आज से भारत - पाकिस्तान में सचिव स्तरीय वार्ता आरंभ होने वाली है। राजनयिक सर्किल में सरगोशियां हैं और विशेषज्ञ मुतमइन हैं कि जम्मू कश्मीर पर पाकिस्तान को रियायत देने के लिये भारत पर अमरीका ओर पश्चिमी देशों का भारी दबाव पड़ेगा। इसमें हैरत नहीं कि इसमें रूस, चीन और ईरान वगैरह देश बी भारत कें खिलाफ एकजुट हो जाएं। आखिर ऐसा क्यों और भारत को अब क्या करना चाहिये? यह बड़ा महत्वपूर्ण सवाल हैं जो आम लोग जानना चाहेंगे। दरअसल अब तक भारत और पाकिस्तान के मध्य जम्मू- कश्मीर ही एकमात्र बकाया मसला था। इसमें कश्मीर का भारत में पूरी तरह विलय हो गया और एक संसदीय संकल्प भी है कि पाक अधिकृत कश्मीर को भारत को देना होगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बारम्बार कह चुके हैं कि सीमा मसले में फैसला करने लायक बहुमत उनके पास नहीं है। अब इस स्थिति के सम्बंध में बहुत से उपप्रश्र हैं। चूंकि जम्मू- कश्मीर मुस्लिम बहुल क्षेत्र है और इस कारणवश यह भारत के धर्मनिरपेक्ष और बहुजातीय समाज का प्रतीक है। अब अगर यह भारत के साथ नहीं रह पाता है तो एक बार दोनों देशों में फिर बंटवारे की आग भड़क सकती है। इस मामले में सबसे खराब होगा कि देश बंट जायेगा। लश्कर- ए- तय्यबा, पाकिस्तानी फौज और आई एस आई का लक्ष्य ही यही है। दूसरी तरफ पाकिस्तान खुद को जम्मू- कश्मीर के बगैर पूर्ण नहीं मानता। बंगलादेश की फांस सदा उनके जिगर में चुभती रहती है। हालांकि इस विभाजन के लिये जनरल याह्या खां और भुट्टो दोषी थे पर पाकिस्तानी कट्टरपंथी इसके लिये भारत को दोषी मानते हैं। वे महसूस करते हैं कि यदि जम्मू- कश्मीर पाकिस्तान को मिल जाय और भारत तबाह-ओ-बर्बाद हो जाय तो रूह को जरा राहत मिलेगी। भारत को भी यह मालूम है और यह भी मालूम है कि 1947 से ही पाकिस्तान किसी ना किसी तरह भारत को तबाह करने में लगा हुआ है। भारत बड़ी दिलेरी से इसका मुकाबला करता रहा है। तब शुक्रवार को होने वाली बैठक में नया क्या है और कश्मीर पर दबाव में पुराना क्या है? पाकिस्तान ने जम्मू- कश्मीर मसले को बड़ी सफलता से अंतरराष्ट्रीय स्वरूप दे दिया है। अब वह इस अफगान- पाक की डिजायन पर ले जाना चाहता है। हालांकि जम्मू- कश्मीर और अफगानिस्तान पाकिस्तान में कहीं सम्बंध नहीं है। लेकिन पाकिस्तान ने अपनी जुगत से सोवियत संघ को अफगानिस्तान से निकालने के बाद वह खुद को बहादुर मान रहा है। उसने ऐसी स्थिति तैयार कर रखी है कि बड़ी ताकतें खास कर अमरीका और यूरोप यह सोचे कि पाकिस्तान को कश्मीर मामले में संलग्न रहना चाहिये। इसके पुख्ता कारण भी हैं। यह तो सब जानते हैं कि अफगानिस्तान को गणतांत्रिक बनाने की राह में पाकिस्तान खड़ा है। अमरीका और यूरोप को भी मालूम है कि अल कायदा/ तालिबान से पाकिस्तान का चोली दामन का साथ है। अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अफगानिस्तान से फौज वापस लाने की अंतिम तिथि तय की है। अब पाकिस्तान के सामने दो ही विकल्प हैं पहला कि वह तालिबान को सत्ता तक आने दे और कश्मीर में अपने हित साधन को कठिन बना दे अथवा कश्मीर में अपना पांव जमाने के लिये मौका पाने के बदले अल कायदा/ तालिबान को अमरीका / यूरोप के हाथों बेच देगा। यहीं पर आकर भारत- पाक वार्ता का स्वरूप बिल्कुल नया हो जा रहा है। पाकिस्तान की इस चाल से सरकार को सतर्क रहना होगा।
