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Tuesday, August 31, 2010

कण- कण में कृष्ण हैं

कृषिर्भूवाचक: शब्दोणश्च निवृतिवाचक:
तयोरैक्यं परंब्रह्म इत्यभिधीयते
(ब्रह्मवैवर्त पुराण, ब्रह्मखंड 28 )
यानी,..'कृष... सत्ता को कहते हैं। अतुलित अखंड सत्ता का नाम कृष्ण है। ..ण..का अर्थ निवृत्ति। निवृति का अर्थ है आनंद। असीमित सत्ता (souvernity) और असीमित आनंद को मिलाकर कृष्ण होता है। पर आज हालात बदल गये हैं। असीमित सत्ता तो है पर आनंद बहुजन सुखाय नहीं रहा।
समय ने कब नहीं पुकारा ?
समय आज भी चीखता है कि उसे चाहिये कृष्ण।
पुकार प्रतिध्वनित भी होती है और चीख कर लोप भी हो जाती है।
कान्हा मूरत भर रह गये हैं और हमने उन्हें सामयिक मानना भी छोड़ दिया है।
जैसे अब कोई कंस नहीं, किसी वासुदेव को कैद नहीं या किसी देवकी की कोख नहीं कुचली जाती।
डल झील सुलगती है, असम के जंगल बिलखते हैं, तमिलनाडु का अपना राग है, दिल्ली की जिन्दगी में घुली दहशत योगेश्वर का जोगिया रंग आतंकवाद का प्रतीक बन गया है या कहें ...घर घर मथुरा जन जन कंसा, इतने श्याम कहां से लाऊं ?..
उस रात जब कान्हा को सिर पर उठाये वसुदेव ने उफनती जमुना पार की थी तो आंखों में युग परिवर्तन का सपना रहा होगा। अधर्म पर धर्म की विजय होनी ही चाहिये। कालिया के फन कुचले जाने की आवश्यकता थी, कंस की तानाशाही व्यवस्था परिवर्तन चाहती थी लेकिन आज के शिशुपाल करोड़ों करोड़ गालियां बकते चौक चौक खड़े हैं। आज के कंस जिहादी, - नक्सल हो गये हैं; आज के जरासंघ इस कदर फैले कि चीन और पाकिस्तान हो गये हैं।
व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश किसमें नहीं होता ?
साहित्यकारों के लिये लेखन है यह आक्रोश, तो नेताओं के लिये फैशन है, विद्यार्थियों के लिये डिस्कशन है तो आम आदमी अब भी इसी सोच में रहता है कि.. कोई नृप होहीं हमें का हानि।...
कृष्ण उदाहरण हैं कि सत्ता समाज के लिये है और उसके अनुसार बदलाव भी होने चाहिये। कृष्ण दिशा देते हैं कि व्यवस्था के खिलाफ लफ्फाजियां करना आसान है, लेकिन उसे जनानुरूप बनाने के लिये दृष्टिकोण चाहिये और इसके लिये स्वयं ही तत्पर होना होगा। कृष्ण सोच शून्य क्रांतियों के पक्षधर नहीं रहे अर्थात हर बार बंदूक लेकर ..लाल सलाम.. करने से ही बात नहीं बनती। हर बार...हर-हर महादेव.. और...अल्लाह हो अकबर... से निमित्त सिद्ध नहीं होते; बल्कि कभी कभी मथुरा बचानी भी पड़ती है, कभी कभी अपने सोच की द्वारका बसानी भी होती है।
कृष्ण राजा नहीं थे, जबकि उनके एक इशारे पर अनेक राजमुकुट उनके चरणों पर समर्पित हो सकते थे।
आराध्य केवल अगरबत्ती दिखाने के लिये तो नहीं होते, अनुकरणीय भी होते हैं। कृष्ण, एक मानव की महानता के उस शिखर तक पहुंचने की यात्रा हैं, जहां से ईश्वर की सत्ता आरंभ होती है। धर्म की स्थापना बहुत महान उद्देश्य है और धर्म किसी आराधना पद्धति का नाम नहीं है।
धर्म वह है जहां मानवता निर्भीक हो सके, इसके लिये कदाचित भीष्म पर भी शस्त्र उठाना पड़ सकता है या यह भी संभव है कि धर्मराज से ही कहलाना पड़े...अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो... क्योंकि अंतत: दुर्योधन का ह्रास होकर रहेगा और सत्ता को आंख मिलेगी।
लेकिन आज ऐसी सोच कहां है ? सुबह की चाय के साथ सरकार को कोसने से बात बन जाती है। हर कोई यह मानता है कि कुछ बदलना चाहिये लेकिन क्या ? और कौन करेगा ?
कृष्ण वहन करते हैं सारा..योग-क्षेम... किंतु अर्जुन हो जाने का साहस कितनों में है ?
समय ने कृष्ण के बाद पांच हजार साल बिता लिये हैं। इसे दुर्भाग्य कहना होगा कि अब अनेक महाभारत की पृष्ठभूमि तैयार हो गयी है। हर विकसित और विकाससील राष्ट्र ब्रह्मास्त्र के उपर बैठा है। अंधे परमाणु अस्त्रों पर और हालात अश्वत्थामा जैसे कि ये अस्त्र लौट कर तूणीर में न आ सकें।
पूरी की पूरी मानव जाति का अंत केवल एक संधान पर ही संभव है लेकिन कृष्ण कहां हैं ?
हम कितने मासूम हैं कि प्रतीक्षारत हैं कि कोई कान्हा आयेगा और हमारी लड़ाई लड़ेगा, क्योंकि उसने ही कहा था.... यदा यदा हि धर्मस्य... उसने यह भी कहा था कि ... कर्मण्येवाधिकारस्ते...।
कण कण में कृष्ण है, कण कण कृष्ण बन सकता है।
न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न साधक:
न मुमुक्षंर्न वै मुक्त: इत्येषा परमार्थता

