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Saturday, May 30, 2020

मोदी जी के 365 दिन



मोदी जी के 365 दिन


आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरे दौर के 365 दिन पूरे हुए। भारत के इतिहास में यह कोई बड़ी बात नहीं है। भारतीय लोकतंत्र में 1 साल के वक्त गुजरना कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि सरकार की अवधि 5 साल की होती है। इसमें बड़ी बात यह है कि यह 2 वर्ष कैसे गुजरे और इन 2 वर्षों में सरकार ने जो सपने देखे थे जो वायदे किए थे उनमें कितने पूरे हो सके और कितने यूं ही रह गए।इसके अलावा कोई काम ऐसे हैं जो इस स्थिति के अनुसार किए गए। फैसले से पीछे जिनका विरोध भी हुआ। मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान ऐतिहासिक असर करने वाले भी फैसले लिए जिनमें आत्मनिर्भर भारत अभियान भी एक है। महत्वपूर्ण रहा कश्मीर से धारा 370 को हटाया जाना और तीन तलाक को खत्म किया जाना सबसे महत्वपूर्ण है। महामारी के दौरान बिगड़ी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए मोदी जी ने 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज की घोषणा की। इस फैसले की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 21वीं सदी की भारत हो यह सब का सपना ही नहीं जिम्मेदारी है। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा था आत्मनिर्भरता के रास्ते पर चलना होगा। इसके लिए इकॉनमी इंफ्रास्ट्रक्चर सिस्टम डेमोग्राफी और डिमांड जैसे कम हो को मजबूती देने का आह्वान भी किया। मोदी सरकार ने कश्मीर में धारा 370 को निष्प्रभावी बनाने के साथ-साथ राज्य को दो हिस्से में बांटने का भी काम किया। इस फैसले का महत्त्व इसी से जाना जा सकता है जब से भारत आजाद हुआ तब से अब तक एक विधान और एक निशान नहीं था। मोदी जी ने फैसला लेकर एक देश एक विधान और एक निशान लागू कर दिया। यह फैसला भारत के इतिहास सदा याद किया जाता रहेगा। भारत में कश्मीर को दो हिस्से में बांटने के अलावा कोई इतना महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक कार्य नहीं हुआ था जिसे भारत के इतिहास में सदा याद रखा जाए। मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से निजात दिलाने का कदम नहीं उठाया। मुस्लिम विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक 2019 को संसद के दोनों सदनों से पारित करवाया। यही नहीं नागरिकता संशोधन कानून को भी मोदी सरकार में इसी कार्यकाल में अमलीजामा पहनाया। 10 जनवरी 2020 को इसे पूरे देश में लागू कर दिया गया। इस कानून से पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में रह रहे लाखों हिंदू बौद्ध सिख पारसी ईसाई और यहूदी लोगों को भारत की नागरिकता मिल सकती है। इसका प्रचंड विरोध हुआ लेकिन सरकार ने अपना फैसला नहीं बदला हां इतना जरूर कहा किसी भी अल्पसंख्यक नागरिकता नहीं छीनी जाएगी। यू ए पी ए यानी गैर कानूनी गतिविधि रोकथाम विधेयक 2019 भी इसी दौर में पारित हुआ।


एक देश एक राशन कार्ड जैसा ऐतिहासिक निर्णय भी इसी दौर में किया गया। इस योजना के तहत पूरे देश में एक ही राशन कार्ड पर कोई भी व्यक्ति कहीं से भी राशन उठा सकेगा। यह योजना 1 जून से आरंभ होगी और इसके अंतर्गत बिहार उत्तर प्रदेश पंजाब तेलंगना महाराष्ट्र गुजरात हरियाणा राजस्थान कर्नाटक मध्य प्रदेश झारखंड गोवा त्रिपुरा हिमाचल प्रदेश और दमन दीव पहले ही जुड़ चुके हैं। इससे ना केवल भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी बल्कि रोजगार के लिए कहीं दूसरी जगह जय लोगों को मिलने वाली सब्सिडी भी उन्हें मिलती रहेगी अब गरीबों को सब्सिडी वाले राशन से वंचित नहीं होना पड़ेगा।


इसी के साथ आर्थिक क्षेत्र में भी एक क्रांतिकारी परिवर्तन किया गया। 10 सरकारी बैंकों का विलय कर चार बड़े बैंक बनाए गए। इससे बैंकों के बढ़ते एनपीए से राहत मिलेगी।


5 साल की अवधि को पूरा कर दूसरे दौर में चुनाव को जीत कर आना अपने आप में सनद है कि सरकार ने पहले दौर में लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरने का प्रयास किया और यह प्रयास न केवल दिखा बल्कि देशवासियों को विश्वसनीय भी लगा। नरेंद्र मोदी ने अपने शासन के दूसरे दौर का बागडोर संभालते कुछ वायदे किए थे जैसे अर्थव्यवस्था को गति देकर उसे 5 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाना , सबके लिए मकान , सबके लिए स्वास्थ्यऔर जल सुरक्षा। जरा गौर से देखें तो लगेगा इन तीनों में अन्योन्याश्रय संबंध है। लेकिन इसका थोड़ा विश्लेषण करें तो निष्कर्ष मिलेगा तीनों एक होते हुए भी अलग अलग हैं। इन्हें एक मान कर एक साथ मूल्यांकन करना गलती होगी। जैसे अर्थव्यवस्था में भारी सुधार होने के बावजूद जल सुरक्षा संभव नहीं है। आर्थिक स्थिति चाहे जितनी मजबूत हो अगर पानी नहीं है तो उसे प्राप्त करना बहुत कठिन है। क्योंकि यह जीवनशैली से जुड़ी आदत है उसी तरह स्वास्थ्य भी जीवनशैली पर निर्भर एक अवस्था है। मोदी जी ने इन्हें बड़ी बारीकी से परखा और फिर इसकी उपलब्धता की कोशिश में लग गए। इसलिए आइए पहले सबके लिए आवास के उनके वायदे को देखते हैं।


जब मोदी सरकार ने दूसरे दौर की कमान संभाली तो उन्होंने एक करोड़ 13 लाख घरों की जरूरतों को महसूस किया। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1 वर्ष बीतते बीतते लगभग 27 लाख घर तैयार हो गए यानी देश के लगभग 27 लाख बेघर लोगों के सर पर छत हो गई। कोशिशें अभी जारी हैं। गांव में 2 करोड़ घरों की जरूरतों का आकलन किया गया और इनमें लगभग 20 लाख घर तैयार हो चुके हैं। इसमें बड़ी बात यह है यह सारे घर सभी जरूरी सुविधाओं से जैसे पानी, बिजली इत्यादि से युक्त हैं। इसका मतलब है करीब करीब 50 लाख बेघर लोगों को रहने लायक घर मिला। यह मानव संसाधन हमारी अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में जुट जाएगा।


यही हाल स्वास्थ्य में सुधार की कोशिशों का भी है। इतनी बड़ी आबादी और इसमें तरह-तरह की आदतें जीवनशैली इत्यादि के बाद भी सरकार ने जो आयुष्मान भारत योजना आरंभ की और गांव के लिए मोदी जी ने मोदी केयर योजना की मंजूरी दी उसकी सारी दुनिया की नजर गई। आलोचकों का कहना है कि इससे केवल निजी अस्पतालों को ही लाभ मिल रहा है। बेशक यह बात है लेकिन उसका कुछ कारण भी है। निजी अस्पतालों में जो उपकरण और विशेषज्ञ हैं वह अभी सरकारी अस्पतालों मैं नहीं हैं। फिलहाल, हमें जनता के स्वास्थ्य को देखना है किसी योजना के गुण या अवगुण को नहीं। इस दिशा में भी प्रधानमंत्री ने कदम उठाया है और पूरे देश में लगभग 1 लाख 50,000 हेल्थ सेंटर खोलने की योजना बनाई है जिनमें 8000 काम भी करने लगे हैं।





मोदी सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था को 5 खरब डालर तक पहुंचाने योजना बनाई थी। यद्यपि कोविड-19 जैसी महामारी के कारण हमारी अर्थव्यवस्था को आघात लगा है और 5 खरब डालर तक पहुंचना अब संभव नहीं लग रहा है। फिर भी कोशिश जारी है क्योंकि अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा योगदान सेवा क्षेत्र का होता है और यह क्षेत्र बेरोजगारी के कारण ठंडा पड़ गया है।

Thursday, May 28, 2020

भारत चीन सीमा पर बर्फ पिघली



भारत चीन सीमा पर बर्फ पिघली


भारत चीन के बीच संबंधों में तनाव आ गया था और ऐसा लग रहा था कि बस जंग होने वाली है। लेकिन भारत का जवाबी रुख देखकर चीन थोड़ा नरम पड़ गया और भारत में चीनी राजदूत सुन वेइडोंग ने कहा कि मतभेदों का असर द्विपक्षीय संबंधों पर नहीं पड़ने देना चाहिए और आपसी विश्वास बढ़ाया जाना चाहिए। यह भाषा कूटनीतिक है और समझने वाली है अगर कोई पक्ष संबंधों पर असर नहीं डालना चाहता तो फिर मतभेद होंगे ही क्यों? झूठ बोलना चीन के डीएनए में शामिल है। 1960 के दशक में हिंदी चीनी भाई भाई और पंचशील के नारों की गुहार करता चीन भारत में घुस आया था और भारत को काफी हानि उठानी पड़ी थी। उस समय लद्दाख में चीन का जिओ पॉलीटिकल वर्चस्व था। आज भारत की तैयारी देखकर चीन ने यह समझ लिया कि यह मोदी का भारत है और मुंह तोड़ जवाब मिलेगा। वैसे भी चीन दुनिया भर में अपने विरोध के कारण बहुत ज्यादा उग्र नहीं हो सकता। क्योंकि उसने देख लिया चीनी तैयारी के खिलाफ भारत तो तैयार है ही अमेरिका भी मध्यस्था करने को खड़ा है। यही कारण था चीनी राजदूत ने सैन्य गतिरोध कहा कि बातचीत के जरिए मतभेद सुलझाए जाने चाहिए। चीन के राजदूत ने कहा हमें मूल निर्णय का पालन करना चाहिए कि दोनों देशों के पास एक दूसरे के लिए अवश्य हैं दोनों को एक दूसरे से कोई खतरा नहीं है। हमें एक दूसरे के विकास के लिए सही तरीके से देखने और रणनीतिक विश्वास बढ़ाने की जरूरत है। चार मोर्चा पर भारत और चीन आमने सामने है। पिछली 5 और 6 मई को पेंगोंग त्सो में दोनों सेनाओं के बीच तनाव बढ़ने के बाद क्षेत्रों के साथ-साथ उत्तरी सिक्किम और उत्तराखंड के कई अन्य विवादित क्षेत्रों में भी दोनों देशों ने अपनी फौज बढ़ा दी थी। चीनी राजदूत ने कहा और भारत को अच्छे पड़ोसी चाहिए और एक साथ मिलकर आगे बढ़ना चाहिए चाहिए। राजदूत ने कहा दो प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्थाओं के रूप में भारत और चीन को निवेश उत्पादन क्षमता और अन्य क्षेत्रों में व्यवहारिक सहयोग मजबूत करना चाहिए तथा सामान्य हितों का विस्तार करना चाहिए।


इस पूरे गतिरोध की वजह भारत द्वारा लद्दाख में अक्साई चिन की गलवां घाटी में महत्वपूर्ण सड़क का निर्माण है जिसे लेकर आपत्ति जता रहा है। गत 5 मई को वहां तैनात भारतीय और चीनी सेनाओं में जमकर मारपीट हुई इसमें डंडे और रॉड्स का खुलकर उपयोग हुआ। दोनों तरफ के कई सैनिक घायल हो गए। दरअसल , गद्दाख में निर्मित दार- श्योक- दौलत बेग ओल्डी रोड मैदानी इलाका ग्लवान घाटी तक जाता है। इस सड़क को सीमा सड़क संगठनने बनाया है। सीमा सड़क संगठन भारत सरकार की एजेंसी है और वह पड़ोसी मित्र देशों के सीमाई इलाके में बनाता रहा है। चीन की इन हरकतों के पीछे उसकी घबराहट भी है। भारत में उस क्षेत्र में 3023 किलोमीटर लंबी 61 सड़कों निर्माण की योजना बनाई है। इन सड़कों को रणनीतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इनमें से 2305 किलोमीटर सड़क का काम पूरा हो चुका है और बाकी पर काम तेजी से चल रहा है। चीन का कहना है भारत वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सड़क का निर्माण कर रहा है जबकि भारत का कहना है कि वह अपनी सीमा के भीतर सड़के बना रहा है और किसी मूल्य पर इसे बंद नहीं किया जाएगा। हालांकि, फिलहाल, अस्थाई तौर पर सड़क बनाने का काम रोक दिया गया है लेकिन दोनों देशों ने सीमा पर सैनिकों की गश्त बढ़ा दी है। भारत ने कहा कि चीनी सेना लद्दाख सिक्किम में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर गश्त में बाधा डाल रही है। भारत ने बीजिंग के उस दावे का खंडन किया है जिसमें उसने कहा है भारतीय सेना के चीनी सीमा में घुसपैठ के कारण तनाव बढ़ा है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा कि सीमा पर सभी गतिविधियां चीन की तरफ से हैं भारत तो सदा बहुत जिम्मेदाराना रुख अपनाता है। लेकिन भारत अपनी संप्रभुता और सुरक्षा के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है।


भारतीय विदेश मंत्रालय के बयान से 1 दिन पहले चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने खराब स्थिति की कल्पना करते हुए अपनी सेना को युद्ध की तैयारी में तेजी लाने का हुक्म दिया और कहा कि सेना पूरी दृढ़ता के साथ संप्रभुता की रक्षा करे। लेकिन भारत के जवाब के बाद उसका और उसने कहा कि हम बातचीत और विचार-विमर्श के माध्यम से मसलों को सुलझाने में सक्षम हैं। चीनी विदेश मंत्रालय ने कहा कि दोनों देशों ने सीमा संबंधित तंत्र और कूटनीतिक माध्यम स्थापित किए है। हालांकि कुछ टिप्पणीकार चीन की सकारात्मकता देख रहे हैं जबकि यह एक भुलावा भी हो सकता है। कौटिल्य ने अपनी विश्व विख्यात पुस्तक अर्थशास्त्र में लिखा है कोई भी जीव अगर स्वभाव के विपरीत कार्य करें तो उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए।

Wednesday, May 27, 2020

बंद होती दुनिया की सीमाएं और लौटते भारतीय



बंद होती दुनिया की सीमाएं और लौटते भारतीय





कई वर्षों से भारत का वैश्वीकरण हो रहा है लेकिन भारतीय समुदाय पहले ही वैश्विक हो गया है। गूगल से लेकर छोटे-मोटे कामों तक दुनिया के लगभग हर देश में भारतीय जुड़े हुए हैं। औपनिवेशिक काल से ही भारत के लोग विदेशों में पहुंच गए हैं। मृत्युंजय कुमार सिंह ने अपनी ताजा पुस्तक गंगा रतन बिदेसी में गिरमिटिया मजदूरों के विदेश जाने की कथा बयान करते हुए लिखा है कि भारत से मजदूरी के लिए विदेशी सरकार इन मजदूरों को विभिन्न देशों में भेज रही थी। यही कारण था औपनिवेशिक काल में भारतीय समुदाय ने कई देशों में अपनी उपस्थिति दर्ज की थी लेकिन पिछले 50 वर्षों में इसमें भारी गति आई है। भारतीय कामगार खाड़ी के देशों में जाने देंगे हमारे डॉक्टर इंजीनियर चार्टर्ड अकाउंटेंट और अन्य पेशेवर अमेरिका जाने लगे, भारतीय छात्रों ने पढ़ाई के लिए विदेशों का रुख किया।