Wednesday, February 24, 2010
Tuesday, February 23, 2010
हालात को बदले बगैर माओवादियों से वार्ता व्यर्थ
हरिराम पांडेय
माओवादी नेता किशन जी ने सरकार के समक्ष वार्ता की शर्त रखी हे। उनकी शर्त हे कि सरकार माओवाद प्रभावित इलाकों से हथियारबंद पुलिस बल हटा ले, जेलों में बंद माओवादी नेताओं और कार्यकर्ताओं को रिहा कर दे और पुलिस ज्यादती के लिये क्षमा मांगे तथा 72 दिनों तक दोनों ओर से हमले बंद कर दिये जाएं। एक आपराधिक कृत्य को या यों कहें एक विद्रोही आंदोलन को राजनीतिक स्वरूप देने का यह प्रयास माओवादियों की समाज के एक बड़े हिस्से पर पकड़ और अपने प्रभाव क्षेत्र के बाशिंदों के गुस्से का भावात्मक शोषण करने की क्षमता का स्पष्ट उदाहरण है। माओवादियों ने पुलिस जुल्म के खिलाफ एक जन समिति (कमिटी ऑफ पीपल अगेन्स्ट पुलिस एट्रोसीटीज) का गठन कर पुलिस जुल्म के विरुद्ध आंदोलन आरंभ किया और उसे एक हिंसक आंदोलन में बदल दिया और अब उस हिंसक आंदोलन को सियासी जामा पहनाने की कोशिश शुरू हो गयी है। वामपंथी या ऐसा कहें धुर वामपंथी विचारधारा के चुनिंदा वामपंथियों को जोड़ कर खड़े किये गये इस संगठन के खिलाफ वोटों के भय से सरकार कार्रवाई करने में हिचक रही है।
... और ये स्वयंभू बुद्धिजीवी बार-बार झूठ को दोहरा कर सच का आभास कराने में 'गोयबलिज्म'तकनीक में इतने प्रवीण हैं कि यदि इन पर विश्वास करें तो भारतीय राजसत्ता द्वारा 1 नवंबर, 2009 से जनता के खिलाफ शुरू हो चुके इस युद्ध के कई हफ्ते बीत चुके हैं। और तो और, इस युद्ध में मारे जानेवाले आदिवासियों की संख्या रोज-ब-रोज बढ़ रही है। उसी तरह जलाये गये गांवों, विस्थापितों, घायलों और गिरफ्तार लोगों की संख्या भी बढ़ रही है। इस झूठ और किशन जी के बड़बोलेपन का पर्दाफाश करने के लिये जरूरी आम लोगों को यह बताना कि सरकार खासकर केंद्र सरकार माओवादियों की कारगुजारियों को आतंकवाद नहीं मानती हे। बेशक वे आंतरिक सुरक्षा के लिये खतरा हैं पर आतंकवादी इसलिये नहीं हैं कि उनका आंदोलन स्थानीय मसलों पर उपजे गुस्से से आरंभ हुआ और हालात के दबाव से चंद शातिर और हिंसक विचारधारा के लोगों के हाथों में चला गया। माओवादी हथकंडों (जिसे ये जनसंघर्ष कहते हैं) से सत्ता अपनाने के लोलुप इन लोगों के लिये गुस्से में गुमराह हो गये चंद युवक लड़ते हैं, मरते हैं।
इस समस्या से मुकाबले के लिये वार्ता से ज्यादा जरूरी है सरकार को अपनी समरनीति में बदलाव लाना। उसे विकास कार्य और राजनीतिक अप्रोच के बने बनाये व्यूह को किनारा कर ग्रामीण पुलिस व्यवस्था और ग्रामीण खुफियागीरी को विकसित करने के साथ - साथ ग्राम आधारित या वनपंथी अभियानों की क्षमता बढ़ानी होगी एवं प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षा चौकियों के तादाद में इजाफा कर हिफाजती बंदोबस्त को पुख्ता करना होगा। इसके बाद अगर वार्ता होती हे तो बराबरी के स्तर पर होगी वरना शांति या बातचीत से कोई लाभ नहीं होने वाला।
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Sunday, February 21, 2010
'जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी इतिहास।'
वह कौन रोता है वहां
वह कौन रोता है वहां,
इतिहास के अध्याय पर,
जिसमें लिखा है,
नौजवानों के लहू का मोल है!
