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Friday, May 17, 2019

भद्रलोक की हिंसा का मनोविज्ञान

भद्रलोक की हिंसा का मनोविज्ञान

हरिराम पाण्डेय 
वर्तमान चुनाव में बंगाल में व्यापक हिंसा देखने को मिली है। लेकिन यह कोई नई बात नहीं है और ना ही यह कोई अजूबा है। पिछले डेढ़ सौ वर्षो का इतिहास अगर देखें तो पाएंगे कि  सत्ता की हर दौड़ के दौरान हिंसा होती रही है। यह सिलसिला 1857 के सिपाही विद्रोह के बाद से अब तक चला रहा है। बंगाल का भद्रलोक समाज राजनीतिक हिंसा को एक रूमानी स्वरूप देता रहा है । अगर बंगाल में राजनीतिक हिंसा का इतिहास देखें तो पाएंगे कि हर दौर में सिर्फ झंडे बदल जाते हैं डंडे और उनके काम उसी तरह रहते हैं। यह बंगाल का सामाजिक - मनोवैज्ञानिक चरित्र है। जंगे आजादी के समापन में जब भारत का बंटवारा हुआ तो जो हिंसा हुई वह इतिहास में "ग्रेट कलकत्ता किलिंग" के नाम से दर्ज है। इसके बाद शासन बदला लेकिन समाज का चरित्र वही रहा। कभी अंग्रेजों ने बंगाल को गैर दंगाई या मारपीट से दूर रहने वाली कौम बताया था लेकिन ऐसा था नहीं। हर बार जब भी शासन बदला है तो बस सत्ता के किरदार बदल जाते हैं लेकिन समाज  की प्रवृत्ति वही रहती है। लेकिन इसमें एक तथ्य काबिले गौर है कि जब  तक एक तरफा हिंसा होती रहती है कब तक सत्ता सुरक्षित रहती है और जैसे ही उस हिंसा का प्रतिरोध शुरू हो जाता है सत्ता के पाए डगमगाने लगते हैं और इसे सत्ता में परिवर्तन का संकेत माना जाता है।
  जिन लोगों ने बंगाल को देखा है उन्हें साठ का दशक याद होगा। उस समय यह कांग्रेस का शासन था और सत्ता को हासिल करने के लिए भारतीय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में वाम मोर्चा ने पंजे लड़ाने शुरू किया था और यह पंजा लड़ाई खूनी संघर्ष में बदल गई। 1977 में वाममोर्चा सरकार पश्चिम बंगाल की सत्ता पर कायम हो गई। कांग्रेस एक तरह से निस्तेज हो गई । 34 वर्षों तक वाम मोर्चे का शासन चला। इस काल में राज्य में लगभग 28 हजार राजनीतिक हत्याएं हुईं।
        वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की राजनीतिक दीक्षा कांग्रेस में ही हुई थी। बाद में उन्होंने कांग्रेस छोड़कर एक नई पार्टी- तृणमूल कांग्रेस- का गठन किया। वाममोर्चा के खिलाफ एक नई जंग शुरू हो गई जिसकी कमान ममता बनर्जी के हाथ में थी। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि लगभग हर वर्ष पश्चिम बंगाल में कुछ न कुछ राजनीतिक हत्याएं होती रही हैं। पीछे के आंकड़ों को छोड़ दें और 21वीं सदी की ही बात करें तो 2001 से 2009 तक यानी 8 वर्षों में 218 लोग हिंसा के शिकार हुए । केवल 2010 में 38 आदमी मारे गए तथा जिस साल यानी 2011 में बंगाल में लाल किला ध्वस्त हुआ उस समय जो फसाद हुए उनमें भी 38 आदमी मरे यानी 2010 से ही बदलाव की आहट आने लगी थी।  यह सिलसिला रुका नहीं। 2012 में 22, 2013 में 26 और 2014 में 10 आदमी मारे गए ।2015 और 16 में बहुत कुछ नहीं हुआ । 