एशिया के हम परिंदे आसमा है जद हमारी


जानते हैं चांद सूरज जिद हमारी जद हमारी





उस समय से आरंभ हुआ यह प्रवाह अब एक करोड़ 75 लाख तक पहुंच गया है। यह संख्या दुनिया के सबसे बड़े प्रवासी समुदाय की है। यदि इसमें भारतीय मूल के लोगों को भी जोड़ दिया जाए तो यह संख्या 3 करोड़ से ऊपर हो जाएगी। हम भारतीय जिन्हें विदेशों में देसी कहा जाता है वह हांगकांग से कनाडा तक और न्यूजीलैंड से स्वीडन तक छाए हुए हैं। प्रवासी भारतीय समुदाय के बारे में बहुत व्यापक अध्ययन और लेखन हो चुका है। प्रवासी भारतीयों ने हर क्षेत्र में बेहतरीन प्रदर्शन किया है। वे विदेशों में प्रधानमंत्री, सीनेटर और सांसद चुने गए हैं। अरबपति व्यापारी और कई कंपनियों के सीईओ भी हैं।


हम वही जिसने समंदर पर बांध साधा


हम वही जिनके लिये ना दिन- रात की बाधा


हम हैं देसी मगर हां हर देश में छाए हुए हैं





1960 के दशक में अमेरिका और ब्रिटेन में अवसर पैदा हुए और भारतीयों ने इसका लाभ उठाया। वर्तमान में अमरीका में भारतीय मूल के लोग चालीस लाख से ज्यादा है जिनमें 5 लाख से ज्यादा छात्रों की संख्या है। प्रवासन की यही स्थिति कनाडा ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में भी है। के देशों में प्रवासन का स्वरूप थोड़ा अलग है। यहां ब्लू कॉलर से लेकर वाइट कलर तक के कामगार हैं। साड़ी के देशों में भारतीयों की कुल संख्या 80 लाख से ज्यादा है। यहां 25 लाख से ज्यादा काम करने वाले अकेले केरल के हैं। लेकिन इन लोगों को वहां की नागरिकता हासिल नहीं है।


कोविड-19 ने भारतीयों के प्रसार पर न केवल रोक लगा दी है बल्कि इसकी दिशा उल्टी कर दी है। लोग स्वदेश लौट रहे हैं। भारतीय प्रवासन पहले तो आर्थिक कारणों से और फिर पारिवारिक एकीकरण से प्रेरित रहा है। हाल के वर्षों में भारतीय छात्रों में दुनिया भर के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में दाखिला लेना शुरू कर दिया था। अचानक कोविड-19 के विस्फोट से अनेक देशों ने अपनी सीमाएं बंद कर दी हैं और कई देश लगातार बंद कर रहे हैं। भारतीयों की एक बड़ी आबादी स्वदेश लौटने को मजबूर हो गई है। अभी तक तो देश के दूसरे शहरों में मजदूरी कर रहे हैं प्रवासी मजदूरों की व्यथा कथा ही मीडिया में आई है लेकिन कभी इन प्रवासियों के बारे में किसी ने सोचा नहीं कि यह लोग जब लौटेंगे तो क्या होगा?इसके गंभीर नतीजे सामने आएंगे। जिंदगियां बाधित होंगी, अर्थव्यवस्था पर आघात लगेगा और विदेशों से भेजे जाने वाले धन की मात्रा बहुत घट जाएगी। अब तक जो दुनिया हमें इतनी खुली खुली लग रही थी दुनिया ने हमारे दरवाजे बंद करने शुरू कर दिए हैं। कोविड-19 ने भारतीय प्रवासियों के जीवन को बुरी तरह बाधित किया है। अनेक भारतीयों की नौकरी चली गई। वे रोजगार के लिए चिंतित हैं। खाड़ी के देशों में तीन लाख लोग अपनी नौकरियां गंवाने के बाद भारत लौट रहे हैं। यदि हालत अमेरिका ब्रिटेन सिंगापुर और कनाडा की भी है। दूसरे भारत की यात्राएं भी बाधित हुई। जरा सोचिए, छात्र जो साल में एक दो बार भारत आ ही जाते हैं वह अटके पड़े हैं। न जाने अंतरराष्ट्रीय उड़ाने कब नियमित होंगी और वह आसानी से घर लौट सकेंगे। जिन भारतीयों की नौकरी चली गई और जो भारतीय वहां फंस गए हैं वे बुरी तरह चिंतित हैं। अगर किसी भी तरह से भारत सरकार की सहायता से स्वदेश आ भी गए तो करेंगे क्या, रहेंगे कैसे? जिन्होंने प्रवासी नागरिक का दर्जा हासिल कर लिया है वे भी देख रहे हैं कि उनके आने पर पाबंदियां लग सकती हैं। वह पढ़ रहे छात्रों को अपने भविष्य पर पुनर्विचार करना होगा।





यही नहीं यह भारतीय जो धन भेजते हैं वह 2019 के आंकड़ों के मुताबिक लगभग 83 अरब डालर से ज्यादा है अब यह धन का प्रवाह खतरे में पड़ गया है और किस कारण हमारी अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी। महामारी ने हमारे भारतीय समाज के कई पहलुओं को प्रभावित किया है । आज तक का सारा कारोबार खुली स्वागत करती हुई दुनिया पर निर्भर था और अब उस दुनिया के दरवाजे बंद होते दिख रहे हैं। हमारे प्रवासी समुदाय को भारत आकर अपने अस्तित्व के संकट से गुजरना होगा।

Tuesday, May 26, 2020

भारत चीन सीमा पर फिर तनाव


 भारत चीन सीमा पर फिर  तनाव

 बड़ा अजीब संयोग है,  जवाहरलाल नेहरू आज 56 वीं  पुण्यतिथि है।  नेहरू पर चीन से पराजय  का दाग कुछ ऐसा लगा हुआ है उसका राजनीतिक लाभ भी उठाया जाता है।  मेजर जनरल बीएम कौल  ने  अपनी पुस्तक द हिमालयन ब्लंडर  में  स्पष्ट लिखा है कि  भारत चीन का युद्ध बेशक रणनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण है लेकिन आने वाले दिनों में इसका सियासी  लाभ भी उठाया जाएगा।  अब फिर चीन ने  लद्दाख की सीमा पर अपनी फौजों की उपस्थिति बढ़ा दी है और उससे दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ गया है।  पहले तो बातचीत के जरिए मामले को सुलझाने की कोशिश की गई लेकिन बात नहीं और अब खबर है कि नियंत्रण रेखा पर चीनी फौज की तादाद बढ़ती जा रही है। पूर्वी लद्दाख में सेना में अतिरिक्त टुकड़ियां तैनात कर दी हैं और 24 घंटे क्षेत्र की निगरानी चल रही है। यहां तक कि चीन ने उत्तराखंड के उस पार मध्य क्षेत्र  के गुलडोंग  में बड़ी संख्या में   सेना उतार दी है।  जवाब में भारत को भी उस क्षेत्र में तैनाती करनी पड़ी है।  खबरों को मानें  तो चीनी सेना की तैनाती  विगत कुछ दिनों से चल रही है और इसी कारण से मजबूर होकर वहां भारत  ने अपनी सेना उतारी है। खबर है कि हारसिल  क्षेत्र में भी  चीन ने भारी संख्या में फौज  लेकिन वहां का इलाका इतना दुर्गम है कि  पेट्रोलिंग  कठिन है। इसलिए  वहां भी   ड्रोन का उपयोग किया जा रहा है ताकि पूरे क्षेत्र पर 24 घंटे नजर रखी जाए और स्थिति की समीक्षा की जा सके। 
यहां यह बता देना प्रासंगिक होगा कि भारत चीन के बीच अक्सर पेंगोंग सो  झील के विवादास्पद क्षेत्र में जोर आजमाइश होती है।  भारत और चीन के बीच सीमा पर विवाद है इसलिए इसे वास्तविक नियंत्रण रेखा कहते हैं।   यह इलाका  पश्चिमी,  मध्य और  पूर्वी 3 क्षेत्रों में बंटा है। विवाद इस बात का है कि भारत का दावा है कि नियंत्रण रेखा 3488 किलोमीटर लंबी है चीन इस बात पर अड़ा हुआ है कि यह  रेखा केवल 2000 किलोमीटर लंबी है।  यानी,   1488 किलोमीटर  क्षेत्र का विवाद है।  दोनों देशों की सेना इस इलाके में गश्त करती रहती है और एक दूसरे पर वर्चस्व कायम करने की कोशिश करती है जैसा कि इस महीने के शुरू में सिक्किम के नाथूला में हुआ था। मई में ही दो बार भारत और चीन की   सेना में विवाद हुआ झड़पें  हुई जिसमें दोनों पक्षों के सैनी  घायल हुए।  दरअसल चीन की सीमा 14 देशों से  सटी हुई है।  इनमें नेपाल और पाकिस्तान जैसे देश को इसने एक तरह से गुलाम बना  लिया है। पश्चिमी क्षेत्र में पूर्वी लद्दाख का इलाका आता है और  काराकोरम  इस इलाके में है। हिमाचल प्रदेश की सीमा इसी विवादास्पद क्षेत्र में है। 2017  के 19 अगस्त को  डोकलाम में भारत चीन के फौजियों में हाथापाई हो गई थी जिसमें कई लोग घायल हो गए थे ।भारत पश्चिमी क्षेत्र में अक्साई चीन पर अपना दावा करता है जो फिलहाल चीन के कब्जे में है 1962 में भारत के साथ युद्ध में चीन ने इस पूरे इलाके पर कब्जा कर लिया था।   इसी जंग की तोहमत  अभी भी नेहरू पर लगती है।  दूसरी तरफ पूर्वी क्षेत्र में चीन  का कहना है  कि अरुणाचल प्रदेश उसका है क्योंकि  यह तिब्बत का हिस्सा है।  तिब्बत और अरुणाचल के बीच  मैक महोन रेखा है  और चीन उसे नहीं मानता ।  चीन का कहना है 1914 में  जब ब्रिटिश भारत और तिब्बत में समझौता हुआ था तो वह वहां शामिल नहीं था इसलिए वह इस समझौते के तहत बनाई गई मैक महोन  रेखा को नहीं मानेगा।  दरअसल यह बात है 1914 में तिब्बत एक स्वतंत्र राष्ट्र था लेकिन बेहद कमजोर था  तेनजिंग शुंडे    के मुताबिक तिब्बत और अरुणाचल प्रदेश क्षेत्रों में लिथियम की खान होने की  संभावना है इसलिए चीन  उस पर नजर गड़ाए हुए हैं और तरह तरह के विवाद पैदा कर  रहा है।  अभी जैसे हाल में उसने नेपाल भारत सीमा विवाद हवा दे दी।  कहा जा सकता है कि चीन अरुणाचल प्रदेश में   मैकमहोन  रेखा को नहीं मानता और न अक्साई चीन पर  भारत के दावे को मानता है। यह  एक ऐसा  विवाद है  जिसके चलते दोनों देशों के बीच कभी सीमा निर्धारण नहीं हो सकता इसलिए यथास्थिति बनाए रखने की दृष्टि से वास्तविक नियंत्रण रेखा जैसी शब्दावली का उपयोग हो रहा है।  हालांकि  यह भी अभी स्पष्ट नहीं है  क्योंकि दोनों देश नियंत्रण रेखा को अलग-अलग मांगते हैं।  इस पर कुछ इलाके ऐसे हैं जहां भारत और चीन  की सेना में तनाव की खबरें अक्सर आती हैं। वैसे अनुमान है कि शुक्रवार को  पीपुल्स कांग्रेस की शुरुआत हो रही है और जब तक यह खत्म नहीं होगी तब तक शायद ही  यह तनाव खत्म हो।  दोनों देशों में  तल्खी इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि दोनों  देशों के नेता एक दूसरे देश का नाम तक नहीं ले रहे।  2 दिन पहले चीन के विदेश मंत्री वांग येई  ने  अपने लंबे प्रेस कॉन्फ्रेंस में भारत का जिक्र  तक नहीं किया।  इसे देखकर भारत ने भी चीन का नाम लेना बंद कर दिया है। डोकलाम के बाद पहली बार इतना तनाव देखा गया है। चीन इस इलाके में लगातार खुद को मजबूत कर रहा है।  चीनी सैनिकों ने विगत एक पखवाड़े में ग्लवान घाटी में  अपनी उपस्थिति बढ़ाता जा रहा है। सूत्रों के अनुसार  इस क्षेत्र में  उसने लगभग एक सौ तंबू और बनकर बनाने के बड़े औजार भी जमा कर लिए हैं।  भारत में पिछले हफ्ते इस पर गंभीर आपत्ति जताई थी।  परंतु चीन पर कोई असर नहीं पड़ा।  परमाणु शक्ति संपन्न दो देशों के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है।  वैसे युद्ध की संभावना बहुत ज्यादा नहीं है लेकिन 1962 उदाहरण को भुलाया नहीं जा  सकता। भारत को पूरी तरह सचेत और तैयार रहना पड़ेगा और चीन को यह बता देना होगा इस बार पंचशील वाले नेहरू नहीं हैं बल्कि आर पार का फैसला करने वाले नरेंद्र मोदी  हैं।  इतना ही नहीं भारत की  सेना 1962  वाली नहीं है।

Monday, May 25, 2020

नौकरशाही ने प्रधानमंत्री को निराश किया



नौकरशाही ने प्रधानमंत्री को निराश किया


कोरोनावायरस के फैलने से रोकने के लिए दुनिया के कई देशों ने लॉक डाउन जैसी व्यवस्था लागू की। इस कारण भारत में जो तबाही हुई और जो व्यापक कोहराम मचा उसका उदाहरण इतिहास में नहीं है। लॉक डाउन के बाद से लाखों लोग सड़कों पर हैं । देश की आबादी बहुत बड़ा भाग शहरों से गांव के बीच चल रहा चलता जा रहा है। यद्यपि, सरकारों ने उन्हें लाने या घर भेजने का भरसक बंदोबस्त किया। लेकिन, इतनी बड़ी आबादी को आसानी से स्थानांतरित नहीं किया जा सकता। एक प्रश्न है कि कोरोना संकट इस दौर में जिस मानवीय त्रासदी को और जिस पलायन को भारत ने झेला है वह सिर्फ भारत में ही क्यों हुआ? ना तो भारत दुनिया का सबसे गरीब देश है ना सबसे ज्यादा आबादी वाला देश है और ना ही यहां के सर्वोच्च नेता नरेंद्र मोदी की नेक नियती में कोई कमी है। इसके बावजूद इतनी बड़ी आबादी सड़कों पर कैसे आ गई और वह अभी भी कायम है। इसके लिए हमें भारतीय लोकतंत्र और नौकरशाही के रिश्तों का विश्लेषण करना होगा और उसके बरक्स संसद की भूमिका की जांच करनी होगी। भारत की जो लोकतांत्रिक व्यवस्था है वह हमने ब्रिटेन से लिया है। इसके अनुसार हमारी कार्यपालिका संसद के प्रति जवाबदेह है। कार्यपालिका में दो तरह की व्यवस्था है एक तो निर्वाचित और दूसरी चयनित। निर्वाचित व्यवस्था के अंतर्गत प्रधानमंत्री इत्यादि आते हैं और व्यवस्था के अंतर्गत ब्यूरोक्रसी आती है। ब्यूरोक्रेसी का सर्वोच्च पद कैबिनेट सेक्रेटरी का होता है और प्रधानमंत्री उसके ऊपर होते हैं। अब अगर कहीं व्यवस्था कारगर नहीं होती तो कार्यपालिका के दोनों अंगों की समीक्षा होनी चाहिये। क्योंकि इनका आपसी तालमेल से ही व्यवस्था का सृजन होता है। भारत में कोरोना वायरस का कहर एक ऐसे वक्त में हुआ जब पूरी दुनिया में दक्षिण पंथ का उभार का दौर चल रहा था और यह नेता अपनी भाषण शैली और विरोधियों पर तीखे प्रहार के लिए जनता के एक हिस्से के साथ भावनात्मक संबंध बना लेते हैं और इस जन समूह में उनके कार्यों की समीक्षा नहीं होती। विख्यात इतिहासकार डॉ बी बी मिश्र ने अपनी पुस्तक ब्यूरोक्रेसी इन इंडिया में लिखा है कि ब्यूरोक्रेट्स, संसद और न्यायपालिका मिलकर सरकार पर अंकुश लगा सकती है लेकिन दक्षिण पंथ के उभार में यह तीनों आजाद नहीं रह पाते। भारत में शासन व्यवस्था ब्रिटेन की नकल है लेकिन कोरोना संकट के काल में ब्रिटिश संसद लगातार काम करती रही जबकि इसके विपरीत भारत में संसद मौन रही। संसद स्थगित कर दी गई। कार्यपालिका जो कर रही है या कार्यपालिका ने जहां भूल की है यह कौन पूछेगा। ऐसा नहीं प्रधानमंत्री का लोगों से संवाद नहीं हो पा रहा है। लेकिन, उस संवाद में खिलाड़ी शामिल हैं। कोई भी महामारी एक साथ पब्लिक हेल्थ और कानून व्यवस्था का विषय है और यह दोनों विषय राज्यों के कार्यक्षेत्र में आते हैं। इस नाते उचित होता कि लॉक डाउन की घोषणा के पहले मुख्यमंत्रियों से परामर्श लिया जाता लेकिन यह बाद में हुआ। इस बीच मंत्रिमंडल की भी लगातार बैठकें नहीं हुई। इसलिए अपनी तमाम नेकनियती के बावजूद प्रधानमंत्री जमीनी हकीकतों से पूरी तरह वाकिफ हो पाए। उन्हें इस बात का अंदाज ही नहीं लगा लॉक डाउन के बाद जनता पर क्या असर होगा। इतना ही नहीं इस दौरान ब्यूरोक्रेसी की भूमिका भी घटी हुई दिखाई पड़ी। गृह और स्वास्थ्य मंत्रालयों के फैसलों के बारे में प्रेस ब्रीफिंग करने का जिम्मा जॉइंट सेक्रेटरी स्तर के अफसरों को दिया गया। यह मझौले दर्जे के अफसर हैं। इससे साफ पता चलता है कि कोरोनावायरस से निपटने के लिए प्रधानमंत्री पूरी तरह से नौकरशाही पर निर्भर हैं। समाजशास्त्री मैक्स वेबर के अनुसार नौकरशाही में संस्था को चलाने वाले विशेषज्ञ होने चाहिए। जिन्हें हर बात को लीगल और रैशनल तरीके से सोचना चाहिए। लेकिन कोरोना काल में भारतीय ब्यूरोक्रेसी अपनी भूमिका नहीं निभा सकी। वैसे भी नौकरशाही किसी भी अत्यंत जटिल मसले पर तुरंत और जरूरत के हिसाब से फैसले नहीं कर सकती। ऐसे में सबसे आसान प्रक्रिया में बंधे रहकर काम करना होता है।