भारत में लोकतंत्र की सबसे बड़ी पैरोकार माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के अत्यंत परिपक्व नेता और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने ई एफ आर के स्पेशल आई जी को फकत इसलिये सस्पेंड करने का हुक्म दे दिया कि उन्होंने मुख्य मंत्री की व्यवस्था के खिलाफ जबान खोली थी। हैरानी तो तब होती है जब दुनिया की सबसे ताकतवर ब्यूरोक्रेसी में से एक भारतीय अफसरशाही के किसी भी सदस्य ने इसका विरोध नहीं किया। ई एफ आर के स्पेशल आई जी ने केवल यही तो कहा था कि शिल्दा में, जहां ई एफ आर के कैम्प पर माओवादियों ने हमला कर 24 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था, कैम्प गैरपेशेवराना तरीके से लगाया गया था और उनकी आपत्ति नजरअंदाज कर दी गयी।
पुलिस अफसर पर इस तरह की दमनात्मक कार्रवाई दरअसल माओवादियों को प्रोत्साहन है। नक्सलवाद को लेकर सरकार अब तक जिस तरह राजनैतिक रोटी सेंकती रही है वह आम जनता समझती है । नौकरशाह यानी वास्तविक नीति नियंताओं के बीच जनता के कितने हितैषी हैं, ऐसे चेहरों को भी आज जनता पहचानती है। उन्हें समय पर सबक सिखाना भी जानती है पर नक्सलवाद का सबसे चिंताजनक तथ्य यह है कि उसके परिणाम में केवल गरीब, निर्दोष, आदिवासी और कमजोर व्यक्ति ही मारा जा रहा है । इसमें राजनैतिक हत्याओं को भी नकारा नहीं जा सकता जिन्हें कई बार इनकाउंटर घोषित कर दिया जाता है।
जो आप तो लड़ता नहीं ,
कटवा किशोरों को मगर
आश्वस्त होकर सोचता ,
शोणित बहा, पर गयी बच लाज सारे देश की।
इन दिनों देश के कथित जन अधिकारवादी संगठन और प्रखर बुद्धिजीवी प्रमाणित और असंदिग्ध गिरफ्तारियों को मानव अधिकार का हनन साबित करने के लिए जिस तरह हो हल्ला मचा रहे हैं उसे या तो मानसिक रुग्णता कहा जा सकता है या फिर प्रतिभा संपन्न लोगों की विपन्नता भी जो भाड़े में अपनी आवाज भी बेचा करते हैं । इससे प्रत्यक्षत: भले ही नक्सलियों या वाममार्गी चरमपंथियों के हौसले बुलंद नहीं होते हों पर इससे भारतीय मनीषा पर गंभीर शक तो जरूर होता है कि कहीं वे ही तो समाज और देश को फासीवाद की ओर धकेलना नहीं चाह रहे हैं? वातानुकूलित विमानों पर लादे उन्हें कौन देश भर में घुमा रहा है ? यह बुद्धिजीवी वर्ग किस गरीब का हिमायती है और वे किसी एक व्यक्ति, जो अपनी अनैतिक और अलोकतांत्रिक गतिविधियों से संदेहास्पद हो चुका हो, के लिए ही क्यों चिल्लपों मचा रहे हैं? समाज और जनता को दिग्भ्रम करने का यह कौन सा बौद्धिक अनुशासन है? और जिससे शांतिप्रिय समाज के समक्ष कानून एवं व्यवस्था का प्रश्न खड़ा कर रहे हैं।
समाज भी चुप है। भारत को आजादी केवल गांधी या सुभाष या अन्य आजादी के सिपाहियों के प्रयास से ही नहीं मिली बल्कि आमजन के संघर्ष की भूमिका भी रही है। आज वह समुदाय चुप है। 'पाप का भागी नहीं है केवल व्याध, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी इतिहास।'
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Friday, February 19, 2010
दुर्भाग्य है!
