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Sunday, June 30, 2019

शाह की कश्मीर यात्रा

शाह की कश्मीर यात्रा

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह पिछले हफ्ते कश्मीर यात्रा पर गए थे और उनकी इस यात्रा से बड़े कठोर संकेत प्राप्त हो रहे हैं। खास करके, विभिन्न राजनीतिक दलों में अलगाववादियों और उनके मददगार तथा उनके समर्थकों के लिए दिल्ली लौटने से पहले शाह ने कश्मीर की पुलिस और वहां तैनात सुरक्षाबलों को निर्देश दिया कि आतंकवाद और आतंकवादियों  को बिल्कुल बर्दाश्त ना करें और कहा कि आतंकवादियों को धन मुहैया कराने वालों के खिलाफ कठोर कार्रवाई जारी रहेगी। शाह ने पुलिस ,नागरिक प्रशासन , और  सुरक्षाबलों के  वरिष्ठ अधिकारियों के साथ सुरक्षा समीक्षा की। उस बैठक में स्पष्ट कहा कि कानून का शासन लागू किया जाना चाहिए। शाह की दो दिवसीय कश्मीर यात्रा के दौरान कश्मीर के दो बड़े व्यापारी परिवारों पर आयकर के छापे जारी रहे। इनमें एक परिवार नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ है और दूसरा कांग्रेस के साथ। इनमें से एक अब्दुल रहीम राठर परिवार के जम्मू और कश्मीर में 5 परिसरों पर छापे पड़े। अब्दुल रहीम और उनके रिश्तेदार शफी उड़ी नेशनल कॉन्फ्रेंस के बड़े नेता हैं और उन्हें फारुख अब्दुल्ला के बाद माना जाता है। यह दोनों 70 के बाद से कश्मीर के वित्त मंत्री भी रह चुके हैं।
            राठर 1977 में राजनीति में आए और तब से 2014 के बीच उसने 7 विधानसभा चुनाव जीते हैं। यहां तक कि हाल के लोकसभा चुनाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस के अब्दुल्ला ने जो सत्तर हजार मतों की बढ़त पाई है उनमें से दस हजार वोट राठर के चरार ए शरीफ क्षेत्र के हैं।
          दूसरे बड़े नेता है जनक राज गुप्ता। जनक राज की मृत्यु सितंबर 2015 में हुई। तब तक वे कांग्रेस के बहुत बड़े नेता रहे और कई बार लोकसभा तथा विधान सभा के सदस्य भी रहे। जब गुलाम नबी आजाद मुख्यमंत्री थे तो वे उनके सलाहकार हुआ करते थे। यही नहीं, हाल के दिनों में आयकर विभाग में जम्मू और कश्मीर में प्रभावशाली लोगों के व्यापारिक संस्थानों पर कई छापे मारे। जिन लोगों पर छापे मारे गए उनमें से कुछ पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के बड़े नेताओं के करीबी रिश्तेदार भी शामिल हैं। मजे की बात है कि पीपुल्स कॉन्फ्रेंस  महबूबा मुफ्ती की पार्टी है जो भाजपा के साथ कश्मीर में सरकार बना चुकी है।  अमित शाह  के लौटने के बाद नई दिल्ली से जारी एक विज्ञप्ति में कहा गया है कि यह छापे सामान्य थे और इनका उद्देश्य आतंकवाद को दिए जाने वाले धन को रोकना था। वैसे राठर और गुप्ता के व्यापारिक परिसरों में छापे के दौरान अमित शाह की  कश्मीर में विभिन्न बैठकों में   यह बात सुनी गई कि लोग जानना चाहते थे कि अगला छापा कहां पड़ेगा।
           अमित शाह के इस दौरे ने मोदी के दूसरे दौर में चल रही अटकलों को विराम दे दिया। वरना , कहा जा रहा था कि कश्मीर समस्या को सुलझाने  के लिए सरकार मुख्यधारा के राजनीतिक दलों और जम्मू कश्मीर के अलगाववादियों से बातचीत करेगी। अमित शाह ने राजनीति दलों से मुलाकात को दरकिनार कर पंचो, सरपंच और गूजर समुदाय यह लोगों से मुलाकात की। उन्होंने गत 12 जून को अनंतनाग हमले में मारे गए पुलिस और सीआरपीएफ के अफसरों में से एक इंस्पेक्टर अरशद खान के परिजनों से भी मुलाकात की। उन्होंने आतंकवादियों के हाथों मारे गए भाजपा कार्यकर्ताओं के सम्मान में आयोजित समारोह की अध्यक्षता भी की।
           जैसा कि विगत दो दशकों से से चल रहा था उससे अलग पुलिस और खुफिया संगठनों को यह निर्देश नहीं दिए गए कि वह किसी विशेष अलगाववादी के संपर्क में रहें। यही नहीं सबसे महत्वपूर्ण तो यह था कि इस बार अमित शाह की यात्रा में घाटी में ना कोई बंद हुआ और ना ही टि्वटर की अफरा तफरी दिखाई पड़ी। वरना हर बार, लगभग 25 वर्षों से यही चला रहा है कि , जब भी कोई प्रधानमंत्री या गृह मंत्री घाटी दौरे पर होता है  तो अलगाववादी और आतंकवादी संगठन वहां बंद का आह्वान कर देते थे और पूरी घाटी सुनसान रहती थी। साथ ही, पिछले कुछ वर्षों से ट्विटर पर जमकर अफवाह फैलाई जाती रही है। लेकिन शाह अपने कार्यक्रम के अनुसार श्रीनगर और जम्मू गए तथा उस दौरान ,साथ साथ ही आयकर के छापे भी पड़ते रहे लेकिन कोई भी अलगाववादी संगठन या मुख्यधारा का राजनीतिक संगठन अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करने के लिए सामने नहीं आया। ट्विटर पर बात को बढ़ाने के लिए मशहूर उमर अब्दुल्ला, महबूबा , सज्जाद लोन शाह फैसल इत्यादि चुप बैठे रहे। यहां तक कि नेशनल कॉन्फ्रेंस या पीडीपी का कोई बड़ा नेता  अधिकृत रूप से कुछ कहने को तैयार हुआ। उमर अब्दुल्ला की पार्टी के एक नेता ने जरूर कहा कि शाह का राष्ट्रवाद और राष्ट्रभक्ति दिखावा के अलावा कुछ नहीं है। उसने कहा कि  श्री शाह को पूर्व जनसंघ के नेता टीका लाल टपलू याद हैं । लेकिन 1989 में गोलियों से भून डाले गए गुलाम हसन हलवाई से लेकर कर 2018 में मुस्ताक वानी और नाजिर वानी की हत्या के बीच मारे गए कई लोग याद नहीं रहे।
        कई अटकलों के विपरीत शाह की इस यात्रा ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अलगाववादियों और आतंकवादियों पर चल रहे छापे और धर पकड़ कायम रहेगी तथा अलगाववादियों एवं मुख्यधारा के राजनीतिक दलों व उनके समर्थकों को चैन से नहीं बैठने दिया जाएगा। जम्मू कश्मीर में जल्दी ही विधान सभा चुनाव होने वाले हैं।  जो हालात बन रहे हैं उसे देख कर महसूस होता है कि शायद ही चुनाव हों।


Friday, June 28, 2019

अब तो जागे सरकार

अब तो जागे सरकार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी 20 सम्मेलन में शरीक होने के लिए ओसाका पहुंचे हुए हैं वहां भी विश्व नेताओं की बड़ी जमघट है और बड़ी-बड़ी बातें होंगी जिसमें अमरीकी राष्ट्रपति  डोनाल्ड ट्रंप  और नरेंद्र मोदी की  मुलाकात होगी  और व्यापार प्रतिबंध से लेकर धार्मिक असहिष्णुता तक पर चर्चा भी होगी। इतनी चमक-दमक तथा इतना  प्रचार लेकिन    बिहार के चमकी बुखार से मरने वाले बच्चों को लेकर जिस गंभीर संवेदनशीलता की आवश्यकता थी वह नहीं दिखाई पड़ रही। मरने वाले बच्चों की तादाद बढ़ती जा रही है।  इन बच्चों की मौतों में संपूर्ण स्वास्थ्य व्यवस्था को सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है। बिहार में स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत क्या है इस पर लोकसभा में जो आंकड़े मिले वह पूरी व्यवस्था के तार-तार हो जाने की बात कहते हैं। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन रिपोर्ट में फकत इतना कहा गया है जागरूकता और सही जानकारी के अभाव के कारण यह मौतें हुई हैं। अब सवाल उठता है कि जागरूकता और सही जानकारी कैसे मिलेगी उन बच्चों के गरीब मां बाप को। बिहार में दो तरह की चिकित्सा व्यवस्था है एक निजी और एक सरकारी। सरकारी चिकित्सा व्यवस्था की हालत यह है कि  कोई आदमी वहां इलाज के लिए तभी जाता है जब उसकी जेब बिल्कुल खाली रहती है और पेट में अन्न का दाना तक नहीं रहता। मतलब बेहद गरीब होता है और उसके साथ कैसा सलूक होता है यह कल्पना से बाहर है। साथ ही प्राथमिक सुविधा केंद्र और आंगनबाड़ी केवल नाम के लिए व्यवस्थाएं हैं।  चिकित्सा व्यवस्था का दूसरा प्रकार है निजी। वहां डॉक्टर्स मशीन की तरह लगे रहते हैं। उन्हें फुर्सत नहीं होती यह बताने की कि किसी रोगी को क्या हुआ है और उसकी रोकथाम हो सकती है। यही नहीं, कई बार ऐसा महसूस होता है की यह डॉक्टर किसी रोगी की बात सुन ही नहीं पाते हैं। एक-एक दिन में सैकड़ों रोगियों को देखा जाना। लगता है वहां बीमार लोगों का मेला लगा हुआ है। संसद में प्रश्नोत्तर के दौरान जो आंकड़े आए उसके अनुसार प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में 292 डॉक्टरों की कमी है। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 518  विशेषज्ञों का अभाव है। प्राथमिक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 1762 फार्मासिस्ट पद खाली हैं, 1438 पैरामेडिकल स्टाफ का अभाव है और 1738 नर्सों की कमी है । यह  गांव और कस्बे की स्वास्थ्य व्यवस्था की रीढ़ है।  अगर सबको जोड़ दें तो बिहार में लगभग 6000 स्वास्थ्य कर्मियों का अभाव है। उधर आंगनबाड़ी को दरकिनार कर दिया गया है।
        नीति आयोग के आंकड़े बताते हैं कि स्वास्थ्य व्यवस्था में बिहार नीचे से दूसरे नंबर पर है। यानी प्रजनन दर, जन्म के समय वजन कम, लिंग अनुपात, संस्थागत प्रसव, टी बी के इलाज में सफलता जैसे तमाम पैमानों पर बिहार फेल हो चुका है।  यही नहीं, स्वास्थ्य के मामले में राज्य में लगातार गिरावट आ रही है। नेशनल हेल्थ मिशन से जुड़ी रकम तक समय से जरूरतमंदों के पास नहीं पहुंच पाती। आंगनबाड़ी के निष्क्रिय हो जाने के कारण गरीबों तक बीमारियों की जानकारी नहीं पहुंच पाती और गरीबों के परिवारों तक पहुंचने वाली  ग्लूकोज और अन्य जरूरत की चीजें भ्रष्टाचार के गाल में समा जाती है।
           सुरक्षित मातृत्व के लिए जननी सुरक्षा योजना है और यह नेशनल हेल्थ मिशन के अंतर्गत है। इस योजना का उद्देश्य नवजात शिशु की मृत्यु दर को कम करना है। इसके माध्यम से गरीबों को मदद पहुंचाई जाती है। बिहार में ग्रासरूट स्तर से इतना भ्रष्टाचार है कि ऐसी योजनाओं का बुरा हाल हो गया है।  दूसरी तरफ इसके लिए सरकार को मिला धन भी  खर्च नहीं हो पाया। आंकड़े बताते हैं कि 2016 -17 में राज्य को इस मद में 34339. 71 लाखों रुपए मिले लेकिन उसमें से केवल 27286.25 लाख ही खर्च हुए। 2017- 18 में 34414 . 71 लाख मिले उन्हें केवल 274 842 . 74 लाख खर्च हुए। यही हाल 2018 में भी था अनुमानित आंकड़ों के मुताबिक   इस अवधि में बिहार को 34318 . 71 लाख मिले जिसमें से केवल 27504 4 दशमलव 59 लाख ही खर्च हुए। 
     अब अगर बच्चों की मौतों के कारण और इन पैसों का एक समीकरण बनाया जाए तो पता चलता है कि कितनी लापरवाही हुई है। बच्चे कुपोषण से मरे और उस कुपोषण को दूर करने के लिए जानकारी फैलाने के उद्देश्य से यह पैसे आए थे लेकिन खर्च नहीं हुए। इस लापरवाही का दंड किसे दिया जाना चाहिए यह अभी तय नहीं हुआ है।
          बिहार की बीमार पड़ी स्वास्थ्य व्यवस्था का हल केवल बेहतर अस्पताल ही हो सकते हैं और इस मामले में भी हालात बड़े खराब हैं। पटना शहर में एक एम्स है जिस से उम्मीद की जाती है की यहां बहुत बढ़िया इलाज होगा लेकिन उससे बेहतर इलाज पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल में होता है जिसकी स्थापना 1925 में हुई थी। बिहार में सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के तहत डॉक्टरों की भारी कमी है जिसके कारण राज्य को मेडिकल कॉलेज या जिला अस्पतालों पर निर्भर होना पड़ता है और वहां भारी भीड़ हो जाती है। 2015 में बिहार में एक और एम्स बनने के लिए प्रस्ताव दिया गया था लेकिन 2019 तक वहां इसके लिए जमीन ही नहीं मिल पाई। जमीन की तलाश का काम राजनीतिक जाल में फंस कर रह गया । प्राथमिक स्तर पर 6000 लोगों की और एम्स में खाली पड़े 467 पदों को लेकर टूटी हुई कमर के साथ आंगनबाड़ी व्यवस्था तथा दूसरे एम्स के लिए जमीन नहीं मिल पाने इत्यादि को देखते हुए लगता है कि बिहार स्वास्थ्य व्यवस्था इंतजार में पथरा गई है। हाल में बच्चों की मौत सरकार के लिए खतरे की घंटी है जिससे सरकार को जाग जाना चाहिए । अगर नहीं जाग सकी सरकार तो बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था जो अभी बीमार है वह कल हो सकता है वेंटिलेटर पर चली जाए। लेकिन मामला दूसरा बिहार सरकार प्रदर्शन कर रहे पीड़ितों के परिवार के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने में जुटी है।

Thursday, June 27, 2019

ये सूरत बदलनी चाहिए

ये सूरत बदलनी चाहिए

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार को लोकसभा में बिहार के चमकी बुखार पर कहा कि यह चिंता जनक है और इस पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए । उन्होंने झारखंड मॉब लिंचिंग पर भी चिंता जताई। सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में इंसेफेलाइटिस से होने वाली मौतों के आंकड़ों पर बिहार सरकार को जमकर डांटा। इसने बिहार सरकार को निर्देश दिया कि वह 10 दिनों में बिहार में स्वास्थ्य सेवा की स्थिति ,पोषण, सफाई इत्यादि पर शपथ पत्र दाखिल करे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा ,यह बुनियादी अधिकार हैं। लेकिन मीडिया या समाज का जो मनोविज्ञान है उसके अनुसार  ऐसा लगता है इन 10 दिनों में हम उन बच्चों की मौत को भूल जाएंगे।  कुछ पत्रकार बंधु  इस बात को लेकर दौड़ पड़ेंगे कि बिहार सरकार ने शपथ पत्र दाखिल किया या नहीं, और अगर किया है तो उसने राज्य  में स्वास्थ्य सेवा  के बारे में क्या कहा है।  ऐसा लगता है कि उस समय तक समाचार कई और बन जाएंगे और संभवतः मामले में दूसरे होंगे।
        याद करें पिछले हफ्ते कोलकाता में डॉक्टरों के साथ मारपीट हुई। क्या उसका कुछ निदान हुआ ? क्या ऐसा हो सकता है कि दोबारा भारत में डॉक्टरों से मारपीट ना हो? अब तो ऐसा लगता है कि कुछ हुआ ही नहीं। डॉक्टर काम पर चले गए और सोशल मीडिया में किसी दूसरे मसले पर हाय तौबा मची हुई है। इस तरह की स्थितियां और उनकी अवधि ही बहुत छोटी होती है। समाज विज्ञान की भाषा में इसे "मोरल पैनिक" कह सकते हैं।  अभी तक समाज विज्ञानी यह नहीं स्थापित कर पाए हैं कि एक दूसरे से ऐसी घटनाओं का क्या संबंध होता है और यह जन नीति को कैसे प्रभावित करती हैं। राजनीतिज्ञ और अफसर उन मसलों पर ज्यादा तेजी दिखाते हैं जो बहुत तूल  पकड़ने वाले होते हैं और उनकी तरफ से आंख मूंद लेते हैं जो मामूली असरदार होते हैं। अभी हाल की कुछ घटनाओं पर ध्यान दें। मी टू से लेकर और मॉब लिंचिंग तक क्या बदला हमारे देश में? क्या इसके बाद  ज्यादा जागरूकता फैली या इसे रोकने के लिए सरकार ने कोई नई नीति बनाई ? बहुत ज्यादा प्रसारित होने और लोगों का ध्यान आकर्षित हो जाने के बावजूद कोई बदलाव नहीं होता है या फिर बहुत ही मामूली बदलाव होता है। अमर्त्य सेन के सिद्धांत के अनुसार नीतियों से परिवर्तन बहुत धीमा होता है लेकिन जनता का ध्यान बहुत तेजी से आकर्षित होता है।
        इस तरह की कई घटनाएं अपना स्वरूप बदल-बदल कर  सामने आती हैं। अभी झारखंड में मॉब लिंचिंग की घटना तेजी से उभरी है। यहां तक कि लोकसभा में प्रधानमंत्री ने भी इस पर चिंता जताई है। जून में इस तरह की कई घटनाएं हुईं। सही संख्या किसी को मालूम नहीं है। 25 जून को आर एस पी के कोल्लम से सांसद एन के रामचंद्रन के एक सवाल के जवाब में गृह राज्य मंत्री ने बताया कि "नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ऐसा कोई आंकड़ा नहीं संग्रहीत करता है इसलिए इस बारे में सही जानकारी मुश्किल है।" क्या विडंबना है? अल्प पर संख्या का हमला और केवल शक के आधार पर जान लिया जाना यानी सजा दे देना कहां तक मुनासिब है?  इन घटनाओं के आंकड़ों के बारे में सरकारों को कुछ मालूम नहीं है, ना राज्य सरकार को न केंद्र सरकार को और ना इसके लिए तैनात नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो को? एक हुड़दंगी  भीड़ आनन-फानन में फैसला कर देती है। 26 जून को भाजपा के एक बड़े नेता के सुपुत्र ने नगर निगम के अधिकारियों को बीच सड़क पर बल्ले से मारा उनके साथ उनके समर्थकों का एक बड़ा जत्था भी था सभी खामोश थे  और  परोक्ष रूप में उनकी मदद कर रहे थे। इस तरह की अदालतें  सिर्फ सड़क पर नहीं लगतीं। सोशल मीडिया पर वायरल होती खबरें आनन-फानन में झूठ और सच का फैसला कर देती हैं।
           कुछ लोग दलील दे सकते हैं डेढ़ अरब की आबादी वाले इस देश में ऐसी इक्का-दुक्का घटनाएं होती हैं तो इसके लिए पूरे देश या पूरी सरकार पर उंगली उठाना उचित नहीं है। लेकिन ,अगर इन घटनाओं का आप अपराध वैज्ञानिक विश्लेषण करेंगे तो इनमें एक कड़ी दिखाई पड़ती है।  अगर साफ कहा जाए तो इनके प्रभाव सियासी परिणामों को प्रभावित करते हैं। 26 जून को बिहार के चमकी बुखार पर बोलते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि इस बीमारी पर राजनीति नहीं होनी चाहिए । यह बयान प्रमाणित करता है कि ऐसी घटनाओं का राजनीतिक प्रतिफल भी हुआ करता है। इन घटनाओं में एक और बड़ी खूबी है। इन पर सत्ता की प्रतिक्रिया बहुत देर से आती है और ऐसा होना एक तरह से देर से मिले इंसाफ यह तरह होता है। जैसे देर से मिला इंसाफ अन्याय है उसी तरह से इस पर सत्ता के बयान में देरी भी बेअसर है । कट्टर राष्ट्रवाद को बढ़ावा मिलना किसी भी देश के सामाजिक ताने-बाने पर आघात है।
          जिस देश ने दुनिया को धर्म और सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया आज दुनिया उसी देश को धार्मिक आजादी के लिए लेक्चर दे रही है। हाल में अमरीका की सरकार ने  भारत में धार्मिक आजादी और अल्पसंख्यकों के खिलाफ बढ़ते हमलों पर एक रिपोर्ट निकाली थी और भारत सरकार ने उसका स्पष्ट खंडन कर दिया। लेकिन ऐसा करने से कुछ बदला नहीं । अमरीकी विदेश मंत्री पॉम्पियो बुधवार को भारत आए और वह अवांतर से वही राग अलाप रहे हैं। उन्होंने कहा, " भारत चार  धर्मों की जन्मस्थली है । आइए सब की धार्मिक आजादी के लिए एक साथ उठ खड़े होते हैं।" 26 जून को झारखंड में मॉब लिंचिंग के खिलाफ देश के कई शहरों में प्रदर्शन हुए।  क्या कोई सुन रहा था फिर भी यह प्रशंसनीय प्रयास है  कम से कम लोग एक साथ बोलने के लिए उठ तो खड़े हुए हैं
      खामोशी तेरी मेरी जान लिए लेती है
      अपनी तस्वीर से बाहर तुझे आना होगा

