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Friday, December 7, 2018

हमने किसी चाय वाले को तो नहीं चुना था प्रभु!

हमने किसी चाय वाले को तो नहीं चुना था प्रभु!

अगर हाल के विधानसभाओं चुनावों में भाषणों को ध्यान से सुना  जाए तो हमारे देश के दो बड़े नेता नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी दो ही चीज की ब्रांडिंग करते दिख रहे हैं । राहुल गांधी यह बताते चल रहे हैं कि वह ब्राह्मण हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद को "चायवाला" बता रहे हैं । यह "चायवाला पन" सब जगह चल रहा है, चाहे वह भाजपा का चुनाव प्रचार हो या विपक्ष का बयान। हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद ही कहा था कि " एक उच्च वर्गीय परिवार और एक चाय वाला में मुकाबला हो जाए।" यहां तक कि शशि थरूर और कांग्रेस के नेता सुशील कुमार शिंदे ने कहा कि मोदी जी उन संस्थानों को श्रेय नहीं देते जो एक चायवाला को प्रधानमंत्री बनने देता है।  अब वक्त आ गया है इस तरह की बातें खत्म होनी चाहिए।  नरेंद्र मोदी इसलिए प्रधानमंत्री नहीं बने की जनता उनकी चायवाला कहानी पर भरोसा करती है और इसके कारण उनसे प्यार करती है। जनता ने उन्हें इसलिए चुना कि उन में विशेष क्षमता थी। मोदी जी तीन बार गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके थे और उसे उन्होंने  देश का सबसे विकसित राज्य बनाया। वे एक विशिष्ट निर्णायक के रूप में जाने जाते थे। एक ऐसे नेता के रूप में उनकी पहचान थी जिसकी दृष्टि स्पष्ट थी और किसी चीज के लिए कदम उठाने में और उसे लागू करने में उन्हें कोई भी डर नहीं होता था। यहां कोई चाय वाली कहानी नहीं थी। मोदी जी में 2014 के चुनाव के पहले जनता ने जो देखा और अभी भी देश का एक बड़ा भाग उनमें देख रहा है वह उनकी क्षमता ही है। वर्ना, इसके पहले तो लोग एक भ्रष्ट व्यवस्था और केवल बड़े नेताओं की मक्खन बाजी देखते - देखते ऊब गई थी। मोदी जी के रूप में देश की जनता को एक ताकतवर आदमी दिखा जो छोटी सी सरकार के साथ एक व्यापक शासन की व्यवस्था कर सकता था।
      2014 का चुनाव सपने दिखाने का वक्त था और चाय वाली कहानी उस समय इसलिए फैलाई गई थी कि इस देश की गरीब जनता अपनी कठिनाइयों को देश के सर्वोच्च शिखर पर महसूस करने वाले इंसान के साथ जोड़ सके। इस कारण जनता को यह उम्मीद हुई कि यह नेता हमारी कठिनाइयों को दूर करेगा। भाजपा इसे जानती जानती है कि सरकार ने जो वादे किए और उससे जो उम्मीद थी उससे बहुत कम काम हो सका है। अब यह चायवाला का पत्ता इसलिए फेंक रही है कि देश के अधिकांश मध्यवर्गीय लोगों के कांग्रेस के उच्च वर्गीय नेताओं के खिलाफ एक दूरी बने और मोदी जी से सहानुभूति बढ़े। लेकिन यहां जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वह है कि मतदाताओं ने मोदी जी को इसलिए नहीं चुना उनसे सहानुभूति रखें बल्कि इसलिए चुना था कि वह काम करने वाले हैं। जनता को सहानुभूति की जरूरत नहीं है। एक ऐसा इंसान है जिसके 56 इंच के सीने के सामने सब सिर झुका लेते हैं, जब वह बच्चा था तो एक मंदिर में भगवान के दर्शन के लिए मगरमच्छों के हमले के बीच से झील तैर कर पार कर जाता था। वस्तुतः राहुल गांधी और मोदी के बीच एक अंतर है । राहुल के नाम के आगे गांधी लगा है वही इनदिनों सबसे बड़ी कमी है। मोदी जी एक जुझारू छवि वाले व्यक्ति के रूप में सामने आए और राहुल पप्पू के रूप में । मतदाताओं के मन में ऐसी बात आने के कई कारण भी थे।
