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Wednesday, January 2, 2019

विचारधारा एक फंदा है

विचारधारा एक फंदा है

नए वर्ष का पहला हफ्ता शुरू हो चुका है इस बात को लेकर थोड़ा विभ्रम है कि जो आर्थिक सिद्धांत, राजनीतिक विचारधारा और सामाजिक सच्चाई है जिस पर निर्मित है उन पर हमले हो रहे हैं या उन पर संदेह हो रहा है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद से जिन सच्चाईयों को हम स्वीकार करते करते आए हैं उन पर थोड़ा शक होने लगा है। कम्यूजियम के पतन  के बाद हमने देखा कि पूंजीवाद विजयी हुआ।  जल्दी ही इस पर से भी भरोसा उठने लगा। वैश्वीकरण और मुक्त बाजार का सिद्धांत थोड़े ही समय के लिए सही दबने लगे। ब्रेक्जिट और डॉनल्ड ट्रंप इस बात के संकेत हैं कि कुछ लोग इसे नहीं चाहते। लेकिन वह अभी नहीं जानते कि वह क्या चाहते हैं और क्या नहीं । बर्लिन की दीवार के धराशाई हो जाने के बाद लोकतंत्र का उदय हुआ लेकिन लोकतंत्र पर भी पुतिन जैसे अधिनायकवादी लोगों का खतरा मंडराने लगा है।पुतिन जैसे लोगों ने अपने उत्थान के लिए लोकतंत्र का उपयोग किया लेकिन मुक्त समाज के बारे में  उनके विचार, उनकी विचारधारा तथा प्रतिबद्धतायें  दूसरी हैं। यहां तक कि जर्मनी, फ्रांस , ऑस्ट्रेलिया,  बेल्जियम  और नीदरलैंड्स में प्रवासी समर्थक पार्टियां पराजित होने लगी। अंदाजा यह लगाया जाता है इनके उदय से आतंकी हमले होंगे और अर्थ व्यवस्था लड़खड़ा जाएगी। चीन में आज की तरह कभी भी राष्ट्रवादी जनविरोधी और व्यवसायिक विचार वाली सरकार नहीं रही।
           इन मामलात को यहां पेश करने का उद्देश्य है कि लोकतंत्र और मुक्त व्यापार जैसे बेहतर उपाय पीछे जा रहे हैं और उनकी सफलता का पुराना  मिथक टूट रहा है। आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक संस्थान टूट रहे हैं और उनकी मरम्मत की जरूरत है। न पूंजीवाद विजयी हुआ न कम्युनिज्म ना लोकतंत्र और ना चुनौतीवाद । कोई भी लंबी अवधि तक सफल होता हुआ नहीं दिख रहा है। हर वाद को चाहे वह पूंजीवाद हो चाहे कम्युनिज्म हो या समाजवाद हो या उदारवाद हो सब एक समय के बाद बदलने लग जा रहे हैं और  इससे पता चलता है की इतिहास के आखिरी सिरे पर जाकर हम सभी तरह की विचारधाराओं को खत्म होता हुआ देखेंगे। कोई भी एक विचारधारा बहुत लंबी अवधि तक प्रासंगिक नहीं रह जाएगी। हमें दुनिया को एक नए चश्मे से देखना होगा। किसी भी विचारधारा की बहुत गंभीर सीमा होती है हम जो भी विचारधारा अपनाते हैं बाद में उसको छोड़ देते हैं जब उससे एक नए और अच्छे समाज का निर्माण नहीं हो पाता या उसका अच्छा परिणाम नहीं निकल पाता । विचारधारा कुछ छिपे हुए तर्कों को बढ़ावा देती है। मनोवैज्ञानिक शब्दावली मे कहें तो यह एक "प्रेरित अनुभूति" है ।छिपे हुए तर्क उसी प्रेरित अनुभूति के परिणाम हैं। इसके तहत हम जो मानते हैं उसी पर भरोसा करते हैं और उस भरोसे  को बनाए रखने के लिए तरह तरह के तर्क देते हैं और इससे एक ऐसा दार्शनिक विवाद उत्पन्न होता है जो हल ही नहीं हो पाता।  