Wednesday, June 26, 2019

"आपको अपनी ऊंचाई मुबारक"

"आपको अपनी ऊंचाई मुबारक"

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर एक लंबा धन्यवाद प्रस्ताव प्रेषित किया। धन्यवाद प्रस्ताव में कई ऐसे बिंदु थे जिसमें देश की अतीत की राजनीतिक दशा ,वर्तमान की राजनीतिक स्थिति और भविष्य की योजनाओं का रेखाचित्र परिलक्षित हो रहा था। मोदी ने कहा कि कई दशकों के बाद देश ने एक ऐसी सरकार को  चुना है जिसे पहले से ज्यादा जनादेश प्राप्त है और यह चुनाव जनता ने पूरी तरह जांच करके ,ठोक बजाकर के किया है। उन्होंने कहा हो सकता है इसके पहले वाले चुनाव में किन्ही कारणों से विजय मिल गई हो लेकिन बाद के चुनाव में जनता ने जो कुछ भी किया हुआ पूरी तरह सोच समझकर निर्णय किया और तब ईवीएम का बटन दबाया। इसके पूर्व सोमवार को "ओडिशा के मोदी" कहे जाने वाले प्रताप सारंगी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण के बाद धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस की शुरुआत की थी । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि अब तक देश में जितने भी महापुरुष हुए हैं सबने आखरी छोर पर बैठे लोगों के भले की बात कही है।  पिछले 5 वर्षों में हमारी सरकार यही  कोशिश की है और हमारा प्रयास रहा है कि जिसका कोई नहीं उसकी सरकार है।
       मोदी जी ने अपने धन्यवाद प्रस्ताव में एक बात गंभीर बात कही उन्होंने कहा कि सब अधिकार की बात करते हैं अधिकार लेने और अधिकार देने की, लेकिन हमारा प्रयास है कि हम कर्तव्य की बात करें। अधिकार तभी जायज है जब वह कर्तव्य से जुड़े हैं। यकीनन हर देशवासी का कर्तव्य होता है कि वह अपनी सार्थकता को स्पष्ट करें तथा अपने कर्तव्य का पालन करें। मोदी जी ने कहा कि पहले जनता के मन में सवाल उठता था की सरकार क्यों नहीं करती लेकिन अब सवाल उठता है कि सरकार क्यों करें, क्यों कर रही है । उन्होंने कहा कि देश में कर्तव्य का भाव जगाने की जरूरत है। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री ने महात्मा गांधी के स्वतंत्रता आंदोलन की बात को उद्धृत किया। उन्होंने कहा कि 1942 से 1947 तक सारा देश बापू की बात पर कायम था। हर काम आजादी की लड़ाई में बदल जाता था। देश का हर व्यक्ति किसी न किसी कोने से आजादी का सिपाही बना हुआ था। इसके बाद लाल बहादुर शास्त्री ने कहा कि देश की जनता एक वक्त का खाना बंद कर दे और सारा देश इस बात पर अमल करने लगा। उन्होंने बड़े हल्के तौर पर यह भी जिक्र किया मैंने देश से अपील की कि वह गैस की सब्सिडी छोड़ दे और देश ने छोड़ दिया। उनके कहने का मतलब था कि देश का हर नागरिक कर्तव्य पालन के लिए तैयार है सरकार उसको कुछ कहे तो सही। प्रधानमंत्री ने कांग्रेस पर तंज किया और कहा कि कांग्रेस कहती है कि उनकी ऊंचाई को कोई कम नहीं कर सकता। हम किसी की लकीर को छोटी करने में विश्वास नहीं करते बल्कि अपने लकीर बड़ी कर देते हैं। आपको ऊंचाई मुबारक हो। आप इतने ऊंचे चले गए हैं आप को  जमीन नहीं दिखती। जमीन वाले तुच्छ दिखते हैं। हमारा सपना जड़ों से जुड़ने का है हम ऊंचाई की स्पर्धा में कहीं नहीं हैं।
           प्रधानमंत्री ने 2004 से 14 के वक्त का जिक्र करते हुए कहा कि कभी भी कांग्रेस की सरकार ने दूसरे की तारीफ नहीं की। इसने कभी अटल बिहारी वाजपई या नरसिम्हा राव या मनमोहन सिंह की तारीफ तो नाम तक नहीं लिया। लेकिन मैंने लाल किले की प्राचीर से कहा इस देश की अब तक की सारी सरकारों ने देश को आगे ले जाने का काम किया है। प्रधानमंत्री ने कहा कि हम किसी के योगदान को नकारते नहीं है। जब हम देश की 130 करोड़ की आबादी की बात करते हैं तो इसमें सब शामिल होते हैं । प्रधानमंत्री ने फिर कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा कि कांग्रेस को कई बार अच्छे मौके मिले हैं लेकिन उसने उन मौकों को गंवा दिया। प्रधानमंत्री ने कहा कि पहली बार यूनिफॉर्म सिविल कोड का मौका मिला था लेकिन कांग्रेस ने गंवा दिया। इसके बाद फिर शाहबानो का मौका मिला था उसे भी उसने गवां दिया। शाहबानो का मामला जब चल रहा था तो कांग्रेस के एक मंत्री ने कहा था कि "मुसलमानों के उत्थान की जिम्मेदारी कांग्रेस की नहीं है अगर वह गटर में जीना चाहे तो जी सकते हैं।" जब कांग्रेस की ओर से इस पर सवाल उठाया गया कि मंत्री ने ऐसा कहा है तो मोदी जी ने हल्की मुस्कुराहट के साथ कहा की वह यूट्यूब पर इसकी कड़ी भेज देंगे। मोदी जी ने आपात स्थिति को लेकर कांग्रेस को जमकर खींचा। उन्होंने कहा" 25 जून की रात देश की आत्मा को कुचल दिया गया था। संपूर्ण देश को कैद खाना बना दिया गया था। उद्देश्य था किसने कि सत्ता बनी रहे। न्याय पालिका को चंगुल में ले लिया गया था। मोदी जी ने कहा कि हम आपातकाल को याद करते रहेंगे ताकि कोई दोबारा ऐसा ना कर सके।" 
           इसके अलावा प्रधानमंत्री ने "मेक इन इंडिया" का जिक्र करते हुए कहा कि इस का मजाक उड़ाने से देश का भला नहीं हो पाएगा। मेक इन इंडिया को आगे बढ़ाना हमारी जिम्मेदारी है। हमारा सपना नया भारत बनाने का है और इसके लिए मेक इन इंडिया जरूरी है। प्रधानमंत्री ने बाबासाहेब आंबेडकर का जिक्र करते हुए कहा कि भारत में पानी के संबंध में जितने भी कदम उठाए गए हैं या जितनी भी पहल की गई है वह सब बाबासाहेब अंबेडकर ने किए हैं । उन्होंने जल संचय पर बल देने की अपील की और कहा कि अगर जल संचय नहीं किया जाएगा तो जल संकट बढ़ता जाएगा। प्रधानमंत्री ने कहा कि सरदार सरोवर बांध सरदार पटेल का सपना था लेकिन उसके में काम में देरी होती रही और गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मुझे इस परियोजना के लिए उपवास तक करना पड़ा। आज लोगों को इसका लाभ मिल रहा है। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति ने अपने अभिभाषण में देश की प्राथमिकताओं का खाका खींचा। देश की आकांक्षा को पूरा करने के लिए हम हर चुनौती और बाधा को पार कर सकते हैं। हमने जो दिशा पकड़ी है कठिनाइयों के बावजूद उसे छोड़ा नहीं। हम अपने मकसद पर अड़े रहेंगे। इस मौके पर अपनी जिजीविषा का और अपने साहस का परिचय देते हुए प्रधानमंत्री ने एक शेर कहा:
जब हौसला कर लिया है ऊंची उड़ान का
तो कद क्या देखना है आसमान का
      अपने विशेष अंदाज में प्रधानमंत्री ने लोकसभा में जो भाषण दिया वह भाषण सचमुच आकर्षित करने वाला था ।लेकिन पूरे भाषण का केंद्र कांग्रेस थी और वह भाषण अपने आप में रचनात्मक या संदेश वाहक ना होकर आलोचनात्मक सा होता गया। प्रधानमंत्री का हर जुमला , शब्दों का संयोजन तथा उनकी बॉडी लैंग्वेज सीधा प्रहारक थी।  वह प्रहार कांग्रेस पर था। प्रधानमंत्री का लोकसभा से यह लाइव प्रसारण देश सांस थाम कर सुन रहा था । सबको आकांक्षा थी कि इस समय कुछ न कुछ बेहद महत्वपूर्ण आएगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं था वह एक राजनीतिक भाषण था जिसके निशाने पर कांग्रेस थी।

Tuesday, June 25, 2019

हम क्या थे क्या हो गए आज

हम क्या थे क्या हो गए आज

भारतीय संसद एक जमाने में अपनी शालीनता के लिए मशहूर थी आज वहां जो कुछ हो रहा है उस पर न केवल दुख होता है बल्कि हंसी भी आती है और चिंता भी होती है। अब सोमवार की ही बात है उड़ीसा के मोदी कहे जाने वाले प्रताप चंद्र सारंगी ने अपने  धन्यवाद प्रस्ताव में मोदी की तुलना स्वामी विवेकानंद से कर दी।  इस पर कांग्रेस के लोकसभा में नेता अधीर रंजन चौधरी को इतना गुस्सा आया कि उन्होंने कहा "कहां गंगा मां कहां गंदी नाली" दोनों की तुलना ठीक नहीं है। इसके बाद उन्होंने कहा कि हमारा मुंह मत खुलवाओ। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने स्पष्ट रूप में कहा कि बयान का विवादित हिस्सा कार्रवाई से निकाल दिया जाएगा। यद्यपि अधीर रंजन चौधरी ने बाहर निकल कर कहा कि वे खुले आसमान के नीचे माफी मांगते हैं ।प्रधानमंत्री को ठेस पहुंचाने के लिए यह नहीं कहा था। साथ ही उन्होंने राजग को ऊंची दुकान फीके पकवान कहा। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार को अपनी प्रशंसा सुनने का नशा है।
          इतना ही नहीं संसद में जिस दिन से शपथ ग्रहण हुआ उसी दिन से ऐसी - ऐसी घटनाएं घट रही हैं जो अब तक नहीं हुई। भारत का संविधान इस देश को एक धर्मनिरपेक्ष देश घोषित करता है ,लेकिन उसी संविधान की शपथ लेते हुए हमारे माननीय सांसदों ने धार्मिक नारे लगाए । लोकतंत्र के सबसे पवित्र मंदिर में "जय श्री राम और अल्लाह हू अकबर " नारे गूंज रहे हैं । देश के बड़े हिस्से में सूखा पड़ा है। गर्मी जिंदगियों को  लील रही है। बिहार में बच्चे रहस्यमय बुखार से मर रहे हैं और जनतंत्र में जन की पीड़ा और उनकी चित्कार धर्म के नारों में डूब रही है।  महत्वपूर्ण बहस का समय धार्मिक बिंबों से आज के आदमी की तुलना में बर्बाद हो रहा है। यही नहीं हर महत्वपूर्ण मौके पर विपक्ष की आवाज को दबाने या उसे व्यर्थ साबित करने में गवाया जा रहा है। यद्यपि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष की न्यून संख्या हो देखते हुए बेहद उदारता का परिचय दिया है। उन्होंने कहा, लोकसभा में संख्या नहीं देखी जाएगी बल्कि सब के विचार सुने जाएंगे। सभी दलों को और सभी सदस्यों को बराबर महत्व दिया जाएगा। मोदी जी ने कई ऐसे कार्य किये जिससे यह महसूस हो रहा है कि विपक्ष को महत्त्व दिया जा रहा है। लेकिन, विपक्ष का क्या हाल है? विपक्ष का संख्या बल तो कम है ही लेकिन उसमें नेतृत्व के गुणों और जोश के साथ  संघर्ष करने इच्छा भी नहीं है। वह इच्छा गायब है । अब इसे क्या कहेंगे कि इसी संसद में भाजपा ने 2 सीटें पाकर भी सरकार को अपनी उपस्थिति एहसास करा दिया था, लेकिन इस बार एक अजीब दृश्य देखने को मिला। कांग्रेस के नेता राहुल गांधी राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के अभिभाषण के दौरान अपने फोन से उलझे रहे।  उनकी उदासीनता को देखते हुए ऐसा लगता है कि कांग्रेस दुविधा की स्थिति में है। पिछले साल कांग्रेस की हालत खराब  नहीं थी।  तीन महत्वपूर्ण राज्यों में उसकी सरकार थी और उम्मीद थी इस बार बड़ा प्रदर्शन कर पाएगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं । रणनीतिक गठबंधन के नाकाम होने उसे देख कर राष्ट्रीय विमर्श में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में विफल रहने तक कई मौके कांग्रेस ने गंवा दिए । 
            लोकतंत्र का प्रभाव बना रहे हो इसके लिए एक विपक्ष की जरूरत है । लेकिन चुनाव में पीछे छूट जाने के बाद संसद में असंतुलन स्पष्ट दिख रहा है और उस असंतुलन के कारण जबान बेलगाम होती जा रही है । ऐसी ऐसी बातें सुनने में आ रहे हैं जिसकी उम्मीद नहीं थी। विचारधारा का  अभाव दोनों तरफ दिख रहा है। ऐसा होगा यह बहुत पहले ही एहसास हो गया था। क्योंकि चुनाव के ठीक पहले कई नेताओं ने भाजपा का दामन थाम लिया इसका साफ मतलब है आज के भारत में वैचारिक हनुमान कूद कोई समस्या नहीं है । कम्युनिस्ट पार्टियां अब इतिहास में समा जाने को तैयार हैं लेकिन किसी भी अन्य पार्टी का भाजपा के प्रति विचारधारा पर आधारित रुख नहीं दिखाई पड़ रहा है। ऐसा लगता है की विपक्ष को लेकर चलने और उनकी पीठ थपथपाते रहने की जिम्मेदारी भाजपा पर ही है और उसमें भी खास तौर पर प्रधानमंत्री के ऊपर । बेशक भाजपा का यह विचार हो सकता है कि वह बिना मजबूत प्रतिबद्धता वाले नेताओं को अपनी और आकर्षित करे। लेकिन इससे लोकतंत्र को कोई लाभ नहीं मिलेगा।
         कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि संसद में आज जो कुछ भी हो रहा है वह आमजन के बीच प्रशंसनीय नहीं होगा। बेशक अपनी -अपनी पार्टी के आधार पर लोग एक दूसरे की खिल्ली उड़ा रहे हैं लेकिन इससे समाज में  सौहार्दता का अभाव बढ़ता जाएगा और एक दिन ऐसा आएगा कि हम सब कुछ अपनी विचारधारा से मिलती-जुलती राजनीतिक पार्टी के नजरिए से देखने और आकलन करने लगेंगे। यह  विविधता पूर्ण राष्ट्र के लिए खतरनाक मोड़ हो सकता है। यहां के बाद अलगाववाद के नारे सुनने को मिल सकते हैं । खास करके ऐसी सामाजिक स्थिति में जब गरीबी, कुपोषण , बीमारी के साथ साथ एनआरसी और मोब लिंचिंग की बढ़ती घटनाओं पर विचार करें तो  हालत बहुत खराब नजर आएगी। तब भी हमें एक अच्छे समाज की गठन की उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए और लगातार रचनात्मक प्रयास करना चाहिए।
हम कौन थे क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी आओ विचारे आज मिलकर यह समस्याएं सभी