अब जबकि लोकप्रिय नेता चुनकर आ रहे हैं तो वे हर चीज के विशेषज्ञ तो होते नहीं इसलिए विशेषज्ञता के लिए सदा नौकरशाही पर निर्भर करते हैं जबकि नौकरशाही के चयन और चरित्र ऐसा होता है जहां विशेषज्ञ तो होते नहीं। ऐसे ही नौकरशाही पर हमारा कोरोना संकट निर्भर है। हमारे अफसर मंत्रियों को खासकर प्रधानमंत्री को सलाह देने के काम में लगे रहते हैं और शायद यह अनुमान नहीं लगा पाते कि अचानक लॉक डाउन करने से करोड़ों लोगों पर संकट आ जाएगा और लोग सड़कों पर निकल आएंगे। प्रधानमंत्री के साथ भी यही हुआ। अब खबरें मिल रही हैं वे चिंतित हैं और इस संकट से निपटने के लिए राज्यों को अधिकार दे रहे हैं। प्रधानमंत्री की नेकनियती में कहीं दोष नहीं है लेकिन यह भी सच है कि कोई एक आदमी सभी बातों का विशेषज्ञ नहीं हो सकता। कहीं ना कहीं उससे चूक हो जाती है।

Sunday, May 24, 2020

अम्फान के विनाश के बाद समाज की भूमिका



अम्फान के विनाश के बाद समाज की भूमिका


देश के पूर्वी और पूर्वी दक्षिणी क्षेत्र में सुपर साइक्लोन अम्फान भारी विनाश किया है। जब तूफान चल रहा था और चारों तरफ छितराए मेघ नीचे दौड़ती- चमकती बिजली और तेज बारिश में पेड़ ऐसे झूम रहे लगता था भगवान शिव तांडव कर रहे हैं।


जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।


विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि ।





धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके


किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं





भारी विनाश हुआ। दूसरे दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तूफान से बर्बाद हुए इलाकों का जायजा लिया और बंगाल को राहत और निर्माण के लिए 1000 करोड़ दिए। यह रुपए पर्याप्त है या नहीं इस पर बहस नहीं है। बात है तो सिर्फ विनाश की। कोलकाता शहर और आसपास के क्षेत्रों में जो बर्बादी हुई है वह इतनी ज्यादा है कि उसे तुरंत ठीक नहीं किया जा सकता। लेकिन, लोग धैर्य रखने की बजाए आंदोलन- प्रदर्शन पर उतारू हैं। कुछ लोग सरकार को दोष दे रहे हैं तो कुछ लोग शहर की योजना को। इस तूफान से 84 लोग मारे गए और आंकड़े बताते हैं कि लगभग डेढ़ करोड़ लोग इससे प्रभावित हूं। घरों की छतें हो गई हैं, खिड़कियों के कांच टूट गए हैं, पेड़ गिर गए हैं बिजली के खंभे गिर गए हैं। जन और धन को जो हानि पहुंची है उसमें से अधिकांश पेड़ों के गिरने तथा बिजली के करंट लगने से हुआ है। लगभग पूरे शहर में बिजली नहीं है इंटरनेट की पूरी सुविधाएं नहीं है। कई क्षेत्रों में पीने का पानी भी नहीं है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस बर्बादी पर कहा कि ऐसा विनाश जीवन में नहीं देखा। महानगर के 2 जिले मटियामेट हो गये और एक तरह से इनका पुनर्निर्माण करना पड़ेगा। मुख्यमंत्री ने कोरोनावायरस महामारी के संदर्भ में इस तूफान से हुई बर्बादी का जिक्र करते हुए कहा कि वायरस के फैलने से रोकने के लिए बने निवास के अलावा भी लोग इधर उधर शरण देने के लिए भागते दिखाई पड़े। मुख्यमंत्री ने कहा कि हम तीन तरफ से संकट झेल रहे हैं- पहला तो कोरोना वायरस दूसरा प्रवासी श्रमिक और तीसरा यह तूफान। कोलकाता की सड़कों पर 70000 लोग रहते हैं। कोरोना वायरस में लंबे लॉक डाउन के चलते हुए आर्थिक संकट में बहुतों का रोजगार चला गया और फिर बांस तथा तिरपाल से बने उनके झोपड़े भा तूफान से बर्बाद हो गए। पेट में रोटी नहीं, सिर पर छप्पर नहीं और सामने कोई उम्मीद नहीं। राहत और बचाव के लिए सेना उतारी गयी है जो अभी बर्बादी का और कोई बच जाए उसे खोजने में लगी है। बस केवल इतना दिखता है कि सरकार कुछ कर रही है।


तूफान की पूर्व सूचना के बाद ही सरकार सक्रिय हो गई थी और बहुत बड़ी संख्या में लोगों को हटा दिया गया। विशेषज्ञों का मानना है कि इससे अनगिनत लोगों की जिंदगी बच गई लेकिन इसके बावजूद कितने लोग मारे गए और कितनी बर्बादी भी इसका अंदाजा अभी पूरी तरह नहीं लगाया जा सका है। संचार व्यवस्था जब ठीक हो जाएगी तभी सही अंदाजा लग सकेगा। केवल शहर की ही बात नहीं है बंगाल और बांग्लादेश कि सीमा पर भी काफी विनाश हुआ है। विख्यात रॉयल बंगाल टाइगर की रिहाईश और दुनिया के सबसे बड़े मैंग्रोव को काफी क्षति पहुंची है। उन इलाकों में ऐसे लग रहे हैं जैसे उन पर बुलडोजर चला दिया गया हो। इस इलाके में भारतीय पक्ष लगभग 40 लोग बसते हैं। सब कुछ बर्बाद हो गया राहत और बचाव कार्य आरंभ किया गया है। फिर भी सड़कें बंद हैं, आवागमन रुक गया है। यहां तक कि कोरोना वायरस से जंग में जुटे कोरोना वारियर्स और डॉक्टर्स भी अस्पताल नहीं पहुंच पा रहे हैं। विख्यात समाजशास्त्री माया एंजलू का कहना है कि “ जब तक आप बहुत अच्छी तरह नहीं जानते तब तक जितना अच्छा हो उतना करते हैं और जब बहुत अच्छी तरह जान लें तो और अच्छा कीजिए।” कोरोना वायरस के प्रभाव से लोगों में धीरे धीरे डिप्रेशन बढ़ता जा रहा था लेकिन इस तूफान के कारण डिप्रेशन और ज्यादा बढ़ गया। इस बात के कई सबूत है कि लोगों में सहानुभूति की भावना हारने से डिप्रेशन में थोड़ी कमी होती है। हैप्पी हाइपोक्सिया के सिद्धांतों के अनुसार अगर लोगों में डिप्रेशन बढ़ेगा तो सामाजिक विखंडन बढ़ता जाएगा और एक दिन समाज को हम खंडित तथा भंग अवस्था में पाएंगे। ऐसी स्थिति में मदद भी बेकार हो जाएगी। इसलिए समाज को टूटने से बचाने के जरूरी है लोगों में सहानुभूति की भावना भरें। मदर टेरेसा का कहना था कि सहानुभूति का एक स्पर्श ही लोगों में जीने की भावना भर देता है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने शनिवार को कहां खुद उनके घर में बिजली नहीं है। इस बात से सहानुभूति का कितना संचार हुआ है इसका अंदाजा लगाना कठिन है। आज हालात ऐसे हैं अगर आप थोड़ा भी सामर्थ्य है तो समाज के घावों पर मरहम लगाइए।







Friday, May 22, 2020

प्रवासी श्रमिक शायद गांवों में अनुपयोगी हो जाएं







प्रवासी श्रमिक शायद गांवों में अनुपयोगी हो जाएं





देश के विभिन्न भागों में फैली कोरोना वायरस महामारी के कारण यहां काम करने वाले प्रवासी मजदूर किसी भी तरह अपने घर लौट रहे हैं। लगभग ढाई करोड़ मजदूर लौटेंगे। भारत के गांव ज्यादातर खेती पर निर्भर है इसलिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था पहले से ही कई तरह के बोझ से लदी हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आत्मनिर्भर भारत का नारा दिया। यह आदर्श तो बड़ा अच्छा है और बेशक मोदी जी का प्रयास होगा इस दिशा में आगे बढ़ा जाए लेकिन कैसे, साधन क्या है? भारतीय गांव कृषि पर निर्भर हैं और यह निर्भरता इतनी ज्यादा है शायद दूसरी दिशा में अभी तक नहीं देखा गया। अभी भी गांव में जो सरकारी कार्यक्रम चल रहे हैं उनमें कृषि प्रमुख है या वही कार्य है जो कृषि से जुड़े हैं। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी स्कीम से आरंभ करो माइक्रो, लघु और मध्यम दर्जे के उद्यम भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में सहयोगी तो हो सकता है लेकिन घर लौटने वाले मजदूरों की समस्याओं को हल करने के लिए पर्याप्त नहीं है। यद्यपि, कितने लोग अपने गांव को लौटेंगे इसका कोई सटीक आंकड़ा नहीं है जनगणना 2011 आंकड़े बताते हैं कि लगभग17.8 मिलियन लोग मजदूरी के लिए अपने गांवों से अन्य स्थानों पर गए। लेकिन उन्हीं आंखों से पता चलता है 2001 से 2011 तक लगभग 23 मिलियन अपने अपने गांवों से गए हैं और लॉक डाउन को देखते हुए इस संख्या के लौटने की उम्मीद है।


गांवों में ज्यादा आबादी गुप्त बेरोजगारी को जन्म देती है। भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था लगभग भारत की 70% आबादी को पालती है। सरकार के ताजा देवर सर्वे के मुताबिक इससे ग्रामीण क्षेत्रों में स्तर हीन जीवन जीने के लिए लोग मजबूर हैं। 2015 - 16 में ग्रामीण प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 40,928 रुपए थी जबकि उसी अवधि में शहरी क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 98,435 रुपए हुआ करती थी। ग्रामीण भारत में प्रति व्यक्ति ही उत्पादन शीलता कम होती है। भारत की समग्र कार्य शक्ति लगभग 71% ग्रामीण अर्थव्यवस्था में लगी है लेकिन अर्थव्यवस्था में इसका योगदान महज 48% है। ग्रामीण कार्य शक्ति उत्पादन क्षमता शहरी वर्क फोर्स से कम है। गांव में ज्यादा पूंजी और तकनीक से श्रमिक उत्पादन शीलता मैं बढ़ावा मिले लेकिन इसके बाद भीश्रमिक उत्पादन क्षमता पिछले वर्षों में घटी है। 1970- 71 में उत्पादन शीलता का अंतर 12% से कम था जो 2017 18 बढ़कर 13% से ऊपर चला गया। ऐसी स्थिति में ग्रामीण अर्थव्यवस्था गांव में लौटने वाले श्रमिकों रोजगार नहीं दे सकती।





ग्रामीण अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी कमी है की वह खेती पर बहुत ज्यादा निर्भर है और खेती के अलावा कोई ऐसा साधन नहीं है जिसमें इतनी बड़ी आबादी को रोजगार दिया जा सके क्योंकि गांव में विविधता अभाव का है। साधारणतया भारतीय मजदूरों को ज्यादा काम एमएसएमई सहित उत्पादन क्षेत्र से प्राप्त होता है। अब जबकि यह मजदूर लौट रहे हैं अर्थव्यवस्था पर भारी दबाव पड़ेगा। पीरियोडिक लेबर सर्वे बताते हैं कि14 वर्ष से कम उम्र बच्चे बूढ़ों पर निर्भर है। यही नहीं टोटल लेबर फोर्स को समय नहीं मिलता है और ना ही काम काम का अनुबंध। अधिकांश मजदूर सामाजिक सुरक्षा जिलों से भी वंचित हैं। जिन राज्यों से ज्यादा मजदूर बाहर जाते हैं उन राज्यों में उतने ही ज्यादा बेकारी होती है। अब यह मजदूर जब अपने राज्यों में लौटेंगे तुम्हें काम देना बड़ा कठिन हो जाएगा। इस स्थिति के मद्देनजर बिहार उत्तर प्रदेश सबसे ज्यादा मजबूर अन्य राज्यों में काम के लिए गए हैं और जब लौटेंगे और जब हालात सामान्य हो जाएंगे तो उन्हें रोजगार दर-दर भटकना पड़ेगा। हमारे देश में पहले भी मौसमी बेरोजगारी थी। यदि किसी विशेष मौसम में बेरोजगार श्रमिक को सहायक व्यवसाय में काम मिल भी जाता था तब भी वह बेरोजगार बने रहे थे अस्पष्ट ग्रामीण क्षेत्रों में मौसमी बेरोजगारी और प्रच्छन्न बेरोजगारी दोनों ही कायम है।लेकिन अभी जो अफरा-तफरी दिख रही है उसमें केवल सरकार दोषी नहीं है। महामारी अगर अचानक आ जाती है तो अफरा तफरी हुई जाती है। कुछ लोग सरकार को दोषी बना रहे उनके दोस्त बनाते हैं लेकिन वह जमीनी सच्चाई को नजरअंदाज कर रहे हैं। अगर आपदा ऐसी भयानक है तो नेक नियति से भरा हुआ नेता भी कुछ नहीं कर सकता। ऐसे में नेता को गलत कहना और दोषी करार देना खुद में गलत है। बेकारी बढ़ेगी यह तय है। आने वाले वक्त में किताबों में दर्ज होगा कि 2020 में भारत कई मोर्चों पर जूझ रहा था और इसे परास्त करने के लिए जो कदम उठाए गए वह पर्याप्त नहीं थे। हालात स्वरूप बदल करो हमारे सामने आए हैं। भारत विभाजन का कत्लेआम के लिए आज गांधी को दोषी ठहराया जा रहा है। कल का इतिहास आज के किन नेताओं को दोषी ठहराया यह बताने की जरूरत नहीं है।