हरिराम पांडेय
मेदिनीपुर जिले के शिल्दा में माओवादियों द्वारा ई एफ आर के जवानों की हत्या के बाद पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री( गृहमंत्री भी) बुद्धदेव भट्टाचार्य ने स्वीकार कर लिया कि सुरक्षा में खामी थी। एक दिन पहले राज्य के पुलिस महानिदेशक ने भी लगभग ऐसा ही कुछ कहा था। राज्य की आम जनता की हिफाजत के लिये जिम्मेदार; ये पछताते लोग आखिर क्या कहना चाहते हैं? इन दोनों महानुभावों को शर्म आनी चाहिये जो अपने कर्तव्य का मूल्यांकन करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। क्या ये लोग अब भी मानते हैं कि उनकी पुलिस उनके कहे पर यकीन करेगी? यह मान भी लिया जाय कि हमला अचानक हुआ, तब भी क्या कारण है कि आला अफसरों की जवाबदेही क्यों नहीं तय की गयी? क्यों नहीं वहां साहसी ओर जांबाज अफसरों की कमान में कुमुक भेजी गयी? इसे निराशाजनक निकम्मापन के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता है। आखिर क्या कारण है कि परिष्कृत हथियारों, सक्षम वाहनों और आधुनिक उपकरणों के बिना चंद नौजवानों के सिर पर कफन बांध कर जंगलों में भेज दिया गया, वहां के लोगों की हिफाजत के नाम पर मरने के लिये। एक ऐसी सरकार, जो पिछली चौथाई सदी से पुलिस का पार्टी के तंत्र के रूप में उपयोग करती आ रही थी, को अब माओवादियों से मुकाबले में मानसिक तालमेल बैठाने में दिक्कत आ रही है।
दूसरी तरफ इस घटना के तुरंत बाद इस पर सियासत शुरू हो गई। सीपीएम ने फिर दोहराया कि तृणमूल कांग्रेस एक जनतांत्रिक दल होते हुए भी माओवादियों को मदद कर रही है। दूसरी तरफ तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने हादसे के लिए राज्य सरकार को जवाबदेह ठहराते हुए यहां तक कह दिया कि यह जांच का विषय है कि हमले के लिए माओवादी जिम्मेदार हैं या माक्र्सवादी। सियासी टकराव से समस्या और उलझी है। राजनीतिक दलों के रवैये का फायदा उठाकर माओवादियों ने लगातार अपना विस्तार किया और खुलेआम प्रशासनिक मशीनरी को चुनौती दे रहे हैं।
पिछले दिनों केंद्रीय गृहमंत्री चिदंबरम ने प्रस्ताव रखा कि अगर माओवादी हिंसा छोड़ दें तो उनसे बातचीत की जा सकती है। लेकिन माओवादियों की दलील है कि सरकार पहले नक्सल विरोधी अभियान बंद करे, तभी वे वार्ता की मेज पर आएंगे। दोनों में से कोई पक्ष एक-दूसरे पर भरोसा करने के लिए तैयार नहीं है। केंद्र यह कहकर निश्चिंत हो लेता है कि सारे अभियान तो राज्य सरकारें चला रही हैं, वह तो उन्हें बस मदद कर रहा है। राज्य सरकारें दुविधा में हैं। वे कानून-व्यवस्था बनाए रखना चाहती हैं, लेकिन नक्सलियों से सीधे टकराव से बचना भी चाहती हैं क्योंकि इसमें उन्हें सियासी नुकसान दिखाई देता है।