यह बहुलतावाद  और आजादी दोनों को खतरा पैदा करता है। विख्यात समाजशास्त्री जैरी टेलर के मुताबिक ऐसी किसी विचार धारा को नहीं स्वीकार किया जाए जो खुद   से चिपके रहने शर्त रखती हो या भक्ति के स्तर तक उसके अनुसरण की  अपेक्षा हो। सदा यह दिमाग में  रहना चाहिए कि हम जो जानते हैं  जरूरी नहीं है कि वह सही हो। सच सर्वदा बहुत जटिल होता है और जिस व्यवस्था को हम अपने को शासित करने के लिए चुनते हैं और समझते हैं कि इससे बहुतों का भला होगा वाह कभी भी संपूर्ण प्रतिफल नहीं दे सकती। हमें उसमें परिवर्तन के लिए हमेशा तैयार रहना होगा। उदाहरण के लिए लोकतंत्र को ही देखें । दुनिया भर में लोकतंत्र का मतलब लोग समझते हैं नए शासकों कुछ चुनने की आजादी। ऐसे लोग अस्तित्वमान व्यवस्था के बंधक भी तो हो सकते हैं। अगर हम लक्जमबर्ग और डेनमार्क जैसे छोटे लोकतंत्रों   को नजरअंदाज कर दें तो देखेंगे कि बड़े देशों में सुधार कार्यकर्ताओं के दल, सांस्कृतिक दबाव और कारपोरेट गिरोह ही  सत्ता का संचालन करते हैं। इसमें जरूरी नहीं है कि लोग कैसे वोट डालते हैं। भारत सहित कई और देशों में यह देखा जा रहा है। जहां तक भारत का सवाल है नरेंद्र मोदी बाजार सुधार  या आर्थिक परिवर्तन या रोजगार उत्पन्न करने की दिशा में कुछ नहीं कर पा रहे हैं। यहां समस्या यह नहीं है कि लोकतंत्र ठीक से काम नहीं करता है बल्कि यह तब तक नहीं ठीक से काम नहीं कर सकता जब तक इसे एकदम निचले स्तर तक सक्रिय न कर दिया जाए। भारत एक बहुत बड़ा देश है और वह दिल्ली या विभिन्न राज्यों की राजधानियों से शासित नहीं हो सकता। दुनिया में जितनी सफल अर्थ व्यवस्थाएं हैं वह केंद्र से शुरू तो होती हैं लेकिन छोटे छोटे शहरों तक उनका प्रभाव आ जाता है। दिल्ली अपनी आर्थिक ताकतों से मुंबई, बेंगलुरु ,कोलकाता की आजादी को पंगु बना देती है। लोकतंत्र को पूरी तरह सक्रिय होने के लिए जरूरी है कि उसे दूर्वामूल स्तर तक पहुंचाया जाए । 
       एक और उदाहरण है शासकीय और गैर शासकीय संस्थाओं की। जिहादी आतंकवाद के जमाने में यह एक नई हकीकत सामने आई है । गैर शासकीय संस्थाओं की बढ़ती ताकत, सोशल मीडिया का प्रसार और उच्चस्तरीय तकनीकी की उपलब्धियों ने गैर शासकीय संस्थाओं को ताकतवर बना दिया है। इसके चलते शासन को बेहद कठिनाई होती है। सोशल मीडिया की बढ़ती ताकत ने यह प्रमाणित कर दिया है कि एक छोटा समुदाय भी पूरी शासन व्यवस्था के अंतर्गत निवास कर रहे जन समुदाय को प्रभावित कर सकता है। उनकी निजी जिंदगी में दखल दे सकता है। ऐसे में यह कहना बड़ा कठिन हो जाता है कहां शासन की निगरानी खत्म होगी और कहां से अशासकीय संस्थाओं की निगरानी आरंभ हो जाएगी। अगर आतंकवादी संस्थान हमारे डाटा सिस्टम में प्रवेश कर जाते हैं तो वह हमारे जीवन के लिए काफी मुश्किलें पैदा कर सकते हैं । कई देशों में सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के कारोबार एक दूसरे में मिल रहे हैं। जैसे पाकिस्तान। वह एक गुप्त युद्ध में संलग्न है और ऊपर से कुछ नहीं कह रहा है । इसलिए जरूरी है कि हम शासकीय और गैर शासकीय संस्थाओं के बारे में दोबारा सोचें।  कोई देश इसके बीच की सुनहरी राह नहीं निकाल सकता। यह तय करना मुश्किल है कि गैर शासकीय संस्थाओं या अपराधियों से जनता को बचाने के लिए सरकार को कितनी ताकत चाहिए । इसके अलावा और भी कई तथ्य हैं और सब इस बात को बताते हैं की विचारधारा बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। स्वीकृत मूल्य एक सीमा के बाहर बेकार हैं। हमें यह विचार त्यागना होगा कि सभी बात के लिए एक ही विचारधारा सटीक है। इसलिए चाहे आप वामपंथी हों या मध्य मार्गी या दक्षिणपंथी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । सारी विचारधाराएं एक फंदा हैं जिसमें हम फंस कर रह जाते हैं।

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