नेपाल के नए नक्शे पर भारत को गंभीर आपत्ति




नेपाल के नए नक्शे पर भारत को गंभीर आपत्ति


नेपाल सरकार ने लिंपियाधुरा काला पानी और लिपुलेख को अपने नए राजनीतिक नक्शे में शामिल किया है और इस पर भारत बेहद नाराज है। भारत के विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर यह कहा है किसी भी क्षेत्र पर इस तरह के दावे को भारत कभी स्वीकार नहीं करेगा। विदेश विभाग का कहना है कि नेपाल का नक्शा एक तरफा हरकत है और ऐतिहासिक तथ्यों और सबूतों पर आधारित नहीं है। यह दावा बनावटी है और द्विपक्षीय बातचीत से मामले को सुलझाने की राजनीतिक समझदारी से अलग है। भारत सरकार ने सलाह दी है कि नेपाल ऐसी हरकतों से बचे और भारतीय संप्रभुता एवं क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करे। भारत सरकार ने यह उम्मीद जाहिर की है नेपाल का नेतृत्व सकारात्मक वातावरण बनाते हुए राजनयिक बातचीत के जरिए सीमा मुद्दों को हल करेगा। नेपाल का रुख दिनोंदिन बड़ा होता जा रहा है। बुधवार को प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने एक सर्वदलीय बैठक बुलाई थी जिसमें कई पूर्व प्रधानमंत्रियों ने भी हिस्सा लिया था। नेपाल मजदूर चांद पार्टी के सांसद प्रेम सुवाल ने बैठक के बाद बताया कि प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली में स्पष्ट कहा है कि वह भारत के पक्ष में उस जमीन का दावा नहीं छोड़ेंगे। विदेश मंत्री प्रदीप कुमार ज्ञावली ने कहा सरकार अपने पुरखों की जमीन की हिफाजत करेगी और उन्होंने नेताओं से इस मामले पर संयम बरतने की अपील की। दूसरी तरफ भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने 8 मई को लिपुलेख के समीप से होकर गुजरने वाले उत्तराखंड मानसरोवर रोड का उद्घाटन किया। लिपुलेख जो नेपाल और भारत की सीमाओं से सटता है और नेपाल भारत के इस कदम को लेकर नाराज है। नेपाल इसे अतिक्रमण का मुद्दा कह रहा है और इसे लेकर नेपाल में भारत विरोधी प्रदर्शनों का सिलसिला जारी है और प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली भारत के विरुद्ध कठोर विरोध दर्ज कराया है। उत्तराखंड के धारचूला के पूरब महाकाली नदी के किनारे नेपाल का दार्चुला जिला पड़ता है । महाकाली नदी नेपाल भारत सीमा के तौर पर भी काम करती है। नेपाल सरकार का दावा है किभारत सरकार ने उसके लिपुलेख इलाके में 22 किलोमीटर लंबी सड़क बना दी है। नेपाल में 2019 के नवंबर में इसी मामले को लेकर अपना विरोध जताया था। जम्मू और कश्मीर के बंटवारे के समय जो राजनीतिक नक्शा जारी किया गया था उसमें आधिकारिक रूप से कालापानी इलाके को भारतीय चित्र में दिखाया गया था। काला पानी का इलाका इसी लिपुलेख पश्चिम में है। नेपाल लंबे समय से इस पर दावा कर रहा है । 2015 में जब चीन और भारत के बीच व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा देने के लिए समझौता हुआ था तब भी नेपाल ने दोनों देशों के समक्ष आधिकारिक रूप से विरोध किया था। इस हफ्ते जब नेपाल में भारत विरोधी प्रदर्शन चरम पर था तो बुधवार को नेपाल में एक और बड़ा फैसला किया। उसने महाकाली नदी से लगे सीमावर्ती इलाके में सशस्त्र पुलिस ( एपीएफ) भेज दी। काला पानी से लगे छांगरू गांव में एपीएफ एक सीमा चौकी स्थापित की है। एपीएफ का ढांचा भारतीय सशस्त्र सीमा बल की तरह है। 1816 नेपाल और भारत की तत्कालीन ब्रिटिश सरकार में एक समझौता हुआ था जिसके तहत आज नेपाल ने लगभग 204 साल के बाद यह कदम उठाया है।


काला पानी विवाद के बाद इस हफ्ते लिपुलेख को लेकर काठमांडू में विरोध प्रदर्शन और भारत नेपाल के कूटनीतिक हम आसान दोनों देशों के बीच के संबंध फिर बिगड़ने लगे हैं। अगर विवाद के कुछ मुद्दों को छोड़ दें तो दोनों देशों के संबंध हाल तक बड़े मधुर रहे हैं और विवाद का चरित्र देखकर यह जाहिर होता है संबंधों को बिगाड़ने में कोई तीसरा कारक तत्व है। अगर चीनी कूटनीति जो लोग समझते हैं उन्हें यह पता चल रहा होगा किया कारक तत्व चीन ही है।





इस घटना ने कड़ी नेपालियों को नाराज कर दिया है। यहां तक कि प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली कह दिया कि नेपाल 1 इंच जमीन भी नहीं पड़ेगा अब यहां प्रश्न उठता है इस स्थिति के कारण भारत नेपाल संबंध खराब हो जाएंगे और महाकाली नेपाल के लिए क्यों महत्वपूर्ण है? भारत और नेपाल में सभ्यता संस्कृति इतिहास और भूगोल की दृष्टि से बहुत नज़दीकियां हैं शायद कोई भी देश इतनी नजदीकी नहीं रखता जितनी इन दोनों देशों में रखी है। लेकिन 1800 किलोमीटर लंबी सीमा पर दोनों देशों के दरमियान कभी न खत्म होने वाले कई सीमा विवाद भी हैं। दोनों देशों की सरहद ज्यादा पर खुली हुई है और आड़ी तिरछी भी है हाला किया सीमा पर चौकसी के लिए सुरक्षाबलों को तैनात कर दिया गया है। मुश्किल तो यह है कि दोनों देशों की सीमाओं का निर्धारण पूरी तरह नहीं हो पाया है। महाकाली जिसे नेपाल में शारदा और गंडक जिसे नेपाल में नारायणी कहते हैं वहां सीमा नदिया ही हैं और मानसून के समय बाढ़ आने पर तस्वीर बदल जाती है। यही नहीं नदियों का रुख भी हर साल बदलता है। कई क्षेत्रों में सीमा बताने वाले खंभे अभी भी खड़े हैं पर कोई उनकी कदर नहीं करता। सामान्य परिस्थितियों में दोनों देशों में आवाजाही लगी रहती है। 1816 में भारत के तत्कालीन ब्रिटिश शासन और नेपाल के बीच एक संधि हुई थी जिसे सुगौली संधि कहते हैं। उसी संधि के आधार पर1 850- 1856 मैं एक नक्शा बना था। उस नक्शे में महाकाली नदी जो काला पानी से उत्तर पश्चिम में 16 किलोमीटर दूर से निकलती है उसे ही नक्शे में सरहद माना गया था। लेकिन इस नक्शे में और भी कई कमियां हैं इसलिए 1875 में एक और नक्शा बना जिसमें महाकाली नदी काला पानी के पूरब से निकलती हुई दिखाई गई है। नदियों का रुख पिछले वर्षों में बदलता रहा। भारत और नेपाल दोनों देशों मेय कन्फ्यूजन बना रहे महाकाली नदी का उद्गम कहां है और विवाद की जड़ यही है। यह विवाद नया नहीं है लेकिन इसे लेकर इतनी उग्र स्थिति कभी नहीं आई। आज चीन अपना कूटनीतिक वर्चस्व कायम करना चाह रहा है और उसने नेपाल में पहले भारत विरोधी माहौल तैयार किया और तब इस विवाद को हवा दे दी। हो सकता है आगे चलकर इसमें प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करे और फिर इस क्षेत्र का राजनीतिक संतुलन बिगड़ जाए। भारत सरकार को इससे सचेत रहने की जरूरत है।

Wednesday, May 20, 2020

चीन की विस्तार वादी नीतियों से सतर्क रहना जरूरी



चीन की विस्तार वादी नीतियों से सतर्क रहना जरूरी



चीन पूरी दुनिया में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है और इस मंशा को अमल में लाने के लिए उसने पाकिस्तान तथा कई अन्य देशों को भारत के खिलाफ इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। ऐसा केवल व्यापार प्रसार में ही नहीं बल्कि जमीन पर और भारत के चारों तरफ घेरा डालने से लेकर तरह-तरह के प्रचार को हथकंडे के रूप में वह उपयोग कर रहा है। जहां तक व्यापार में चीनी वर्चस्व रोकने का प्रश्न है तो भारत सरकार ने बहुत ही सावधानीपूर्वक समग्र प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ डी आई) की समीक्षा की और 2017 के नियम में संशोधन कर दिया। इस संशोधन के तहत भारत सरकार ने कल सीमा से जुड़े देशों के प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीके से निवेश केहर प्रस्ताव पर पहले सरकार की अनुमति अनिवार्य कर दी। इस पर नई दिल्ली स्थित चीनी दूतावास द्वारा बहुत तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की गई। उस प्रतिक्रिया में कहा गया था कि चीन ने अब तक भारत में 8 अरब डालर से अधिक का निवेश किया है जिससे भारत में रोजगार के नए अवसर उत्पन्न हुए हैं लाखों लोगों को नौकरियां मिली मिली हैं। लेकिन चीन के मन के भीतर का चोर अपनी बात कह गया कि निवेश के पीछे कोई गलत मकसद नहीं था। भारत सरकार के 18 अप्रैल को उद्योग और आंतरिक व्यापार प्रोत्साहन भाग द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहां गया था कि हम किसी भी विदेशी निवेशक द्वारा कोविड-19 की महामारी का फायदा उठाकर किसी भारतीय कंपनी का अधिग्रहण करने या अपने कब्जे में लेने का प्रयास रोकना चाहते हैं। इधर चीन कोविड-19 महामारी से विश्व भर के बाजारों में आई गिरावट को अवसर की तरह भुनाने में लगा है और यही कारण है कई देशों ने भी एफडीआई के नियमों में संशोधन उसे सख्त कर दिया है। कोरोना वायरस के असर के कारण अधिकतर भारतीय कंपनियों के शेयरों में भारी गिरावट आई जिसके कारण कंपनियों के शेयरों के भाव बहुत गिर गये और उनका आसानी से अधिग्रहण हो सकता है। चीन को इस मामले में खतरे के रूप में देखा जा रहा है। अभी हाल ही में चीन के पीपल्स बैंक मैं भारत के सबसे बड़े हाउसिंग लोन बैंक एचडीएफसी गैरों को बड़ी संख्या में खरीद कर अपनी हिस्सेदारी 0.8 प्रतिशत से 1.01 प्रतिशत कर ली। महामारी के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था में उथल-पुथल का लाभ चीन ने उठाना शुरू कर दिया है और यह उसकी विस्तार वादी मंशा की पहचान है।





बात यहीं तक हो तो गनीमत है। चीन ने पड़ोसी देश पाकिस्तान को बढ़ावा देकर भारत के खिलाफ एक नया मोर्चा खोल दिया है। अभी हाल में पता चला कि पाकिस्तान के लोग कश्मीर में जमीन खरीद रहे हैं और फिर वहां की नागरिकता लेकर एक बहुमत तैयार कर लेंगे तथा पहले से आतंकवाद के कारण परेशान सरकार को और परेशान करेंगे। समय रहते हमारी सुरक्षा एजेंसियों ने इसका पर्दाफाश कर दिया इसे लेकर भी चीन काफी परेशान है। चीन बड़े ही सूक्ष्म हथियारों का उपयोग कर रहा है ताकि सरकार को हवा भी न लगे और वह मालामाल हो जाए, आसपास के देशों में उसका वर्चस्व हो जाए। 2017 में भारत ने विश्व स्वास्थ्य संगठन का नेतृत्व करने के लिए इथोपिया के मामूली राजनेता ट्रेडोस के पक्ष में वैश्विक समर्थन जुटाया। ट्रेडोस चीनी समर्थन था इसलिए जीत गए। हालांकि ट्रेडोस जीतने के लिए भारत की जरूरत नहीं थी। लेकिन चीन चाहता था उसके पक्ष दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की उपस्थिति जरूरी है ।2019 में वुहान में जिस महामारी की शुरुआत हुई उसे छिपाने के लिए चीन विश्व स्वास्थ्य संगठन की मदद कर रहा है और नींद करता है कि कोविड-19 की लड़ाई में भारत दुनिया की मदद करे। चीन को रोकने के लिए भारत के सामने एकमात्र विकल्प है कि वह महामारी पर काबू करने की कोशिश करते वक्त स्थानीय क्षमता का विकास करें। भारत की अर्थव्यवस्था कठिनाई में पड़ गई है इससे कारोबार को नुकसान पहुंचेगा। चीन ने बहुत चालाकी से दुनिया को सेहत के मामले में गुलाम बनाकर मानवतावाद के क्षेत्र में वर्चस्व से जोड़ दिया है। उसने ताबूत से लेकर मास्क दस्ताने वेंटिलेटर इत्यादि की कमी के जरिए महामारी चीन को दुनिया के मसीहा के रूप में पेश किया है। शायद किसी को यकीन ना हो लेकिन कोविड-19 लोकतांत्रिक दुनिया की सबसे बड़ी खुफिया नाकामियों में से एक है क्योंकि इसने चीन को नया भू राजनीतिक हथियार दिया और उस हथियार को चीन परोपकार के रूप में पेश कर रहा है। चीन ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के माध्यम से या कहीं उससे मिलकर एक अफवाह फैलाया है अभी आरोप लगाने का समय नहीं है महामारी के खिलाफ सभी ताकतों को एक हो जाना चाहिए। यह अफवाह कुछ वैसा ही है जैसा द्वितीय विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों ने फैलाया था। उनके लिए लाखों यहूदियों को बचाने से ज्यादा महत्वपूर्ण था हिटलर को हराना। हमारे देश के कुछ बुद्धिजीवी नरेंद्र मोदी के पूंजीवाद में दोष निकाल रहे हैं समझ में नहीं आ रहा क्यों वे लोग दुनिया कि चीन को खुश करने की कोशिश में क्यों हैं। भारत को ऐसे भीतरी और बाहरी मतलबपरस्तों से सावधान रहना होगा। आज पाकिस्तानी कारगुजारी मैं चीन की उपस्थिति साफ दिख रही है कल आर्थिक केंद्रों में चीन की मौजूदगी दिखने लगेगी और फिर हम धीरे धीरे उससे डरने लगे और हर कदम पर उसकी बात मानने को तैयार दिखाई पड़ेगे। सरकार इस बात को समझ चुकी है और चीन के बढ़ते कदम को रोकने की तैयारी में लगी है।

Tuesday, May 19, 2020

कोरोना के बाद नई विपदा







कोरोना के बाद नई विपदा


अभी कोरोना की महामारी की लहर खत्म नहीं हुई कि अम्फान नाम का एक महा तूफान ने बंगाल और उड़ीसा में बर्बादी और मौत के तांडव की दस्तक देने लगा। 1999 की अक्टूबर के बाद यह पहला मौका है जब बंगाल की खाड़ी में सुपर साइक्लोन बना हो। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार इस तूफान की अधिकतम रफ्तार 265 किलोमीटर प्रति घंटा हो सकती है। 220 किलोमीटर प्रति घंटे से ज्यादा ही चलने वाले तूफान सुपर साइक्लोन का दर्जा दिया जाता है। सुपर साइक्लोन अम्फान का नाम इसलिए रखा जाता है कि इसे आसानी से याद रखें। यदि इसका कोई तकनीकी नंबर दे दिया जाता याद रखने के लिए भारी जमत आम आदमी के अलावा नाम रखे जाने से वैज्ञानिक समुदाय को भी इनका रिकॉर्ड रखने में सहूलियत होती है ।


