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Tuesday, December 18, 2018

यह नतीजे सबक भी हैं

यह नतीजे सबक भी हैं

लोकतंत्र में जनता की आवाज और उसके फैसले आखिरी हुआ करते हैं । पांच राज्यों में विधानसभाओं के चुनावों के नतीजे आ गए हैं और उससे एक सबक भी मिलता है । सबसे ज्यादा हिंदी भाषी क्षेत्रों की जनता का फैसला फिलहाल महत्वपूर्ण है।  इससे संपूर्ण हिंदी भाषी क्षेत्र के मूड और उसके बयान की झलक मिलती है। यह चुनाव एक तरह से मोदी और शाह की इंजीनियरिंग से तैयार चुनावी मशीन को पहला आघात है। बेशक पंजाब हाथ से निकल गया था और कर्नाटक में कांग्रेस कायम रहा इसके बावजूद इन तीनों राज्यों के चुनावों के नतीजे सत्तारूढ़ दल के लिए सबसे बड़े आघात के रूप में माने जा सकते हैं । ऐसा नहीं कि भाजपा की पराजय लोकप्रिय विचारों और मूड का प्रतिबिंब या उसकी विजय लोकप्रिय जनादेश को छुपाना है । सत्तारूढ़ दल इसलिए सत्ता में है क्योंकि उसे  जनादेश मिला और और उसके बाद से एनडीए को जहां भी विजय मिली इसलिए मिली क्यों है जनादेश प्राप्त हुआ ना कि इसलिए मिली ईवीएम मशीन में गड़बड़ी थी । लेकिन अक्सर ऐसा देखा गया है कि जब लोकतंत्र में कोई पार्टी या उसका गठबंधन कुछ समय तक लगातार विजयी होता रहता है तो उस पार्टी का गठबंधन को ऐसा लगता है उसमें और विपक्षी दलों में चूहे बिल्ली की दौड़ शुरू हो गई है। विपक्षी दल उसे पकड़ने की कोशिश कर रहा है। इस हल्ले गुल्ले में जन आकांक्षा नजरअंदाज होने लगती है । चुनाव के नतीजों के माध्यम से छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में मतदाताओं ने फिर बता दिया कि वह सबसे प्रमुख है।
             2014 के दौर ने देखा कि जनता ने भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को सत्ता के सिंहासन पर आसीन करा दिया और उसके बाद से सत्तारूढ़ संगठन कई बार लगातार विजयी होता रहा। भारतीय सियासत में कांग्रेस ने अपना वर्चस्व खो दिया। उसके प्रति जनता की अवधारणा बदल गई । विजय के इसी उल्लास ने किसानों ,मध्यवर्गीय लोगों ,छोटे व्यापारियों और आम लोगों की आकांक्षा तथा उनकी आवाज दबने लगे राजनीतिज्ञों का ध्यान कहीं और चला गया । संभवतः  सत्तारूढ़ दल या संगठन का ध्यान देशभर में अपना राजनीतिक वर्चस्व कायम करने पर चला गया। लेकिन इस बार के विधानसभा चुनाव के नतीजे भाजपा को अपने लक्ष्य तय करने में मदद करेंगे।
          लोकतंत्र में मजबूत और बहुमत के शासन के खिलाफ कुछ भी नहीं है लेकिन जब विपक्ष को हाशिए पर पहुंचाने की प्रक्रिया शुरू होती है तो वायदे और कर्तव्य भी हाशिए पर चले जाते हैं। ऐसे में हालात  और खतरनाक हो जाते हैं जब विपक्ष को अस्तित्व का खतरा पैदा हो जाता है। इस स्थिति में एक तरफा प्रहार होता है। लोगों की मांगें और उनकी आवाज अपना महत्व खो देती हैं तथा जान बचाना ही प्रमुख हो जाता है। अरसे से ऐसा महसूस किया जा रहा था कि 2019 एक नए निष्कर्ष की ओर बढ़ रहा है।  विधानसभाओं के चुनाव के नतीजों ने इस अवधारणा को बदल डाला। किसानों का दुख और रोजगार का अभाव देशभर में गूंजने लगा। वंचित ,दलित और किसानों के प्रदर्शन देशभर में होने लगे। उधर सरकारी उच्च पदों और रिजर्व बैंक के गवर्नरों  के मामलात अलग थे।  भारतीय न्यायिक इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के जजों ने प्रेस से मुलाकात की। सीबीआई में अभूतपूर्व रस्साकशी देखी गई इसके बावजूद खास मसाइल पर अब तक सार्वजनिक बहस के प्रति अनमनापन दिख रहा है।
         लोकतंत्र में जनता की आवाज सत्तारूढ़ दल की आवाज होनी चाहिए और उनकी मांग पर सरकार के कर्तव्य निर्धारित होने चाहिए। राज्यों की विधानसभाओं की चुनावों के नतीजे दंड नहीं हैं। एक तरह से सत्ता को जनता की ओर से  लगाई गई आवाज है इसे कि आम चुनाव में क्या करना है। यह तय करने का संकेत है कि मतदाताओं ने रास्ता दिखा दिया है अब यह राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है कि वह इसका अनुसरण करते हैं या नहीं। जो मसले आम आदमी से जुड़े हैं उस पर ध्यान देने के  संकेत दिए हैं। लोगों ने अपना एजेंडा बता दिया है। आखिरकार , यही तो हमारे लोकतंत्र का सौंदर्य है।

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