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Wednesday, October 17, 2018

अर्थव्यवस्था नहीं जनाब....

अर्थव्यवस्था नहीं जनाब....

2019 के चुनाव आने वाले हैं और इस पर तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं। ऐसा भी कहा जा रहा है इस  चुनाव का परिणाम इकॉनमिक  एजेंडा तय करेगा ।यह बहस इसलिए उठी है कि पिछले चुनाव में यानी 2014 में मोदी जी ने अच्छे दिन लाने का वादा किया था। उनकी पहचान गुजरात मॉडल से थी और देश ने भी माना विकास के लिए गुजरात का मॉडल अच्छा है। यह दोनों बड़े सकारात्मक पक्ष हैं। लेकिन दो और मसले हैं एक तो नोट बंदी और दूसरा जीएसटी।ये दोनों बड़े आर्थिक फैसले थे और सरकार के प्रति इस मामले में व्यापक रूप से नकारात्मक राय बनी। अब सवाल उठता है कि क्या आर्थिक मुद्दे या विकास संबंधी मुद्दे चुनाव की संभावनाओं पर असर डालते हैं?
यहां एक सवाल है कि लोकतंत्र में किसी सरकार के आर्थिक कामकाज और दोबारा चुने जाने की संभावनाओं में क्या संबंध है? यहां दो विपरीत विचार हैं। एक विचार के मुताबिक विकास में ह्रास के चलते मोदी सरकार के ऊपर चुनाव में मुश्किलें आएंगी। क्योंकि सरकार के पहले 4 सालों में सकल घरेलू उत्पाद या कहें जीडीपी का औसत 7. 35% था जोकि पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के कार्यकाल 2009 से 14 के बीच के कार्यकाल में  जीडीपी 7. 39% था। इसके बावजूद उस सरकार ने आर्थिक सुधार का  कदम उठाया।  जबकि  मोदी जी के कार्यकाल में उस सरकार से बेहतर विकास नहीं हुआ और उन्होंने धीरे धीरे पांच बरस तक विभिन्न आर्थिक कदम उठाए। इस उम्मीद में अगली बार फिर चुनकर आएंगे । पहले कभी ऐसा हुआ करता था, लेकिन अब नहीं।
      इससे ऐसा लगता है कि यदि नरेंद्र मोदी अपने कार्यकाल के आरंभिक दिनों में सुधार करते तो विकास होता और अगले चुनाव में लाभ मिलता। लेकिन अटल बिहारी वाजपेई के कार्यकाल में कई सुधार हुए फिर भी वे पराजित हो गए। दूसरी तरफ ,नरसिंह राव सरकार में कोई सुधार नहीं हुआ लेकिन कांग्रेस 1996 में चुनाव जीत गई। इसका मतलब है कि सुधार से सत्तारूढ़ दल को चुनावी लाभ मिलता है इस सिद्धांत पर सवाल उठता है । कम से कम विगत 30 वर्षों की मिसाल सामने रखते हुए ऐसा ही सोचा जा सकता है।
      एक और विचार है जो इसके ठीक विपरीत है। उसके मुताबिक चुनावी जीत- हार का आर्थिक कामकाज कोई संबंध नहीं होता। पिछले 25 वर्षों का उदाहरण है कि देश में आर्थिक विकास और राजनीतिक लाभ में कोई संबंध नहीं रहा  है। जबकि  आर्थिक विकास का चुनावी संभावना और से कोई संबंध नहीं है यह दलील देना बेमानी है । लेकिन भारतीय मामले में ऐसा नहीं सोचा जा सकता । क्योंकि इसमें अलग अलग कई गुणक काम करते हैं। 1989 के चुनाव में आर्थिक विकास की दर 10.2% थी पर पार्टी बुरी तरह से हार गई। क्योंकि उस समय राजीव गांधी पर बोफोर्स दलाली मामले गंभीर आरोप थे और यही उनकी हार का कारण बना ।1991 में जब देश विदेशी मुद्रा मामले में लगभग दिवालिया हो चुका था तब भी कांग्रेस सत्ता में आ गई। क्योंकि, उस समय राजीव गांधी की हत्या हुई थी । यहां बीपी सिंह की सरकार के कामकाज पर बहस नहीं थी क्योंकि राजीव गांधी की हत्या का भावना प्रधान मसला लोगों के सामने था । संयुक्त मोर्चे के अंतर काल में राजनीतिक कन्फ्यूजन कायम था और 13 महीने में बाजपेई सरकार गिर गई। लेकिन 1999 में  बाजपेई जी के सरकार बनी तो यह कारगिल विजय का नतीजा था, ना कि विकास का चमत्कार।
   2003 - 04 में फिर आर्थिक विकास  शुरू हुआ और जीडीपी की दर 8% तक पहुंच गई। लेकिन एनडीए हार गई। यूपीए के पहले दौर के  कार्यकाल में विकास ने उसे दोबारा जिताया और कार्यकाल के दूसरे दौर में भी आर्थिक विकास चलता रहा लेकिन भ्रष्टाचार के कारण सरकार चुनाव हार गई। इससे एक बार फिर प्रमाणित होता है कि केवल आर्थिक विकास से चुनाव नहीं जीता जा सकता। यह सारे उदाहरण बताते हैं विकास और कामकाज करना अच्छी बात है । लेकिन हर बार इनका लाभ नहीं मिलता। 2019 में भारतीय जनता पार्टी की चुनावी संभावनाएं केवल विकास के आंकड़ों पर नहीं निर्भर करती ,बल्कि जब चुनाव होने वाले होंगे तो वह मतदाताओं के सामने क्या बात रखती है इस पर सब कुछ निर्भर है।

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