Monday, June 24, 2019

युद्ध का परिणाम अंतिम ध्वंस है

युद्ध का परिणाम अंतिम ध्वंस है

अरबी प्रायद्वीप में युद्ध के बादल उमड़ रहे हैं और ऐसा लगता है कि अब युद्ध भड़का। लेकिन अभी तक ऐसा कुछ हुआ नहीं है। हालांकि अमरीका लगातार इरान को हड़का रहा है। रविवार को डोनाल्ड ट्रंप ने तो यहां तक कह दिया है कि अगर युद्ध हुआ तो हम इरान को बर्बाद कर देंगे। दो दिन पहले डोनाल्ड ट्रंप ने खुद ट्वीट करके कहा था कि हमारी फौज ने बंदूकें तैयार कर रखी हैं और हमने तीन तरफ से ईरान को घेर लिया है  जैसे ही मार्चिंग आर्डर मिलेगा गोलियां चलने लगेंगी तथा वास्तविक युद्ध आरंभ हो  इसके पहले महज 10 मिनट में लगभग डेढ़ सौ लोग मारे जाएंगे। लेकिन उन्होंने फौज को रोक लिया है। स्थिति इतनी तनावपूर्ण हो गई है कि लगता है कि फिर डेढ़ दशक पहले इराक का युद्ध पुनः दोहराया ना जाए। इराक का युद्ध गलत सूचनाओं के आधार पर भड़का था । अभी एक ही सवाल चारों तरफ से पूछा जा रहा है कि क्या सचमुच जंग होगी? लेकिन निश्चित रूप से कुछ भी कह पाना फिलहाल कठिन है। अमरीका इराक भर आरोप लगा रहा है उसने 13 जून को  ओमान की खाड़ी में दो अमरीकी तेल टैंकरों पर हमला किया । जबकि तेहरान इससे इंकार कर रहा है। इसके बाद गुरुवार को ईरान ने एक अमरीकी ड्रोन को मार गिराया। इरान का दावा था कि वह ड्रोन ईरानी वायु सीमा में उड़ रहा था जबकि अमरीका का कहना है कि वह ड्रोन अंतरराष्ट्रीय समुद्री क्षेत्र में गश्त लगा रहा था। दोनों तरफ से आ रहे बयानों से स्थिति तनावपूर्ण हो गई है । यद्यपि निकट भविष्य में युद्ध के लक्षण नहीं दिखाई पड़ रहा है लेकिन हालात बेहद तनावपूर्ण है और कभी भी विस्फोट हो सकता है।
          भू राजनीतिक नजरिए से देखें तो पहला सवाल उठता है कि युद्ध कौन चाहता है या चाह रहा है। अमरीकी राजनीतिक बिरादरी का शायद बहुत बड़ा हिस्सा खास करके ट्रंप की पार्टी रिपब्लिकन के बहुत से लोग तथा संपूर्ण अमरीकी राष्ट्रीय सुरक्षा टीम युद्ध की इच्छुक है । हालांकि, राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन और उनके सचिव  माइक पॉम्पियो का मानना है कि ईरान में सत्ता परिवर्तन जरूरी है और किसी भी तरह से वर्तमान सत्ता को हटाकर अपने पसंदीदा व्यक्ति को वहां का सत्ताधारी बनाया जाना चाहिए ।   2003 में जब इराक से युद्ध हुआ था जॉन बोल्टन ने ही महा विनाश के हथियारों की झूठी खबर फैलाई थी। जबकि इराक के सर्वनाश होने के बाद वैसे हथियार कहीं मिले नहीं । अमरीकी सत्ता तंत्र में कुछ ऐसे भी लोग हैं जो ईरान का कद छोटा करने और अरबी प्रायद्वीप में अपना वर्चस्व बढ़ाने की गरज से यह युद्ध चाह रहे हैं।
             अमरीका और उसके आसपास या उसके साथ के कुछ मुल्क नहीं चाहते यह जंग हो।  2003 में जब अमरीका इराक पर हमले की तैयारी कर रहा था तो दुनिया भर में फैले अमरीकी राजनयिकों ने 40 देशों को अपने साथ तैयार किया था। लेकिन युद्ध का जो परिणाम हुआ उसे देखते हुए अब शायद ही कोई देश अमरीका के साथ खड़े होने इच्छा प्रदर्शित करें। ट्रंप खुद नहीं चाहते की युद्ध हो। वह स्वयं अपने  चुनाव अभियान में इराक युद्ध के विनाश का प्रचार कर कर रहे हैं। वे यहां तक कहते सुने गए हैं कि किसी को भी दुनिया का पुलिसमैन नहीं बनना चाहिए। उनके सलाहकारों का कहना है यद्यपि वे युद्ध नहीं चाहते लेकिन अहम की लड़ाई के मामले में वे बहुत संवेदनशील हैं।
जो आप तो लड़ता नहीं,
कटवा किशोरों को मगर,
आश्वस्त होकर सोचता,
शोणित बहा,  लेकिन, गई बच 
लाज सारे देश की।
     अगर युद्ध होता है तो इसे बहुत कुछ हासिल नहीं होगा ,केवल लाशों और घायलों की लंबी फेहरिस्त के अलावा। इसलिए ऐसा नहीं लगता कि अमरीका सचमुच जंग चाहता है। बोल्टन और पॉम्पियो ईरान में सत्ता परिवर्तन के तरफदार हैं लेकिन ईरान राजनीतिक  और  सैनिक दृष्टि से इराक के मुकाबले बहुत ताकतवर मुल्क है ।  ऐसी स्थिति में यदि युद्ध होता है तो कितने लोग मारे जाएंगे इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है । इसके अलावा ईरान की ज्यादातर आबादी वर्तमान सत्ता की समर्थक है और जो भी नई सत्ता वहां स्थापित होगी उसे आमजन का समर्थन आवश्यक है । लोग अमरिकी कठपुतली बर्दाश्त नहीं करेंगे । अमरीका पर उलट पर हमला करने हैं क्षमता ईरान में है। इस तरह के युद्धों के बाद भी नई स्थिति पैदा होती है । इस्लामिक स्टेट इसका जीता जागता उदाहरण है।
सबके मूल में रहता हलाहल है वही
फैलता है जो घृणा से स्वार्थ में विद्वेष से
           
अब यहां प्रश्न उठता है भारत के लिए इस युद्ध का क्या अर्थ है ? खास करके भारत में आने वाले तेल के परिप्रेक्ष्य में । भारत का इरान से सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंध है और एक जमाने में भारत ईरान के तेल का सबसे बड़ा खरीदार था। लेकिन, अमरीकी प्रतिबंध के बाद यह कम हो R । भाRरत ने अब दूसरी जगह से तेल खरीदना शुरू कर दिया है लेकिन आगे चलकर यदि युद्ध होता है तो वह भारत के तेल की आपूर्ति को प्रभावित करेगा। क्योंकि और वह स्थिति उस समय खतरनाक बनी रहेगी। भारत इसी खाड़ी के रास्ते अधिकांश तेल का आयात करता है । यही नहीं भारतीय नागरिकों पर भी इसका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ेगा। अरबी प्रायद्वीप में लगभग 70 लाख भारतीय रहते हैं। अमरिका का कुवैत ,कतर बहरीन, संयुक्त अरब अमीरात और ओमान में सैनिक अड्डा है और इन देशों में सबसे ज्यादा भारतीय नागरिक रहते हैं अगर युद्ध होता है तो पलट कर वार करने ईरान की क्षमता बहुत ज्यादा है और इससे संपूर्ण प्रायद्वीप पर भयानक प्रभाव पड़ेगा।
युद्ध का उन्माद संक्रमशील है
एक चिंगारी कहीं जागी अगर
उपभोक्ता  पवन उनचास हैं
तोड़ के हंसती उबलती आग चारों ओर से

Sunday, June 23, 2019

जिस देश का बचपन भूखा हो 

जिस देश का बचपन भूखा हो 

मुजफ्फरपुर के अस्पताल में अगर बीमार बच्चों को ध्यान से देखें तो डर लगने लगा है और जब तक यह एहसास होगा कि हमारे देश के अस्पतालों में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा है ही नहीं तब तक न जाने कितने अस्पतालों में कितने बच्चे मर चुके होंगे। इस बीच संसद में जय श्रीराम के नारे से लेकर कर बंगाल में हिंसा की कई घटनाएं हुई लेकिन इंसानी सोच को झकझोर देने वाली इस घटना की बराबरी नहीं हो सकती । भारतीय बच्चों की जिंदगी कितनी सस्ती हो गई है यह इन्हीं आंकड़ों से पता चलता है कि हर मिनट 21 बच्चे मामूली रोगों से मर जाते हैं। ऐसे रोगों से जिनसे बचा जा सकता है। जन्म लेने वाले प्रति 1000 बच्चों में 61 बच्चे 5 बरस की उम्र तक नहीं जी पा रहे हैं।  मुजफ्फरपुर में सौ- डेढ़ सौ बच्चों की मौत क्या कीमत रखती है हमारे देश में। हालांकि ये आंकड़े भयभीत करने वाले हैं। 2 साल पहले इन्हीं गर्मियों में इसी बीमारी से गोरखपुर में 63 बच्चे केवल इसलिए काल के गाल में समा गए कि जिन अस्पतालों में उनका इलाज चल रहा था उनमें ऑक्सीजन नहीं था। भारत बदल रहा है अब से 3 साल पहले जो कुछ भी होता था वह अब नहीं हो रहा है। भारत में कई बेहतरीन प्राइवेट अस्पताल हैं जो दुनिया के किसी भी अस्पताल की बराबरी करते हैं।  इसी के साथ-साथ हमारे देश में कई बेहद खस्ताहाल सरकारी अस्पताल भी हैं यह कितना दर्दनाक है। क्यों नहीं हमारे सरकारी अफसरों और राजनीतिज्ञों को सरकारी अस्पतालों की दुरावस्था के कारण दंडित किया जाता है? केवल इसलिए न कि ये बड़े लोग इन सरकारी अस्पतालों में उपचार नहीं कराते। अतः प्रधान मंत्री को यह अनिवार्य कर देना चाहिए कि  सभी सरकारी अफसरों और राजनीतिज्ञ चाहे वे निर्वाचित हो अथवा और निर्वाचित अपना और अपने परिवार का इलाज सरकारी अस्पतालों में ही कराएं । जब वह देखेंगे उनके बीमार बच्चे भीड़ भरे अस्पतालों में एक ही बेड पर चार चार बीमार बच्चों के साथ पड़े हैं और भयानक गंदगी में उनकी बेटियां या बीवियां  गंदे फर्श पर  बैठी  डॉक्टरों का इंतजार कर रही हैं तो  हालात खुद ब खुद बदल जाएंगे। हो सकता है कि बिहार में सुधार सबसे आखिर में आए। क्योंकि बिहार में अक्सर राजनेताओं का हुकुम चलता है और उन राजनेताओं में इंसानियत का भारी अभाव हुआ करता है।  चूंकि बिहार के अधिकांश लोग गरीबी से जूझ रहे हैं अतः वे इन घटनाओं को भूल जाते हैं। हममें से बहुतों को याद होगा अब से पांच-छह बरस पहले बिहार के ही एक गांव में 23 बच्चे स्कूल में  दोपहर का विषैला भोजन खाकर मर गए थे। यह घटना सुशासन बाबू के राज में हुई और लोग इसे इस कदर भूल गए के 2015 में वे फिर बहुमत से सत्ता में आ गए।
      मुजफ्फरपुर की घटना भी भूल सकते हैं बिहार के लोग। लेकिन शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं बदलेंगे। अगर नरेंद्र मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल में स्वास्थ्य सेवा को उतना ही महत्व दिया जितना उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में स्वच्छ भारत अभियान को दिया था तो उम्मीद है कि भारत के बच्चे ऐसी बीमारियों से नहीं मरेंगे जिन्हें रोका जा सकता है। यह कहा जाना की स्वास्थ्य राज्य  का विषय है बेकार की बात है। आज मोदी जी के साथ देश के  अधिकांश राज्य हैं, खासकर के बड़े राज्य। अतः  जब वे प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा में बुनियादी बदलाव के आदेश देंगे तो उन पर अमल होगा ही। वे स्वच्छ भारत के अर्थ को स्वच्छता के दायरे से निकाल कर व्यापक भी बना सकते हैं। बिहार में जो बच्चे मरे वे कुपोषण और अशिक्षा के कारण उत्पन्न स्थितियों से मरे।  कई विशेषज्ञों का कहना है कि यह बीमारी मच्छरों के काटने से भी फैली। यह सभी जानते हैं कि मच्छर जमा हुए गंदे पानी में ही अंडे देते हैं। अगर  स्वच्छता हो तो देश के अधिकांश बच्चे 5 वर्ष की उम्र पूरी करने के बाद भी हंसते खेलते रहेंगे।  सुधार और भी हैं जिसे तुरंत लागू किया जाना चाहिए। खास करके मेडिकल कॉलेजों के खोले जाने में लाइसेंस राज को तुरंत खत्म किया जाना चाहिए। देश में डॉक्टरों की भयानक कमी है और यह कम इसलिए है कि हमारे यहां मेडिकल कॉलेज कम हैं। जो प्राइवेट मेडिकल कॉलेज खुले हैं उनमें लूट मची हुई है । 90 - 90 लाख रुपए तक डोनेशन देने के बाद नामांकन  कराया जाता  है और यह सहज सोचा जा सकता है कि जो लोग इतना रुपया खर्च कर डॉक्टरी के पेशे में जाएंगे वह उपचार नहीं व्यापार करेंगे। देश में मेडिकल की पढ़ाई को विस्तार देना जरूरी है।
           केवल यही हो तो कोई बात नहीं इसके अलावा भी बहुत कुछ हो रहा है हमारे देश में। जैसे लाखों लोग केवल पानी की तलाश में अपना घर बार छोड़कर दूसरी जगह जाकर बस रहे हैं और हमारी सरकार, हमारी मीडिया राम ,अल्लाह ,हिंदुस्तान ,इंकलाब, ममता जैसे मामलों में उलझी हुई है । सरकारी आंकड़े कहते हैं कि 2030 तक भारत की एक चौथाई आबादी के पास पीने का पानी नहीं रहेगा और अगले साल तक देश के 21 शहर जल विहीन हो जाएंगे । प्रधानमंत्री ने कहा है कि वे अगले 5 साल में सब जगह जल पहुंचाएंगे लेकिन कोई उनसे यह नहीं पूछ रहा है कि यह पानी आएगा कहां से, नदी या तालाब से।यह सब तो सूख रहे हैं या प्रदूषण से भरे जा रहे हैं । लेकिन इस ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। हम योग दिवस में या तीन तलाक के मामले में उलझे अपनी-अपनी डफली बजा रहे हैं। निपा वायरस ,कुपोषण और  इंसेफेलाइटिस जैसे मसायल हमारी प्राथमिकता सूची में नहीं हैं। सरकार थोड़ी सी रकम बैंक खाते में डाल देती है और यह बताती है कि हमने आर्थिक मदद दी। लेकिन आर्थिक मदद पाने वाली और गरीब लोग उन रुपयों का उपयोग कैसे करेंगे? जबकि प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा की उपलब्धता है ही नहीं ।पीने का पानी दूर-दूर तक मयस्सर नहीं है।
   कहां तो तय था चरागां हर घर के लिए 
यहां रोशनी मयस्सर नहीं है शहर भर के लिए
   
   सरकार को इन सब काल्पनिक निदानों को छोड़कर कुछ ठोस करना चाहिए जिससे कम से कम हमारे देश के बच्चों का जीवन बच सके बच्चे ही इस देश के भविष्य हैं।
      
मिलती नहीं कमीज पांवों से पेट ढक लेंगे    कितने मुनासिब हैं ये लोग इस सफर के लिए

Friday, June 21, 2019

जीवन के लिए क्लाइमेट एक्शन जरूरी

जीवन के लिए क्लाइमेट एक्शन जरूरी

गुरुवार को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस सम्पन्न हुआ। उसका थीम था "क्लाइमेट एक्शन" यानी पर्यावरण के प्रति सचेतनता और उसे सुधारने का प्रयास। नरेंद्र मोदी की सरकार के पहले दौर में एक जुमला बहुत तेजी से फैला था  स्मार्ट सिटी का। यहां बहस इस बात पर नहीं है कि स्मार्ट सिटी हो या ना हो या कितनी बनी या  सरकार की यह परियोजना कितनी दूर तक सफल हुई । विचारणीय तथ्य है कि मौसम और पर्यावरण के संदर्भ में शहरों और जीवन की परिकल्पना क्या हो? अभी खबर पुरानी नहीं हुई है मुजफ्फरपुर के चमकी बुखार की। जिसके बारे में विशेषज्ञों का कहना है कि गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा और लू यानी ताप लहर के मिले-जुले प्रभाव से यह बीमारी हुई। इस बीमारी से मरने वाले बच्चों की खबर ने पूरे राष्ट्र को झकझोर दिया। किसी ने कहा  कि बारिश आते ही  यह सब ठीक हो जाएगा , लेकिन शायद  ऐसा नहीं होगा। मौसम के बीतने के बाद भी शहरों और गांवों में जीवन पर मौसम का प्रभाव कायम रहेगा। "साइंस ऑफ द टोटल एनवायरमेंट" नामक पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक कम आय वर्ग जिन लोगों पर मौसम का प्रभाव ज्यादा पड़ता है। कम आय वर्ग के लोगों की रिहाईशों की बनावट ऐसी होती है कि वह गर्मियों में भी ताप लहर और उच्च तापमान को झेलते हैं।  गर्मियों के बाद जैसे ही मॉनसून आरंभ होता है उमस भरी गर्मी का प्रभाव जारी रहता है। गर्मी केवल उच्च तापमान नहीं है बल्कि उसके साथ अन्य गुणक भी जुड़े होते हैं, जैसे, आद्रता, हवा का प्रवाह, सूरज से प्रत्यक्ष या परोक्ष विकिरण इत्यादि।इन सबको यदि समन्वित रूप से देखा जाए तब पता चलता है कि गर्मी का एक व्यक्ति पर क्या प्रभाव पड़ता है। खासकर वह जो कुपोषित हो और उसके पास खुद को बचाने के लिए पर्याप्त व्यवस्था न हो। गांव  के मुकाबले शहरों में ज्यादा गर्मी पड़ती है। शहरों की घनी बस्तियों में जहां अधिकांशत Rकम आय वर्ग के  लोग निवास करते हैं वे न केवल गर्मी को झेलते हैं  बल्कि आद्रता और सूरज से प्रत्यक्ष विकिरण के प्रभाव में भी रहते हैं । मुजफ्फरपुर का उदाहरण सबके सामने है। यह बच्चे लिचीयां तोड़कर टोकरियों में भरते हैं  वह  इस क्रम में दिन भर धूप में रहते हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने वहां तत्काल आपात  व्यवस्था के तहत कई कार्य करने के निर्देश दिए हैं । लेकिन यह स्थिति आपात नहीं है बल्कि यह स्थाई जोखिम है जिसे योजनाबद्ध ढंग से खत्म करना होगा।
         मौसम विभाग के अनुसार यदि किसी क्षेत्र में तापमान कम से कम 40 डिग्री सेल्सियस पहुंच जाता है तो ताप लहर की घोषणा कर दी जाती है। तटीय क्षेत्रों के लिए यह सीमा 37 डिग्री और पर्वतीय क्षेत्रों के लिए यह 30 डिग्री सेल्सियस है। मौसम विभाग के अनुसार विगत 15 वर्षों में पर्यावरण परिवर्तन और शहरीकरण के कारण बहुत तेजी से तापमान बढ़ रहा है  तथा शहर इससे बहुत बुरी तरह से प्रभावित हो रहे हैं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने तापमान एक्शन प्लान तैयार किया है जिसमें कहा गया है कि अगर किसी क्षेत्र का तापमान 2 दिनों तक लगातार 45 डिग्री बना रहा तो वहां ताप लहर की स्थिति आ जाती है। इस वर्ष राजस्थान के चूरू में 3 दिनों तक 51 डिग्री सेल्सियस तापमान रहा। इसके अलावा गुजरात , हरियाणा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और उड़ीसा में भी ताप लहर की स्थिति उत्पन्न हुई। बिहार में बच्चों की मौत तो खैर एक उदाहरण है। सरकार के अधिकारियों का कहना है की मौजूदा घटना देश में ताप लहर के सबसे खराब उदाहरणों में से एक है। देश की लगभग दो तिहाई आबादी को इस वर्ष औसतन 40 डिग्री सेल्सियस तापमान को कई दिनों तक झेलना पड़ा।
       नासा और नेशनल ओसेनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के अनुसार 2018 में पृथ्वी का वैश्विक तापमान 1880  के बाद  सबसे ज्यादा रहा और कहा जा सकता है की आधुनिक रिकॉर्ड में यह सबसे गर्म वर्ष था। पृथ्वी के तापमान में 2 डिग्री वृद्धि भी घातक हो सकती है भारत में तो यह इस वर्ष 2 डिग्री के मानक से ऊपर चली गई थी। अत्यधिक तापमान घातक हो सकता है और उसका शरीर पर बहुत गंभीर प्रभाव पड़ता है। आंकड़े बताते हैं इन 1992 से 2015 के बीच भारत में ताप लहर से 22,562 लोगों की मृत्यु हुई। ऐसे में विशेषज्ञों ने  " हीट वेव एक्शन प्लान" तैयार करने का सुझाव दिया है। इस मामले में अहमदाबाद प्रथम दक्षिण एशियाई शहर है जहां 2013 में इस तरह की योजना बनाई गई । विशेषज्ञ क्लाइमेट स्मार्ट सिटी बनाने का सुझाव दे रहे जहां तापमान बढ़ने असर को कम किया जा सकता है।  जब तक इस तरह की योजनाओं पर अमल नहीं किया जाता है या तापमान के प्रभाव को कम करने के लिए समन्वित रूप से प्रयास नहीं किया जाता है तब तक कुछ भी कारगर नहीं होगा। लोग इसी तरह मरते रहेंगे या फिर गर्मी के प्रभाव से बीमार होते रहेंगे। यदि दो-तिहाई आबादी गर्मी के प्रभाव से झेलती है तो यह आबादी साल के गर्मियों के दिनों में अपनी कार्यक्षमता भी खो देगी या उसकी कार्यक्षमता कम हो जाएगी। जिसका प्रभाव देश के विकास पर पड़ेगा। कुछ विशेषज्ञ कहते हैं जो कुछ भी हो रहा है वह विकास का दंड है। लेकिन आशाजनक तथ्य यह है कि इस स्थिति ने चुनौतियों का एक नया द्वार तो खोला है और मानवीय जिजीविषा चुनौती को स्वीकार करेगी ऐसी उम्मीद है।