उम्मीद है 20 मई की शाम पश्चिम बंगाल के सर्वाधिक लोकप्रिय पर्यटन स्थल और उसके सामने हातिया द्वीप के तट पर पहुंचते पहुंचते तूफान की गति कम हो जाएगी। यही नहीं उड़ीसा के 5 जिलों- केंद्रपाड़ा, जगतसिंहपुर, भद्रक, बालेश्वर और मयूरभंज में 20 तारीख कि सुबह से हवाओं की रफ्तार काफी बढ़ जाएगी। उधर पश्चिम बंगाल सरकार ने भी इस तूफान से निपटने के लिए कमर कस ली है। राज्य के तटवर्ती इलाके अभी बुलबुल तूफान द्वारा किए गए विनाश से उबरे नहीं कि सिर पर अम्फान खड़ा हो गया। हालांकि सरकार ने इस तूफान से निपटने के लिए तमाम तैयारियां करने का दावा किया है लेकिन आया तूफान के समय सुंदरबन के बांधों को जो हानि पहुंची थी उससे इलाके के द्वीपों में रहने वाली आबादी की चिंता बढ़ गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोमवार को इस सुपर साइक्लोन से निपटने की तैयारियों का जायजा लिया। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी सोमवार को ही उच्च स्तरीय बैठक में सुपर साइक्लोन निपटने की तैयारियों की समीक्षा की। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के अनुसार तटीय इलाकों में एनडीआरएफ की टुकड़ियां तैनात कर दी गई हैं और जो निचले इलाके के बाशिंदे हैं उन्हें शेल्टर होम पहुंचाया जा रहा है साथ ही, तिरपाल और जरूरी राहत सामग्री का स्टॉक जा रहा है। सरकार ने तूफान पर निगाह रखने के लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया है।


बंगाल में तटवर्ती इलाकों में छोटे बड़े तूफान अक्सर आते रहते हैं। और यहां के लोगों को शेल्टर होम में शिफ्ट कर दिया जाता है। लेकिन, इस बार कोरोना की वजह से लोग जाने को इच्छुक नहीं हैं। क्योंकि वहां सोशल डिस्टेंसिंग नहीं हो पाएगी और कोरोना का संक्रमण बढ़ने का खतरा बढ़ जाएगा। स्थिति एक तरफ कुआं दूसरी तरफ खाई वाली हो गई। बंगाल के एकमात्र तटवर्ती शहर दीघा में समुद्र की लहरें ऊंची उठने लगी हैं और सागर के पानी में फेन भी बढ़ता नजर आ रहा है। इस बीच, पश्चिम बंगाल सरकार ने क्या करें और क्या नहीं करें की एक सूची विज्ञापन के तौर पर जारी की है। मछुआरों को समुद्र में नहीं जाने की चेतावनी दे दी गई है। मंगलवार की शाम क्षेत्र के इलाकों में भारी बारिश और लगभग 150 किलोमीटर की रफ्तार से हवाएं चलने की आशंका है। विशेषज्ञों के अनुसार पश्चिम बंगाल के सागर द्वीप बुधवार को दोपहर से शाम के बीच तूफान के टकराने की आशंका है। इससे उत्तर और दक्षिण 24 परगना, पूरब और पश्चिम मेदिनीपुर, हावड़ा और हुगली समेत तकिए जिलों में 19 मई को हल्की से भारी बारिश हो सकती है। विशेषज्ञों का मानना है कि इस तूफान से विश्व के सबसे बड़े मैंग्रोव सुंदरबन में भारी नुकसान की आशंका है।





तूफान से पहले स्थानीय लोगों के लिए बनाये गये राहत शिविरों में सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का पालन करने की व्यवस्था की गई है और एनडीआरएफ के अलावा भारतीय तटरक्षक बल को भी अलर्ट कर दिया गया है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सुंदरबन क्षेत्र के घोड़ामारा द्वीप, काकद्वीप, नामखाना, बक्खाली , फ्रेजरगंज और सागरद्वीप इत्यादि क्षेत्र से एक लाख से ज्यादा लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया और इलाके में बने तीन शेल्टर होम जहां लोगों को पहुंचाया जा रहा है वहां कोविड-19 यह दिशा निर्देशों का पालन किया गया है। मंगलवार की शाम से बारिश शुरू हो जाएगी। अगर यह सुपर साइक्लोन बंगाल के तट से टकराता है तो भारी विनाश का खतरा है।

Monday, May 18, 2020

रोजी रोटी को लेकर सियासत







मां-बाप की उंगली पकड़े बिलखते रोते बच्चे जिन्हें कहीं-कहीं पुलिस वाले कुछ खिला देते हैं और जवाब में वे उन्हें धन्यवाद देते हैं। सड़कों पर टायर जलाकर विरोध जाहिर करते प्रवासी मजदूर और सड़क दुर्घटनाओं में मारे गए मजदूरों के शवों पर सियासत। एक अजीब समां है, जिसकी कल्पना वही कर सकता है जो इस पीड़ा से दो- चार होता है। अपनी हड्डियों को गला कर जिन मजदूरों ने सड़कों को बनाया वही मजदूर आज उन्हीं सड़कों पर मोटर गाड़ियों की चपेट में आज तक जान दे दे रहे हैं। मोटर गाड़ियों के काले टायर से कुचले मजदूरों की लाशों से कोलतार की काली सड़कों पर बहते लहू पीछे से आने वाली गाड़ियों के टायर कुछ ही मिनटों में चाट जाते हैं। बच जाते हैं अपनों के आंसू। अच्छी जिंदगी और अपने बच्चों के लिए घर- बार छोड़कर आने वाले इन लोगों की पीड़ा अंदाजा नहीं लग सकता।


तुम्हारे आंगन में सुनहरी किरण के लिए


अपनी जिंदगी में पतझड़ डाल देते हैं


यह लोग लौट हैं रहे हैं क्योंकि कोविड-19 के कारण देशभर में काम बंद हो गया यानी रोजगार बंद रोटी कहां से मिलेगी। बस उसी रोटी के लिए वे अपने घरों को लौट रहे हैं। पर सवाल है कि क्या रोटी मिल सकती है? क्या उनकी उम्मीदें पूरी हो सकती हैं? आइए जरा हकीकत को देखते हैं। उलझाने वाले आंकड़ों को छोड़िए औरएक समन्वित तस्वीर की बात कीजिए। कोविड-19 का संकट आने वाले दिनों में तमाम आशंकाओं से भी बड़ा साबित होने वाला है। इससे संक्रमित लोगों की संख्या हमारे देश में 84 हजार से ज्यादा हो गई है। इतना ज्यादा फैलने की उम्मीद नहीं थी। जब पहला लॉक डाउन लगा था तो उस समय हमारे देश में 500 संक्रमित रोगी थे चीन का आंकड़ा 80 हजार पार हो चुका था। सरकार मामलों को दुगना होने की दर को देख कर कह रही है संकट घट रहा है। चौथा लॉक डाउन मंगलवार से लागू हुआ जो इस महीने की 31 तारीख तक चलेगा। इस दौरान थोड़ी रियायतें मिली है लेकिन शायद इससे काम नहीं बनेगा ना मजदूरों का पलायन रुकेगा और ना ही उनके आंसू। क्योंकि संक्रमण की दर इसी तरह बढ़ती रही तो जुलाई के शुरू के दिनों में संक्रमण की यह संख्या बढ़कर तीन लाख से ज्यादा हो जाएगी। इसमें कोई शक नहीं है किस सरकार ने इसके रोकथाम की कोशिश नहीं की। कोशिशों को तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे अनुकरणीय बताया। लेकिन मामले गिर नहीं रहे हैं बल्कि उन में वृद्धि हो रही है।अगर यही हाल रहा तो अर्थव्यवस्था के लिए बुरी खबरों के लिए तैयार हो जाइए। अर्थव्यवस्था के जाखड़ आने के बाद जो हालात होंगे उसकी कल्पना भी संभव नहीं है। देश के आर्थिक विकास का आकलन करने वाले लोग अभी भी पॉजिटिव ग्रोथ की बात कर रहे हैं और शेयर बाजार अल्पकालिक महत्त्व की खबरों पर ही ऊपर नीचे हो रहा है। दोनों ही किसी आसन्न सुनामी की संभावना से इंकार कर रहे हैं।


इस हफ्ते वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कुछ कदमों की घोषणा की। ऐसा किया जाना सही है लेकिन लगता है कि पैकेज का आकार थोड़ा बड़ा कर बताया गया है। अगर, सरकार की सीमाओं के बरअक्स घोषणाओं और कार्यान्वयन के बीच की खाई का हिसाब ना दिया जाए तब भी सरकार की सीमाएं और क्षमताएं स्पष्ट हैं। सरकार के मुताबिक सरकारी और नागरिक संगठनों के आश्रय स्थलों में लगभग 8 करोड़ मजदूर शरण ले रखे हैं। वित्त मंत्री ने गुरुवार को जो घोषणा की वह इन शरण स्थलों में शरण ले रखे हैं। यह आंकड़ा स्तब्ध करने वाला है। इतनी बड़ी संख्या को खाना देना तो दूर खाना देने का बंदोबस्त करना भी कठिन है। वित्त मंत्री गरीबों और प्रवासियों को जो पेश कर रही हैं वह बहुत ही कम है इसलिए लाखों लोगों को अपने ही भरोसे छोड़ दिया है। ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अभाव और सरकारी रोजगार कार्यक्रमों की बदहाली के कारण यह लाखों लोग फिर से गरीबी रेखा के नीचे आ जाएंगे। अंत में, निजी क्षेत्रों में रोजगार की बात। निजी क्षेत्र वादियां चाहते हैं कि जो मजदूर अपने घरों की ओर चले गए सरकार उन मजदूरों को वापस लाने का कदम उठाए। यह मजदूर सैकड़ों किलोमीटर से चलकर अपने गांव लौट रहे हैं। उनका लौटना और उनकी निराशा साफ बताती है क्यों उनके नियोक्ताओं ने उनकी कितनी उपेक्षा की। इसके बाद राज्य सरकारों द्वारा श्रम कानूनों में संशोधन कर उनके जले पर नमक छिड़कना जैसा हो गया। इससे भारी अराजकता फैलेगी। लेकिन, समस्या पैदा करने वाले कानूनों का जवाब अराजकता नहीं हो सकती। यही नहीं, जिन निवेशकों की आवभगत की जाती है वे मनमाने ढंग से काम करने वाली सरकारों को संदेह की नजर से देख सकते हैं कि कहीं कल उन्हें उनका शिकार ना होना पड़े।


एक रोटी खाता है


दूसरा बनाता है


तीसरा न रोटी खाता है ना बनाता है


वह रोटियों से खेलता है





आने वाले दिनों में रोटियां खाने और बनाने वाले लोग शायद कतार में खड़े मिलें लेकिन रोटियों से खेलने वाले लोग बदस्तूर खेलते रहेंगे ।

सपना या सच







सपना या सच


हमारे देश भारत में योजनाएं बहुत बनती हैं और मजबूरी यह है कि सब के सब लागू नहीं होती। बीच में ही छूट जाती हैं। अब इसके लिए लोग दोषी हो या सिस्टम यह कह पाना बड़ा मुश्किल है क्योंकि जिस कोण से देखेंगे अलग ही परिदृश्य नजर आएगा। कहीं लोग सरकार पर टीका टिप्पणी करते नजर आएंगे और कहीं सिस्टम पर। बहुत पहले अमित शाह ने पढ़े लिखे लोगों को सुझाव दिया था कि वे पकौड़े बनाएं उसे लेकर कुछ लोगों ने इसे पकौड़ा अर्थशास्त्र का नाम दिया और कहा कि उच्च शिक्षा के बाद यही बाकी रह गया है। पढ़े लिखे लोगों की बेरोजगारी को लेकर बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, आंकड़ों की व्याख्या होती है एक माकूल सवाल है कि हर हाथ को काम कहां से मिलेगा? लोग काम की तलाश में बाहर जाते हैं और अगर कोविड-19 जैसे मामले हुए तो वहां न रोजगार रहता है और न रोटी। घर लौटने की पीड़ा और घर नहीं पहुंच पाने की लाचारी का समीकरण कितना दुखदाई होता है लौटते मजदूरों के चेहरे पर देखा जा सकता है। लाचारी का चश्मा अगर आंख से उतार दिया जाए तो उन लौटते मजबूर मजदूरों की आंखों को कभी पढ़ कर देखिए। मंगलवार को प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को संबोधित करते हुए उसी पीड़ा को रेखांकित किया था और और बुधवार से वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण वित्तीय पैकेज के नाम से उस पीड़ा के अलग अलग पहलुओं को विश्लेषित कर रही हैं। बुधवार को एम एस एम ई सेक्टर के लिए पैकेज की घोषणा हुई और उस के दूसरे दिन प्रवासी श्रमिकों, सड़क के किनारे स्टाल या रेहड़ी लगाने वाले छोटे व्यापारियों स्वरोजगार में जुड़े लोगों और छोटे किसानों के लिए बड़े एलान कि एलान किए। वित्त मंत्री के अनुसार आर्थिक प्रोत्साहन पैकेज की दूसरी किस्त में इन्हीं लोगों को लाभ मिलेगा।


वित्त मंत्री ने राहत पैकेज की दूसरी किस्त की घोषणा करते हुए बताया कि 3 करोड़ छोटे किसान कम ब्याज दर पर 4 लाख करोड़ रुपए का कर चुके हैं। 25 लाख नए किसान क्रेडिट कार्ड धारकों को 25000 करोड़ रुपए का कर्ज मंजूर किया गया है। प्रधानमंत्री ने जिस 20 लाख करोड़ रुपए के आर्थिक राहत पैकेज की घोषणा की है उसका 1.7 लाख करोड़ रुपए प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना में नगदी व खाद्यान्न मदद की मार्च में की गई घोषणा तथा भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा 5.6 लाख करोड़ रुपए के विभिन्न उपाय शामिल है।


भारत की जीडीपी का एक हिस्सा आर्थिक राहत पैकेज दिया जा रहा है। यह सरकार का मानवीय कर्तव्य है केंद्र सरकार को इसके लिए साधुवाद। लेकिन जरा एक तथ्य पर गौर करें। किसी को मालूम नहीं कोविड-19 का मामला कहां तक जाएगा और कब्ज से मुक्ति मिलेगी लेकिन इतना तो तय है कि भारत की पहले से सुस्त अर्थव्यवस्था पर इसका महत्वपूर्ण है प्रभाव पड़ेगा। डन एंड ब्रैडस्ट्रीट के ताजा आंकड़ों के अनुसार कई देशों में कई देशों में आर्थिक मंदी आने और कंपनियों को दिवालिया होने का खतरा बढ़ गया है और इस मामले में हमारा भारत की अलग नहीं है। अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडी ने चालू वर्ष में भारत के विकास दर में भारी कटौती की है और इसे 5.3 प्रतिशत से घटाकर 2.5% कर दिया है। हर क्षेत्र में कारोबार हुआ है। लघु उद्योगों के लिए और छोटे-छोटे रोजगार करने वालों के लिए यह स्थिति अत्यंत कष्टदायक है। प्रधानमंत्री ने इसी के लिए प्रधानमंत्री ने और वित्त मंत्री ने एम एस एम ई तथा सड़क पर रोजगार करने वालों को मदद देने की घोषणा की है। क्योंकि इस हालत में प्रभावित सेक्टर को वित्तीय समर्थन और वित्तीय सिस्टम बचाने के लिए इसमें नगदी डालना जल्दी डालना जरूरी है। हालांकि आर्थिक उथल-पुथल से मुकाबले के लिए सरकार को तात्कालिक उपाय के अलावा सरकार को दूरगामी कदमों पर भी ध्यान देना होगा। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे में कमी के खिलाफ भी कदम जरूरी है। भारत मौसम को केंद्र में रखकर दुनिया के सामने विकास का नया मॉडल पेश कर सकता है।





सबक के बाद, अगर भारत सरकार ने इस संकट पर विजय पा ली तो यह तय है कि देश नव निर्माण की तरफ और आत्मनिर्भरता की तरफ आगे बढ़ने लगेगा। क्योंकि हमारे देश में विकास के लिए सबसे महत्वपूर्ण तत्व डेमोग्राफिक डिविडेंड पहले से उपलब्ध । विकास की यह स्थिति एक तरह से परमाणु विखंडन की स्थिति है जैसे ही विखंडन को गति मिलेगी ऊर्जा का प्रसार शुरू हो जाएगा और यह प्रसार अबाध होगा। एक ऐसी ऊर्जा हमारे देश में उत्पन्न होगी जिसका भविष्य में विनाश असंभव है। दार्शनिक और गणित शास्त्री बट्रेंड रसैल ने कहा है कि विकास का विस्फोट परमाणु विस्फोट से कम नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसी विखंडन को आरंभ करने में लगे हैं।

Thursday, May 14, 2020

आर्थिक पैकेजः सरकार की एक और सकारात्मक योजना




वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण बुधवार को कई आर्थिक पैकेज की घोषणा की। इसके पहले मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को आश्वस्त किया अर्थव्यवस्था मजबूत किया जाएगा। उन्होंने गांव, किसान और आर्थिक विकास को लेकर कुछ बातें कहीं थीं और उससे जो संकेत मिल रहे थे उसमें वित्त मंत्री के भाषण की दिखाई पड़ रही थी। वित्त मंत्री के पूरे भाषण और उनके द्वारा की गई पेशकश में जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है एमएसएमई के लिए ऋण गारंटी। आप यहां प्रश्न उठता है कि यह गारंटी काम कैसे करेगी और एमएसएमई सेक्टर सहायता कैसे मिलेगी।अतीत के अनुभवों से देखा जा सकता है कि भारत एक ऐसा देश है जहां उद्योग विकास के नाम पर बैंकों से बड़े-बड़े कर्ज लेकर मशहूर व्यापारी देश से फरार हो जाते हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण आत्मनिर्भर भारत के बारे में कुछ विस्तार से बताया। इसके दो हिस्से हैं, पहला भारतीय रिजर्व बैंक के कुछ नियम और दूसरा कोविड-19 के तहत दी जाने वाली राहत। यह राहत पैकेज मार्च-अप्रैल घोषित की जा चुकी है। बुधवार को वित्त मंत्री द्वारा की गई घोषणाओं में सबसे ज्यादा ध्यान मध्यम,लघु और माइक्रो( एम एस एम ई) पर दिया गया है। इस चक्कर में ऋण गारंटी मैं बहुत ज्यादा वृद्धि की गई है। लेकिन , शायद यह सीधा नहीं मिलेगा। सरकार इस बात पर ज्यादा ध्यान देगी की एम एस एम ई से जुड़े उद्यम इसमें से कितना चाहते हैं या नहीं।


दूसरी तरफ मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने इस घोषणा पर कई सवाल उठाए हैं। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने एक ट्वीट कर पूछा है जुमले बनाने से पहले प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ने 13 करोड़ गरीब परिवारों को मुफ्त राशन और आर्थिक सहायता क्यों नहीं दी गई? 7 करोड़ दुकानदारों क्या किया गया?