लेकिन इन हालात का खामियाजा असंख्य गरीब - गुरबों को झेलना पड़ रहा है, जिन्हें आज तक इस व्यवस्था से कुछ नहीं मिला और जो अब नक्सलियों का मोहरा बनने को अभिशप्त हैं। सरकार भले ही माओवाद को आतंकवाद के समकक्ष माने, पर यह बेहद जटिल समस्या है, जिसका कोई एक सरल समाधान नहीं है। केंद्र और राज्य सरकारें जब तक साफ मन से इस पर एकजुट नहीं होंगी, तब तक कोई रास्ता नहीं निकलेगा। यह पश्चिम बंगाल की जनता का दुर्भाग्य है कि उसे अपने जान-ओ- माल के लिये एक ऐसे समूह पर भरोसा करना पड़ रहा है जो पछताने अथवा हाथ मलने के सिवा कुछ नहीं कर सकता।
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धमकियों को देखते हुए सतर्कता जरूरी
हरिराम पांडेय
पुणे में जर्मन बेकरी के समीप विस्फोट के बाद कई नयी गतिविधियां सामने आयीं। इनमें दो पाकिस्तान से हुईं थीं। पहली थी कि पाकिस्तानी आतंकवादी गुट लश्कर - ए- तय्यबा - अल अलामी, यानी अंतरराष्ट्रीय के किसी अबू जिंदाल ने एक भारतीय अंग्रेजी अखबार के पाकिस्तान में भारतीय संवाददाता को टेलीफोन कर विस्फोट की जिम्मेदारी ली। टेलीफोन करने वाले ने खुद को लश्कर - अल अलामी का प्रवक्ता बताया और बताया कि वह उत्तरी वजीरिस्तान से बोल रहा है। बाद में भारतीय आतंकवाद विशेषज्ञों ने इसे गलत बताया और कहा कि उपरोक्त नाम का कोई आतंकी गुट नहीं है लेकिन अल अलामी नाम अतीत में भी प्रयोग किया जा चुका है। अलबत्ता यह शब्द वही संगठन इस्तेमाल करते हैं जो दुनिया के अन्य देश में भी सक्रिय हैं। बहुत ज्यादा तो नहीं दो घटनाएं लोगों की स्मृति में जरूर होंगी। पहली अमरीकी पत्रकार डेनियल पर्ल की गला काटकर हत्या और दूसरी एक अमरीकी राजनयिक की बेटी और बीवी की पाकिस्तान के एक चर्च में बम मार कर हत्या। विशेषज्ञों ने इन घटनाओं का दोषी हरकत उल मुजाहिदीन अल अलामी को बताया था। पाकिस्तानी पुलिस ने इसके बारे में कई तरह की बातें बतायी हैं, मसलन यह हरकत का विदेशी संगठन है या यह इंटरनेशनल इस्लामिक फ्रंट का अंतरराष्ट्रीय गुट है या यह हरकत सें टूट कर बना एक अलग गिरोह है। जब अमरीका ने हरकत पर 1997 में पाबंदी लगायी तो उसने हरकत अल अलामी के नाम से काम करना शुरू कर दिया।
हरकत उल मुजाहिदीन ने कभी भी यह नहीं छिपाया कि भारत से बाहर दक्षिणी फिलीपींस, मध्य एशियाई गणराज्य और चेचेन्या में भी उनका गुट सक्रिय है। हूजी और लश्कर - ए- तय्यबा की भी भारत के बाहर गतिविधियां हैं। लेकिन इनमें से हरकत उल मुजाहिदीन को छोड़ कर कभी किसी ने खुल कर नहीं बताया। खासकर लश्कर जो कि आई एस आई के काफी करीब है, उसने कभी खुल कर अपनी गतिविधियों के बारे में कुछ नहीं कहा। यहां तक कि उसने हेडली और राना के बारे में अभी तक कुछ नहीं कहा। लश्कर के अल अलामी (अंतरराष्ट्रीय) संगठन के बारे में तो अभी तक सुनने को नहीं मिला। इसलिये पाकिस्तान में भारतीय अंग्रेजी अखबार के रिपोर्टर को मिले टेलीफोन की सत्यता के बारे कहना कठिन है। इसके बावजूद यदि किसी ने टेलीफोन किया है तो इसका मतलब है कि किसी ने अपने को अलकायदा से जुड़ा हुआ दिखाने की कोशिश की है। यह ठीक उसी तरह है जैसा मुम्बई हमले के बाद डेक्कन मुजाहिदीन नाम के एक संगठन ने जिम्मेदारी ली थी।