Thursday, June 20, 2019

एक राष्ट्र एक चुनाव

एक राष्ट्र एक चुनाव

प्रधानमंत्री मोदी ने बुधवार को "एक राष्ट्र एक चुनाव" मसले पर विचार के लिए सभी दलों के प्रमुखों की बैठक  बुलायी थी।  इस बैठक में 19 दलों ने हिस्सा नहीं लिया। जिनमें प्रमुख थे कांग्रेस, तृणमूल, बसपा, सपा, द्रमुक इत्यादि। प्रधानमंत्री ने इस बैठक  का उद्देश्य बताया कि संसद के दोनों सदनों में ज्यादा से ज्यादा कामकाज होने, आजादी के 75 वर्ष में नए भारत के निर्माण, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 25 वीं जयंती  से संबंधित समारोह, तथा आकांक्षी जिलों के विकास के मसले पर विचार के लिए इस बैठक को बुलाया गया है।  अब "एकदेश एक चुनाव" प्रस्ताव पर विस्तृत अध्ययन के लिए प्रधानमंत्री एक समिति गठित करेंगे जो निर्धारित समय सीमा में अपनी रिपोर्ट देगी और उसके आधार पर कदम आगे उठाए जाएंगे। प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता में हुई इस बैठक में कई राजनीतिक दलों के प्रमुखों ने हिस्सा लिया। बैठक के बाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने बताया कि ज्यादातर दलों ने देश में सभी चुनाव एक साथ कराने के मसले का समर्थन किया। केवल सीपीएम तथा सीपीआई ने सवाल उठाया कि यह कैसे होगा और इसका तरीका क्या होगा? राजनाथ सिंह ने बताया कि यह मिली जुली समिति होगी।
मोदी जी ने जो प्रयास किया है वह पहली बार नहीं किया जा रहा है। पहला आम चुनाव जो 1951 में हुआ था उस समय भारतीयों ने केंद्र और राज्य सरकारों के लिए वोट दिया था। यह व्यवस्था 1967 तक चली। इसके बाद थोड़ी गड़बड़ी हो गई। क्योंकि कई राज्यों में विधानसभाएं समय से पहले भंग कर दी गईं और उससे दोनों चुनाव गड़बड़ हो गये।  वह अब तक चलता रहा है। 1999 में केंद्र  सरकार के विधि आयोग ने एक साथ चुनाव कराने की सलाह दी थी। लेकिन इसमें एक मुश्किल दिखती है । हमारा लोकतंत्र या हमारा शासन तंत्र वेस्टमिंस्टर प्रणाली का है इसमें विधायिका या कह  सकते हैं विधानसभा और लोकसभा  का कोई निश्चित  जीवन काल नहीं है। वैसे यह व्यवस्था 5 वर्षों के लिए होती है लेकिन बीच में भी भंग हो सकती है और नए चुनाव कराए जा सकते हैं या सरकार किसी कारणवश गिर जाती है तब भी नई सरकार बन सकती है । अब यदि एक साथ चुनाव कराए जाएंगे तो बहुत बड़ा बदलाव लाना पड़ेगा भारतीय शासनतंत्र  के गठन में। 2018 में केंद्रीय विधि आयोग ने प्रस्ताव दिया था की रचनात्मक अविश्वास मत हासिल किया जाए। ऐसे में किसी सरकार को विधानसभा या लोकसभा के सदस्य अविश्वास मत से गिरा सकते हैं और जिसमें विश्वास हो उसे सरकार के तौर पर उसके स्थान पर शपथ दिलाई जा सकती है। दूसरा प्रस्ताव था कि लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभाओं के चुनाव कराने के लिए उनकी अवधि एक बार कम कर दी जा सकती है। लेकिन इस प्रस्ताव को लागू करने के लिए संविधान में संशोधन करना होगा। 
इंग्लैंड में  इसका एक विकल्प लागू किया गया था जिसमें संसदीय अधिनियम 2011 के मुताबिक प्रधानमंत्री  के उस अधिकार में कटौती कर दी गई  जिसके तहत वह  आकस्मिक चुनाव की घोषणा कर सकते थे। इससे कम से कम यह  हो गया कि संसद अपना कार्यकाल पूरा करेगी। लेकिन कई विशेषज्ञों ने इस पर टिप्पणी की एक।  इकोनॉमिस्ट पत्रिका ने कहा कि अभी जो संवैधानिक संकट है वह इसी के कारण है।
        लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के इस प्रस्ताव को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल के पहले दौर में भी प्रस्तुत किया था। उस समय इसे मामूली समर्थन मिला था। अब जबकि भाजपा को बहुत बड़ा जनादेश मिला है तो  स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री इस प्रस्ताव पर जोर देंगे। यहां सबसे जरूरी है यह समझना इस योजना का भारत के लिए क्या अर्थ है और क्यों कुछ दल  इसका विरोध कर रहे हैं? मुख्य तौर पर  यह क्षमता का सवाल है। चुनाव आयोग  हर चुनाव के समय आदर्श आचार संहिता जारी करता है। इसमें पार्टियों तथा उम्मीदवारों के लिए निर्देश रहते हैं कि उन्हें क्या करना है और क्या नहीं करना है। सत्तारूढ़ दल इसका लाभ न हासिल कर लें इसलिए आचार संहिता में नई  योजनाओं और नई नीतियों की घोषणा वर्जित है। एक साथ चुनाव नहीं कराने में आदर्श आचार संहिता के कारण विकास के समय की बर्बादी होती है । जो एक साथ चुनाव के कारण  कम हो जाएगी। एक साथ चुनाव   कराने  के मसले पर गठित एक संसदीय स्थाई समिति द्वारा 2015 में संसद में प्रस्तुत रिपोर्ट के मुताबिक जिन राज्यों में चुनाव होते हैं उन राज्यों में केंद्र और राज्य सरकारों  की सभी विकास कार्यक्रम और गतिविधियां रुक जाती हैं । इससे सामान्य प्रशासन भी प्रभावित होता है । बार बार चुनाव और बार-बार इस तरह की समय की बर्बादी विकास को भी प्रभावित करती है। नीति आयोग की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि एक साथ चुनाव कराने से खर्च कम हो जाएंगे । सरकार के नजरिए से कर देखें तो एक साथ चुनाव कराने से करदाताओं के पैसे बचेंगे। बार बार चुनाव यानी  लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव के कारण सरकारें दूरगामी योजना नहीं बना सकतीं। एक साथ चुनाव से  यह स्थिति नहीं आएगी।
  लेकिन जब यह इतना आदर्श है और इससे इतने फायदे हैं तो इसका विरोध क्यों कर रहे हैं? यह कोई नई बात नहीं है । इसके पीछे  मनोविज्ञान यह है  कि दोनों चुनाव एक साथ कराने से उन पार्टियों को ज्यादा लाभ हो सकता है जिनका कई राज्यों में प्रभाव है। आईडीएफसी इंस्टीट्यूट एक अध्ययन के मुताबिक अगर एक साथ चुनाव कराए गए  तो भारतीय मतदाता  राज्य और केंद्र सरकार में एक ही पार्टी को वोट डालेंगे। यह एक ऐसी व्यवस्था होगी जो मतदाताओं के आचरण को प्रभावित करेगी। एक अध्ययन में 31 ऐसे मामलों का अध्ययन किया गया जिसमें राज्य और  केंद्र सरकार के लिए एक साथ चुनाव कराए गए।  उसमें 24 मामलों में पाया गया कि बड़े राजनीतिक दलों को मतदान का प्रतिशत लोकसभा और विधानसभा के लिए समान  प्राप्त हुआ। केवल 7 मामलों में मतदाताओं के चुनाव अलग-अलग थे।   इसलिए इसके आलोचक इसका विरोध कर रहे हैं ।  उनका यह भी  मानना है कि यह भारतीय फेडरल व्यवस्था को हानि पहुंचा सकता है। दूसरी बात  है कि चुनाव  सरकार पर एक तरह से नियंत्रण का काम करते हैं। उदाहरण के लिए, आपातकाल के दौरान न्यायपालिका और प्रेस दोनों ने केंद्र सरकार के सामने हथियार डाल दिए थे केवल चुनाव ने ही इंदिरा गांधी को  1977 में सत्ता छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया था।   यह एक ऐसी व्यवस्था है जो प्रभावशाली नियंत्रण का काम करती है। परंतु सरकार का यह तर्क भी बिल्कुल जायज है कि कम चुनाव से विकास को ज्यादा गति मिलेगी। हर सिक्के के 2 पहलू होते हैं एक सकारात्मक एक नकारात्मक । मोदी सरकार ने सकारात्मक पक्ष  को सामने रखा है।

Wednesday, June 19, 2019

..... खबरें अभी और  आएंगी

..... खबरें अभी और  आएंगी

बिहार के मुजफ्फरपुर में रहस्यमय चमकी बुखार से बच्चों की लगातार मौत के कारणों के बारे में तो वैज्ञानिक रूप से कुछ पता नहीं चला है लेकिन मोटे तौर पर डॉक्टरों का कहना है कि यह मौतें कुपोषण और अशिक्षा के कारण हो रही हैं। मसला यह नहीं है की मौतें हो रही हैं। मसला यह है कि कुपोषण के कारण हो  रही हैं।  अगर इस पर तुरंत ध्यान भी दिया जाता है तब भी कुछ खास लाभ नहीं होने वाला है। क्योंकि, कुपोषण का उपचार इतना शीघ्र नहीं किया जा सकता।  दुख है भविष्य में और बच्चों की मौत खबरें और आएंगी।
विवश देखती मां आंचल से नींद तड़प उड़ जाती
अपना रक्त पिला देती ,यदि फटती आज बज्र की छाती 

अब से 5 साल पहले 2014 में भी स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन मुजफ्फरपुर आए थे। यही कोई 20 जून के आसपास। उस साल 139 बच्चे मरे थे और उन्होंने कई घोषणाएं की थीं।  उन घोषणाओं पर आज तक पूरी तरह अमल नहीं हो सका।  इस बार फिर शोक जताने वह आए हैं। उनसे पूछना चाहिए कि उन घोषणाओं का क्या हुआ? लेकिन इन सबसे अलग बिहार में इन मौतों का जो मुख्य कारण है वह है कुपोषण। अन्य राज्यों की तुलना में बिहार में कुपोषित बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा है। आश्चर्य होता है कि राज्य में 38 पोषण पुनर्वास केंद्र हैं। इसके बावजूद 5 वर्ष से कम उम्र के लगभग 5 लाख बच्चे कुपोषित हैं बिहार में। जिनमें केवल 0.3 प्रतिशत ही बच्चों का इलाज मुमकिन है। यानी 346 कुपोषित बच्चों में से केवल एक ही इलाज हो सकता है।  ऐसे में मौतों के सिवा और कोई खबर नहीं है
कब्र - कब्र में अबोध बालकों की भूखी हड्डी रोती है
दूध - दूध की कदम कदम पर सारी रात होती है

आंकड़े बताते हैं कि बिहार के हर जिले में एक पोषण पुनर्वास केंद्र है । जिनमें कम से कम 10 बेड हैं।  एक बच्चे के इलाज में लगभग 20 दिन लगते हैं। यानी कुल पोषण केंद्रों में  0.3 प्रतिशत के हिसाब से 13,870  कुपोषित बच्चों का एक साथ इलाज हो सकता है। अगर मेडिकल नजरिये से देखा जाए तो कुपोषण के कई प्रकार होते हैं। यानी, उम्र के हिसाब से लंबाई कम हो जाना, उम्र के मुकाबले वजन कम हो जाना  इत्यादि। बिहार में एक लाख से ज्यादा बच्चे फिलहाल गंभीर रूप से कुपोषित हैं। जिनका  विकास दर सबसे कम है। परिणाम स्वरूप इन बच्चों के मौत का खतरा सबसे ज्यादा है।

दूध - दूध दुनिया सोती है लाऊं दूध कहां किस घर से 
दूध - दूध है देव गगन  के कुछ बूंदे टपका अंबर से

2015 में जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स के मुताबिक 1 वर्ष से 5 वर्ष के आयु के कुपोषित बच्चों की संख्या के मामले में भारत एशिया में तीसरा स्थान में और दुनिया में 24 वे स्थान  पर है। केवल कुपोषण ही नहीं बच्चों की मौत के लिए भीषण गर्मी  और लू भी जिम्मेदार है। झुलसा देने वाली गर्मी से बिहार में अब तक 200 लोग मारे जा चुके हैं और सैकड़ों भरती हैं अस्पतालों में। हाल इतना बुरा है कि कई जगह सरकार को धारा 144 लागू करनी पड़ी है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने लोगों को सलाह दी है कि जब तक गर्मी कम ना हो जाए तब तक बाहर ना निकलें। क्या विडंबना है घर में खाने को है नहीं और बाहर निकलना वर्जित कर दिया गया। आखिर  कब तक चलेगा। यह केवल बिहार की आदत नहीं है। विदर्भ तटीय आंध्र प्रदेश, तेलंगना , पश्चिम बंगाल, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, मराठवाड़ा, छत्तीसगढ़, तमिल नाडु और पुडुचेरी के कई इलाके भयंकर गर्मी की चपेट में है और वहां ताप लहर चल रही है । मौसम विभाग के अनुसार देश के कई हिस्सों में कल से यानी मंगलवार से बारिश होने की बात कही गई थी कहीं-कहीं तो छींटे पड़े लेकिन बिहार और बंगाल के अधिकांश भागों में ताप लहर जारी रही । कई राज्यों का तापमान 45 डिग्री से ऊपर चला गया। राजस्थान के चूरू में 1 जून को तापमान  50.8 डिग्री रहा। दिल्ली में 10 जून को 48 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान रिकॉर्ड किया गया था।
         इस गर्मी के कारण सूखा पड़ रहा है। देश का करीब 50% भाग सूखे की चपेट में है। पानी की लगातार कमी हो रही है। केंद्रीय जल आयोग रिपोर्ट के मुताबिक देश के 21 शहरों के 91  जलाशयों में चौथाई से भी कम पानी रह गया है। मार्च से मई के बीच केवल 23% बारिश हुई है । विगत 65 वर्षों में ऐसा दूसरी बार हुआ है। भयानक गर्मी उसके बाद  सूखा और फिर बाढ़ इनसे बचा तो चक्रवाती तूफान  और अकाल। यह सब हमारी जिंदगी का हिस्सा बन गया है। सर्दियों में आने वाली फुहारे गायब होती जा रहीं हैं । इसका असर खेती पर पड़ रहा है मौसम का यह सामान्य चक्र अर्थव्यवस्था से लेकर हमारे वजूद तक को संकट पैदा कर रहा है । ऐसी स्थिति की पृष्ठभूमि में हम कुपोषण की बात करते हैं। आखिर पोषण का क्या तरीका हो सकता है। यहां एक सवाल और सामने आ रहा है कि मौसम की यह मार क्या केवल कुदरती है क्या इसके पीछे कोई इंसानी हाथ नहीं है?
         सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के एक शोध के मुताबिक इसकी वजह इंसान  है।  गवर्नेंस भी है। योजनाहीन शहरीकरण, भवन निर्माण में कंकरीट का जबरदस्त इस्तेमाल, पेड़ों की कटाई, पानी की फिजूलखर्ची इत्यादि बड़ी वजह है। शहरों में और गांव में जिस तरह जमीन का पानी खींचा जा रहा है और वन्य संपदा तथा हरीतिमा का जिस तरह विनाश हो रहा है उसे आने वाले संकट की आहट साफ महसूस हो रही है। मौसम विभाग के आंकड़े बताते हैं कि देश में पिछले साल ज्यादातर हिस्सों में तापमान सामान्य से ऊपर रहा। यहां तक कि हिल स्टेशन भी गरम हो रहे हैं। ऐसे में मानसून की देरी क्या संकट ला सकती है इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है । लेकिन कुदरत के चक्र में इंसानी  दखलंदाजी अखिल कैसे चलेगी। दुनिया भर के वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने ग्लोबल वार्मिंग की चेतावनी दी है। जिसके चलते ग्लेशियर पिघल रहे हैं और समुद्रों का तापमान बढ़ रहा है। इसका असर भी लंबे सूखे की मार बेवक्त बारिश भयंकर तूफान इत्यादि  के रूप में सामने आ रहा है। भारत की ही बात लें। पिछले 9 महीनों में तीन बड़े चक्रवात भारत के तटों से टकराए हैं। अक्टूबर में तितली आई जिससे करीब 3000 करोड़ का नुकसान हुआ और 60 लाख से ज्यादा लोग प्रभावित हुए। इस तूफान की वजह से 60 से ज्यादा लोग मारे गए। फिर नवंबर में गज की तबाही हुई। इस साल मई में फिर चक्रवाती तूफान आया और करीब 9000 करोड़ रुपए का नुकसान कर गया। डेढ़ करोड़ लोग विस्थापित हो गए सारे तूफानों का निशाना भारत का पूर्वी तट ही रहा है। तमिलनाडु से लेकर आंध्र प्रदेश ,उड़ीसा, पश्चिम बंगाल में इसका असर दिखा। समुद्र का तापमान जैसे-जैसे बढ़ेगा वैसे-वैसे साइक्लोन ज्यादा विनाशकारी होता जाएगा। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि अगर धरती का तापमान इसी तरह बढ़ता रहा तो अगले 10 वर्षों में भयानक  प्रलय की आशंका है और भारत पर इसका सबसे ज्यादा असर पड़ेगा। भारत के हिस्से वाले हिमालय में करीब 10 हजार ग्लेशियर हैं जो पिघल रहे हैं । समुद्र तट  के किनारे लगभग 30 करोड़ लोग रहते हैं जिनका मुख्य आधार खेती  या सागर आधारित है। नीति आयोग का कहना है अगले साल तक 21 शहरों का भूजल समाप्त हो जाएगा। यानी 10 करोड़ की आबादी के पास पानी नहीं रहेगा। ऐसे में लू या सूखे का क्या असर होगा इसका अंदाजा खुद लगाया जा सकता है।
पर शिशु का क्या सीख ना पाया अभी जो आंसू पीना
चूस -चूस सूखा स्तन मां का सो जाता रो -विलाप नगीना

