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Thursday, November 22, 2018

अबला जीवन लेकिन कब तक

अबला जीवन लेकिन कब तक

इन दिनों कोलकाता की सड़कों पर कहीं-कहीं पोस्टर देखने को मिलता है सबला सम्मेलन पोस्टर काफी उम्मीद दिलाता है और एक सामाजिक संतोष भी की झांकी सरकार महिलाओं की सुरक्षा और उन्हें ताकतवर बनाने के लिए सचेष्ट है वरना "मी टू" आंदोलन दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में फैल गया है, भारत भी इससे अछूता नहीं है।लेकिन एक सवाल है कि भारत के गांव में इसके हवा क्यों नहीं है। मध्य और उच्च वर्ग की शिक्षित महिलाएं जो अपना अधिकार मांगती हैं और उनसे कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न हुए तो उनका उन्होंने पर्दाफाश भी किया।  अच्छे- अच्छों की पगड़ी उछल गई। दूसरी तरफ ग्रामीण क्षेत्रों और कस्बों की हजारों महिलाएं जिनके साथ द आए दिन यौन उत्पीड़न की घटनाएं होती हैं, लेकिन किसी का नाम सामने लाने की हिम्मत उनमें नहीं है। हजारों साल से पितृसत्तात्मक समाज में उलझा हुआ भारत का गांव जिसमें यह औरतें जिंदगी का ताना बाना बुनती है वहां स्त्री द्वेष रिवाज सा है। वह ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हैं और उनका मानना है इस तरह के उत्पीड़न सामान्य हैं ।  दहेज के भय से भूण हत्या कर दी जाती है और परिवार की प्रतिष्ठा के नाम पर महिलाओं को मौत के घाट उतार दिया जाता है। लड़के और  लड़कियों का अनुपात बिगड़ गया है।  हम भूल जाते हैं कि राजस्थान के गांव की रहने वाली भंवरी देवी की वजह से ही सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ फैसला सुनाया था। सरकारी महकमे में काम करती थी भंवरी और बाल विवाह पर एतराज जताया था। भंवरी देवी ने सदियों पुरानी प्रथा को चुनौती देने का दुस्साहस किया था। जिसके चलते जमींदारों के सामूहिक दुष्कर्म का शिकार हुई थी। उसका मामला विशाखा ने उठाया और सुप्रीम कोर्ट ने  यह ऐतिहासिक फैसला दिया। विशाखा महिलाओं के हक के लिए लड़ने वाला संगठन है । यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि गांव की महिलाओं का लालन-पालन ही इस मानसिकता के साथ होता है कि वे पुरुषों से कमतर हैं और और शादी के बाद पतियों के हाथों  पिटाई और बदसलूकी होगी ही। लड़के और लड़कियों में या भेद बचपन से ही आरंभ हो जाता है । परिवार की माताएं  और अन्य महिलाएं इस भेद को और मजबूत बनाती हैं। बेटों को बेटियों पर तरजीह दी जाती है। हाल के आंकड़े बताते हैं की आधी से ज्यादा महिला आबादी इस बात को मानती है कि घर में दुर्व्यवहार और हिंसा सामान्य बात है। जबकि, लगभग 46.8 प्रतिशत शहरी महिलाओं का मानना है कि यह गलत है।
        हाल के एक शोध से पता चलता है कि महिलाओं का खासकर कस्बों की महिलाओं का यह मानना है कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न होगा ही। इसके बिना काम नहीं किया जा सकता। क्योंकि, जो लोग काम देते हैं वह महिलाओं से यह अपेक्षा रखते हैं। यही नहीं जो महिलाएं सरकारी दफ्तरों में नीचे पदों पर ,जैसे झाड़ू लगाने काम पर या साफ सफाई के काम पर रखी जाती हैं उनके साथ उनके सुपीरियर गलत व्यवहार करते ही हैं। अगर वह आवाज उठाती है तो उसे नौकरी से हाथ धोने पड़ते हैं। अब जिनके पास जीविका का साधन नहीं है ,मजबूर हैं वह उत्पीड़न सहने के लिए बाध्य हैं। बहुत सी ग्रामीण महिलाओं को शहरों में बसों और अन्य सार्वजनिक वाहनों में भी इसे झेलना पड़ता है और वे इतनी सक्षम नहीं हैं कि अदालत में इसकी चुनौती दे सकें। ग्रामीण क्षेत्रों में वैसे भी पुलिस और न्यायपालिका या कहें न्याय प्रणाली पर ज्यादा भरोसा नहीं है। छोटे