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Sunday, May 26, 2019

नई तरह की राजनीति की जरूरत

नई तरह की राजनीति की जरूरत

भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने नरेंद्र दामोदरदास मोदी को भारत का प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया है।  नरेंद्र मोदी ने  एक नया नारा दिया  कि  "सबका साथ,  सबका विकास  और सब का विश्वास।"  उन्होंने यह भी कहा कि "अल्पसंख्यकों के साथ  छल हुआ है  और हम  उनका भरोसा जीतेंगे।" इसी के साथ भारत में  राजनीति का एक नया युग आरंभ हुआ। यहां बात  नेहरू गांधी खानदान का राजनीति में पतन की नहीं है और ना नरेंद्र मोदी का भारत की राजनीति में उभार की ही है। पिछले 3 दिनों में यानी जब चुनाव के नतीजे आए तब से यह तय हो गया है कि भारत में एक गंभीर राजनीतिक परिवर्तन हुआ है।  इस राजनीतिक परिवर्तन को समझने के लिए खानदान के पतन या किसी नेता के उभार जैसे नजरिए बेहद संकीर्ण होंगे। चुनाव परिणाम के नतीजों से यह स्पष्ट हो गया कि भारत में मंदिर या मंडल का युग खत्म हो गया और एक नया युग  आरंभ हुआ है। इस युग को सुविधा के लिए मोदी युग कह सकते हैं। 1984 का चुनाव याद होगा प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भाजपा को 2 सीटों पर लपेट दिया था। लेकिन इससे केवल 5 वर्षों के भीतर और राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल के अंतिम दिनों में भाजपा धीरे धीरे उभरने लगी थी। उसकी वापसी की संभावनाएं दिखने लगी थीं। राजीव गांधी के बेहद करीबी समझे जाने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बगावत का झंडा बुलंद किया और राजीव गांधी का विकल्प बनने के लिए एक गठजोड़ के नेता के रूप में सामने आए। भाजपा ने उनकी इस बुलंदी के लिए संख्या बल मुहैया कराया। भाजपा के लौहपुरूष कहे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी उस समय सत्ता में भागीदारी के लिए तैयार नहीं थे। उनका मानना था कि भाजपा अपने दम पर सत्ता हासिल करे। किसी के पास कोई मुद्दा नहीं था। भ्रष्टाचार का मुद्दा पुराना हो गया था। लालकृष्ण आडवाणी ने हिंदुत्व राष्ट्रवाद को हवा देना शुरू किया।  इसके लिए उन्होंने अयोध्या में राम मंदिर को इस नवीन राष्ट्रवाद का बिंब बनाया। 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के जनता दल को 143 सीटें मिलीं और वे नवगठित राष्ट्रीय मोर्चा के नेता के तौर पर भारत के प्रधानमंत्री बने। इस मोर्चे को भाजपा ने बाहर से समर्थन दिया। बाहर से समर्थन देने वाला एक और दल था वह था वाम दल। दोनों एक दूसरे के वैचारिक तौर पर घोर विरोधी थे लेकिन दोनों का उद्देश्य एक था इसलिए दोनों ने विश्वनाथ प्रताप सिंह का बाहर से समर्थन किया। उस  दौर का अगर राजनीतिक समीकरण देखें तो पता चलेगा कि जनता दल और उसके छोटे-छोटे सहयोगी दलों को अधिकांश सीटें समाजवादियों और बागी कांग्रेसियों के कारण प्राप्त हुई थीं। यह सभी भाजपा से अलग रहना चाहते थे। उसी वक्त कश्मीर में अलगाववाद का उभार शुरू हुआ और बीपी सिंह सरकार के गृहमंत्री तथा कश्मीर के वरिष्ठ नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद का आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया।  उसे छुड़ाने के लिए सरकार ने आतंकियों के सामने घुटने टेक दिए। यह राजनीतिक दिशा परिवर्तन के लिए एक नया मोड़ था। बीपी सिंह के अधिकांश साथी जो लोहिया वादी थे उन्होंने भाजपा और कांग्रेसी  विरोधी एक नई राजनीति का मंच तैयार करने का प्रयास आरंभ कर दिया। उन्होंने मंडल रिपोर्ट को लागू करवा दिया। समाज के सवर्णों के लिए खलबली मच गई और उन्होंने बीपी सिंह के खिलाफ झंडा उठा लिया। कई छात्रों ने आत्मदाह किए तथा हिंदू बिरादरी में एक तरह से युद्ध आरंभ हो गया।  