दूसरी महत्वपूर्ण गतिविधि है अभी दो दिन पहले किसी इलियास कश्मीरी ने भारत आने वाले विदेशी खिलाडिय़ों को चेतावनी दी है कि वे यहां ना आयें। यह चेतावनी भी एक अखबार के पाकिस्तानी कार्यालय में ई मेल से दी गयी है। ई मेल भेजने वाले ने अपना नाम इलियास कश्मीरी बताया है। इस नाम के एक आदमी को हेडली- राना केस में एफ बी आई तलाश कर रही है। जहां तक जानकारी है इलियास पाकिस्तानी सेना के एस एस जी का कमांडो हुआ करता था और बाद में वह आतंकवाद की राह पर चलने लगा। शुरू में वह अफगानिस्तान में था, फिर कश्मीर आया और अब उत्तरी वजीरिस्तान में सक्रिय है। पहले वह कश्मीर में हूजी की हरकतों का इंचार्ज था और बाद में उससे अलग होकर उसने वजीरिस्तान में 313 ब्रिगेड नाम के एक संगठन की कमान संभाली। हेडली वजीरिस्तान में इलियास और लश्कर का समान प्रतिनिधि था। श्री लंकाई क्रिकेट टीम पर पाकिस्तान में हमले के बाद दुनिया भर की टीमें पाकिस्तान जाने से डर रहीं हैं। भारत से अपने मनोवैज्ञानिक जंग में आतंकी कुछ ऐसा ही चाहते हैं। 1983 में एशियाई खेलों के दौरान खालिस्तानी आतंकियों ने कुछ ऐसी ही धमकी दी थी और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की व्यक्तिगत कोशिश के कारण बे कुछ भी नहीं कर सके। आज की धमकियों को देखते हुए वैसी ही तैयारी करनी होगी। मामले को रोजाना के स्तर पर नहीं देखना होगा।
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Monday, February 15, 2010
पुणे हमले से उठते सवाल
हरिराम पांडेय
गृहमंत्री पी. चिदम्बरम और अन्य अफसरों के बयानों से यह तय हो गया कि पुणे की जर्मन बेकरी के समीप विस्फोट एक आतंकी कार्रवाई थी। लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया द्वारा बार- बार कहे जाने के बावजूद विस्फोट के आवेग एवं अन्य अवयव यह नहीं बताते कि वह कोई बहुत बड़ा विस्फोट था और उसे अंजाम देने के लिये किसी खास ट्रेनिंग की जरूरत है अथवा उसमें कोई विशेषज्ञता की आवश्यकता है। फिलहाल खुफिया एजेंसियां और नेशनल सिक्युरिटी एजेंसी इस घटना की जांच में जुटी हैं और उसके द्वारा प्राप्त निष्कर्षों के पूर्व किसी निष्पत्ति पर पहुंचना संभव नहीं है। अलबत्ता आगे बढऩे के पूर्व यह कहना जरूरी है कि इस घटना को लेकर फिलहाल पाकिस्तान की तरफ उंगली उठाना उचित नहीं है। नेशनल सिक्युरिटी एजेंसी (एन आई ए) का गठन 26/11 के मुम्बई हमले के बाद किया गया और इस घटना के बाद उसका सबसे महत्वपूर्ण काम लश्कर-ए -तायबा के शिकागो प्रकोष्ठ के डेविड हेडली कोलमैन एवं हुसैन राना के भारत में यात्रा और उनकी अन्य गतिविधियों का सम्पूर्ण विवरण एकत्र करना और उनके आधार पर उनके निशानों की निशानदेही