     तृणमूल कांग्रेस की सत्ता सुरक्षित चल रही थी लेकिन यहां अचानक भाजपा का उदय हुआ और धीरे-धीरे हिंसा सुलगने लगी। जिसका सबूत पिछले साल के पंचायत चुनाव के दौरान हुई हिंसक घटनाएं हैं। 2019 में लोकसभा चुनाव के दौरान एक बार फिर हिंसा का दौर शुरू हो चुका है इसका कारण है कि जो लोग शुरुआती दौर में वामपंथी दलों को छोड़कर तृणमूल के झंडाबरदार बने थे आज अचानक उनमें से बड़ी संख्या में लोग भाजपा में आने लगे हैं और जो पहले वहां हथियार उठाया करते थे वे अब इधर से हथियार उठाने लगे हैं। आजादी के बाद से ही बंगाल में सत्ता हथियाने के लिए कांग्रेस और वाम मोर्चे मैं लड़ाई चली थी उसके बाद ही लड़ाई बदल कर वाममोर्चा और तृणमूल कांग्रेस के बीच हो गई। अब वह फिर एक नई शुरुआत हुई। उसे हम तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की जंग के रूप में देख रहे हैं । 
     यहां की सबसे बड़ी खूबी यह है कि नेता बाद में टोपियां बदलते हैं समर्थक पहले झंडे बदल देते हैं। 2011 में जब सत्ता परिवर्तन हुआ तो लाल झंडे लेकर चलने वाले लोगों ने जोड़ा फूल वाला झंडा उठा लिया। क्लबों और पार्टी दफ्तरों के रंग रातों रात बदल गए। आज फिर वही स्थितियां बनने लगी है। 2011 में चाहे जितनी हिंसा हुई हो लेकिन ममता बनर्जी का एक नारा उस समय बड़ा कारगर हुआ था वह नारा था "बदला नोय, बदल चाई" यानी "बदला नहीं बदलाव चाहिए।" जनता ने इस नारे को पसंद किया था। अरे वाह एक ऐसी नेता जो खुद राजनीतिक हिंसा का कई बार शिकार हो चुकी है वह ऐसे सकारात्मक नारे लगा रही है।
लेकिन यह आशावाद कायम नहीं रह सका। सत्ता पर तृणमूल के आसीन होने के साथ ही मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने हिंसा का झंडा उठा लिया और ममता बनर्जी के शासनकाल के पहले दौर में कई जगह हिंसक घटनाएं हुईं। तृणमूल कांग्रेस ने अक्सर उन स्थानों पर कब्जा किया जो अब तक कम्युनिस्ट पार्टी के कब्जे में रहे थे ।
        यह तो सर्वविदित है कि केंद्र या राज्य सरकार द्वारा किसी भी तरह का अनुदान या सहायता का उपयोग ग्राम पंचायतों द्वारा ही किया जाता है। वाम मोर्चे के जमाने में कहा जाता था कि इस राशि का पंचायती राज प्रणाली द्वारा पूरी तरह उपयोग किया जाता है। तृणमूल कांग्रेस ने पहले पंचायतों पर ही कब्जा जमाना शुरू किया क्योंकि उसे यह मालूम था कि गांव के लोग पंचायतों पर ही निर्भर करते हैं।  अगर पंचायतों पर कब्जा कर लिया गया तो पूरे बंगाल पर खुद ब खुद कब्जा हो जाएगा। यह किसी भी जाति धर्म से परे बात थी। पश्चिम बंगाल में एक और खूबी है। वह है कि अन्य राज्यों की तरह यहां जाति और धर्म से परिचय नहीं होता।  राजनीतिक पार्टियों और उनके विचार बंगाल में सबसे बड़ी पहचान है । आजादी के बाद से ही राजनीतिक दल और उनके आदर्श बंगाल में जमीन के मसले से जुड़कर एक भावनात्मक मसला बन जाते हैं। इसीलिए ममता बनर्जी ने "मां माटी मानुष" का नारा गढ़ा ।