हमारे देश की सबसे बड़ी ट्रेजडी है कि सरकार के रचनात्मक कार्यों पर भी विपक्षी दल उंगली उठाते हैं। उनसे एक सीधा सवाल है कि सरकार आखिर प्रयास ना करे तो क्या करे? खुलता पानीअक्सर यह देखा गया है कि इस तरह के कर्ज किसी संपत्ति की गारंटी पर भुगतान किया जाता है क्योंकि बहुधा नगदी के प्रवाह का विश्लेषण उपलब्ध नहीं होता । यही नहीं संकट के समय संपत्ति की कीमत गिर जाती है जैसा वर्तमान में भी हुआ है और ऐसे मौके पर उद्योग कर्ज लेने में दिलचस्पी दिखाते हैं लेकिन बैंक इसके लिए चुप नहीं होती। जहां ऋण गारंटी होती है वहां सरकार बैंकों को इस बात की गारंटी देती है कि अगर उनका पैसा वापस नहीं आया उसका भुगतान सरकार करेगी। मसलन, सरकार अगर किसी फर्म को दिए गए 1 करोड़ रुपए की गारंटी देती है तो इसका अर्थ है कि सरकार उसे वापस करेगी । यदि, सरकार 20% की गारंटी लेती तो वाह 20 लाख रुपए ही वापस करेगी। कोविड-19 का प्रकोप जब भयानक था तभी सरकार ने रोग एवं इलाज पर खर्च किया था और अब उसके खर्चे दो तरफा हो गये। एक तरफ जहां वह स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने के लिए खर्च कर रही है वहीं दूसरी तरफ इस दिशा में भी खर्च करेगी। यानी अर्थव्यवस्था पर दोहरा दबाव। उदाहरण के लिए देखें, विशेषज्ञ यह मान रहे हैं कि सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में 5 से 10% कमी आएगी जिसका अर्थ है 5 से 7 लाख करोड़ का राजस्व घाटा। इसके अलावा सरकारी कर्मचारी और देश की फर्में चाहती हैं उन पर व्याप्त आर्थिक संकट को खत्म करने में सरकार उनकी मदद करे। बैंकों के माध्यम से रुपए डालने के प्रयास बेकार हो गए। क्योंकि बैंक नहीं चाहते कि अब वह नए कर्ज दें। क्योंकि उन्हें डर है कि कहीं नए लोन उनके एनपीए में और इजाफा न कर दें। अब सरकार के सामने एक अजीब स्थिति आ गई है। बैंकों के पास रुपया है लेकिन वह धन के अभाव से जूझ रही अर्थव्यवस्था में देना नहीं चाहते जबकि सरकार के पास इतना रुपया नहीं है कि वह सीधे अर्थव्यवस्था में डाल सके। अब इसका एक ही समाधान है कि सरकार कर्जे की गारंटी ले। लेकिन यह भी कोई नई व्यवस्था नहीं है।





अब क्या हो? इसके लिए तीन उपाय हैं या कहें तीन उपाय किए गए हैं। पहला ऐसे एमएसएमई जो कोविड-19 यह लॉक डाउन के पहले तक ठीक-ठाक चल रहे थे उनके लिए सरकार तीन लाख करोड़ तक की गारंटी दे सकती है यह एक तरह से आपात ऋण है। वित्त मंत्री ने कहा कि यह उनके लिए है जिनका वार्षिक कारोबार सौ करोड़ से कम है। इस कर्ज की अवधि है 4 वर्ष और इस पर 12 महीनों की मोरटोरियम है। केंद्र सरकार की यह योजना एक तरह से वरदान साबित होती है। खासकर कारोबारियों के लिए जो मेहनत और लगन से दुबारा अपना बिजनेस चमकाना चाहते हैं। यही नहीं मुसीबत में फंसे व्यापारी अगर एमपी डिक्लेअर हो चुके हैं तब भी उन्हें कर्ज दिलाने के लिए जो खास सबोर्डिनेट ऋण स्कीम आई है वह भी ऐसे जज्बे वाले लोगों के लिए बहुत बड़ा सहारा होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को 20 लाख करोड़ आर्थिक पैकेज की घोषणा की थी। प्रधानमंत्री के अनुसार यह पैकेज आत्मनिर्भर भारत को नई गति देगा। प्रधानमंत्री ने बुधवार को निर्मला सीतारमण की घोषणा के बाद ट्वीट किया कि हाल में सरकार ने करुणा संकट से जुड़ी जो आर्थिक घोषणाएं की थी और जो रिजर्व बैंक के फैसले थे तथा आज जिस आर्थिक पैकेज को घोषित किया गया है उसे जोड़ कर देखें तो 20 लाख करोड़ रुपए हो जाएंगे। यह राशि भारत की जीडीपी के 10% के बराबर है। सचमुच, वित्त मंत्री की घोषणा को अगर सही ढंग से लागू किया जाता है तो आत्मनिर्भर भारत के संकल्प को सिद्ध करने में नई गति पैदा करेगा क्योंकि यह पैकेज लैंड, लेबर, लिक्विडिटी और लाॅ सबका ध्यान रख रहा है।

Wednesday, May 13, 2020

उड़ान हौसलों से होती है



उड़ान हौसलों से होती है


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंगलवार की रात राष्ट्र को संबोधित किया। उन्होंने एक जो सबसे महत्वपूर्ण बात कही वह थी कोरोना वायरस से मुकाबले के लिए हमारा आत्मनिर्भर होना।उन्होंने कहा कि कोरोना संक्रमण से दुनिया को मुकाबला करते हुए 4 महीने से ज्यादा हो गये। इस दौरान दुनिया भर में 42 लाख से ज्यादा कोविड-19 से संक्रमित हुए और तीन लाख से ज्यादा लोगों की मृत्यु हो गई। भारत में भी अनेक परिवारों ने अपने स्वजन खोए हैं। प्रधानमंत्री ने सब के प्रति संवेदना व्यक्त की। उन्होंने कहा, एक छोटे से वायरस ने सारी दुनिया की करोड़ों जिंदगियों को तबाह कर दिया। सब लोग एक तरह से जंग में जुटे हैं। यह इतिहास में अभूतपूर्व घटना है। पूरी दुनिया के लोगों को टूटना , बिखरनाऔर पराजित होना मंजूर नहीं है। प्रधानमंत्री ने कहा कि सभी नियमों का पालन करते हुए अब हमें बचना भी है और आगे भी बढ़ना है। जब पूरी दुनिया संकट में है तो हमें भी इसे पराजित करने के लिए संकल्प लेना होगा और हमारा संकल्प इसके आतंक से भी विराट होगा। प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को संबोधित करते हुए कि “हम पिछली शताब्दियों से ही लगातार सुनते हैं होगी। आज हमें कोरोना से पहले की दुनिया, वैश्विक व्यवस्थाओं को विस्तार से देखने का और समझने का मौका मिला है। कोरोनो संकट के बाद भी दुनिया में जो स्थितियां बन रहीं हैं उन्हें हम लगातार देख रहे हैं।जब इन दोनों काल खंडों को भारत के नजरिए से देखते हैं तो लगता है कि 21वीं सदी भारत की दो यह हमारा सपना ही नहीं यह हम सबकी जिम्मेदारी भी हैं। लेकिन इसका मार्ग क्या हो? विश्व की आज की स्थिति सिखाती है इसका मार्ग एक ही है आत्मनिर्भर भारत। प्रधानमंत्री ने कहा कि एक राष्ट्र के रूप में हम एक बहुत अहम मोड़ पर खड़े हैं। इतनी बड़ी आपदा भारत के लिए एक संकेत लेकर आई है, एक संदेश लेकर आई है, एक अवसर लेकर आई है। “


प्रधानमंत्री ने अपनी बात का एक उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि जब कोविड-19 आरंभ हुआ तो हमारे देश में एक भी पीपीई किट नहीं बनते थे। एन 95 मास्क का नाम मात्र का उत्पादन होता था। आज हमारे देश में हर रोज 2 लाख पीपीई किट और लगभग इतने ही एन 95 मास्क बन रहे हैं। यह हम इसलिए कर पाए भारत ने आपदा को अवसर में बदल दिया। आपदा को अवसर में बदलने कि भारत की दृष्टि आत्म निर्भर भारत के हमारे संकल्प के लिए उतनी ही प्रभावी शुद्ध होने वाली है। आज दुनिया में आत्मनिर्भर शब्द के अर्थ बदल गए हैं। ग्लोबल विश्व में आत्मनिर्भरता की परिभाषा बदल रही है। अर्थ केंद्रित वैश्वीकरण बनाम मानव केंद्रित वैश्वीकरण की चर्चा आज जोरों पर है और विश्व के सामने भारत का मूलभूत चिंतन आज आशा की किरण है । भारत की संस्कृति आत्मनिर्भरता की बात करती है जिसकी आत्मा वसुधैव कुटुंबकम है। भारत जब आत्मनिर्भरता की बात करता है तो आत्म केंद्रित व्यवस्था की वकालत नहीं करता।


20 मिनट से ज्यादा लंबे भाषण प्रधानमंत्री ने एक बार भी अस्पताल शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में उन्होंने कोई बात नहीं कही। प्रधानमंत्री ने इलाज या उपचार शब्द का प्रयोग किया विदेशों को भेजी गई दवाओं का जिक्र जरूर किया। कोरोना से जंगकी रणनीति का खुलासा नहीं किया। यही नहीं उन्होंने अपने पूरे भाषण में तीन बार लॉक डाउन शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने लॉक डाउन चार की बात करते हुए कहा कि यह बिल्कुल बदला हुआ होगा नए रंग रूप वाला होगा नए नियमों वाला होगा।प्रधानमंत्री में ढाई हजार शब्दों के भाषण में केवल तीन बार गरीब शब्द का इस्तेमाल किया। साफ पता चलता है गरीबों और बीमार लोगों के प्रति कितने संवेदनशील हैं। उन्होंने ऐसे लोगों में सहानुभूति भरने के बदले उनमें आत्मबल भरा। उन्होंने इसके लिए उम्मीद जगाई 20 लाख करोड़ रुपयों के आर्थिक पैकेज की। उन्होंने कहा कि 18 मई से लागू होने वाले लॉक डाउन 4 का स्वरूप एकदम बदला हुआ होगा। यानी उन्होंने संकेत दे दिया कि कारोबार पूरी तरह बंद नहीं होंगे और कई सेवाएं चलेंगी। उन्होंने बहुत खास बात कही। प्रधानमंत्री ने आर्थिक पैकेज की घोषणा करते हैं असंगठित क्षेत्र यानी प्रधानमंत्री ने यह संकेत दिया कि चाहे संगठित क्षेत्र हो या असंगठित पैकेज में सबके लिए कुछ ना कुछ है और जल्दी ही महत्वपूर्ण फैसलों का ऐलान किया जाएगा। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में यह स्पष्ट किया कि देश में बड़े पैमाने पर सुधार किए जाएंगे। उन्होंने इन सुधारों की रूपरेखा बताते हुए कहा कि आत्मनिर्भर बनने के लिए बोल्ड रिफॉर्म्स की जरूरत है और इन रिफॉर्म्स की प्रतिबद्धताओं के साथ अब देश को आगे बढ़ना अनिवार्य है। उन्होंने एक नया शब्द जैम दिया। जैम का अर्थ है जे ए एम यानी जनधन, आधार, मोबाइल। इनसे नियंत्रित सुधारों का असर हमने देख लिया है। अब सुधारों के उस दायरे को व्यापक करना है उसे नई ऊंचाई देनी है। यह रिफॉर्म्स खेती से जुड़ी सप्लाई चेन में होंगे, ताकि किसान सशक्त हो सकते हैं और भविष्य किसी भी संकट के समय उन पर कम से कम प्रभाव पड़े। यह रिफॉर्म्स टैक्स सिस्टम में होंगे। पूरा का पूरा टैक्स सिस्टम सरल, स्पष्ट, बेहतरीन इंफ्रास्ट्रक्चर और सक्षम मानव संसाधन के साथ एक मजबूत फाइनेंसियल सिस्टम के लिए तैयार किए जाएंगे। उन्होंने आत्मनिर्भर भारत के लिए पांच स्तंभों का जिक्र करते हुए उसका खुलासा किया। पहला होगा इकॉनमी यानी अर्थव्यवस्था। इससे अर्थव्यवस्था में क्वांटम जंप या कह सकते हैं हनुमान कूद आएगा। दूसरा स्तंभ है इंफ्रास्ट्रक्चर, तीसरा हमारा सिस्टम चौथा हमारी डेमोक्रेसी और पांचवा डिमांड यानी हमारा ही उत्पादन होगा उसकी मांग बढ़े । प्रधानमंत्री के अनुसार आज विश्व की स्थिति हमें सिखाती है आत्मनिर्भर होना। एक राष्ट्र के रूप में एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। प्रधानमंत्री ने देशवासियों में प्रचंडआत्मबल भरने के लिए कहा कि यह स्थिति एक संदेश एक अव- सर भी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में यह देश इस अवसर का लाभ जरूर उठाएगा। मुश्किलें और अभाव हमें रोक नहीं सकते हम अपनी मंजिल हासिल करके ही रहेंगे। यह हमारा हौसला है हमारे भीतर का आत्मबल है हम लक्ष्य को प्राप्त करेंगे ही। छोटी-छोटी मुश्किलें हमें नहीं रोक सकती। लेखक मृत्युंजय कुमार सिंह नए हाल के उपन्यास ” गंगा रतन विदेसी” में लिखा है एक चुटकी नमक पूरे देश को घुटनों पर ला सकता है और गांधी जी ने इसी एक चुटकी नमक के लिए आंदोलन कर देश को आजाद कर दिया अंग्रेजों ने भारतीयों के आगे घुटने टेक दिए। यानी मुश्किलें कैसी भी हों हौसलों से ही उड़ान होती है। प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन 130 करोड़ जनता में इन हौसलों को भर दिया।