शहरों में कुछ ही महिलाएं फरियाद लेकर पुलिस के पास जाती हैं। अधिकांश महिलाएं पुलिस के पास जाने में भी डरती हैं। क्योंकि पुलिस  संवेदनहीनता के लिए  बदनाम है और मजबूर महिलाओं को  ऐसा ही व्यवहार वहां भी झेलना पड़ता है । यही नहीं इस प्रक्रिया में संसाधन और समय बहुत ज्यादा लगता है ,साथ ही समाज में उस महिला या लड़की को अपमान भी झेलना होता है। अधिकांश परिवारों में लड़कियों को अपनी पीड़ा छिपाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। नतीजा यह होता है कि वह जीवन भर   दबी कुचली मानसिकता से ग्रस्त रहती हैं। एन सी आर बी के आंकड़े बताते हैं कि गांव में ज्यादा यौन उत्पीड़न करीबी रिश्तेदारों द्वारा ही होता है जिनसे निपट पाना और मदद की मांग करना उन महिलाओं के लिए कठिन होता है।
     हालांकि शिक्षा ने  महिलाओं को थोड़ा साहसी बनाया है। आंकड़े बताते हैं स्कूली शिक्षा प्राप्त 38% महिलाओं ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की रिपोर्ट पुलिस में दर्ज कराई है।  निर्माण क्षेत्र के कामकाज से  जुड़ी 78% महिलाएं अपने साथ हुए शारीरिक दुर्व्यवहार की रिपोर्ट नहीं दर्ज कराती हैं । यहां एक गौर करने लायक बात है भारत की आधी आबादी महिलाओं की है लेकिन सकल घरेलू उत्पाद में उनका योगदान महज 17.1% है । उनका आर्थिक योगदान विश्व स्तर पर औसत के आधे से भी कम है। विश्व बैंक के अनुसार अगर भारत की 50% महिलाएं देश की श्रम शक्ति का हिस्सा बन जाएं तो भारत का विकास दर डेढ़ प्रतिशत तुरत बढ़ जाएगा यानी साढे सात प्रतिशत से वह 9 प्रतिशत हो जायेगा। मजबूरी यह है कि गांव और छोटे कस्बों में कार्यस्थल पर उत्पीड़न के कारण महिलाएं देश के उत्पादन में पूरी तरह शरीक नहीं हो सकती। मैकसिंकी ग्लोबल इंस्टीट्यूट के अध्ययन के मुताबिक यदि ज्यादा महिलाएं भारत की श्रम शक्ति में जुड़ जाती है तो 2025 तक यानी  7 वर्ष के भीतर देश अपने सकल घरेलू उत्पाद में 2.9 खरब डालर की वृद्धि कर सकता है। देश की श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी धीरे-धीरे घट रही है । 1990 में यह 34.4% थी जो 2016 में महज 27% रह गई। यह सरकार के लिए अच्छी बात नहीं है।  देश में महिलाओं की साक्षरता दर बढ़ रही है लेकिन श्रम शक्ति में उनकी भूमिका लगातार घट रही है । सरकारी कोशिशें इस दिशा में नाकामयाब हैं। महिलाएं श्रम शक्ति का हिस्सा नहीं बन रही है जिससे देश में बेरोजगारी की दर में बहुत तेज वृद्धि हो रही है । नोटबंदी के दौरान जो महिलाएं काम से बाहर हुईं  वह दोबारा नहीं लौटीं। इन महिलाओं में घरों में काम करने वाली नौकरानी या खेतों में काम करने वाली मजदूर महिलाएं इत्यादि शामिल थीं।
     भारत की सरकार खुद को दुनिया की सबसे तेज रफ्तार वाली अर्थव्यवस्था होने की बात करती है। लेकिन एक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में महिलाएं सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं। महिलाओं के साथ बदसलूकी और मानव तस्करी का रिकॉर्ड बेहद खराब है। जब तक महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं होगी तब तक वह  देश की श्रम शक्ति का  हिस्सा नहीं बन पाएंगी और इससे बेरोजगारी के साथ साथ हमारा विकास भी पंगु बना रहेगा। यही कारण है की कोलकाता की सड़कों पर लगे उस पोस्टर से उम्मीद जगती है सरकारी स्तर पर इस दिशा में व्याकरण महिलाओं को सशक्त बनाने की दिशा में सबला बनाने की दिशा में कोई तो काम कर रहा है वरना हमारे देश में तो कहा ही जाता है कि
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी आंचल में है दूध और आंखों में पानी

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