        1947 के आरंभ में बंगाल में ग्रामीण सियासत हिंसक "तेभागा" आंदोलन से जुड़ी थी। यह अविभाजित उत्तर बंगाल में बटाई खेतिहर मजदूरों का आंदोलन था इसका नेतृत्व भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की एक शाखा किसान सभा द्वारा किया जा रहा था । उस समय इसके नेता नक्सलबाड़ी आंदोलन के चारू मजूमदार और बंगाल के भविष्य के मुख्यमंत्री ज्योति बसु थे। भूमि से जुड़े भाव ने आंदोलन में नक्सल पंथी आंदोलन का स्वरूप दिया और यह आग की तरह बंगाल में फैल गया। इसमें छात्र, बुद्धिजीवी और राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने भाग लिया । कोलकाता की सड़कों पर खून बह चला। सैकड़ों लोग मारे गए। सिद्धार्थ शंकर राय की सरकार ने इस पर शिकंजा कसा। नक्सलबाड़ी आंदोलन ने ही माओवादी आंदोलन को जन्म दिया। जिसका नारा था "जल, जमीन और जंगल।" 1977 से वामपंथी शासन के दौरान बंगाल में व्यापक भूमि सुधार किया गया। बंगाल के गरीब किसान वाम मोर्चे के साथ हो गए। लेकिन जब नंदीग्राम और सिंगूर में खेती की जमीन को उद्योग के लिए वाम मोर्चा सरकार ने उद्योगपतियों को सौंपा तो तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी को मौका मिल गया और उन्होंने वामपंथियों के ही हथियार से उन्हें परास्त कर दिया।
       भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप के दौर आरंभ हो चुके हैं । शाह और नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर  लगातार आरोप लगा रहे हैं। उधर ममता बनर्जी भी उनका मुंह तोड़ उत्तर दे रही हैं। सत्ता की रस्साकशी लगातार घातक होती जा रही है । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पश्चिम बंगाल में वोट पाने के लिए जी तोड़ कोशिश में लगे हैं तथा इससे स्थिति और खतरनाक होती जा रही है। हकीकत तो यह है कि पश्चिम बंगाल में 42 सीटों के लिए 9 चरणों में मतदान का मतलब है यह लड़ाई लंबी चलेगी। दोनों तरफ से न केवल जबान चल रही है बल्कि हथियार भी चल रहे हैं और अब तो यह युद्ध साइबर स्पेस में भी पहुंच गया ।
    सच तो यह है कि पश्चिम बंगाल में जब भी कोई राजनीतिक परिवर्तन होता है खास करके सत्ता का परिवर्तन तो उस समय हिंसा होती है। अंग्रेज बंगाली कौम को शांतिप्रिय और डरपोक को मानते थे। शायद यही उनकी गलती थी। और जब 1857 का सिपाही विद्रोह हुआ तो कोलकाता और बैरकपुर में सेना की बंगाल टुकड़ी ने ही बगावत को फैलाया। अंग्रेजों को भगाने में बंगाल के क्रांतिकारियों ने सबसे पहले कदम आगे बढ़ाया था तब से अब तक जब भी सत्ता परिवर्तन हुआ है तो बंगाल में हिंसा हुई है।   बंगाली भद्रलोक समाज अच्छे कार्यों के लिए खून खराबे को रूमानी दृष्टिकोण से देखता रहा है। बंगाल का मानस इसी स्वरूप में ढल गया है।  क्रांति यहां रूमानी बन जाती है। यही कारण है कि हर चुनाव में बंगाल में हिंसा होती है।  जब सत्ता परिवर्तन का भय शुरू होता है तो हिंसा बढ़ जाती है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि बंगाल में जब किसी इलाके में पहले से स्थापित पार्टी को जोरदार चुनौती मिलती है तो वर्चस्व की लड़ाई में हिंसा का सहारा लिया जाता है। वर्तमान चुनाव के दौरान यह हिंसा कुछ ऐसा ही संकेत कर रही है।

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