करना है। वैसे हेडली की दिलचस्पी पुणे में जिन स्थानों पर थी, वे थे चबाड हाउस और रजनीश आश्रम। लेकिन इन दोनों स्थानों पर विस्फोट न होकर एक तीसरी जगह धमाका होता है और वह स्थान है जर्मन बेकरी। अब सवाल उठना है कि जर्मन बेकरी क्यों? चबाड हाउस या रजनीश आश्रम क्यों नहीं या फिर अन्य स्थानों की तरह सीरियल ब्लास्ट क्यों नहीं? केवल एक धमाका? क्या धमाके के लिये इस समय का कोई महत्व है? क्या पाकिस्तान वार्ता के पूर्व यह विस्फोट कोई मायने रखता है? क्या भारत को पाकिस्तान से प्रस्तावित वार्ता को खत्म कर देना चाहिये? एन आई ए को अपनी जांच के क्रम में इन सवालों के उत्तर की पड़ताल करनी चाहिये और साथ ही भारत सरकार को भी द्रुत प्रतिक्रिया जाहिर करने में संयम बरतना चाहिये।
पुणे जिहादी गतिविधियों का केंद्र बन गया है, यह बात उस समय मालूम पड़ी जब 2002 में एक फिलस्तीनी नागरिक अबू जुबैदा को दबोचा गया। जुबैदा ने पुणे में कम्प्यूटर साइंस की पढ़ाई की थी और पाकिस्तान जाकर अलकायदा में शामिल हो गया था। वह अल कायदा में ओसामा बिन लादेन के बाद तीसरे स्थान पर था। इसके बाद मुम्बई पुलिस ने 4 कम्प्यूटर विशेषज्ञों को पकड़ा। इनमें तीन लोग पुणे के थे। इसके बाद हेडली के आने के बाद पुणे फिर आतंकी गतिविधियों के केंद्र में आ गया। अब वहां विस्फोट हुआ और एक पखवाड़े के बाद भारत पाक वार्ता होने वाली है। ऐसे में सवालों के सही उत्तर नहीं खोजे गये तो विस्फोट का अर्थ कुछ दूसरा ही हो जायेगा।
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बात कश्मीर की नहीं हिंदुत्व की प्रतिष्ठा की है
खबर है कि ईद के दिन भी कश्मीर में पत्थर फेंके गये और भारी उपद्रव हुए। सरकारी इमारत फूंकी गयी ओर सार्वजनिक सम्पत्ति को क्षति पहुंचायी गयी। कल यानी ईद के एक दिन पहले शनिवार को सरकार ने वहां फौज के अधिकारों में कटौती की और दूसरे दिन से ही उपद्रव शुरू हो गये। यह देख कर ऐसा लगता है कि सब कुछ योजनाबद्ध ढंग से हो रहा है। सुरक्षा बलों के सैकड़ों सैनिक अब तक इस पत्थरबाजी में घायल हो चुके हैं। यह अवश्यम्भावी है कि जब यह पत्थरबाजी बेकाबू हो जायेगी तो सुरक्षा बल के जवान प्रतिगामी कार्रवाई करेंगे ही ओर ऐसे ही मामूली मसले को लेकर आये दिन घाटी में हड़ताल और आगजनी शुरू हो जाती है।
अखबार, टीवी चैनल ओर मानवाधिकार गुट तरह- तरह की बातें करने लगते हैं। यहां सबसे खतरनाक तथ्य यह है कि घाटी में सरकार का शासन नहीं चल रहा है। टी.वी के फुटेज में पाकिस्तानी झंडा लहराता हुआ दिखता है और कोई कुछ नहीं कहता। बॉलीवुड में ओसामा बिन लादेन का एक प्रहसन बनाया गया था। भारत में किसी को कोई आपत्ति नहीं थी पर पाकिस्तान में आपत्ति शुरू हो गयी और घाटी में विरोध के नारे लगने लगे।
बहुतों को मालूम होगा कि देश में जब सब्सिडी हटाने का अभियान सा चल निकला है, तब भी कश्मीर को सबसे ज्यादा सब्सिडी मिलती है।
