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Thursday, May 9, 2019

चुनावी वायदे और नई सरकार

चुनावी वायदे और नई सरकार

चुनाव अब खत्म होने वाले हैं। अब चर्चा नई सरकार की हो रही है। इस चर्चा के दौरान एक तथ्य विचारणीय है की नई सरकार को क्या करना होगा? अपने देश के संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण है कि उसे चुनावी वायदों को फिलहाल दरकिनार कर अर्थव्यवस्था के मामले पर ठंडे दिमाग से और सही ढंग से काम करना होगा। पिछले दिनों राजस्व के आंकड़े प्रकाशित हुए थे। उन आंकड़ों को देखकर दिल दहल जाता है। 3 महीने पहले संसद में पेश किए गए 2018 -19 के इन आंकड़ों में 1.6 खरब की कमी दिखती है। यह सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के 0.8 प्रतिशत के बराबर है। इस कमी को आखरी समय में व्यय  नियंत्रण कर या उस में कटौती कर रोका जा सकता था । जो बताया गया था उसके अनुरूप वर्ष के अंत में यह व्यय लगभग 60 हजार करोड़ था। अगर इसे सही मान लिया जाए तो साल के लिए वित्तीय घाटा 3.4% से बढ़कर 3.9% हो जाता । जो विगत 2 वर्षों के स्तर में अब तक गिरावट दर्शाता है। यही नहीं एक आतंकित करने वाली समस्या यह भी है कि केंद्र सरकार की राजस्व वृद्धि 6.2% पर पहुंची है जबकि अनुमान था की यह 19.5 प्रतिशत होगी। इसमें ज्यादा चिंताजनक तो यह है राज्यों के हिस्से को मिलाकर कुल संग्रह में 8.4 प्रतिशत इजाफा हुआ है जोकि मुद्रास्फीति सहित वर्तमान कीमतों के आधार पर जीडीपी में 11.5 प्रतिशत से नीचे है। कहा जा सकता है की टैक्स और जीडीपी अनुपात में वृद्धि की प्रवृत्ति उल्टी हो गई है। विशेषज्ञ बताते हैं कि राजनीतिक कारणों से जीएसटी दरों में लगातार कमी के कारण यह गिरावट हुई है। जबकि सरकार ने  वास्तविक आर्थिक वृद्धि  7% होने का दावा किया था।  उम्मीद है यह भी वास्तविक आर्थिक वृद्धि से कम है।
           आंकड़े जो बता रहे हैं  उन्हें देखते हुए कुल मिलाकर जो संभावनाएं हैं वह आशा जनक नहीं हैं। बजट के मुताबिक 2019 - 20 में अनुमानित राजस्व वृद्धि 2018- 19 के लिए इस अनुमानित आंकड़े का 14.9% रह सकती है । यानी वास्तविक राजस्व आधार जो स्पष्ट हो रहा है उसके अनुसार यदि बजट अनुमानों को हासिल करना है तो टैक्स वसूली में 29.1% की वृद्धि जरूरी है लेकिन यह असंभव है। इसलिए चुनाव के बाद बनने वाली नई सरकार को दोबारा बजट बनाना पड़ सकता है। आमदनी और खर्चे के आंकड़ों में कटौती करनी पड़ेगी। इसके बाद ही बजट उपभोग में गिरावट के कारण आर्थिक मंदी को दर्शा पाएगा। सरकार के अधिकांश खर्च ब्याज भुगतान, सब्सिडी, वेतन और पेंशन मदों में होते हैं। बीते वर्ष की भांति नए वर्ष में भी कटौती  बुनियादी ढांचे पर निवेश में की जाएगी। अब तक ढांचे पर निवेश वृधि को गति देने वाला प्रमुख कारण रहा है।
             वृद्धि की संभावना में कुछ मामलों में सुधार जरूर हुआ है। जैसे, विश्व की आर्थिक स्थिति सुधरी है। अमरीका और चीन के बीच व्यापार युद्ध से आसार घट गए हैं। तेल की कीमतें बढ़ी हैं लेकिन ईरान से मिलने वाले तेल पर रोक को प्रभावहीन करने के उद्देश्य से कुछ तेल निर्यातक अपना उत्पादन बढ़ा सकते हैं। दूसरी तरफ, मौसम विभाग के अनुसार मानसून कमजोर हो सकता है। विमानन और ऑटोमोबाइल जैसे क्षेत्र घाटे में जा रहे हैं। साथ ही टेलीकॉम सेक्टर में कीमतें गिर रही है वित और कारपोरेट सेक्टर "बैड लोंस" के गिरफ्त में फंसते जा रहे हैं और संकट के दौर से गुजर रहे हैं। हालांकि क्रेडिट ने गति पकड़ी है लेकिन अभी यह पर्याप्त नहीं है। इसमें और सफाई जरूरी है। इसलिए व्यवस्था गत  झटकों की उम्मीद से इंकार नहीं किया जा सकता। मुद्रा नीति ने वृद्धि को सहारा देने की कोशिश की लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक ने दरों में जो कटौती कर दी है उसका कोई असर लिक्विडिटी संकट से त्रस्त बाजार पर नहीं दिखाई पड़ता। इसके कई कारण हैं  जिनमें सरकारी कर्ज भी एक है। उधर, वार्षिक ब्याज दर में गिरावट नहीं आई है।
मिसाल के तौर पर ले सकते हैं कि कांग्रेस ने जो वादे किए उनके बारे में खास तौर पर दो बातें कहीं जा सकती हैं। पहली यह कि सरकारी खर्च बढ़ेंगे लेकिन आमदनी कहां से होगी यह नहीं बताया गया है। जो वादे किए गए हैं उनका वास्तविकता के आधार पर विश्लेषण किया जाना जरूरी है कि केंद्र और राज्य सरकारों का कुल कर राजस्व 17% है और सकल घरेलू उत्पाद में पहले से ही घाटा 6% से ज्यादा है अब यदि ऐसी स्थिति में चार लाख सरकारी पद जो खाली पड़े हैं उन पर नियुक्ति की जाएगी और भी कई नियुक्तियां की जाएंगी तो इन्हें वेतन कहां से दिया जाएगा। अतः  इन वादों पर जरा सोच समझ के भरोसा किया जाना जरूरी है।
लेकिन  कांग्रेस ही कयों  दूसरी प्रमुख  पार्टी भाजपा भी खाद्य सब्सिडी देने जैसे कई वायदे किए हैं इन वायदों को यदि पूरा किया जाए तो यकीनन वे सरकारी खजाने पर बोझ बन सकते हैं। अब ऊपर बताए गए आर्थिक हालात के संदर्भ में इन वायदों कि अगर व्याख्या करेंगे तो लगेगा इनमें से किसी को पूरा करने की माली स्थिति नहीं है। अब यहां एक स्पष्ट खतरा यह दिख रहा है । अपने वायदों को पूरा करने के चक्कर में सरकार कहीं उल्टा रास्ता ना पकड़ ले और आगे चलकर आर्थिक फंदे में फंस जाए। इसलिए नई सरकार को चुनावी वायदे को पूरा करने के चक्कर में नहीं पड़ कर वास्तविक आर्थिक स्थिति में सुधार के प्रयास करने होंगे जोकि उसके लिए एक कठिन कार्य होगा।

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