ये कैंचियां क्या खाक हमें उड़ने से रोकेंगी





उड़ान पंखों से नहीं हौसलों से हुआ करती है

Tuesday, May 12, 2020

कोविड-19 और हमारा सामाजिक आचरण

कोविड-19 और हमारा सामाजिक आचरण

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  ने  सोमवार को मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक में मेरे सारे निर्देश दिए और सुझाव दिए लेकिन जो सबसे महत्वपूर्ण  बात थी  और यह हमारे देश भारत में  युगांतरकारी परिवर्तन  ला सकती है वह प्रधानमंत्री की चेतावनी कि दूरी बनाए रखें और ऐसे उपायों का उपयोग करें जो लोगों को नजदीक  आए बिना उन्हें सुविधाएं मुहैया कराए। सचमुच,  कोरोना वायरस महामारी का जो प्रभाव पड़ा है वह दूरदर्शिता के लिए भी एक आवश्यक है।  आचरण मनोविज्ञान और इतिहास की कसौटी पर प्रधानमंत्री की  चेतावनी को देखें तो इससे लगता है  कि कोविड-19 आगे चलकर हमारे दैनिक जीवन  को परिवर्तित कर देगा। इनमें  कुछ परिवर्तन को समझा जा सकता है  और कुछ अभी विश्लेषण का विषय हैं। मसलन,  लगभग 85% लोग सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर रहे हैं और अच्छे तरीके से  हाथ धो रहे हैं।  भारत की आर्थिक स्थिति को देखते हुए लगभग एक चौथाई लोग खाने और पीने के सामान एकत्र कर रहे हैं तथा पैसों को बचाने में लगे हैं।  खरीदारी की आदतें धीरे-धीरे बदल रहीं हैं।  येल स्कूल ऑफ मेडिसिन  की मनोवैज्ञानिक वैलेरिया मार्टिनेज  के अनुसार लोगों में  भय  के कारण आदतें बदल रही हैं।  कोरोना वायरस महामारी के लंबे दौर के बाद बदली हुई आदतें नई आदतों में बदल जाएंगी। 1918 में  इनफ्लुएंजा की महामारी आई थी और इससे सिर्फ अमेरिका में 675000 लोग मारे गए थे और उसके बाद सरेआम  थूकने पर पाबंदी  लग गई। कोविड-19 के दौर में आपसी मेलजोल के समय हाथ मिलाना बंद हो गया।  एक साथ बैठकर बातें करने की अपेक्षा अधिकांश लोग काम के दौरान वीडियो पर बातें करने  लगे। लेकिन जो सबसे महत्वपूर्ण है और जिसे मोदी जी ने रेखांकित किया है वह है आपसी मेलजोल के बजाय एक दूसरे  से सहानुभूति रखें।  अर्थशास्त्रियों में लोकप्रिय सिद्धांत प्रोस्पेक्ट  थ्योरी  आफ बिहेवियर के मुताबिक हमें उपलब्धि से ज्यादा नुकसान करना होगा। बंद की अवधि बढ़ाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आर्थिक विकास से ज्यादा मानवीय नुकसान पर ध्यान दिया है इसलिए सीमित स्थिति में अर्थव्यवस्था को परिचालित करने  का निर्णय किया है। उदाहरण के रूप में देखें सीमित क्षेत्रों में गिनी चुनी  ट्रेनें और व्यापारिक गतिविधियां  आरंभ हो सक

ती हैं लेकिन सोशल डिस्टेंसिंग को बनाए रखना होगा।


आज कि हमारे वैज्ञानिक लगातार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि हर्ड इम्यूनिटी के जरिए वायरस को नियंत्रित किया जा सकता है। हमारी सरकार ने सोशल डिस्पेंसिंग के लिए ही लॉक डाउन का रास्ता चुना लेकिन वैज्ञानिकों की दलील है कि आखिर कब तक छिपकर बैठा रहा जा सकता है। क्योंकि, लॉक डाउन से अर्थव्यवस्था लगातार सुस्त होती जाएगी और भुखमरी बढ़ती जाएगी। इसलिए हमें वायरस पर सर्जिकल स्ट्राइक करके हर्ड इम्यूनिटी के बारे में विचार करना चाहिए। यहां जो सबसे बड़ी है कमी दिखाई पड़ रही है वैज्ञानिकों की बातों में वह है कि लोगों को कैसे इम्यून किया जाए। यानी, उनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता का कैसे विस्तार हो और मजबूत हो। लेकिन यह तभी हो सकता है जब लगभग 60% आबादी को कोरोना वायरस संक्रमित कर चुका होता है और वह आबादी उस से लड़ कर इम्यून हो चुकी होती है। जरा सोचिए भारत जैसे बहु विचार वादी लोकतंत्र में यदि 60% लोग वायरस के संक्रमण के शिकार हो जाएं तो क्या हो जाएगा ? ऐसे सिद्धांत बेशक कहने में अच्छे लगते हैं, उन पर अमल करना बड़ा कठिन होता है और वह भी भारत जैसे देश में जहां शुरू से ही लोगों में रोग प्रतिरोधक क्षमता कम है और ऐसे लोगों का अनुपात गांव में ज्यादा है। उधर जो लोग गांव लौट रहे हैं उनकी जांच की समुचित व्यवस्था नहीं है।





प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी कारणवश चिंता जताया है के गांव में यह महामारी ना फैले।राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ सोमवार को अपनी पांचवी बैठक में प्रधानमंत्री ने यह स्पष्ट किया कि हमें दो ही  उद्देश्य पूरे करने हैं पहला वायरस के संक्रमण की दर को कम करना और धीरे-धीरे लोगों की गतिविधियों को बढ़ाना।इसे हासिल करने के लिए सबको मिलकर काम करना।  उन्होंने कहा कि हमारी सबसे बड़ी चुनौती इस संक्रमण को गांव में फैलने से रोकना है।  प्रधानमंत्री ने कहा पूरी दुनिया यह स्वीकार कर रही है कोविड-19 से खुद को सुरक्षित रखने में भारत सक्षम रहा है और इसमें राज्यों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।  विश्व स्वास्थ्य संगठन की मुख्य वैज्ञानिक सौम्या स्वामीनाथन ने संक्रमण पर मजबूत नियंत्रण के लिए भारत की तारीफ करते हुए कहा कि यह प्रकोप कई महीनों और संभवतः सालों तक रख सकता है।  स्वामीनाथन उम्मीद जताई कि भारत कोविड-19 के लिए वैक्सीन बनाने में दुनिया की मदद कर सकता है। जिन क्षेत्रों में सोशल डिस्टेंसिंग  को नहीं माना गया वहां समस्याएं बढ़ गई।  बेशक प्रधानमंत्री का  यह कथन सही है।  क्योंकि,  कोरोनावायरस के बाद दुनिया बदली हुई होगी और जिस तरह हम विश्व युद्ध के पहले की दुनिया और  बाद की दुनिया के रूप में  परिवर्तन के इतिहास को देखते हैं  उसी तरह  आने वाला दिन  समाज विकास के इतिहास को संक्रमण के पहले की दुनिया और संक्रमण के बाद की दुनिया के रूप में लिखेगा। हमें नई वास्तविकता से दो-चार होने के लिए तैयार रहना पड़ेगा।

Monday, May 11, 2020

कोविड-19 के दौर में प्रवासी मजदूरों का लौटना


 कोविड-19  के दौर में प्रवासी मजदूरों का लौटना
जब से कोरोना वायरस  की महामारी अपने देश में फैली है तब से इस बीमारी के अलावा दो सबसे ज्यादा खबरें आ रही हैं।  पहली खबर समाज में हिंसक घटनाओं की और दूसरी प्रवासी मजदूरों के लौटने की।  हिंसक घटनाओं के कारण चाहे जो हों मजदूरों का लौटना देश के विकास और अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक हो सकता है।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बॉडी लैंग्वेज और उनकी बातचीत से साफ जाहिर होने लगा है कि यह लौटना हमारे देश के लिए कितना चिंताजनक है।  अगर समाज वैज्ञानिक शब्दावली  में कहें तो  इसे गंतव्य से स्रोत तक  लौटना कह सकते हैं।  हजारों मजदूरों को अपने घरों की ओर लौटते  देखना सचमुच हृदय विदारक हैं।  क्योंकि यह सबको मालूम है कि जहां जा रहे हैं वहां इनके लिए या तो काम नहीं है और है भी तो इतना कम है कि वह बस किसी तरह  जी लें।  जो आंकड़े उपलब्ध हैं  वह  हकीकत से दूर हैं।  2011 की जनगणना के मुताबिक देश में रोजगार के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाने वाले मजदूरों की संख्या 45 करोड़ है।  यह संख्या 2001 में दायर जनगणना से 30% ज्यादा है।  लेकिन,  सच्चाई  कुछ दूसरी है। आंकड़े में दी गई संख्या से सही संख्या बहुत ज्यादा है।  जमीनी हकीकत तो यह है  कि  बिहार और उत्तर प्रदेश से  45 करोड़ के आसपास  मजदूर बाहर जाते हैं और इसके बाद मध्य प्रदेश पंजाब राजस्थान उत्तराखंड पश्चिम बंगाल और जम्मू कश्मीर से मजदूर रोजगार की तलाश अपने घरों से बाहर निकलते हैं।  इनका गंतव्य जिन राज्यों में होता है वह हैं दिल्ली,  महाराष्ट्र,  तमिलनाडु,  गुजरात,  आंध्र प्रदेश और  केरल।  इधर हाल के वर्षों में कुछ और राज्यों में ऐसे कार्य  हो रहे हैं जिनसे प्रवास की दिशा बदल रही है खास करके छोटे और  मझोले शहरों की ओर,  जिनकी आबादी लाखों में हैं।  प्रवासी कौन है इसकी अभी तक सही सही परिभाषा नहीं गढ़ी गई है।  यह मान लिया गया है कि जन्म स्थान या पूर्व स्थाई आवास स्थान को छोड़कर रोजगार के लिए बाहर जाना प्रवास  है।  लेकिन इसे बिल्कुल सही नहीं माना जा सकता है।  सवाल है कि यह मजदूर अपने अपने गांव घरों को छोड़कर  सैकड़ों किलोमीटर दूर  आखिर क्यों गए थे? 
         रोजगार के लिए प्रवास  का उद्देश्य तो स्पष्ट है लेकिन ऐसे लोग किन कार्यों के लिए जाते हैं।  इनमें सबसे बड़ी संख्या कृषि मजदूरों की है उसके बाद ईंट भट्ठों में काम करने वाले कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करने वाले और  अकुशल मजदूरी  करने वालों का  नंबर आता है।  अगर इस नजरिए से देखें तो भारत में काम करने वाले मजदूरों  का लगभग 93% भाग प्रवासी मजदूरों का है और यह 93% 45 करोड़ की तादाद से कहीं ज्यादा है। अब सवाल उठता है कि यह प्रवासन क्यों होता है? क्या कोई आपदा है जिसके कारण यह मजदूर अपना घर बार छोड़ कर चले जाते हैं या फिर अवसर का अभाव है? आजादी के पहले हमारे देश की अर्थव्यवस्था कृषि पर टिकी थी जो आजादी के बाद की सरकारों की नीतियों के कारण तथा व्यापक शहरीकरण के कारण  आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हो सकी।  कृषि भूमि पर दबाव बढ़ता गया और जो कृषक थे वह मजदूर बनते  गए।  इसके बाद मजदूरी के अभाव  के कारण उन्हें संभावित मजदूरी वाले स्थानों पर जाना पड़ा।  यह जाना धीरे धीरे बड़ी संख्या में बदलता गया और गांव के लोग शहरों की ओर पलायन करने लगे। जब पुरुषों का पलायन शुरू हुआ खेतों में काम करने के लिए महिलाओं को मजबूर होना पड़ा   और जो कृषि कर्म पुरुष प्रधान था वह दुखद रूप में महिला निर्भर होने लगा।  मजदूरों के प्रवासन का कारण गांव की आर्थिक लाचारी, सामाजिक वंचना इत्यादि मुख्य कारण है और जो लोग आराम की जिंदगी गुजार रहे हैं वह इसे गांव भूख अघोषित बंधुआ मजदूरी और जातिगत  दुर्व्यवहारों  का परिणाम समझते हैं जहां से  बाहर निकले बिना सम्मान से जीने की उम्मीद करना मुमकिन नहीं है।

 अब जबकि मजदूर अपने प्रवास स्थल को छोड़कर उद्गम स्थल की ओर आ रहे और भयानक बेरोजगारी का शिकार हो रहे हैं ।तो ऐसा लगता है कि देश में कोई न कोई भारी श्रमिक उपद्रव होगा।  क्योंकि,  अगर अनुसंधान के आंकड़े देखें तो पता चलेगा कि  जितने लोग कोरोना वायरस से नहीं मरे उससे ज्यादा लोगों ने खुदकुशी कर ली है। उस  दुख का  अंदाज़ लगाना भी मुश्किल है हजारों लोग किन हालात में अपने कमजोर बच्चों को लेकर पैदल ही अपने गांव की ओर चल पड़े। भूख प्यास से  जूझते रास्ते में पुलिस से मार खाते हैं चल पड़े हजारों लोगों की तस्वीरें हम अक्सर देखते हैं। इन तस्वीरों के  विषय  यह चीखकर बोल रहे  हैं कि कोविड-19 के कारण जितने लोग बेरोजगार हुए उतने तो दशकों पहले आई महामंदी  में भी नहीं हुए थे । साहित्य नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले जॉन स्टीनबैक   ने  “द ग्रेप्स आफ रैथ”  महामंदी के दिल दहला देने वाले  मंजर का जिक्र करते हुए  लिखा है कि अमेरिका में 15% लोग बेरोजगार हो गए और इससे आत्महत्या जैसी घटनाएं बढ़ने लगीं।  आज भारत का क्या मंजर है? सेंटर फाॅर  मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के अनुसार भारत में 27% लोग बेरोजगार हो गए हैं इनमें 9.1  करोड़ दो केवल अप्रैल में बेरोजगार हुए जिनमें ज्यादातर छोटे व्यापारी और दिहाड़ी मजदूर थे। स्टीनबैक ने तो  आम  अमेरिकी  के पास  एक मोटर कार होने की  पीड़ा का जिक्र किया है यहां हमारे देश में एक रोटी के बिना सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल के आने और थक कर चूर हो जाने के बाद रेल पटरी पर ही सो जाने का जो दर्द है उस दर्द का जिक्र कहीं नहीं आ रहा है।  अब अगर हालात सुधर भी जाते हैं तो घर लौटने वाले प्रवासी मजदूरों  में से कितने झोपड़ पट्टियों में लौटकर जीवन और मृत्यु की लड़ाई लड़ेंगे? क्या उन्हें लौटने के बाद उनके नियोक्ता उनसे बेहतर कार्य शर्तों की पेशकश करेंगे?  शायद नहीं।  यहां तो लाखों लोग ऐसे हैं जो रोजगार को यादों का हिस्सा मानकर  मजदूरी छोड़ चुके हैं।  बढ़ती आबादी में छोटे वर्क फोर्स के कारण अर्थव्यवस्था की उत्पादकता को भारी झटका लगेगा क्या इसका कोई जनसांख्यिकी लाभ मिलेगा?  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने  इसी  भविष्यत  स्थिति के कारण  आम मजदूरों  की वापसी के लिए पहले ट्रेनों का बंदोबस्त किया और अब कुछ जोड़ी ट्रेनों को कुछ स्थानों के लिए  खोला है।  ताकि मजदूरों को यह इत्मीनान हो मोदी जी उनके साथ हैं और वह इसी  के कारण   फिर लौटने का  मन बनाएं और अर्थव्यवस्था पटरी पर आने लगे। 

