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Sunday, October 14, 2018

चुनाव और राजनीतिक ध्रुवीकरण 

चुनाव और राजनीतिक ध्रुवीकरण

विरोधी  दलों को प्रचलित बोलों के मुकाबले के लिये आपस में तालमेल करना जरूरी है। तीन राज्यों में चुनाव की घोषणा हो चुकी है और  जैस- जैसे मतदान घड़ी निकट आ रही है राजनीतिक बोल का स्तर गिरता जा रहा है। अभी कुछ दिन पहले मध्यफ प्रदेश में एक चुनाव सभा को संबोधित करते हुये भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने घुसपैठियों को घुन कहा था।  इसके पहले उनहोंने राजस्थान में कहा था कि लिंचिंग की घटनाओं  के बावजूद भाजपा हर चुनाव जीतेगी। पिछले महीने भाजपा कार्यकारिणी की बैठक में उनहोंने कहा था कि 2019 में भाजपा ही सत्ता में आयेगी और वह अगले 50 साल तक सत्ता में रहेगी। पार्टी कने कामकाज के खराब रेकार्ड के बावजूद इस तरह के आत्मविश्वास के कारण क्या हो सकते हैं? इस तरह के आत्मविश्वास के पैदा होने का मुख्य कारण वह भरोसा है कि धुवीकरण की राजनीति का लाभ मिलेगा ही। 2014 में जब नरेंद्र मोदी ने खुद को विकास पुरूष के तौर पर देश के सामने पेश किया था तो भ्रष्टाचार तथा विकास मुख्य मसला था। लेकिन विकास के नाम पर जिन गैर हिंदुत्व के समर्थकों का वोट उन्हें मिला था उनका मोहभंग होने के बाद विकास और भ्रष्टाचार के खात्मे वाले दोनों मुद्दों का प्रभाव खत्म हो गया। अब लगता है कि भाजपा हिंदुत्व के नाम पर अपनी नयी रणनीति तैयार कर रही है। वहव विगत कुछ महीनों से बड़े- बड़े साम्प्रदायिक बोल बोल रही है। ये बोल निचले स्तर के पार्टी कार्यकर्ताओं ने नहीं आरंभ किये हैं बल्कि ये ऊपर से ही नीचे आ रहे हैं। कुछ माह पहले सवाई माधोपुर गंगापुर में एक चुनाव सभा में असम के नागरिकता रजिस्टर का संदर्भ उठाते हुये पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि "करोड़ों घुसपैठिये घुन के भांति देश में घुस आये हैं और उन्हें चुन- चुन कर निकाल दिया जाना चाहिये।" उन्होंने  कई चुनाव सभाओं कहा कि " भाजपा सरकार एक- एक घुसपैठिये को चुन- चुन कर मतदाता सूची में से हटाने का काम करेगी।" यह चुन- चुनकरल निकाले जाने की धमकनी उस समय बिल्कुल साफ हो जाती है जब असम के नागरिकता रजिस्टर पर प्रस्तावित नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2016 के आलोक में विचार करें। इस विधेयक के मुताबिक अफगानिस्तान , पाकिस्तान और बंगलादेश के हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, पारसियों तथा इसाइयों के लिये भारत में जगह है पर मुसलमानों के लिये नहीं। अगर यह विधेयक पारित हो जाता है तो "कानून के सामने सब बराबर हैं" - यह धारा समाप्त बेमानी हो जायेगी। इसके माध्यम से सरकार यह भारतीयें में यह भाव भरना चाहती है कि जो उनका अधिकार है उसे बाहर के लोग छीन रहे हैं। गत 11 अगस्त कोलकाता में ही एक जनसभा में अमित शाह ने कहा था कि " क्या बंगलादेशी घुसपैठिये देश के लिये खतरा हैं या नहीं।" 

  इस तरह की तीखी टिप्पणियां  पार्टी के अन्य नेता भी कर रहे हैं। वे बंगलादेशियों, 2016 के सर्जिकल हमले जैसे मसले को मुख्य मुद्दा बना रहे हैं। इससे 2019 के लिये भाजपा की रणनीति की झलक साफ मिलती है। भाजपा इस तरह की जुझारू रयणनीति इस लिये अपना रही है कि उसे मालूम है कि 2014 वाले हालात अब नहीं रहे। इस रणनीतिम के मुकाबले के राजनीति ध्रुवीकरण ही सबसे प्रभावशाली तरीका होगा। आजादी के बाद से भारतीय राजनीति ने राष्ट्रीयता तथा अल्पसंख्यक बहुसंख्यक संबंध  के बारे में सहमति की नीति अपनायी है। लेकिन अब वह सहमति बंग हो रही है और बाजपा इसे भंग करने पर आामादा है। अतीत में भी धर्म राजनीति से अलग नहीं था क्योंकि यह राजनीतिक सोच का हिस्सा है अब यह ज्यादा व्यापक होता जा रहा है। इसका मुख्यकारण है कि भाजपा सरकार बहुसंख्यकवाद की आग को  हवा दे रही है। मॉब लिंचिंग की घटनाओं के बड़ने का मुख्य कारण यही है। खतरा तो इस बात है कि केवल मुस्लिम ही निशाने पर नहीं हैं बल्कि हाशिये पर खड़े अनय समुदाय भी इस सोच के शिकार हो रहे हैं। सरकार एक ऐसी सोच तैयार कर रही है कि अगर कोई उसके खिलाफ है तो राष्ट्रविरोधी और हिंदू विरोधी है।इससे राजनीतिक अनेकतावाद पर दबाव आयेगा और एकदलीय व्यवस्था और एक नेता केंद्रित व्यवस्था के पथ प्रशस्त होंगे। 

   ऐसी स्थिति में राजनीतिक दलों का, खास कर कांग्रेस का, कर्त्तव्य है कि वे राजनीतिक तालमेल का बंदोबस्त करें और उसे मजबूत बनायें ताकि संविधान के बुनियादी ढांचे की रक्षा हो सके।     

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