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Tuesday, May 14, 2019

लोकतंत्र या धन तंत्र

लोकतंत्र या धन तंत्र

केवल पश्चिम बंगाल में विगत 2 दिनों में डेढ़ करोड़ पर पकड़े गए। चुनाव के अंतिम चरण में इस तरह की बरामदगी हमारे लोकतंत्र के बारे में एक अलग कहानी कहती है । अगर संपूर्ण देश की बात करें तो चुनावी बांड और नकदी रुपए मिलाकर अब तक सात हजार करोड़ जप्त किए गए हैं । हे भगवान 90 करोड़ मतदाताओं वाले इस देश में चुनाव के दौरान सात हजार करोड़ रुपयों का खेल। सुनकर बड़ा अजीब लगता है। किसी भी भारतीय के लिए चिंता का विषय हो सकता है। क्योंकि कोई भी राजनीतिक पार्टियों को दिल से चंदा नहीं देता। साफ जाहिर होता है कि कोई भी सरकार क्यों नहीं राजनीतिक धन के मामले को पारदर्शी बना सकती है। लेकिन जो हो रहा है उस मामले में राजनीतिक दल आम जनता को यह समझाने में कामयाब हो जा रहे हैं कि जनता इस पर ध्यान ही नहीं देती
       हम में से बहुतों को याद होगा कि नोटबंदी के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि काले धन पर अंकुश के लिए यह कदम उठाया गया है। लेकिन ऐसा कुछ हो नहीं सका। नोट बंदी के पहले 2014 में चुनाव के दौरान बारह सौ करोड़ रुपए की नगदी और वस्तुएं जब्त हुई थी , लेकिन इस बार जबकि काले धन को समाप्त कर देने की बात है नजारा ही दूसरा है। इस चुनाव के दौरान अब तक तैंतीस सौ करोड़ रुपयों से ज्यादा नगदी जब्त की गई है और इसके अलावा 3622 करोड़ का चुनावी बांड है । यह तो कुल परिमाण का एक छोटा सा हिस्सा है । अशौच धन या कहें काला धन इससे बहुत बड़े परिमाण में चुनाव में लगा हुआ है। चुनाव दिनोंदिन महंगा होता जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी  की सरकार ने राजनीति में धन की खत्म करने या उस में पारदर्शिता लाने के लिए एक प्रयास किया। उसने कॉरपोरेट्स चंदों की सीमा को  खत्म कर दिया और चुनावी बांड की शुरुआत की। यह एक तरह से अनाम गिफ्ट वाउचर है जो राजनीतिक दलों को दिया जा सकता है। लेकिन बात पारदर्शिता पर आकर रुक जाती है, क्योंकि इन बॉण्ड्स में भी पारदर्शिता नहीं है और बड़ी तेल कंपनियों को  पूरे सिस्टम में रुपया झोंक देने में सहूलियत हो रही है।  चुनाव आयोग ने भी चेताया कि यह प्रतिगामी है और बेहद खतरनाक है।  क्योंकि विदेशी कंपनियां भारतीय राजनीति को और भारतीय लोकतंत्र को प्रभावित करने के लिए अपने अकूत धन का उपयोग कर सकती हैं । इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया, जिसमें भारतीय जनता ने इसके विरोध में याचिका दी थी। सरकार ने केवल यह कह दिया कि भारतीय जनता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि राजनीतिक दलों को कौन धन दे रहा है। अदालत चुप रह गयी। हमारे पास यह जानने का तब तक    कोई जरिया नहीं है कि इन बॉन्ड्स को कौन खरीद रहा है जब तक संबंधित राजनीतिक दल अपना रिटर्न दाखिल ना करें और रिटर्न दाखिल करते करते हो बहुत देर हो जाती है। इसलिए यह स्पष्ट है कि इस मामले में सत्तारूढ़ दल को ज्यादा लाभ पहुंचता है। अखबारों में यह खबर प्रकाशित होती है और पड़ी रहती है। कोई ध्यान नहीं देता। हाल में विख्यात टाइम पत्रिका में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर दो बहुत ही घटिया और तथ्य विहीन विश्लेषण प्रकाशित हुआ था उसी तरह एक अंग्रेजी दैनिक में भी जो मोदी जी का एक साक्षात्कार छपा था इन्हें देख कर यह समझा जा सकता है की सरकार समाचार पत्रों की परवाह क्यों नहीं करती।
           भारतीय चुनाव महंगे होते जा रहे हैं। पार्टी के टिकट से लेकर चुनाव लड़ने तक सिर्फ पैसे की जरूरत पड़ती है। यहां तक कि अगर दोबारा भी चुनाव लड़ा जाए तब भी पैसे बहुत ज्यादा लगते हैं। लेकिन क्यों भारतीय चुनाव महंगे क्यों है ? सरकारी तौर पर तो लोकसभा चुनाव में एक उम्मीदवार को 50 से 70 लाख रुपए तथा विधानसभा चुनाव में  20 28  लाख रुपए खर्च करने की अनुमति है लेकिन जो हम देख रहे हैं और जो खबरें मिलती हैं उससे साफ पता चलता है कि उम्मीदवारों ने जो 50 से 70 लाख या 20 से 28 लाख रुपया की रिपोर्ट जमा कराई है वह केवल दाल में नमक के बराबर है और इसी से पता चलता है की दाल में कुछ काला है।  सच तो यह है के जमा कराई गई रिपोर्ट मे  जितनी रकम का जिक्र है वह संपूर्ण खर्च का 50 वां हिस्सा भी नहीं है। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के एक अनुमान के मुताबिक 2019 के लोकसभा चुनाव में 50 हजार करोड़ से ज्यादा रुपए खर्च होंगे और यह पूरी रकम काले धन के रूप में पार्टियों को मिलती है तथा पार्टी या उम्मीदवार कहीं भी सरकारी तौर पर इसका जिक्र नहीं करते। राजनीति विज्ञान साइमन कॉकर्ड ने भारतीय चुनाव के लगातार महंगे होते जाने के कई कारण बताए हैं। जिसमें  चुनाव क्षेत्रों का लगातार बढ़ते जाना और साथ ही मतदाताओं की संख्या में वृद्धि इसी के साथ बढ़ती राजनीतिक प्रतियोगिता भी इसका कारण है। जैसे-जैसे नौजवान मतदाताओं की संख्या बढ़ रही है उन्हें लुभाने के लिए राजनीतिक नेता और दल अलग अलग तरीके अपनाते हैं जैसे उन्हें उपहार देते हैं इत्यादि इत्यादि। यही नहीं इन दिनों चुनाव में खड़े उम्मीदवारों को अपने चुनाव क्षेत्र में ज्यादा से ज्यादा दिखाई पड़ना ,बड़े नेताओं का राष्ट्रव्यापी दौरा ,अखबारों  तथा  इलेक्ट्रॉनिक  मीडिया में  बड़े-बड़े विज्ञापन- प्रचार, राजनीतिक परामर्श के लिए गठित दल इत्यादि। इनमें तो खर्च लगता ही है। राजनीतिक दल सरकारी तौर पर बताए बिना लगातार खर्च करते हैं और चुनाव आयोग कुछ नहीं कर पाता। यहां भी एक छोटी सी गड़बड़ी है। राजनीतिक उम्मीदवारों के लिए तो खर्च की सीमा तय कर दी गई है लेकिन राजनीतिक दलों के लिए ऐसा कुछ नहीं है। उम्मीद की जाती है राजनीतिक दल यह बताएं कि उसने चुनाव में कितना खर्च किया है और यह रुपए कहां से आए हैं। लेकिन जब तक यह रिपोर्ट बनती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। जून 2013 में केंद्रीय सूचना आयोग ने साफ कहा था कि राजनीतिक दल सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत आते हैं लेकिन वे इसका पालन नहीं करते हैं। आरंभ में तो वे इसे नजरअंदाज कर देते हैं जब बहुत दबाव पड़ता है तो सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे देते हैं। यह मामला अभी भी वहां लंबित है। नोटबंदी के बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2017 के बजट में घोषणा के दौरान कहा कि राजनीतिक चंदों की भी खबर ली जाएगी और उसमें से काला धन समाप्त किया जाएगा। "आज आजादी के 70 वर्ष के बाद भी देश ने कोई ऐसा तंत्र नहीं विकसित किया जिससे राजनीतिक दलों को मिलने वाले धन में पारदर्शिता हो क्योंकि यह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए आवश्यक है। " जेटली जी ने एक नई व्यवस्था शुरू कर दी-  चुनावी बांड की व्यवस्था। वे समझ गए की राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे में ज्यादा पारदर्शिता और जिम्मेदारी आ गई । लेकिन इससे कुछ नहीं हुआ। इसके अलावा भी कई संशोधन हुए लेकिन कुछ नहीं हो सका । राजनीतिक नेता कॉरपोरेट साधनों का खुलकर उपयोग करते हैं। उनके सत्ता में पहुंचने के बाद वही कारपोरेट इनका उपयोग करने लगते हैं। इन दिनों से एक नया जुमला चला है चौकीदार और चौकीदार के समर्थकों ने अपने ट्विटर हैंडल तक में चौकीदार जोड़ लिया है। यह प्रयास मनोवैज्ञानिक रूप से विभिन्न आरोपों को कुंद करने का प्रयास है। वे  आरोप चाहे जो भी हों।
          अब सवाल उठता है कि क्या मतदाता इस पर ध्यान देते हैं? यह कह सकते हैं कि चुनाव के दौरान रुपयों से मतदाताओं को प्रभावित किया जा सकता है। अरसे से बात कही जाती है कि वोट खरीदे जाते हैं और यही कारण है की राजनीतिक पार्टियां चुनाव के दौरान करोड़ों रुपए की शराब और अन्य वस्तुएं अपने चुनाव क्षेत्र में वितरित करती हैं। इसका असर पड़ता है क्या? भारत में गुप्त मतदान की व्यवस्था है । मतदाता पैसा भी ले ले और वोट भी ना डालें तो क्या होगा? लेकिन क्या यह भी हो सकता है कि सभी दल इस तरह से मतदाताओं को रिश्वत दे।
      कुछ भी हो। कोई इनकार नहीं कर सकता ही चुनाव में बहुत ज्यादा रुपए लगाया जा रहे हैं । लेकिन कैसे यह रुपए जाते कहां हैं। कुछ लोग कहते हैं कि प्रचार इत्यादि में खर्च होता है। लेकिन वस्तुतः मनोवैज्ञानिक तौर पर वोट खरीदे जाते हैं । दरअसल किसी भी उम्मीदवार को मतदाताओं तक पहुंचने के लिए रुपयों की जरूरत पड़ती है। यह ठीक उसी तरह है जैसे हम किसी परीक्षा के लिए प्रवेश शुल्क देते हैं। जब मतदाताओं को रुपए दे दिए गए  तो इससे लगता है की उम्मीदवार और मतदाताओं के बीच रिश्ता गाढ़ा हो गया । लेकिन प्रश्न है लोकतंत्र के 70 वर्ष के बाद भी हम इतने परिपक्व नहीं हुए हैं कि देश की राजनीतिक दिशा तय कर सकें यह भारतीय संस्कृति और भारतीय मेधा का सबसे बड़ा अपमान है।

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