        मोदी जी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो उसकी आय और अर्थव्यवस्था में तेज वृद्धि हो रही थी ,उसका सकल घरेलू उत्पाद बढ़ रहा था, निजी कल कारखाने तेजी से उभर रहे थे। विकास का यही स्वरूप है  जिसे मध्यवर्ग अच्छी तरह समझता है और जिसकी  प्रशंसा करता है। जो लोग हाशिए पर होते हैं उनके दावे बहुत कारगर नहीं होते और ना ही आश्चर्यजनक रूप से औद्योगिक विकास तथा नौकरियों के बढ़ते अवसर मानवीय दशा के आंकड़ों से प्रभावित होते हैं। मोदी जी के बारे में यह माना जाता था कि यह आदमी बहुत कठोर परिश्रम करता है, बहुत ही मेधावी ढंग से बातें करता है और भ्रष्टाचार का विरोधी है। यही सब तो सद्गुण है जिसे मध्यवर्ग महत्व देता है। याद होगा 2008 में जब टाटा की नैनो कार बंगाल में नहीं बन पाई जो मोदी जी ने उसे अपने राज्य में जगह दी और वहां आनन-फानन में नैनो का कारखाना बन गया। 2013 में उत्तराखंड में व्यापक विनाश हुआ तो मोदी जी खुद उस संकटग्रस्त क्षेत्र में गए और बहुत से गुजराती यात्रियों  को बाहर निकालने में मदद की। मोदी जी की छवि काम करने वाले की थी ना कि पर्यावरण और श्रम कानूनों का रोना रोने वाले की। लोगों में यह विचार था कि संकट के समय वे समझते थे कि कौन सी बात और कौन सा काम प्राथमिकता वाला है। इसी कारण देश का मध्य वर्ग उनसे प्रेम करता था। बहुतों की याद होगा कि जब देश के सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्रियों के लिए जनमत संग्रह किया जाता था तो मोदी जी को सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री के रूप में लोग पसंद करते थे।
        जहां तक केंद्र का सवाल है तो लोगों के मन में यह था कि यहां नीति लागू करने में सरकार अक्षम है और और पॉलिसी पैरालिसिस का जुमला चल निकला था। यूपीए-2 की सरकार भ्रष्टाचार में डूबी हुई थी और नए-नए मामले रोज उभर रहे थे । राहुल गांधी में कोई प्रतिभा नजर नहीं आती थी केवल उनके खानदान को छोड़कर। इसलिए मतदाताओं ने स्पष्ट रूप से चयन किया ऐसे इंसान का जो प्रतिभा और कर्म का बिंब था। जनता ऐसे आदमी को तरजीह नहीं देती जो परिवार के नाम से कदम आगे बढ़ा रहा था, और वह परिवार भूल चुका था कि सरकार कैसे चलाई जाती है। लेकिन अब 5 साल बाद मोदी जी उस रास्ते से हट रहे हैं जो उन्होंने खुद तैयार किया था, या यूं कहें कि वह अपना यूएसपी छोड़ रहे हैं। अब वह इस काम से ज्यादा इधर उधर की बातें कर रहे हैं और "नामदरों" का मजाक बना रहे हैं। चुनाव प्रचार में एक चीज सबसे साफ दिख रही है कि अब यह नहीं कहा जा रहा है कि भाजपा ने क्या किया बल्कि अब लोगों को बताया जा रहा है कि कांग्रेस ने क्या नहीं किया। यूपीए-2 की सरकार भी अपनी असफलताओं का दोष गठबंधन के दबाव और वैश्विक स्थितियों पर थोपती थी लेकिन मतदाता उसे नहीं मानते थे। तो क्या भाजपा यह सोचती है वह मतदाता उसकी इन बातों को मान लेंगे?
         मोदी जी के गले के चारों तरफ गुजरात के 2002 के दंगों की फांस बंधी रहती थी लेकिन वे उसका दबाव कम करने में केवल इसलिए सफल हो गए कि लोगों को उन्होंने काम का सपना दिखाया। उन्होंने यह आश्वस्त किया कि वह जो कुछ कह रहे हैं उसे करेंगे। 5 साल के बाद हमें मिला है हिंदुत्व और चाय की  चर्चा । भाजपा को यह समझना चाहिए कि इस तरह की बातें बहुत कम असर करती हैं। इसके अच्छे दिन तभी रहेंगे जब वह अपने कामकाज और उसकी सफलताओं के बारे में खुलकर बातचीत करेगी वर्ना बुरे दिन दूर नहीं हैं।

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