Monday, August 30, 2010

कहीं यह तिरंगे को बदलने की साजिश तो नहीं


दो दिन पहले गृहमंत्री पी चिदंबरम का भगवा आतंकवाद का शिगूफा और उसकी पृष्ठभूमि में कश्मीर में चलते पत्थर, अमरनाथ के तीर्थयात्रियों पर हमले और उसके बाद बाबरी मस्जिद और रामजन्म भूमि के विवाद के होने वाले अदालती फैसले के कारण देश में फसाद की आशंका के चलते सभी सरकारों को केंद्र का नोटिस भेजा गया। केंद्र को डर है कोई हनुमत जागरण ब्रिगेड के लोग उत्पात कर सकते हैं। यानी कुल मिलाकर हिंदुओं पर हमले हो रहे हैं और उन्हें आतंकवादी कह कर उन्हें एक जालिम कौम बताने की साजिश चल रही है।

क्या कोई सरकार से पूछ सकता है कि यदि भगवा रंग आतंकवाद प्रतीक है, तो तिरंगे में लगा केसरिया रंग किसका प्रतीक है?
कैसी विडम्बना है कि भारत में जो भी आतंकी हमले हुये हैं, उनमें लगभग सभी भारतीय स्रोतों से करवाये गये हैं। उनके लिये आईएसआई या अन्य की ओर इशारा कर देशवासियों का ध्यान हटाने की कोशिश है। यह संकीर्ण सांप्रदायिकता और अराष्ट्रीय राजनीति का अतिवादी घिनौना स्वरूप है।
ये राजनेता अपने स्वार्थों के लिए देशहित और राष्ट्रीय सभ्यता से खिलवाड़ करने में नहीं चूकते। भगवा रंग भारत की चेतना का रंग है। भारतीय संविधान में भारतीय ध्वज के रंगों की व्याख्या करते हुये इसे त्याग, तपस्या, बलिदान और वीरता का रंग बताया गया है।
क्या हमारी सरकार तिरंगे से केसरिया रंग हटाने की कहीं साजिश तो नहीं कर रही है ?
गृह मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार 65 हजार से अधिक लोग उस आतंकवाद के शिकार हो चुके हैं, जो देश में जिहाद लाना चाहते हैं और यकीनन वे हिंदू नहीं हैं। इस देश में ही यह होता है कि तिरंगे के लिए जान देने वालों को कश्मीर से उजाड़ा जाता है।