जब भी प्रधानमंत्री जाते हैं तो मानों सब्सिडी की थैली उलट देते हैं। हजारों करोड़ रुपयों की सब्सिडी की घोषणा होती है। सन 1989 से घाटी में कोई भी अधिकारी पूरा काम नहीं कर पाया है। आये दिन हड़ताल ओर कर्फ्यू पर वेतन पूरा मिलता है उन्हें। हकीकत तो यह है कि अमरीका की मध्यस्थता से एक समझौता बन चुका है जिसमें घाटी को आजाद करने की योजना है। अगर ऐसा होता है तो यह भारत के लिये भारी दुःख का कारण होगा।
पीड़ा तो तब होती है, जब राजधानी में बड़े महानगरों में चंद ऐसे नामी पत्रकार और बुद्धिजीवी मिल जायेंगे जो कहते पाये जायेंगे कि कश्मीर से क्या होगा ? भारत बहुत बड़ा देश है और हमारा काम कश्मीर के बिना भी चल जायेगा। लेकिन यह गलत है। कश्मीर का बड़ा ही समरनीतिक महत्व है। अगर वह दिल्ली के हाथ से निकल जाता है तो भारत तीन दुश्मन राष्ट्रों से घिरा है और वे भारत को परेशान करने से बाज नहीं आयेंगे। दूसरी ओर अगर कश्मीर टूटता है तो मणिपुर क्यों नहीं, पंजाब क्यों नहीं?
दुनिया के कई देश अलगाववाद का दंश झेल रहे हें। फ्रांस कोर्सिका के आंदोलन से त्रस्त है,स्पेन बास्कस से और इंग्लैंड फाकलैंड से। ये स्थल अपने देशों की राजधानियों से काफी दूर हैं। फिर भारत क्यों कश्मीर हाथ से जाने देगा ? कश्मीर हजारों साल से सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप में भारत का हिस्सा है। यही नहीं कश्मीर हमारे हिंदू धर्म का शैव पीठ है और सैकड़ों योगियों, सन्यासियों और गुरुओं ने यहां तपस्या की है, साधना की है।
भारत का सबसे बड़ा शैव तीर्थ अमरनाथ यहां की ही धरती पर है। कश्मीर की इस दशा के लिये हमारी मीडिया, खासकर पश्चिमी मीडिया दोषी है, जो लगातार कहता आया है कि कश्मीर विवादित स्थल है। हममें से बहुतों को यह मालूम होगा कि पिछले 30 वर्षों से पाकिस्तान कश्मीर में अलगाववाद को हवा दे रहा है ओर वहां के लिये आतंकियों को हथियार तथा धन दे रहा है। लेकिन विदेशी मीडिया यहां तक भारत में प्रतिष्ठित बीबीसी भी लगातार उसे भारत के कब्जे वाला कश्मीर कहता है और आतंकियों को लड़ाकू (मिलीटेंट) बताता है। बात कश्मीर में रहने वाले मुट्ठी भर हिंदुओं (1980 में घाटी में हिंदुओं की संख्या 5 लाख थी।) की नहीं है, जिनकी जान को बराबर खतरा बना रहता है। बात अमरनाथ यात्रियों की भी नहीं है। बात हिंदुत्व की प्रतिष्ठा की है। हिंदू धर्म के गुरुओं को अब सक्रिय होना चाहिये। मां भारती और हिंदुत्व को खतरा बढ़ रहा है। भारत में लगभग 80 करोड़ हिंदू हैं और अनुमानत: एक अरब पूरी दुनिया में हैं। धर्मगुरुओं को एक साल में कम से कम तीन बार एक साथ बैठ कर हिंदुओं के लिये कुछ निर्देश तैयार करना चाहिये जो हिंदुओं के लिये बाध्यता मूलक हों। एक बात मान कर चलें कि राष्ट्रभक्ति भी एक धर्म है।
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