पढ़ना पड़ेगा। यह दस्तावेज 2001 में पार्टी की नौवीं कांग्रेस में प्रस्तुत किया गया था। इसमें कहा गया था की "नगरीय क्षेत्रों में काम करना हमारे क्रांतिकारी कार्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। आरंभ से ही हमें संगठन खास करके कामगार वर्ग के संगठन पर ध्यान देना होगा और उसके बाद किसान तथा आम लोग इस युद्ध को आगे बढ़ाएंगे।" नगरीय नक्सलवाद का खतरा साफ जाहिर है और हमारे आस-पास मौजूद है। यह चौथी पीढ़ी की युद्ध कला है हम अपनी जान की जोखिम पर इस ओर से आंखें मूंद सकते हैं।

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