         कुदरत की मार का मुकाबला काफी महंगा होता है। बड़ी संख्या में विस्थापन, उनकी रोजी-रोटी इन सब का इंतजाम कितना कठिन है यह सब समझते हैं । अभी तो केवल  लू चल रही है और गर्मी पड़ रही है। इस देश के विकास पर भयानक असर पड़ रहा है । अगर अगले 10 सालों तक यही जारी रहा तो इसके मुकाबले के लिए कम से कम 70  करोड़ चाहिए। विश्व बैंक ने चेतावनी दी है कुदरत की हमार भारत की जीडीपी को अगले 30 वर्षों में 2.8% तक की चोट पहुंचा सकता है। अब बिहार  की लू हो या अन्य जगहों का जल संकट इसका उपाय तो खोजना ही पड़ेगा। वरना  मुजफ्फरपुर  की तरह देश के अन्य भागों से भी बच्चों की मौत की खबरें आने लगे  तो कोई हैरत नहीं । दिनकर ने कहा था 
हटो व्योम के मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं 
दूध -दूध हे वत्स तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं

Tuesday, June 18, 2019

बिहार में मरते बच्चे

बिहार में मरते बच्चे

  बिहार के मुजफ्फरपुर में इंसेफेलाइटिस से मरने वाले बच्चों की संख्या 100 से ज्यादा हो गई है।  इसे लेकर बिहार की राजनीति भी गरमा रही है । बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन  मुजफ्फरपुर के श्री कृष्ण मेडिकल कॉलेज अस्पताल का दौरा करने गए थे। मुजफ्फरपुर वासियों ने नीतीश कुमार को देखते ही "वापस जाओ- वापस जाओ" के नारे लगाने शुरू कर दिए और काले झंडे भी दिखाए। इसके पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन और स्वास्थ्य राज्य मंत्री अश्विनी चौबे तथा बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे भी मुजफ्फरपुर का दौरा कर आए हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सोमवार को राज्य के वरिष्ठ स्वास्थ्य अधिकारियों से मुलाकात की और उनसे स्थिति  को समझा तथा कई कदम उठाने का निर्देश दिए। नीतीश कुमार ने मरने वाले बच्चों के परिजनों को चार-चार लाख रुपए का अनुदान देने तथा इलाज का खर्च सरकार द्वारा वहन करने की घोषणा भी की है। इस बीच मुजफ्फरपुर प्रशासन द्वारा मंगलवार की सुबह जारी एक विज्ञप्ति में कहा गया है कि कुल 107 बच्चों की मृत्यु हुई है। जिनमें 88 बच्चे सरकारी क्षेत्र के श्री कृष्ण मेडिकल कॉलेज अस्पताल में मरे हैं तथा 19 बच्चों की मृत्यु  निजी  क्ष्रेत्र के केजरीवाल मेटरनिटी अस्पताल में इंसेफेलाइटिस से मृत्यु हुई है।
       मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अस्पतालों  की क्षमता बढ़ाने निर्देश दिए हैं। इधर इसकी आंच दिल्ली तक पहुंचने लगी है और  मंगलवार को ही दिल्ली में बिहार भवन के समक्ष कई कार्यकर्ताओं ने एकत्र होकर नीतीश कुमार के इस्तीफे की मांग की है। उन्होंने इस बीमारी के फैलने के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों को जिम्मेदार ठहराया है। 
   इस बीमारी के कई कारण बताए जा रहे हैं । अभी कोई पुख्ता अनुसंधान इस दिशा में नहीं हो पाया है लेकिन  विशेषज्ञ हैं बता रहे हैं कि यह बीमारी बिहार में चल रही भयानक लू कुपोषण और खाली पेट में लीची खाने से  फैली है ।
यहां यह जानना जरूरी है इंसेफेलाइटिस क्या है? सबसे पहले 1995 में यह बीमारी मुजफ्फरपुर में फैली थी।  इसके बाद हर वर्ष ऐसा होता रहा है । आंकड़े बताते हैं कि बिहार में इस बीमारी से 2015 में 11 बच्चे, 2016 में  4 बच्चे, 2017 में 11 बच्चे और 2018 में 7 बच्चे मरे हैं।
साइंस डायरेक्ट पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक  इस बीमारी  का कारण खाने पीने की आदत,  आर्थिक अवस्था और सामाजिक पृष्ठभूमि है। लेकिन, इसका सही कारण अभी तक नहीं जाना जा सकता है। जिन 123 मामलों पर इस शोधपत्र में अध्ययन किए गए उनमें अधिकांश के परिवार वाले अनपढ़ थे और उनकी जीविका का मुख्य साधन खेती बारी थी। इसके अलावा बच्चे या उनके परिजन साफ- सफाई के बारे में बहुत ज्यादा जागरूक नहीं थे। डॉक्टरों का मानना है कि कुपोषण और साफ पानी नहीं पीने के कारण यह हो रहा है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के सदस्य डॉक्टर अनिल कुमार के अनुसार इस मामले का सही कारण अभी तक अज्ञात है।
इन मौतों पर जद यू के सांसद दिनेश वर्मा ने कहा है कि "मुजफ्फरपुर की घटना दुर्भाग्यपूर्ण है ,लेकिन हर साल गर्मी में बच्चे बीमार पड़ जाते हैं और मरने वालों की संख्या बढ़ जाती है।  सरकार इलाज की व्यवस्था करती है।  बारिश शुरू होते सब बंद हो जाएगा।"
इन मौतों को लेकर बिहार में राजनीति आरंभ हो गई है। राजद के प्रवक्ता मनोज झा का कहना है कि यह सब जानते हैं कि गोरखपुर से लेकर मुजफ्फरपुर के बीच का क्षेत्र  इंसेफेलाइटिस के लिए घातक है। 2014 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने श्री कृष्ण मेडिकल कॉलेज अस्पताल में अतिरिक्त बेड लगाने की योजना की घोषणा की थी। लेकिन वह अभी तक नहीं हो सका । मनोज झा का कहना है कि विपक्ष नहीं चाहता है कि बच्चों की मौत पर सियासत की जाए लेकिन यह भी स्पष्ट हो चुका है कि नीतीश कुमार की सरकार  इसकी कोई परवाह नहीं करती।  जद यू और भाजपा गठबंधन को यह भरोसा है कि स्वास्थ्य और शिक्षा पर ध्यान दिए बिना ही वह चुनाव जीत जाएंगे। उधर इलाज कर रहे डॉक्टरों का कहना है की यह सब प्रकृति की देन है। वे भी लीची को इसके लिए जिम्मेदार बता रहे हैं । यहां यह बता देना जरूरी है की बिहार के मुजफ्फरपुर में देश में सबसे ज्यादा लीची का उत्पादन होता है। डॉक्टरों ने इसका कारण बताते हुए कहा है कि जो बच्चे कुपोषण का शिकार हैं वे जब  लीची खाते हैं तो उनके खून में शर्करा की कमी हो जाती है और इससे वे बीमार पड़ जाते हैं। अब इसे कई स्तरों पर देखा जाए तो बड़ी हैरत होती है कि बिहार में खास करके इस क्षेत्र में कुपोषण तथा शिक्षा का अभाव इत्यादि प्रमुख है ।  ऐसी स्थिति में जब बच्चे खाली पेट लीची खाते हैं तो हालत और बिगड़ जाती है। पिछले वर्ष  महिला आवास गृह को लेकर मुजफ्फर पुर सुर्खियों में था जहां बच्चियों के साथ कुकर्म किए गए और उनकी हत्या तक कर दी गयी।  शासन का बुनियादी कर्तव्य है शिक्षा और स्वास्थ्य मुहैया कराना। अब अगर यह भी नहीं होता है तो इस शासन व्यवस्था को क्या कहा जा सकता है । नीतीश कुमार की सरकार अपना कर्तव्य नहीं पूरा कर पा रही है । यह अच्छी खबर नहीं है बच्चे खास करके गरीबों के बच्चे ज्यादा बीमार पड़ते हैं। अब अगर उन्हें स्वास्थ्य सुविधा नहीं मुहैया कराई जाती है तो क्या होगा इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। कुपोषण, स्वास्थ्य सेवा का अभाव और क़ानून और व्यवस्था गिरती अवस्था राज्य के लिए अत्यंत घातक हो सकती है । नीतीश कुमार को चाहिए  कि वह शासन व्यवस्था में अविलंब सुधार करने की कोशिश करें। खासकर, स्वास्थ्य सेवा के मामले में ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है।

Monday, June 17, 2019

सबकी निगाहें लोकसभा पर

सबकी निगाहें लोकसभा पर

अब 17वीं लोकसभा  का अधिवेशन सोमवार को आरंभ हो   गया। 2019 के चुनाव में निर्वाचित 543 सांसद अगले 5 वर्षों के लिए इस देश का मुकद्दर तय करेंगे। यह 5 वर्ष हमारे भारत के लिए एक गौरवशाली अवधि  भी है, क्योंकि इसी 5 वर्ष में  हमारे लोकतंत्र के  75 वर्ष पूरे होने वाले हैं। बहुतों के लिए यह हैरत में डालने वाला तथ्य भी है। क्योंकि इसी अवधि में दुनिया के कितने ही लोकतांत्रिक देश तानाशाही में बदल गए। संसद के लगभग 275 सांसद दोबारा चुने गए हैं। लेकिन,  इस बार अन्य तथ्य है कि यह सदन एक नए चरित्र को परिलक्षित करेगा।  भारत में भारतीय जनता पार्टी  के बहुमत के बाद देश के जनमानस  में बदलाव का यह प्रतिबिंब होगा। यह पहला अवसर होगा जब भारतीय जनता पार्टी लगातार दूसरी बार 5 वर्षों के लिए गठबंधन का नेतृत्व करेगी। 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी को विजय दिलाई थी और वह बहुमत के साथ संसद में आई थी। इस बार फिर वह संसद में आई है। लेकिन बहुमत बहुत ज्यादा है। इस वजह से भाजपा ने यह साबित कर दिया की उसकी पहली विजय  किसी संयोग   का नतीजा नहीं थी।  देश का जनमानस बदल रहा है और वह भारतीय जनता पार्टी  के विचारों  की दिशा में सोच रहा है ।  राष्ट्र का वैचारिक ढांचा परिवर्तित हो रहा है।
          लोकसभा में दो तिहाई से ज्यादा बहुमत हासिल करके इस समय राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन अत्यंत शक्तिशाली स्थिति में है। अगले 2 वर्षों में इस गठबंधन को राज्यसभा में भी बहुमत ने आ जाने  की उम्मीद है और इससे उसकी राजनीतिक हैसियत और बढ़ जाएगी। लेकिन इन सब बातों के बीच या कहें इतनी बड़ी विजय के बाद देश ने इस पार्टी पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी भी सौंप दी है।  सबसे बड़ी जिम्मेदारी प्रधानमंत्री मोदी को  सौंपी गई है कि  उन्होंने देश के  मानस में जो उम्मीद जगाई उसे वह पूरा करके दिखाएं। इसके अलावा लोकसभा में अधिकारों के  बंटवारे  की जो विषम फितरत है वह विपक्षी दलों पर भी रोशनी डालती है। चुनाव अभियान के दौरान वे एकजुट हुए फिर टुकड़े टुकड़े हो गए । कई तरह के गठबंधन बने जो मोदी को पछाड़ देने का दम भरते थे लेकिन नहीं चल पाए। कांग्रेस पार्टी , जिसने पहली बार राहुल गांधी के नेतृत्व में चुनाव  में जोर  आजमाया था,  ने प्रचार के दौरान  प्रधानमंत्री मोदी और अन्य बड़े नेताओं के खिलाफ बहुत कुछ   अशालीन भी कहा फिर भी वह भी कुछ नहीं कर सकी । चुनाव में इतनी बड़ी पराजय के दो अर्थ होते हैं। पहला कि विपक्ष  की कोई आवाज नहीं रह गई है और दूसरा कि उसका कारण है कांग्रेस का अपना नजरिया। वैसे कांग्रेस आज भी संसद में सबसे बड़ी पार्टी है। उसके पुराने सांसद भी चुनाव हार गए। इससे  राहुल गांधी के बारे में एक बात समझ में आती है राहुल गांधी अपने पारिवारिक चुनाव क्षेत्र से हारे और आज केरल के वायनाड से प्रतिनिधि हैं। राहुल गांधी ने चुनाव में बहुत कुछ अशोभनीय कह कर नरेंद्र मोदी से भी अपने व्यक्तिगत संबंध खराब कर लिए। इससे दोनों के बीच थोड़ी दूरी बन गई । इस स्थिति ने एक भय पैदा कर दिया है कि शायद ही संसद आराम से चल सके। उसमें लगातार शोर शराबा होने की संभावना है । इससे विधेयकों के बनाने और उसे पारित करने यह अवसरों पर कठिनाई पैदा हो सकती है । जिससे आम जनता को  इतनी जल्दी  लाभ नहीं मिल सकता है  जितनी जल्दी की उम्मीद की जाती है ।
इस स्थिति से बचने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को एक सर्वदलीय सभा का आयोजन किया था। जिसमें उन्होंने सभी दलों से अपील की कि वे राजनीतिक मतभेद भुलाकर जनता की भलाई के लिए होने वाले कार्यों में सहयोग करें ताकि संसद का अधिवेशन ठीक से चल सके। उन्होंने कहा  कि हम जनता के लिए हैं और संसद  की कार्रवाई को अवरुद्ध करके हम लोगों का दिल नहीं जीत सकते। सभी दलों को अपने राजनीतिक मतभेद भूलकर देश को विकास की दिशा में ले जाने वाले कार्यों में सहयोग करना चाहिए। मोदी जी ने कहा  कि सभी  दलों के सांसद आत्म निरीक्षण करें  कि क्या वे जनता के प्रतिनिधि होकर उनकी अपेक्षाओं को पूरा करते हैं या नहीं। सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री ने विधाई एजेंडा भी प्रस्तुत किया और विपक्षी दलों ने किसानों एवं जलापूर्ति से संबंध मामलों को  उठाया । 
सोमवार को जो अधिवेशन आरंभ होने वाला है उसमें कई महत्वपूर्ण विधेयक प्रस्तुत किए जाएंगे इसमें धारा 356 भी है। इसके अलावा केंद्रीय शैक्षिक संस्थान विधेयक और आधार तथा अन्य कानून विधेयक 2019 भी शामिल हैं।
       16वीं लोकसभा के भंग होने पर 46 विधेयकों की अवधि समाप्त हो गई थी जो दोनों सदनों में विभिन्न चरणों में थे। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण विधेयकों को उठाने और संसद में लाने की संभावना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सभी नेताओं और सरकार के साथ सहयोग करने और 2022 तक एक नए भारत का निर्माण करने  के प्रयास में "सबका साथ सबका विकास"  का वास्तविक अर्थ प्राप्त करने की अपील की।
         संसद का यह सत्र सोमवार 17 जून से शुरू होकर 26 जुलाई तक चलेगा राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद 20 जून को अभिभाषण देंगे । 4 जुलाई को आर्थिक सर्वेक्षण प्रस्तुत किया जाएगा और 5 जुलाई को देश का  बजट। प्रधानमंत्री ने सभी राजनीतिक दलों के प्रमुखों की बुधवार को एक बैठक बुलाई है जिसमें "एक देश एक चुनाव " के मसले पर बातचीत की जाएगी। बृहस्पति वार को लोकसभा  और राज्यसभा के सांसदों की बैठक बुलाई गई है।
17वीं लोकसभा में 78 महिला सांसद है इनमें 16 पिछली लोकसभा में भी रह  चुकी थी फिलहाल जो सबसे महत्वपूर्ण है  वह है देश का बजट जो 5 जुलाई को प्रस्तुत किया जाएगा और इसे एक महिला सांसद प्रस्तुत करेंगी। तकनीकी तौर पर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण इंदिरा गांधी के बाद पहली महिला वित्त मंत्री हैं। इंदिरा जी प्रधानमंत्री थी और उन्होंने वित्त मंत्री का भी अतिरिक्त प्रभार संभाल रखा था। महिला वित्त मंत्री का असर संसद के भीतर और बाहर दोनों तरफ दिखाई पड़ेगा। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इस लोकसभा में बदलाव की ताकत है। देखना यह है स्थिति कैसी आती है आधे भरे हुए गिलास की या आधे खाली गिलास की।