Sunday, May 10, 2020

भारत की धमक सीमा के उस पार भी

भारत की धमक सीमा के उस पार   भी
 पाकिस्तान जोकि आतंकवाद नियंत्रित होता है और उसके नेता आतंकी नेताओं  का मुंह  जोहते रहते हैं  यानी  आतंकियों का पराजय और उनका  पराभव एक तरफ से पाकिस्तानी शासन का पराभव है। कश्मीर में  हिजबुल मुजाहिदीन  के  शीर्ष कमांडर  रियाज नायकू  के मारे जाने के बाद हिजबुल  नेता सैयद सलाउद्दीन ने  स्वीकार किया भारत इन दिनों पाकिस्तानी आतंकियों पर बीस पड़ रहा है।  यह स्वीकारोक्ति सैयद सलाहुद्दीन ने नायकू  के मारे जाने के बाद पाकिस्तान की सरजमीं पर आयोजित शोकसभा में की।  इससे संबंधित एक वीडियो अमेरिकी विदेश विभाग ने जारी किया है जिसमें सलाहुद्दीन को  कहते हुए  दिखाया गया है और उसने यह भी कहा है जनवरी से अब तक 80  ने जान दी है।  अगर भारतीय नजरिए से इस वाकये को देखें कहा जा सकता है कि  अब तक 80 आतंकी भारतीय सेना के हाथों मारे  गए। सलाहुद्दीन अंतरराष्ट्रीय स्तर का आतंकी है और उसका मांगा है कि  पाकिस्तान की गलत नीतियों के कारण भारत भारी पड़ रहा है।  उसने यह स्वीकार किया है कश्मीर में तमाम एनकाउंटर में हिजबुल का हाथ है।लेकिन,  पिछले हफ्ते के मध्य में जारी मारे गए फौजियों के फोटोग्राफ्स को ध्यान से देखने पर  पता चलता है इन शहीदों को  सिर में गोली मारी गई  है वे अंधाधुंध फायरिंग में नहीं मरे हैं।  भारतीय मानस नायकू  और अन्य आतंकवादियों को मारे जाने को  हंदवाड़ा में  शहीद फौजियों की शहादत का बदला मान रहा है। 
इस संपूर्ण स्थिति में एक और महत्वपूर्ण  गुत्थी है  वह है हमारे सैनिकों के लिए शहीद शब्द का इस्तेमाल किया जाना।  यह शब्द हमारे कुछ  दिखावे के बुद्धिजीवियों द्वारा यह अर्थ से पहले  गढ़ा गया था।  ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के मुताबिक शहीद वह व्यक्ति होता है जिसने अपनी धार्मिक या राजनीतिक आस्था के कारण जान  गवांई हो।  प्रधानमंत्री मोदी की सरकार  ने  इस शब्द पर आपत्ति जताई  थी और  15 दिसंबर 2017 को ही केंद्रीय रक्षा और गृह मंत्रालय ने केंद्रीय सूचना आयोग को सूचित किया था इससे ना और पुलिस की शब्दावली में मार्टर  या शहीद शब्द नहीं है इसके बजाय कार्रवाई के दौरान मारे गए सैनिकों और पुलिसकर्मियों के लिए क्रमशः बैटल कैजुअल्टी और ऑपरेशन कैजुअल्टी का इस्तेमाल किया जाए। 
 यहां जो सबसे महत्वपूर्ण  तथ्य है वह  ना सलाहुद्दीन  की  स्वीकारोक्ति है  और ना हमारे सैनिकों की शहादत का बदला  क्योंकि पाकिस्तानी फौज  के लिए आतंकवादियों की अहमियत गोला बारूद ज्यादा नहीं है और ऐसे लोगों को मार दिया जाना उनके लिए कोई हानिकारक नहीं है अपना भारत के लिए कोई उपलब्धि। क्योंकि,  आंकड़ों की तुलना करें तो  बहुत चिंताजनक निष्पत्ति प्राप्त होती है। 1 अप्रैल पहली मई तक कश्मीर के भीतरी इलाकों  में 36 आतंकवादी मारे गए और इसी अवधि में आतंकवादियों के हाथों 20 सुरक्षाकर्मियों  की शहादत हुई।  इसमें सीआरपीएफ और पुलिस के जवान  भी शामिल थे।  अगर कहें तो गर्व का विषय होगा कि  मुठभेड़ों में आतंकी मारे जाएं और हमारे सुरक्षाकर्मी हताहत ना हों  परंतु ऐसी आदर्श स्थिति शायद नहीं हो सकती है। सुरक्षा प्रतिष्ठान बड़े अधिकारी को एक सैनिक की मौत पर  आक्रोशित होना चाहिए  और बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करने की  नीति अपनानी चाहिए।  हमारी सरकार और फौज के बड़े अफसरों को  कश्मीर में अपनी कमजोरी का  आकलन करना चाहिए।
        यहां जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है पाकिस्तानी शासकों  विशेष तौर पर उसके सैनिक अधिकारी और पाकिस्तानी  जासूसी एजेंसी आई एस आई का मनोविज्ञान।  अगर केस स्टडी माध्यम से सत्ता प्रतिष्ठानों  के मनोविज्ञान का विश्लेषण करें तो पता चलेगा कि उसने  बालाकोट  हमले  और  धारा 370  को हल्का किए जाने के बाद जो सामरिक विराम लगाया था उसे उसने खत्म कर दिया और  नए जोश के साथ आतंकवादी गतिविधियां आरंभ कर दी हैं। उसने बेहतर ट्रेनिंग दिए  गये  आतंकियों के पाकिस्तानी काडर को  घाटी में उतार दिया है।  पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्ठान द  रेजिस्टेंस नाम से एक नया संगठन बनाया है। इसका लक्ष्य है कि  छद्म युद्ध देसी तड़का लगाया जाए और उधर उनके आका  पर्दे के पीछे रहकर काडर को  ट्रेंड करते रहेंगे और उन्हें नियंत्रित करते रहेंगे। हमारी खुफिया एजेंसियां लगातार इस  पर प्रकाश  डालती  रहीं हैं  और बताया है बड़ी संख्या में आतंकवादी घाटी में घुस  आए हैं और घुसने की तैयारी में भी हैं।  भारत कोविड-19  से लड़ने में व्यस्त है और  पाकिस्तान इसे अवसर मांग रहा है तथा घाटी के लोगों में अपनी प्रतिष्ठा  बढ़ाना चाह रहा है। सैयद सलाहुद्दीन की  यह स्वीकारोक्ति संभवतः एक धोखा है। क्योंकि,  दक्षिण के अवंतीपुरा में जब नायकू के घर को  सीआरपीएफ,  और सेना ने घेर  लिया  उसे मार  गिराया तो उस वक्त  गांव वालों ने सुरक्षाबलों पर  पथराव किया और इसमें हमारे  कई जवान घायल  हो गए।  इस घटना से स्पष्ट होता है कि  कश्मीर के गांव में आतंकियों का समर्थन है और यह समर्थन केवल दिखावे का नहीं बल्कि उसमें कुछ करने की क्षमता भी है।   एक तरफ सैयद सलाहुद्दीन यह कह रहा है भारत भारी पड़ रहा है दूसरी तरफ गांव में आतंकवादियों का आधार फैलता जा रहा है इसलिए सलाहुद्दीन की बातों में सच्चाई कम दिखाई पड़ रही है।  हो सकता है अमेरिकी विदेश विभाग ने जो वीडियो जारी किया है वह भी पूरी तरह सच ना हो।  इसलिए ऐसे किसी भी झांसे में आने के पूर्व  सेना की खुफिया एजेंसी  और देश की तमाम एजेंसियों को  पाकिस्तान के  मनोविज्ञान  के वर्ण पट पर  पूरी तरह विश्लेषण कर लेना चाहिए। वैसे यह सच है कि भारत की प्रभुसत्ता और प्रधानमंत्री मोदी सरकार की रणनीतियों के कारण हमारी धमक सीमा के उस पार भी सुनाई पड़ती है और यही कारण है आतंकी संगठनों का बड़बोलेपन   का सुर बदलता जा रहा है।  झूठ ही सही लेकिन पहले कदम में उन आतंकियों पर हमारा दबाव साफ दिख रहा है।  क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो सलाहुद्दीन जैसा  आतंकी भारत के आगे घुटने टेकता सा नहीं दिखाई पड़ता।  जो लोग इस जंग में काम आए हैं उनके लिए बस यही कहा जा सकता है,

 है नमन उनको कि जो  देह  को अमरत्व देकर
 इस जगत में शौर्य की जीवित कहानी हो गए
 है नमन उनको जिनके सामने  बौना हिमालय

 जो धरा पर गिर गए पर आसमानी  हो गए 

Saturday, May 9, 2020

भोपाल गैस कांड की याद दिलाता वाइजग गैस कांड

भोपाल गैस कांड  की याद दिलाता वाइजग गैस कांड

 गुरुवार को आंध्र प्रदेश की वाइजग  एलजी पॉलीमर्स की रासायनिक  फैक्ट्री से सुबह-सुबह जहरीली गैस लीक हो गई  और इससे 10 आदमी मारे तथा 5000 से ज्यादा लोग बीमार पड़ गए और उन्हें अस्पताल में दाखिल  कराना पड़ा।  यह कारखाना  1961 में स्थापित हुआ हिंदुस्तान का था  कोरियाई कंपनी एलजी ने इसका 1997 में  अधिग्रहण किया और  यह दक्षिण कोरियाई कंपनी एलजी केमिकल लिमिटेड का है और इसमें बैटरी बनती है।  संजोग देखिए भोपाल गैस कांड  में जो  गैस  लीक हुई थी वह भी बैटरी ही बनाती थी। वाइजग के कारखाने में  जो गैस लीक हुई वह  स्टाइरीन थी।  यह गैस  न केवल जहरीली है बल्कि  ज्वलनशील भी है।  इतना ही नहीं यह एक तरह का हाइड्रोकार्बन  भी है और इस गैस के संपर्क में आने से लिंफोमा और  ल्यूकेमिया  नाम का कैंसर भी हो सकती है।  कुछ लोगों का मानना है कि  कोरोना वायरस के चलते  लॉक डाउन के  बाद  जब कारखाना खुला तो उसकी मरम्मत इत्यादि में यह गैस लीक कर गई। लीक होने  के असली कारण का अभी पता नहीं चला  है लेकिन तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं।  कहा तो यहां तक जा रहा है कि  यह  एक रासायनिक हथियार भी है हालांकि इसकी पुष्टि नहीं हो सकी है। चूंकि यह  दक्षिण कोरियाई कंपनी है इसलिए इस तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं।  स्टाइरीन  का मूल रूप से पोलिस्टाइरीन प्लास्टिक और रेजिन बनाने में इस्तेमाल होती है।  यह हल्का पीला ज्वलनशील द्रव है और इसकी  गंध  मीठी  होती।  इसे एस्टाइरोल और विनाइल बेंजीन भी कहते हैं।  बेंजीन और अच्छे दिन के जरिए इसका  औद्योगिक मात्रा में उत्पादन किया जाता है।  इससे बने  प्लास्टिक में खाने पीने की चीजें रखने वाले कंटेनरों,  पैकेजिंग,  सिंथेटिक मार्बल और फोल्डर फर्नीचर बनाने में होता है। 


एलजी केमिकल्स ने एक बयान में कहा है कि  गैस के प्रभाव से उल्टी तथा जी मिचलाने की घटनाएं हो सकती हैं, सांस लेने में तकलीफ हो सकती है।  हालांकि सोशल मीडिया में इसे लेकर बड़े-बड़े आतंक भरे समाचार  आ रहे हैं।  बयान में यह भी कहा गया है कि लगभग  1000 लोगों को अस्पताल में भर्ती कराया गया है और चूंकि कारखाने के आसपास घनी बस्ती है तो हो सकता है घरों में कुछ लोग बेहोश पड़े हों।  वैसे यह गैस बहुत कम मात्रा में वातावरण में पाई जाती है और यदि कोई  सांस में इसे ज्यादा भीतर ले ले तो बेहोशी आ सकती है तथा नर्वस सिस्टम प्रभावित हो  सकता है।  इसका प्रवाह  हवा के साथ फैलता है।  अगर यह गैस  हवा में मिल जाए तो नाक और गले में  जलन होने लगती है और फेफड़ों में पानी भरने लगता है।
        इस हादसे में 5 लोगों की मौत किंग जॉर्ज अस्पताल में इलाज के  दौरान हुई जबकि तीन लोग कारखाने के आसपास काल के  गाल में समा गए।  वाइजग पुलिस के अनुसार  86 लोगों  को वेंटिलेटर पर रखा गया है और  प्लांट मैनेजमेंट  के खिलाफ एफ आई आर दर्ज कर ली गई है।  सरकार ने हादसे में मारे गए लोगों  के परिवारों को एक ही करोड़  रुपए की मदद देने की घोषणा की है और वेंटिलेटर पर लोगों के परिवारों को 10 लाख-10 लाख  रुपए दिए जाएंगे। आंध्र प्रदेश  हाई कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों से जवाब तलब किया है कि रिहायशी इलाके में प्लांट बनाने की अनुमति कैसे दी गई।  भारतीय नौसेना ने 5 पोर्टेबल मल्टीफिट ऑक्सीजन मैनीफोल्ड सेट्स  गैस पीड़ितों के लिए किंग  जॉर्ज अस्पताल को दिया है।

   नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी के अनुसार हाल से लगभग 130 महत्वपूर्ण रासायनिक दुर्घटनाएं भारत में घटीं।  इसमें 259 लोग मारे गए और 560 से ज्यादा लोग आहत हो गए। देश की 25 राज्यों और 3 केंद्र शासित क्षेत्रों के 301 जिलों में  1861 से ज्यादा ऐसी  ऐसी इकाइयां हैं जहां कभी भी बड़ी दुर्घटनाएं हो सकती हैं।  इसके अलावा हजारों ऐसे निबंधित कारखाने हैं जहां दुर्घटनाएं हो सकती हैं।  स्टाइरीन की लीक से मारे गए लोग तथा घायल लोग लॉक डाउन के बाद कारोबार आरंभ करने की अनुमति के  यह पहले शिकार हैं।  जबकि इसका उत्पादन भंडारण और आयात खतरनाक रसायन से जुड़े हजार्ड्स केमिकल  रूल्स 1989  जैसे कानून से नियंत्रित होता है। इस कानून  के तहत खतरनाक  रसायनों की उत्पादन और भंडारण से जुड़े पहलुओं के लिए  कठोर निर्देश हैं।  राज्य सरकार  और कंपनी कोई मालूम है कि यह खतरनाक रसायन है और इससे विस्फोटक स्थिति पैदा हो सकती है।  हो सकता है कि कारखाने में भंडारण के स्वरूप में कहीं खामी हो। पारदर्शी निगरानी किसी भी तरह के औद्योगिक विकास के लिए बाधक नहीं है उल्टे यह  गड़बड़ियों को खत्म करते हुए स्थाई विकास  को बढ़ावा देता है। वाइजग की घटना  ने  यह मानने के लिए बाध्य किया है कि हमने भोपाल गैस कांड से कुछ सीखा नहीं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के पूर्व सलाहकार तुषार कांत जोशी के अनुसार हमें रासायनिक कारखानों के रजिस्ट्रेशन को  कठोर सुरक्षा नियमों से  जोर दिया जाना चाहिए।  इतना ही नहीं  इंसानी सेहत और पर्यावरण के  जोखिमों  का भी इसके साथ आकलन किया जाना चाहिए। यह कारखाने से रसायन के लीक होने की पहली घटना नहीं हमारे देश में,  इसके अलावा मोटर गाड़ियों से निकलने वाले धुएं,  सिगरेट पीने से होने वाले प्रदूषण  इत्यादि का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।  क्योंकि यह सब जैव  याैगिक  हैं और फेफड़े में जल्दी  पहुंचते हैं।  इन्हें खून और पेशाब जांच करने से पाया जा सकता है।  विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक फेफड़ा और नर्वस सिस्टम इसके प्रभाव या किसी भी रासायनिक प्रभाव  का सबसे पहले शिकार होता है और यह कैंसर पैदा करता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिनके लिए देश की जनता का जीवन बहुमूल्य है वह   इस तरफ जरूर देंगे  और पूरी उम्मीद है देश में ऐसी घटनाओं या प्रदूषण के खिलाफ कठोर कानून बनेगा।  प्रधानमंत्री ने  गुरुवार को ही ट्वीट किया था और वाइजग  की घटना पर चिंता जाहिर की थी।  उनकी चिंता ही संकेत देती है कि  इस तरह के रासायनिक प्रभावों से निपटने के लिए आगे कुछ न कुछ होगा।फिलहाल तो सब कोविड-19 से निपटने में लगे हैं। प्रधानमंत्री इस बात को लेकर परेशान हैं कि  लॉक डाउन की अवधि आगे बढ़ाई जाए अथवा नहीं।  अगर गंभीर रासायनिक गवेषणा की जाए तो संभव है प्रदूषण और कोविड-19 में कहीं ना कहीं कोई संबंध हो।  फिलहाल इस पर कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती यह जांच का विषय है।