इसी युद्ध की पृष्ठभूमि में ओबीसी वोट बैंक उभरकर आया। अब हिंदू वोट बैंक के विभाजित होने का खतरा पैदा हो गया। उधर आडवाणी जी हिंदू मुस्लिम ध्रुवीकरण में जुटे थे और  विभाजित होते हिंदू वोट को देख कर वे क्षुब्ध हो गए। उनकी मंदिर की राजनीति विश्वनाथ प्रताप सिंह की मंडल की राजनीति से सीधा टकरा रही थी।  राजनीति को परिभाषित करने के लिए मंडल - मंदिर एक नया सूत्र बन गया। यह 2019  के चुनाव के पहले  तक कायम था। अगर राजनीतिक आचरण का मनोविज्ञान देखें तो पता चलेगा कि जाति के नाम पर विभाजित हिंदू समाज जब जब आस्था के नाम पर एकजुट हुआ है तो भाजपा की ताकत बढ़ी है और कई मौकों पर भाजपा सत्ता में आई है।
         भाजपा के रणनीतिकारों ने इस मनोविज्ञान को भांप लिया और मंदिर के औजार से मंडल के व्यूह को भेद दिया। यह केवल सत्ता की सोच में बदलाव नहीं है बल्कि यह पूरे देश की सोच में परिवर्तन है। यह एक नई राजनीतिक सोच की शुरुआत है। 2019  के चुनाव परिणाम में विजयी के रूप में उभरने वाले नरेंद्र मोदी ने शाम को जो भाषण दिया उसकी एक पंक्ति पर गौर करें उन्होंने कहा कि "भारत में केवल दो जातियां हैं एक गरीबों की और दूसरी गरीबों की मदद करने के लिए संसाधन जुटाने वालों की।" दूसरी बात उन्होंने कही कि "सेकुलर का चोगा पहनकर सामने आने वाले लोग हार गए। इन पंक्तियों का संदेश स्पष्ट है कि जातियां खत्म हो गयीं। यह मोदी जी ने अपने दम पर किया। इसके लिए विपक्ष को दोषी कहना उचित नहीं है।  चुनाव से पहले जो गठजोड़ बनते हैं वह तभी प्रभावशाली होते हैं जब मुकाबला किसी सिद्धांत ,किसी विचारधारा या किसी दल से हो लेकिन मुकाबला जब 1971 इंदिरा गांधी या 2019 के नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं से  ऐसे गठजोड़ प्रभावहीन हो जाते हैं। यहां आकर भारतीय राजनीति समाप्त हो जाती है। मोदी की विजय के बाद बस यही हुआ है कि मंडल- मंदिर युग खत्म हो गया। अब अगर मोदी को पराजित करना है तो नई तरह की राजनीति का आविष्कार करना होगा। अब इस नई राजनीति का स्वरूप क्या होगा ? इस स्वरूप को कौन बनाएगा। इसके लिए जरा चुनाव के नतीजों की व्याख्या करें। इसमें सबसे महत्वपूर्ण 2 अंक है पहला अंक जो भाजपा को मिला। यानी उसको प्राप्त 303 सीटें और दूसरा अंक जो कांग्रेस को मिला यानी उसे प्राप्त 52 सीटें। 2014 में भाजपा के वोट की संख्या 17.1 करोड़ थी जो अब बढ़कर 22.6 करोड़ हो गई कांग्रेस के वोट 10.69 करोड़ से बढ़कर 11. 86 करोड़ हो गया। यानी दोनों के संयुक्त वोट 5 वर्षों में 27.79 करोड़ से बढ़कर 34.46 करोड़ हो गया। अगर इसे प्रतिशत का रूप दें तो दोनों के संयुक्त वोट 2014 में 50.3 प्रतिशत थे जो 5 वर्षों में बढ़कर 57% हो गया। क्षेत्रीय ताकतें जो अक्सर वोट खींच लेती थी वे अब राष्ट्रीय दलों में वापस आ रही हैं। इसलिए जो लोग कांग्रेस को अप्रासंगिक समझ रहे हैं वह शायद राजनीतिक तौर पर कहीं न कहीं गलती कर रहे हैं। क्योंकि विचार मरते नहीं है बेशक निरूपाय हो जाते हैं या पुराने पड़ जाते हैं। भारत में वर्तमान में हिंदू पथ पर एक दल ने कब्जा कर लिया और मुस्लिम पथ पर दूसरे दल ने लेकिन बीच का धर्मनिरपेक्ष पथ सुनसान है। इस पर चलने वाला कोई नहीं है । अगर कोई पार्टी सचमुच इस पर चले और इस बात की परवाह न करें की किस जाति के नेता इस यात्रा से नाखुश हैं तो हालात बदल सकते हैं।

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