Sunday, June 16, 2019

हड़ताली डॉक्टरों की पीड़ा

हड़ताली डॉक्टरों की पीड़ा

पश्चिम बंगाल में विगत चार दिनों से डॉक्टरों की हड़ताल चल रही है । मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने डाक्टरतों की बात मान ली है और बात चीत के लिए बुलाया भी है पर अभी भी डाक्टर हड़ताल पर हैं। राज्य में स्वास्थ्य सेवायें चरमरा गयीं हैं। मुख्यमंत्री  ममता बनर्जी ने मंत्रियों के एक दल और स्वास्थ्य विभाग के प्रिंसिपल सेक्रेटरी को डाक्टरों  से वार्ता के लिए भेजा था पर  डॉक्टरों ने उनसे मुलाकात नहीं की।   मुख्य मंत्री ने हड़ताली डॉक्टरों से अपील की है कि वे सांविधानिक निकाय का आदर करें। उन्होंने कहा कि 10 जून को डॉक्टरों पर जो हमले हुए वह दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन ऐसे मामलों को सुलझाने का यह सही तरीका नहीं है। उन्होंने कहा कि राज्य में जल्द से जल्द स्वास्थ्य सेवाएं सामान्य हो जाएं यही अच्छा है। स्वास्थ्य सचिव का कहना है कि डाक्टरों पर हमले के दोषी लोगों पर कार्रवाई की जाएगी और घायल डॉक्टरों के इलाज का सारा खर्च सरकार उठाएगी। राज्य में इन दिनों अस्थिरता का माहौल है । राजनीतिक हिंसा की घटनाओं के बाद डॉक्टरों की इस हड़ताल ने रही सही कसर पूर्ति कर दी। ममता बनर्जी ने डॉक्टरों के प्रति नरम रुख अपनाते हुए कहा कि वे वैसा कुछ नहीं करना चाहती जैसा णय राज्यों  में डॉक्टरों खिलाफ़ किया गया है। उनका इआशारा जमा की ओर था। उनका कहना है कि इससे डॉक्टरों के कैरियर पर आंच आएगी।
     पूरी घटना को अगर देखें तो इसमें सियासत की बू आती है। मरीजों को हिंदुओं और मुसलमान में तकसीम किया जा रहा है। हालात बिगड़ते जा रहे हैं और यहां तक कि इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने भी इसमें समर्थन देने का मूड बना लिया है। आरोप प्रत्यारोप का बाजार गर्म है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने भी इसके राज्य के स्वास्थ्य मंत्री और मुख्य मंत्री को दोषी बताया है। मामला धीरे धीरे राजनीतिक होता जा रहा है और कुछ राजनीतिज्ञों के बयान ने आग मेडिन घी का काम किया है। भाजपा के राज्य प्रमुख दिलीप घोष का कहना है कि डॉक्टरों पर हमले के लिए एक समुदाय के असामाजिक तत्वों का हाथ है।उधर बिहार में  भा ज पा के सहयोगी जे डी यू के पूर्व प्रवक्ता डॉ. अजय आलोक ने ट्वीट किया कि " वेस्ट बंगाल में एक डॉक्टर की 200 रोहिंगय पिटाई करते हैं और इस  के विरूद्ध अगर डॉक्टर हड़ताल पर जाएं और देश भर के डाक्टर उनके समर्थन में आ जाएं तो गलत क्या है। "   बंगाल के मेडिकल कालेजों में इसके पहले भी डॉक्टरों के साथ हल्की फुल्की गाली गलौज होती रही है। पुलिस रेकॉर्ड के अनुसार पिछले साल ऐसी लसगभसग 50 घटनाएं हुईं। आम तौर पैर जूनिया डॉक्टर जी आपात व्यवस्था के लिए तैनात होते हैं। मामला बिगड़ने पर वही सारा दर्द झेलते हैं। जिनमें सबसे ज्यादा भय महिला डॉक्टरों को रहता है।   लेकिन यह पहला वाकया है जब  किसी मरीज और उसके परिवार वालों की उसके धर्म के आधार पर चर्चा  हो रही है।  उधर यह मामला अदालत तक भी पहुंच चुका है और एक डॉक्टर की याचिका पर हाई कोर्ट की एक पीठ ने सरकारको निर्देश दिया है कि वह इसे शीघ्र खत्म करवाये। राजपाल केसरी नाथ त्रिपाठी इस सम्पूर्ण मसमले को लेकर अत्यंत सक्रिय हैं।
    यह सब घटना का एक पक्ष है। आज बंगाल है तो सबके निशाने पर है और इसे राजनीतिक रंग दिया जा रहा है। लेकिन, अगर गौर से देखें तो इसमें डॉक्टरों का कोई ज्यादा दोष नहीं है। राज्य जितने भी सरकारी अस्पताल हैं उनमें डॉक्टरों और अन्य जरूरी सुविधाओं की भयानक कमी है। यह केवल बंगाल की बात नहीं है। इंडियन मेडिकल एसोशिएशन के आंकड़े बताते हैं कि 10,.2 लाख डॉक्टर उससे पंजीकृत हैं लेकिन सरकार के रिकार्ड के अनुसार केवन 8,2 लाख डॉक्टर ही सक्रिय सेवा में हैं। यानी 1.3 अरब की आबादी के  लिए महज 8.2 लाख डॉक्टर। इसके बाद अन्य सुविधाओं का भारी अभाव। लगभग एक दशक पहले क्लिनिकल  इस्टैब्लिशमेंट एक्ट पारित हुआ लेकिन अबतक किसी भी सरकारी अस्पताल में वह लागू नहीं  हो सका है। डॉक्टरों का कहना है कि रोगी की मौत के बात गुस्साए उनके परिजन उतने दोषी नहीं हैं जितनई संसाधन की कमी है। डॉक्टर अपनी सुरक्षा चाहते हैं इसमें उनकी खास गलती नहीं है। सरकार को इसके लिए पर्याप्त व्यवस्था करनी चाहिए।

Friday, June 14, 2019

मोदी जी जो कहते हैं वही करते हैं

मोदी जी जो कहते हैं वही करते हैं

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बार अपने चुनाव अभियान के दौरान कई बार कहा वे चीन और पाकिस्तान से संबंध को सुधारने की दिशा में ठोस कदम उठाएंगे। चुनाव जीतने के बाद उन्होंने इस बात पर अमल भी करना शुरू कर दिया । गुरुवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने किर्गिस्तान की राजधानी बिश्केक में मुलाकात की और  दोनों नेता भारत चीन सीमा विवाद के समाधान के मसले पर बातचीत आगे बढ़ाने पर सहमति जाहिर की। यह मुलाकात शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन के शीर्ष सम्मेलन के पूर्व थी। दोनों नेता इस सम्मेलन में भाग लेंगे। दोनों नेताओं ने अपने -अपने देश के विशेष प्रतिनिधियों को यह निर्देश दिया है वे मिलकर बातचीत के मसलों को आगे बढ़ाने की तैयारी करें ताकि  सीमा समस्या पर एक उचित समाधान खोजा जा सके। प्रधानमंत्री के साथ गए विदेश सचिव विजय गोखले के अनुसार इस  बातचीत के बहुत ही गंभीर प्रभाव हैं।इसके पहले दोनों नेताओं की मुलाकात 2018 के अप्रैल में वुहुआन में हुई थी उस समय वार्ता की पृष्ठभूमि में डोकलाम की समस्या की छाया थी। सीमा समस्या बहुत महत्वपूर्ण है और इस पर वार्ता उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण । चीन के राष्ट्रपति संभवत इस साल के आखिर में श्री मोदी से मिलने भारत भी आने वाले हैं और उस दौरान भी इस समस्या पर बातचीत होने की प्रबल संभावना है। विदेश सचिव श्री गोखले ने  बताया कि दोनों नेताओं की बैठक उनके देशों के विशेष प्रतिनिधियों की मौजूदगी में हुई । विशेष प्रतिनिधियों की बातचीत का पिछला दौर गत नवंबर में हुआ था। उस समय भारत की ओर से रक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और चीन की ओर से वांग ई ने बातचीत की थी। इस बार राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने बहुत गर्मजोशी से कहा कि वह भारत आने के लिए तैयार हैं और उम्मीद है कि सभी रणनीतिक और अन्य मसलों पर फलदाई बातचीत होगी। दोनों नेता इस बात पर सहमत थे कि वार्ता रचनात्मक होनी चाहिए और आने वाले दिनों में दोनों देशों के संबंधों को दिमाग में रखकर बातचीत की जानी चाहिए। शी जिनपिंग ने क्षेत्रीय सहयोग और संपर्क की बात को भी  उठाया। 
         शी जिनपिंग ने बड़ी गर्मजोशी से कहा कि दोनों मुल्कों को इस बात पर ध्यान देना चाहिए की भारत और चीन दोनों विकास के मामले में एक दूसरे के पूरक हैं ना कि एक दूसरे के लिए खतरा । दोनों को आपसी विश्वास को मजबूत करने की कोशिश करनी चाहिए तथा जो भी मतभेद हैं उन्हें स्वीकार करना चाहिए ताकि दोनों देशों के संबंध सकारात्मक हो सकें। जिससे विकास के लिए सकारात्मक ऊर्जा तथा उत्साह का सृजन हो सके । दोनों नेताओं ने द्विपक्षीय संबंधों  के 70 साल पूरे होने के अवसर पर जश्न मनाने पर भी विचार किया और 70 आयोजनों का प्रस्ताव दिया। भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने अजहर मसूद को वैश्विक आतंकी घोषित किए जाने की राष्ट्र संघ की क्रिया में चीन के अवदान प्रशंसा की और कहा कि पाकिस्तान को बातचीत का माहौल तैयार करना चाहिए। आतंक के साए में कोई वार्ता नहीं हो सकती। विदेश मंत्रालय के अधिकारियों ने यह स्पष्ट किया है कि फिलहाल भारत-पाकिस्तान के बीच किसी द्विपक्षीय वार्ता योजना नहीं है। दोनों के संबंध इतने कटु हो चुके हैं कि रात में खाने की मेज पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति इमरान खान आमने सामने बैठे लेकिन दोनों में कोई दुआ सलाम तक नहीं हुई। यहां तक कि रात के खाने के बाद एक मनोरंजन के कार्यक्रम के दौरान दोनों नेता पहली पंक्ति में बैठे थे लेकिन उनके बीच कम से कम 7 नेता बैठे हुए थे।
       बिश्केक में विमान से उतरने के बाद इमरान खान ने रूसी समाचार एजेंसी स्पुतनिक को बताया था कि भारत और पाकिस्तान के रिश्ते अभी निम्नतम  स्तर पर हैं। उन्होंने आशा व्यक्त की कि मोदी जी को इस बार जो जनादेश मिला है उसका उपयोग वे रिश्तो को सुधारने तथा कश्मीर मसले पर मतभेद खत्म करने के लिए करेंगे। जब उनसे यह पूछा गया क्या वे  वार्ता की मेज पर आमने-सामने बैठेंगे इमरान खान ने कहा कि चुनाव के बाद ही मैंने यह प्रस्ताव दिया था लेकिन चुनाव के पहले मोदी जी की पार्टी जनता में  विद्वेष फैला रही थी। बदकिस्मती से भारत की जनता में पाकिस्तान विरोधी भाव पैदा कर रही थी। लेकिन अब तो  चुनाव  खत्म हो चुका है और आशा है कि भारतीय नेता इस अवसर का लाभ उठाएंगे तथा दोनों देशों के बीच मतभेद को समाप्त करने का प्रयास करेंगे। इमरान खान ने कहा कि दोनों परमाणु शक्तियां  समस्या को सैन्य बल से नहीं खत्म कर सकते हैं ,यह पागलपन होगा। इसलिए आशा की जाती है कि मतभेद खत्म करने के लिए वार्ता का ही विकल्प तय किया जाए। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान किसी भी तरह की मध्यस्था के लिए तैयार है। जिससे इस क्षेत्र  में शांति कायम हो  सके और विकास को गति मिल सके।
             ऊपर के तथ्यों से साफ जाहिर होता है कि दोनों देश अर्थात चीन और पाकिस्तान वार्ता के लिए तैयार हैं। जिससे मतभेद खत्म हो सके। लेकिन दोनों ने इसकी जिम्मेदारी परोक्ष और प्रत्यक्ष तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सौंप दी है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें सामने वाला ही कुछ करे और गलत हो तो उसका दोष भी उसके ही सिर पर हो। चीन सीमा विवाद को खत्म करने के लिए वार्ता को तैयार है लेकिन यह विवाद दशकों पुराना है तथा कई बार इस तरह के अवसर तैयार किए गए । लेकिन किसी न किसी मसले पर चीन से बात बिगड़ जाती है। अभी कल ही खबर आई है की भूटान की सीमा पर चीनी सैनिक उस मुकाम तक पहुंच गए हैं जिसके बाद खतरा बढ़ता है। एक तरफ चीन के नेता मधुर वार्ता में लगे हैं दूसरी तरफ वे फौजियों को इतनी आजादी दे रखे हैं यही हाल पाकिस्तान का भी है जहां तक उम्मीद की जाती है  इमरान खान इस्लामाबाद से बिश्केक के लिए चले होंगे उसके कुछ ही घंटे पहले अनंतनाग में सीआरपीएफ के जवानों को आतंकियों ने गोलियों से भून डाला। क्या इस करनी और कथनी ने समानता कहीं दिखती है? लेकिन यह अंतरराष्ट्रीय कूटनीति है। सबकी सुनिए और अपनी कीजिए इसका मूल मंत्र है।

Thursday, June 13, 2019

बंगाल में स्वास्थ्य सेवा में विरोध

बंगाल में स्वास्थ्य सेवा में विरोध

नीलरतन सरकार (एन आर एस )मेडिकल कॉलेज में बुधवार को जूनियर डॉक्टरों और रोगियों के रिश्तेदारों के बीच इलाज को लेकर जमकर मारपीट हुई और इसमें दो इंटर्न घायल हो गए। यह घटना तब हुई  जब  74 वर्षीय  मोहम्मद शाहिद  को खराब स्थिति में अस्पताल में भर्ती कराया गया और इलाज के दौरान उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद उसके रिश्तेदारों ने वहां जमकर मारपीट की। इस मारपीट में दो डॉक्टर घायल हो गए। जिनमें एक की हालत गंभीर है। इस घटना के बाद राज्य के सभी मेडिकल कॉलेजों में विरोध फैल गया और उसका स्वरूप राजनीतिक हो गया। विरोध का नेतृत्व भारतीय जनता पार्टी कर रही है। बसीरहाट में तृणमूल कार्यकर्ताओं और भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच खूनी संघर्ष में एक टीएमसी कार्यकर्ता की मृत्यु के बाद से ही डॉक्टरों के प्रतिरोध ने राजनीतिक रंग लेना शुरू किया। बुधवार  को एनआरएस में प्रारंभ हुआ काम रोको आंदोलन राज्य के 13 मेडिकल कॉलेज और अस्पतालों में फैल गया है। अस्पतालों के आउटपेशेंट डिपार्टमेंट बंद हो गये। हालांकि कुछ में आपात सेवा कायम है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी राज्य की स्वास्थ्य मंत्री भी हैं।   डॉक्टरों ने उनके प्रत्यक्ष हस्तक्षेप  और अस्पतालों में सुरक्षा की मांग की है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की चेतावनी  और तृणमूल कांग्रेस सांसद अभिषेक बैनर्जी के बीच-बचाव के बाद भी डॉक्टरों की हड़ताल खत्म नहीं हो सकी।
        इस बीच भाजपा ने राज्य में गिरती कानून और व्यवस्था का आरोप लगाया है और उसे अस्पतालों की स्थिति ने एक नया मसाला दे दिया है। वह लगातार डॉक्टरों की सुरक्षा की मांग कर रही है। भाजपा ने राज्य सरकार द्वारा मुस्लिम तुष्टीकरण की बात को उठाकर चुनाव अभियान को सफल बनाया था । उसने एनआरएस की घटना को इसमें जोड़ दिया। भाजपा के राज्य नेताओ ने कहा है कि "इस सरकार के तहत डॉक्टर भी सुरक्षित नहीं है। लोग बाहर से गुंडों को लेकर आते हैं और यहां मारपीट करते हैं। जब डॉक्टरों को पीटा जा रहा था तो पुलिस क्यों निष्क्रिय थी।  एक विशेष समुदाय के असामाजिक तत्व पुलिस की हिफाजत में यह सब कर रहे हैं।" बुधवार को ही भाजपा के कार्यकर्ताओं का लाल बाजार अभियान भी था। जहां पुलिस ने उनको लाठियों से पीटा और उनपर आंसू गैस के गोले भी दागे। कांग्रेस के नेता अधीर चौधरी ने मांग की है की मुख्यमंत्री तत्काल आंदोलनरत डॉक्टरों के साथ बैठें और मामले को सुलझाएं। डॉक्टरों की सुरक्षा एक गंभीर मसला है क्योंकि इससे आम आदमी की चिकित्सा जुड़ी हुई है। वामपंथी छात्र संगठनों में भी एक रैली निकाली है और हड़ताली डॉक्टरों के साथ एकजुटता प्रदर्शित किया है।
          अगर इस पूरी समस्या को समग्र रूप से देखा जाए तो ऐसा लगता है कि यह होने ही वाला था । डॉक्टरों के इस विरोध को डॉक्टरों के कई संगठनों ने समर्थन दिया है जैसे मेडिकल सर्विस सेंटर और रेजिडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन इत्यादि। बंगाल में डॉक्टरों पर हमले की घटना इन दिनों आम हो गई है। केवल इस साल डॉक्टरों और चिकित्सा कर्मचारियों पर हमले की 100 घटनाएं हुई। यह कोई नई बात नहीं है वामपंथ के जमाने से भी ऐसा ही होता चला आ रहा है । डॉक्टर और चिकित्सा कर्मी राज्य के अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों में सुरक्षा की अपर्याप्त व्यवस्था पर नाराजगी जाहिर करते आ रहे हैं। लेकिन कभी कुछ हुआ नहीं है। दूसरी तरफ रोगियों के साथ आए लोग डॉक्टरों और चिकित्सा कर्मियों के गलत आचरण तथा उचित चिकित्सा सेवा में कमी की शिकायत करते आ रहे हैं । डॉक्टरों का कहना है कि बार-बार ऐसी घटना के बाद भी अस्पतालों में और मेडिकल कॉलेजों में सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं हो सकी।    जबकि सभी मेडिकल कॉलेज में पुलिस की चौकी है। मजे की बात है कि एनआरएस मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में जूनियर डॉक्टर अपनी सुरक्षा के लिए 2017 से मार्शल आर्ट्स का प्रशिक्षण ले रहे हैं। वह डरे हुए हैं कि कब किस रोगी का रिश्तेदार उन पर हमला कर देगा। गुंडे बाहर से आकर अस्पताल में तोड़फोड़ करते हैं । डॉक्टरों की पिटाई करते हैं। लेकिन कभी उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जाता और अगर कभी  गिरफ्तारी हो भी जाती है तो उन्हें तत्काल जमानत पर छोड़ दिया जाता है । पुलिस मामले की संवेदनशीलता का रोना  रोती रहती है। डॉक्टरों का कहना है कि स्वास्थ्य सेवा के ढांचागत सुधार में विकास के बावजूद मेडिकल कॉलेज अस्पतालों में सुरक्षा की अपर्याप्त व्यवस्था है खास करके वहां आने वाले रोगियों की संख्या को देखते हुए। राज्य के 13 मेडिकल कॉलेजों के आउटडोर विभाग में लगभग 15000  और सरकारी अस्पतालों में लगभग 80 हजार बेड हैं। लेकिन जिलों के अस्पतालों में उचित व्यवस्था नहीं होने के कारण सभी रोगियों को मेडिकल कॉलेजों में भेज दिया जाता है। इसके कारण मेडिकल कॉलेजों में भीड़ बढ़ती जा रही है रोगियों को भर्ती करने के लिए बेस्ट नहीं हो पा रहे हैं उन्हें फर्स्ट पर ले पाया जाता है उनकी जांच के लिए महीने - महीने भर तक इंतजार करना पड़ता है 2014 में तृणमूल सरकार ने अस्पतालों में मुफ्त चिकित्सा यहां तक कि भर्ती रोगियों की मुफ्त जांच तथा दवाइयां दिए जाने के आदेश के बाद दूसरे राज्यों से आने वाले रोगियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।
   सारा संकट दृढ़ता पूर्वक निपटाना होगा। अस्पताल को युद्ध क्षेत्र ना बनने दिया जाए, वही बेहतर है । भाजपा इसे अवसर मान रही है बेशक यह स्थिति कुछ सांप्रदायिक और कुछ राजनीति होती जा रही है। लेकिन, डॉक्टरों को इस में डालना और उन्हें किसी खास संप्रदाय का विरोधी बताना गलत है। घटना की गंभीरता को देखते हुए तृणमूल सरकार के नेताओं का आरोप सही नहीं है और भाजपाई नेता भी जिम्मेदाराना रुख नहीं अपना रहे हैं। रोगियों के रिश्तेदारों को भी समझना चाहिए कि इलाज के दौरान मृत्यु हो भी सकती है। इसमें डॉक्टरों को दोषी क्यों बनाया जाए।  अगर ऐसा होता भी है तो उन्हें हिंसक रुख अपनाने के बदले कानूनी रास्ते से जाना चाहिए । सोचिए अगर डॉक्टर इमरजेंसी मामलों में इलाज करना छोड़ दें तो क्या होगा? अंततः रोगी ही घाटे में रहेंगे
      

Wednesday, June 12, 2019

पीएम मोदी : पहले भारतीय  वैश्विक नेता

पीएम मोदी : पहले भारतीय  वैश्विक नेता

विख्यात इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार ने छत्रपति शिवाजी को एक महान राजनेता के रूप में वर्णित किया है।।  उन्होंने शिवजी को विश्लेषित करने  के लिए  लिए पश्चिमी  सादृश्य का उपयोग किया। ब्रिटिश शिक्षाविद्-विचारक हैल फिशर और इतालवी राजनेताओं काउंट कौर के लेखन का उपयोग करते हुए, सर जादुनाथ ने संकेत दिया कि एक सच्चा राजनेता वह है जो अपने राष्ट्र और देशवासियों की प्रगति के साथ अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करता है।
सरकार ने अपनी पुस्तक "शिवाजी एंड हिज  टाइम्स" में कहा है कि एक राजनेता अपने लक्ष्य का संधान कैसे करता है।उन्होंने कहा है कि  “ राजनेतृत्व  सही मायने में गणना वर्तमान समय में  देश की ताकतों का उपयोग करने में निहित है ताकि उनकी नीति की सफलता में योगदान दिया जा सके। एक राजनेता अपने उद्देश्य के लिए उपलब्ध अपर्याप्त सामग्री के बारे में नहीं सोचता। न ही वह अपने वक्त  में असंभव पूर्णता पर जोर देकर  विफल होता  है। राजनेता की  प्रज्ञा स्वयं के आसपास सामग्री का जायजा लेने और इसे उपयुक्त रूप से उपयोग करने और महान उद्देश्य को पूरा करने के लिए पूरी तरह से कौशल का उपयोग करने में निहित है। उनकी नीति अपनी नीतियों के लिए ज्यादा  समर्थन में निहित है।
अभूतपूर्व जीत के बाद नरेंद्र मोदी का आचरण, विशेष रूप से उनके दो भाषण - पहली जीत के दिन दिल्ली में पार्टी मुख्यालय में, दूसरा संसद में जब भाजपा और एनडीए के नेता के रूप में निर्वाचित हुए ।  वे भाषण बताते हैं कि नया भारत अपनी अंतर्वस्तु में ऐतिहासिक है। ऐसा प्रतीत होता  है कि भाषणों ने उन्हें हिंदू दर्शन की विशालता में भारत के पहले राजनेता के रूप में प्रदर्शित किया । उन्होंने कहा " जो हमें  वोट देते  हैं वे हमारे हैं , जिन्होंने वोट नहीं दिया वे भी हमारे हैं।" अपने पहले दो भाषणों में उन्होंने जो कहा उसका असर 8 जून को केरल के गुरुवयूर मंदिर की यात्रा के दौरान दिखा।केराल में  जब उन्होंने कहा: “जिन्होंने हमें वोट दिया था वे हमारे हैं और जो वोट नहीं देते थे वे भी संबंधित हैं। मेरे लिए केरल का वाराणसी के समान महत्व है। हम यहां राजनीति करने के लिए नहीं हैं। हम दुनिया में अपनी सही जगह हासिल करने के लिए भारत को सक्षम बनाने की राजनीति करते  हैं। "  जिस राज्य में भाजपा को एक भी सीट नहीं मिली वहां यह कहना  निश्चित रूप से एक राजनेता की निशानी थी।
23 मई के भाषण ने देश को उत्साह से भर दिया। इसमें कुछ ऐसे भी शामिल थे जिन्होंने उन्हें शक की निगाह से देखा। मुस्लिम नेताओं का मोदी की ओर होना  एक लंबी अवधि के पैन-इस्लामिक रणनीति है। इससे साफ लगता है कि वे सोचने लगे हैं कि मोदी रहेंगे और अब उनके साथ रहना होगा। इससे जाहिर होता है कि मोदी के भीतर के  राजनेता ने उन्हें भी प्रभावित किया था।
जैसा कि मोदीजी  ने कहा, “सरकार को भारी बहुमत के साथ चुना गया है  लेकिन सर्वसम्मति के साथ चलाया जाएगा। अब सब का साथ, सब का विकास और सबका विश्वास। अब, हम सभी का विश्वास जीतेंगे। यह मुसलमानों के लिए एक स्पष्ट संकेत था, जिनमें से 2019 के चुनावों में विशाल जन समूह  ने मोदी को हराने की कोशिश की थी, समुदाय के कुछ हिस्सों ने इस तथ्य की सराहना की थी कि मोदी सरकार ने कल्याण और विकास योजनाओं को लागू करते समय धार्मिक आधार पर भेदभाव नहीं किया था।
मोदी ने 23 मई के भाषण में महाभारत की लड़ाई में भगवान कृष्ण की भूमिका के बारे में बताया, इसकी तुलना 2019 के चुनावों और चुनावों में उनकी भूमिका से की गई थी। इस चुनाव ने भारतीय साँचे में एक राजनेता को ढाल दिया ।  मोदी ने कहा था  "महाभारत के बाद, जब कृष्ण से पूछा गया कि वह किस तरफ लड़े थे, तो प्रभु ने कहा कि उन्होंने न तो पांडवों, न ही कौरवों, बल्कि हस्तिनापुर के लोगों की तरफ से लड़ाई लड़ी थी, जिसका मतलब था वह धार्मिकता के पक्ष में लड़ी थी। "  मोदी जी ने इस बातसे खुद को जोड़ते हुए कहा,  "चुनावों के दौरान, मुझे लगा कि यह भारत के लोगों द्वारा लड़ा जा रहा है, किसी पार्टी या व्यक्ति द्वारा नहीं। ”
अपनी चिरपरिचित शैली में, भावनाओं को भड़काते हुए, मोदी ने कहा: “यह बीमार गरीबों की भी उतनी ही जीत है जितनी कि बीमार रोगी की। यह उन बेघरों की  जीत है, जो असंगठित क्षेत्र के मजदूरों और मध्यम वर्ग के करोड़ों मजदूरों के रूप में घर चाहते हैं, जिन्होंने ईमानदारी से करों का भुगतान किया, लेकिन उन्हें कभी रिटर्न नहीं मिला। ”
उन्होंने गांधी जी का उद्धरण देते हुए कहा , "अब केवल दो जातियां बनी हुई हैं: गरीब और जो गरीबी को समाप्त करने में मदद करना चाहते हैं। " 
एक राजनेता के रूप में जाति वर्ग और धर्म के मोर्चे से ऊपर उठ रहे राष्ट्र को एकजुट करने के लिए, मोदी ने कहा “यह परिणाम देश के सामने एक नई मिसाल  प्रस्तुत करता है। इसने सभी संभावित बाधाओं को ध्वस्त कर दिया है। अब केवल दो जातियां रह गई हैं: गरीब और वे जो गरीबी मुक्त भारत बनाने के लिए गरीबी उन्मूलन में योगदान देना चाहते हैं। हमें दोनों का समर्थन करना है - जो लोग गरीबी से बाहर आना चाहते हैं और वे भी जो इसे हटाने में मदद करना चाहते हैं। ”
गौरतलब है कि एनडीए और भाजपा के नेता चुने जाने के बाद  संसद में भाषण में कांग्रेस पर मोदी ने जोरदार हमला किया । उन्होंने कहा कि  “पिछले 70 वर्षों से, गरीबी को खत्म करने के नाम पर वोट मांगने वाले लोगों ने गरीबी को कभी खत्म नहीं किया। गरीबों को इस्तेमाल किया गया।  अल्पसंख्यकों को भी शासकों द्वारा उनके वोटों की खातिर उनमें भय की झूठी भावना पैदा करके उनका भी उपयोग किया गया ।  हमें इसे भी उजागर करने की दिशा में काम करना है। ” 23 मई के भाषण में, उन्होंने कहा कि जब उन्होंने कहा: '' धर्मनिरपेक्षता 'शब्द का शोषण अब बंद हो गया है। वास्तव में, पूरे चुनाव में किसी ने भी इस शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। हमारे शासन की पारदर्शिता ऐसी थी कि हमारे सामने भ्रष्टाचार का कोई मुद्दा नहीं था।
उन्होंने शाश्वत प्रतिज्ञा की: “मैं राष्ट्र से वादा करता हूं कि मैं  गलती कर सकता हूं  लेकिन मैं बुरी नीयत से कुछ नहीं करता। मैं अपना हर मिनट अपने देशवासियों के लिए समर्पित करूंगा। अगर मैं लड़खड़ाता हूं, तो कृपया मुझे डांटने में संकोच न करें। हमेशा यह देखने के लिए सतर्क रहें कि क्या मैं अपने निजी जीवन में अनुसरण कर रहा हूं, जो मैं सार्वजनिक जीवन में कहता हूं। "  
जवाहरलाल नेहरू की राज्यशिल्पी की प्रकृति क्या थी, कोई पूछ सकता है। नेहरू की राज्यशैली में पश्चिमी घाट थे। वह पश्चिमी उपमाओं का उपयोग करके दुनिया की विधानसभाओं में अपनी बात रखने के लिए अधिक सहज थे। मोदी ने प्राचीन भारतीय दर्शन पर आधारित उपमाओं का उपयोग करके अपने संदेश को व्यक्त करने के मार्ग से कभी विचलित नहीं किया, यहां तक ​​कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी।
एक राजनेता को समाज के हर वर्ग के लिए होना चाहिए। नेहरू अल्पसंख्यकों के पक्षपाती थे।  हिंदुओं ने विभाजन के समय भी अल्पसंख्यकों को उनके अधिकारों की कीमत पर विशेष अधिकार प्राप्त होते देखा था, मुसलमानों के एक वर्ग के लिए वे आक्रामक होने लगे।मोदी ने अपनी नीतियों और योजनाओं को लागू करते हुए, बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के बीच कभी भेदभाव नहीं किया।
वे जब भी विदेशों का दौरा करते हैं तो वहां के भारतीयों को संबोधित करने केलिए एक मसला तैयार करते हैं। जैसा कि उन्होंने श्रीलंका के अपने हालिया दौरे पर कहा, “भारत में वर्तमान सरकार और एनआरआई के बीच एक अद्वितीय संबंध है, चाहे एनआरआई एक अफ्रीकी गांव में एक छोटी दुकान का मालिक हो या श्रीलंका का एक एनआरआई। वह भारत के बारे में उसी तरह से सपने देखता है जैसे भारतीय प्रधानमंत्री देखते  हैं। हमारे लोगों की यह संयुक्त ऊर्जा है जो हमारे राष्ट्र को महान बना रही है ”।  मोदी जी की यही बातें उन्हें भारतीय सांचे में ढले , भारत में पले और पूर्ण भारतीय विचार वाले वैश्विक नेता का स्वरूप प्रदान करती हैं।

Tuesday, June 11, 2019

राष्ट्र की सुरक्षा के लिये इस बार मोदीजी  की ड्रीम-टीम

राष्ट्र की सुरक्षा के लिये इस बार मोदीजी  की ड्रीम-टीम

अगले पांच वर्षों के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजीत डोभाल की नियुक्ति और कैबिनेट रैंक में उनकी प्रोन्नति  के साथ, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति के सम्पूर्ण परिदृश्य  को संभालने के लिए चार लोगों की एक टीम  मिली  है। इन चार लोगों में  गृह मंत्री अमित शाह, विदेश मंत्री एस.जयशंकर, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार  अजीत डोभाल शामिल हैं। इससे यह कयास लगाया जा सकता कि मोदी जी किसी को उसकी औकात बताने जा रहे हैं या किसी के खिलाफ कोई चाल चने वाले हैं। इसके लिए पहले उनके पास मजबूत आधार नहीं था। यदि कोई  कुछ भी  समझता है तो उसकी सत्ता के गलियारों तक पहुंच नहीं है या फिर उसके पास यह जानकारी नहीं है कि   मोदी जी  की यह टीम  कैसे काम करती है या  टीम के सदस्यों के बीच व्यक्तिगत संबंध कैसे हैं।
बात यह है कि इस टीम के मोदी अविवादित नेता  हैं। उनके द्वारा चुनी गई पूरी टीम को एक ऐसे उद्देश्य और  दिशा में काम करना होता है जो उसके द्वारा निर्धारित और परिभाषित किया गया हो। मोदी एक योग्य प्रधानमंत्री हैं, जो हमेशा घेरे  में रहना चाहते हैं और हमेशा सब पर  निगरानी रखते हैं। बावजूद इसके वह  अपने सहयोगियों को निर्णय लेने के लिए पर्याप्त अधिकार देते हैं। कहा तो यह भी जाता है कि वे यह भी समझते हैं कि असहमति की स्थिति में  किस दृष्टिकोण को अपनाना है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि बॉस के करीब आने और एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए   टीम के सदस्यों के बीच भारी व्यक्तित्व का संघर्ष , अहंकार की समस्याएं और गला काट प्रतियोगिता है। ऐसे विचार या धारणाएं  गलत हैं। मोदी सरकार के कामकाज के बारे में किसी ने क्या जाना  है ? यह बात अलग है लेकिन एक दरबार में  शीर्ष बॉस का ध्यान आकर्षित करना जहां सत्ता का टिकट है वहां  अपने महत्व को बढ़ाने के लिए पीएम से निकटता की कोशिश करने वाले अधिकारियों ने कठिन तरीके से सीखा है वे जानते हैं कि ऐसी कोशिशें  दृढ़ता से हतोत्साहित कर दी जाती हैं। मोदी अपने सहयोगियों और अधिकारियों के काम को महत्व देते हैं, न कि चाल  को। मोदी से निकटता की तुलना में प्रदर्शन और अधिकता मायने रखती है।परिणाम और वफादारी   चाटुकारिता पर भारी पड़ती है।
मोदी ने जिस राष्ट्रीय सुरक्षा दल का चयन किया है, वह न केवल उनके पूर्ण विश्वास में है  बल्कि उनके पास अनुभव, गाम्भीर्य और प्रतिबद्धता भी है। साथ ही , उनमें  बौद्धिक वजन , परिचालन अनुभव और निर्णय लेने और नीति बनाने में राजनीतिक समझ भी है।  मोदी के साथ  यह एक टीम है जो संयोजन के रूप में काम करेगी, न कि एक दूसरे के  उद्देश्यों को काटने के लिए। संघर्ष और चीजों को अपनी दिशा में खींचने के बजाय, सहयोग और कार्रवाई का समन्वय होगा। इस टीम के सदस्यों द्वारा कोई "साम्राज्य" का  निर्माण नहीं किया जाएगा। इन चारों  की अपनी शैली और प्राथमिकताएं हो सकती हैं ताकि वे उद्देश्यों को प्राप्त कर सकें, लेकिन वे इस तरह से काम करेंगे कि वे एक दूसरे के पूरक हों। वे एक-दूसरे के लिए एकदम सही महसूस  करेंगे।
जयशंकर और डोभाल एक साथ कैसे काम करेंगे, इसके बारे में सोच रहे लोगों को केवल यह देखना होगा कि उन्होंने मोदी जी पहली पारी में एक टीम के रूप में साथ काम किया और वे सभी परिणाम जो उन्होंने एक साथ हासिल किए। बेशक, वे नीति के कुछ मुद्दों पर असहमत थे, लेकिन भारत के हितों को आगे बढ़ाने और उसे पूरा  करने के लिए जो भी नीति अपनाई गई थी, उसके मूल उद्देश्य पर वे कभी असहमत नहीं हुए। ऐसे क्षेत्र होंगे जिनमें जिम्मेदारियां एक दूसरे के अधिकार क्षेत्र को स्पर्श करती  होंगी। ऐसी स्थिति में  कश्मीर तुरंत दिमाग में आ जाता है क्योंकि यह टीम के  प्रत्येक सदस्य के अधिकार के दायरे में आता है। पाकिस्तान एक और मुद्दा है जहां समन्वित कार्रवाई के रूप में सभी चार के इनपुट की आवश्यकता होगी। इसी तरह, अन्य मुद्दे होंगे जिनमें डोभाल और शाह, या डोभाल, जयशंकर और सिंह को एक साथ काम करना होगा।
चुनाव के नतीजों  की खुशफहमी में यह नहीं भूलना चाहिए कि आंतरिक और बाहरी दोनों तरह से, बड़ी चुनौतियां हैं जिन्हें  मोदी सरकार को अपने नए कार्य काल  में सामना करना होगा। घरेलू तौर पर, कश्मीर को बहुत अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है । जो कोई भी सोचता है कि अमित शाह एक जादू की छड़ी घुमाएंगे और कश्मीर सामान्य हो जाएगा, वह  वैकल्पिक वास्तविकता में जी रहा है। इसके लिए सबसे अच्छी उम्मीद की जा सकती है कि सरकार कश्मीर के बारे में 20 साल की योजना बनाएगी और जरूरी व्यूह रचना आरम्भ कर देगी।यह नीति   अंततः अशांत स्थिति में स्थिति को सामान्य बनाएगी। ऐसा करने के लिए टीम के चार सदस्यों में से तीन से सभी सहायता, सहायता, सलाह की आवश्यकता होगी। इसी तरह, नक्सल समस्या से निपटना  है। अन्य निर्मित संकट और विवाद होंगे कि वाम उदार  समूहों के चौथे और पांचवें स्तंभों को उकसाने, भड़काने और आग लगाने की कोशिश की जाएगी - भाषा का मुद्दा एक उदाहरण है। इन्हें चतुराई से संभालने की जरूरत होगी।
आतंकवाद की समस्या भी दूर नहीं होने वाली है। कुछ भी हो, यह केवल बढ़ेगी। सरकार ने पिछले पांच वर्षों में इसे अच्छी तरह से संभाला है, लेकिन अगले पांच वर्षों में आतंकवादी हिंसा में एक बड़ी वृद्धि देखी जा सकती है, जिसमें अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी समूहों के बढ़ते पदचिह्न भी शामिल हैं।  हमेशा भारत में आतंकवादी निर्यात करने वाले पड़ोसी हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा की इस टीम को मोदी जी के दूसरे कार्यकाल  में आतंकवाद की चुनौतियों का सामना करने के लिए पहले कार्यकाल की सफलताओं  पर कदम बढ़ाना  होगा। 

Monday, June 10, 2019

भारत बदल रहा है

भारत बदल रहा है

"द पावर एलीट " जैसे क्लासिक कार्यों के लिए मशहूर अमरिकी समाजशास्त्री सी.राइट मिल्स ने ड्वाइट डी. आइजनहावर के राष्ट्रपतित्व (1953-61) काल को महान उत्सव बताया है।  अमरीका अपने वर्चस्व  को तब भी  देता रहा था जब शीतयुद्ध और मैकार्थी युग अपने अंतःक्षेत्रों को धीरे -धीरे कम कर रहे थे। उस समय का कुछ पाखंड और शालीनता आज के भारत में देखने को मिल रही  है। हम भविष्य से ताल्लुक रखते हैं, फिर भी एक देश के रूप में हम कितने पुराने हो गए हैं। नरेंद्र मोदी सरकार  बड़ी जीत का जश्न मना रही है हालांकि वह  विडंबनापूर्ण घटनाओं की एक श्रृंखला  है। इसके चुनावी स्कोर का  पैमाना और विपक्ष की लघुता  का इसे असंतुलित कर दिया है। 
हम लोकतंत्र का जश्न उसी क्षण मनाते हैं जब हमारे बहुसंख्यकवाद  ने बहुलतावाद की हमारी भावना को नष्ट कर देता है। असहमति, हाशिये पर खड़ी जमात, अल्पसंख्यकों का  हमारे सामने कोई स्थान नहीं है।
हम एक ऐसे राष्ट्र  की स्थापना कर रहे हैं, जहां विचार सेना के  रूप में दिखते हैं और  जनता के राष्ट्रवाद को देशभक्ति के रूप में देखा  जाता है।
हम कॉरपोरेट पावर और राष्ट्र  के बीच गठजोड़ को विकास के रूप में देख रहे  हैं और इस अहसास से भरे  हैं कि इस तरह के विकास के सिद्धांत में मनुष्य और देश की भौगोलिक तथा भौतिक स्थिति के  लिए कोई नैतिक स्थान नहीं है। हमने जलवायु परिवर्तन की चुनौती को असंतोष के कूड़ेदान में फेंक   दिया है। हम अपने आदिवासियों या अपने समुद्र तटों की भेद्यता के प्रति उदासीन हैं। तीसरे विश्व के राष्ट्र  के रूप में हमारी धर्मनिष्ठा ने हमारी नैतिकता को एक सभ्यता के रूप में शून्य कर दिया है। हमारे स्वदेशवाद की शून्यता ने हमारे स्वराज की रचनात्मकता, स्थानीयता और इस भूभाग को एक के रूप में देखने की हमारी क्षमता को नष्ट कर दिया है।
हम दिखावा करते हैं कि हम एक ज्ञान जन्य अर्थव्यवस्था की खोज में हैं, जब हमारे ज्ञान की भावना एक संस्कृति के रूप में अर्थ खो चुकी है और पूरी तरह से सहायक हो गई है। जिस क्षण हम पश्चिम द्वारा और चीन द्वारा अपमानित  किये जाते  हैं तो हम ज्ञानजन्य अर्थव्यवस्था के रूप में अपनी प्राचीन सभ्यता के लिए प्राथमिकता का दावा करते हैं। हमारे पास एक शासन है जो एक प्राचीन अतीत के प्रति प्रतिबद्ध है, लेकिन भविष्य में इसका सामना करने वाली समस्याओं के बारे में हमें मालूम नहीं है।
फिर भी इस चुनाव के जश्न पर बजते ढोल के कारण  हम यह सोचने लग गए हैं कि  भारत विश्व मंच पर आ गया है। यह एक खबर  है और हमारे बुद्धिजीवी इसे  चुनौती देने से डरते हैं क्योंकि उन्हें डर है कि कहीं उन्हें राष्ट्रविरोधी न करार दे दिया जाय।  सवाल यह है कि हम ऐसी स्थिति को कैसे चुनौती सकते  हैं जिन स्थितियों का  हम जश्न मनाते हैं जो हमें सामान्यता की दुनिया में ले जा रही हैं?
चारो तरफ डुगडुगी बजायी जा रही है कि  कांग्रेस तो गयी और   उदारवाद समाप्त चुका है, कि मार्क्सवाद बीते दिन के अखबार की तरह बासी हो चुका है । ऐसा लगता है कि  पहले भारत हीनता की गहरी भावना से ग्रस्त था। हमने खुद को इतिहास के शिकार के रूप में देखा। राजनीतिज्ञ हल्दीघाटी के युद्ध को फिर से लिखने में समय बर्बाद कर रहे हैं, क्योंकि  भविष्य के किसी भी जंग से महत्वपूर्ण होगी। भारत को आज ऐसा लग रहा है कि उसने नेहरूवादी मॉडल के खिलाफ जीत हासिल कर ली है जिसने उसे हरा दिया था। हमें लगता है कि हमने खुद को खत्म कर लिया है और यह जीत एक नए भारत के लिए मनोवैज्ञानिक शुरुआत है। यह मनोवैज्ञानिक अवस्था है जिसे हमें समझने की आवश्यकता है। हमें लगता है कि हमने अपने पिछले भ्रमों को दूर कर दिया है। चुनावी स्कोर का शाब्दिक अर्थ एक कैथारिस के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, अतीत का  एक शुद्धिकरण  जहां भारत पुनर्जागरण के बाद  वैश्विक भविष्य के लिए तैयार  है। 
हम यह सोचते  हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह सफल चुनाव विशेषज्ञ हैं  लेकिन यह वास्तविकता नहीं है। दरअसल  वे समकालीन भारतीय दिलोदिमाग लाजवाब जानकार हैं।  हम अपने महान राष्ट्रवादी  आंदोलनों, सभ्यता की बातें करते हैं और नरेंद्र मोदी ने हमारी हीन भावना को भांप लिया।  सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी की कांग्रेस ऐसी अवस्था के बारे में सोचकर बहुत अभिमानी थी। यह किसान की गरीबी के बारे में सोच सकते थे, लेकिन दर्शन की दरिद्रता के बारे में   नहीं या फिर वह   छोटी मानसिकता के बारे में जो हमें परेशान करती थीं। यह सच है कि हम आकांक्षी थे, फिर भी हमारे आत्मविश्वासी होने की हमारी भावना ने संदेह को छिपा दिया।

इस चुनाव को जिन्होंने हमारे भीतर एक नई मानसिकता पैदा कर दी है, जिससे हम आत्मविश्वास से लबरेज हो गए हैं। जिन्होंने हमें जीत लिया है। इससे पहले कि कोई  में प्रतिक्रिया करता है, याद रखें कि कोई भी शासन वर्तमान से अधिक औपनिवेशिक नहीं रहा है। यह ऐसा है जैसे पूरा देश उन्नत राष्ट्रों के कुछ प्रमाणपत्रों की प्रतीक्षा कर रहा था। भारत ने खुद को राष्ट्रवाद, विकास और विज्ञान के रूप में तैयार किया है, यह दिखाते हुए कि इस सहस्राब्दी के आरंभ के  भारत का पहला कदम था। एक विडंबनापूर्ण तरीके से भारत मोदी बन गया और मोदी भारत बन गये। हमने खुद को एक नकली राष्ट्र में बदल दिया है।
हमें इसका सामना करना चाहिए। हमारे अभिजात वर्ग, हमारे उदारवादी, हमारे मार्क्सवादी, बहुलतावादी और सभ्यता के हमारे उत्सव के विचारों से उन्हें कोई मतलब नहीं था जो महसूस करते थे कि वे बाहर निकल गए हैं। बाद में उन्होंने  महसूस किया कि वे इतिहास में शामिल नहीं हुए थे।  विकास ने उन्हें कहीं नहीं पहुंचाया था।  श्री मोदी ने नुकसान और नाराजगी की भावना और पहचान की आवश्यकता को महसूस किया। यह एक सांस्कृतिक ईर्ष्या थी। खादी और ग्रामोद्योग आयोग के कैलेंडर में गांधी की बगल में जगह लेने की उनकी कोशिश की तरह ।  एक राष्ट्र के रूप में हमें नजरअंदाज किये जाने के इस अर्थ ने हमें परेशान किया।  मोदी जी ने इस ईर्ष्या का इस्तेमाल किया और नफरत की महामारी  वैध बनाया। अन्य तथ्यों को फिर से निर्मित करना पड़ा और पराजित करना पड़ा।  2002 उस उद्घाटन के लिए मिथक बन गया। दंगा या  लिंचिंग इतिहास का एक क्षण बन गया। हर दंगाई को लगा कि वह इतिहास पर विजय प्राप्त कर रहा है। हिंसा बीतने का संस्कार बन गई, जिससे हमने अपनी मर्दानगी को खो दिया।

लेकिन मर्दानगी को ठीक करना काफी नहीं है। इसे देशभक्ति में विस्तारित करना , वैध बनाना और सांप्रदायिकता के ढांचे की आवश्यकता है।  बहुसंख्यकवाद नया राष्ट्रवाद बन गया।
चुनावी विश्लेषण जो सामने आरहे हैं वे अजीब  हैं, हकीकत से  बचने के लगभग प्रक्रिया है। एक तुच्छ  समाजशास्त्र है जो या तो दिखाता है कि राजनीतिक दलों के पास कोई अर्थ नहीं था या नेतृत्व करने के लिए एक चीख पुकार थी।  यह सामूहिक मानस या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को लोक मनोविज्ञान को जन मनोविज्ञान में बदलने की क्षमता का सामना करने में विफल रहता है। चुनाव के स्कोर का अध्ययन एक चार्टर्ड अकाउंटेंट की तरह इसे पढ़ने की कोशिश है या   एक महामारी या हिमस्खलन देखने जैसा है। आरएसएस के मन में भारत के प्रति जो आक्रोश था, उसकी गहरी समझ थी और इसने इस हिंसा को राष्ट्र, सुरक्षा और देशभक्ति जैसी सही श्रेणियों के साथ अन्य के लिए प्रस्तुत किया। इसने तर्कहीनता की शक्ति को समझा और उसका दोहन किया।  श्री शाह के समाजशास्त्र में आधिकारिक समाजशास्त्र की पाठ्यपुस्तकों की तुलना में अधिक रचनात्मक शक्ति थी। पराजित कार्यकर्ताओं और विद्वानों के रूप में, हम इसे व्यावहारिक रूप से देख सकते हैं। फिलहाल एक ऐसा भारत निर्मित हुआ है जिसे हमें समझने की आवश्यकता है।
अब श्री मोदी लुटियन की दिल्ली हैं, और हमें इसके परिणाम को समझने की आवश्यकता है। हमें उसकी आलोचना करने के लिए अंतर्दृष्टि का एक अलग सेट चाहिए। भविष्य की चुनौती एक अलग लोकतंत्र का आविष्कार करने की हमारी क्षमता में निहित होगी, और नीतिगत आलोचना या ऐसे विकल्पों की तलाश में नहीं फंसना चाहिए जहां कानून और व्यवस्था लोकतांत्रिक आविष्कार को विस्थापित करती है। भारत का हमारा विचार अभी भी असंभव संभावनाओं को आमंत्रित करता है।

Sunday, June 9, 2019

कांग्रेस का संकट केवल परिवार ही नहीं है 

कांग्रेस का संकट केवल परिवार ही नहीं है 

कांग्रेस के समक्ष फिलहाल दो चुनौतियां हैं हालांकि दोनों पूरी तरह असंबद्ध नहीं हैं। पहला तो है कि यह अयोग्य परिवार पर निर्भर है। 2007  में जब राहुल गांधी ने युवा कांग्रेस की बागडोर संभाली थी तो उनका घोषित लक्ष्य था पार्टी के कामकाज में लोकतांत्रिक व्यवस्था लाना। वे इस लक्ष्य को पूरा करने में बुरी तरह असफल हो गए। वे पार्टी में नई प्रतिभाओं को सामने नहीं ला सके। यह उनकी असफलताओं में पहली असफलता थी। परिवार के लोगों को ही पार्टी का वारिस बनना कांग्रेस के लिए कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं है। यह भारत और दक्षिण एशिया के राजनीतिक संगठनों में प्रचलित है। नरेंद्र मोदी बड़ी ही चतुराई और सफलता से लोगों के मन में यह बात बिठा दी कि भारत में सारी समस्याओं के मूल में , चाहे वह सत्य हो काल्पनिक ,नेहरू- गांधी परिवार ही  है। लेकिन, गौर करें कि भारतीय जनता पार्टी में भी परिवारवाद चलता और ये परिवार बड़ी शांति से अपने लिए  अपने चतुर्दिक छोलदारियों खड़े कर रहे हैं। 
  कांग्रेस के सामने और दुनिया भर की जो बड़ी पार्टियां हैं उनके सामने जो सबसे बड़ी समस्या है वह है पहचान की राजनीति की उभार। अमरीका में 2009 में जब बराक ओबामा और की विजय पर गौर करें भारत में अधिक जनादेश के साथ कांग्रेस सत्ता में आई तो ऐसा लगा कि दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद पर उदारवाद तथा समावेशी राजनीति की विजय हुई है।लेकिन 2016 के बाद देखने में आ रहा है कि नस्लवादोत्तरअमरीका का ओबामा का सपना चूर - चूर हो गया है। डोनाल्ड ट्रंप ने श्वेत समुदाय को एक जुट कर जनादेश हासिल किया। ट्रैम्प ने पूर्वर्ती अफ्रीकी-अमरीकी राष्ट्रपति की कामयाबियों के हर दस्तखत मिटा दिए। ठाब जो वहां 2020 के राष्ट्रपति चुनाव के प्राथमिक अभियान चल रहे हैं वह साफ बताते हैं कि वह लैंगिक और जातीय पहचानों पर केंद्रित है। 
     जहां तक कांग्रेस की बात है तो उसकी 2009 की विजय ने गिरते वोट प्रतिशत पर एक नकाब दाल दी।1989 में कांग्रेस को 39.53% वोट मिले थे जो 2009 में घाट कर 28.55% हो गए। कांग्रेस के वोटों में लगातार गिरावट और उसी के समानांतर जातीय, धार्मिक, भाषायी, क्षेत्रीय पहचानों के आधार पर दल गठित होते गए।इस प्रक्रिया ने कांग्रेस को पहचान के आधार पर दो हिस्सों में तोड़ना आरम्भ कर दिया। मुस्लिम वोटरों के अलावा जो उदारवादी हिन्दू वोट थे वे दो हिस्सों में टूटने लगे। इनमें  पहला  था हिन्दू मतों से अपील के बाद से एकजुट हुआ हिस्सा और दूसरा था हिन्दू समाज के भीतर कुछ खास समुदायों का हिस्सा।  यह हिस्सा वी पी सिंह के काल में तेजी से उभरा था। भारतीय जनता पार्टी ने इस स्थिति का लाभ उठा उसने मुस्लिम वोट बैंक के नाम से ईर्ष्या और नफरत फैलाना आरम्भ कर दिया।
       2014 और 2019 के चुनावों में नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने गैर यादव अन्य पिछड़े दलों को भाजपा के बहुलतावादी-राष्ट्रवादी विचारों की ओर आकर्षित कर अपने झंडे ठाले एकत्र कर लिया। इसने सर्वभारतीय स्तर पर एक हिन्दू वोट बैंक का सपना पूरा कर दिया।  आंकड़े बताते हैं कि 2019 के चुनाव में भाजपा को सवर्ण हिंदुओं के 55% वोट मिले थे जबकि हिन्दू ओ बी सी के 44%,हिन्दू दलित के 34% और हिंदी आदिवासी समुदाय के 44% वोट मिले थे। इसके अलावा 8% मुस्लिमों ,11% ईसाइयों और 11% सिखों के भी वोट मिले थे। इससे पता चलता है कि पिछले लंबे अरसे से हिंदुत्व और धर्मनिरपेक्षवादी राष्ट्रीयता में जो रस्साकशी चल रही थी उसमें धर्मनिरपेक्षवादी राष्ट्रीयता कमजोर  पड़ने लगी। कमजोर पड़ने वाले पक्ष का झंडा कांग्रेस ने उठाया रखा था। यहां आकर अमर्त्य सेन का वह कथन सही नहीं प्रतीत होता है कि " हिन्दूराष्ट्रवाद के दर्शन की कोई खास फतह नहीं हो पा रही है नाही गांधी, नेहरू और टैगोर के समावेश थता एकता के विचार पराजित नहीं हो रहे हैं।" भाजपा ने ना केवल सत्ता का संघर्ष ही जीता बल्कि विचारों का संघर्ष भी जीत लिया। अमर्त्य सेन यहां चूक गए उन्होंने  संघ परिवार राष्ट्रीयता के विचारों को कम करके आंका। उन्होंने उस परिवर्तन का आकलन नहीं किया जो देशभर में वामपंथी दलों में हुआ ।यह परिवर्तन कुछ उसीतरह था जैसा अमरीका में पहचान की राजनीति के रूप में डेमोक्रेटिक पार्टी में हुआ। वामपंथ का भारत के राष्ट्रवाद के प्रति विचार धीरे धीरे खत्म हो गया। यहां एक नात उठती है कि क्या कांग्रेस किसी ऐसे करिमायी और प्रतिभाशाली नेता को सामने ला सकती है जो दिलोदिमाग की इस जंग को जीत सके, जो न केवल हिंदुत्व का मुकाबला कर सके बल्कि नववामपंथ को भी  पराजित कर सके। नव वामपंथ का यह मानना है कि गांधी, नेहरू और टैगोर की समावेशी नीति और एकता के विचार केवल उच्चवर्ग के वर्चस्व को बढ़ाते हैं।
दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद की लहर बेशक घटेगी  लेकिन तब तक  सभी तरह की राजनीति पहचान की राजनीति में बदल जाएगी और कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टियां और उसके विचार निष्क्रिय हो जाएंगे।