एनसीईआरटी की पुस्तकों में जब गुरु तेग बहादुर साहिब की शहादत का मजाक उड़ाने तथा औरंगजेब को निर्दोष साबित करने वाले पाठों से विकृतियां हटायी जाने लगीं तो वामपंथियों और कांग्रेसियों ने उसे भगवाकरण का नाम दे दिया, विरोध किया। इस देश के खिलाफ विदेशी हमले भारत के मूल स्वरूप, चेतना और यहां के नागरिकों की सभ्यतामूलक संस्कारों को ध्वस्त करने के लिए हुए।

भारत की जमीन पर जब लहू से लकीर खींच दी गयी और उसे देश के बंटवारे का नाम दे दिया गया तो लगा चलो अब तो चैन से रहेंगे। अब शांति से अपनी जीवन परंपरा और धर्म का अनुगमन कर सकेंगे। लेकिन हिंदू विरोध जारी है। दुःख इस बात का है कि जिन्हें हम वोट देकर अपना नेता चुनते हैं, वही हमारी आंख पर पट्टियां बांध कर हमें डराने लगते हैं। चाहे वह कट्टरपंथ हो या आतंकवाद या विदेशी हाथ अथवा हनुमत ब्रिगेड या रामनामी ओढ़े।
सरकार क्यों नहीं समझती कि जिस दिन यह देश जागेगा उस दिन उसकी क्या हालत होगी ?
भारत दुनिया का सबसे प्रगतिशील, लोकतांत्रिक तथा सर्वपंथ समभाव का आदर्श देश है। साथ ही हिंदू बहुल हैं। ऐसे में न जाने क्यों उन्हीं के हितों और संवेदना से सबसे ज्यादा खिलवाड़ हो रहा है ?

Sunday, August 29, 2010

जम्मू कश्मीर पर चीनी षड्यंत्र



जम्मू कश्मीर को दुनिया भारत का वास्तविक हिस्सा मानती है और वह अधिकृत कश्मीर तथा गिलगित - बाल्टिस्तान को पाकिस्तान का हिस्सा मानती है। इसी नीति के तहत दुनिया भर के देश भारतीय पासपोर्ट धारी जम्मू कश्मीर के बाशिंदों को भारतीय नागरिक मानते हैं और उन्हें उसी आधार पर वीसा भी देते हैं। उसी तरह पाकिस्तानी पासपोर्ट धारक अधिकृत कश्मीर एवं गिलगित- बाल्टिस्तान वासियों को पाकिस्तानी मानकर वीसा देते हें।

चीन भी पहले इसी तरह का आचरण करता था पर पिछले साल से उसने अपनी नीति बदल दी है। वह आमतौर पर भारतीय पासपोर्ट धारी जम्मू कश्मीर वासियों की वैधता पर सवाल नहीं खड़े करता लेकिन उसने ऐसे लोगों को वीसा देना बंद कर दिया है। चीन ने भारतीय पासपोर्ट धारकों को चीन की यात्रा करने से भी नहीं रोका है, लेकिन इसके लिये वह सादे कागज पर वीसा दे रहा है जिसे पासपोर्ट से नत्थी कर दिया जाता है। लेकिन वह पाकिस्तान पासपोर्ट धारी अधिकृत कश्मीर और गिलगित- बाल्टिस्तान के बाशिंदों के साथ ऐसी नीति नहीं अपना रहा है।

यही नहीं चीन भारतीय आपत्तियों को दरकिनार कर गिलगित- बाल्टिस्तान से गुजरने वाले काराकोरम राजपथ को और बेहतर बनाने की परियोजना में मदद दे रहा है। साथ ही गिलगित- बाल्टिस्तान होकर गुजरने वाले बीजिंग सिकियांग रेलपथ के निर्माण के अध्ययन में सहयोग कर रहा है। यही नहीं सिकियांग से गिलगित- बाल्टिस्तान होकर ग्वादर जाने वाले गैस तेल पाइप के निर्माण में मदद के लिये भी तैयार है।
चीन की नयी नीति के कई प्रभाव हो सकते हैं। जैसे चीन अधिकृत कश्मीर और गिलगित- बाल्टिस्तान को पाकिस्तान का ही हिस्सा मान रहा है और वह इस पर भारतीय दावे को नहीं मान रहा है। यही नहीं चीन ने कश्मीर को भारतीय हिस्सा मानने के अपने रुख को नरम कर दिया, इससे पाकिस्तान को बड़ा संतोष मिलेगा क्योंकि वह खुद कश्मीर को अपना भाग मानता है और सारी दुनिया में कहता चलता है कि भारत ने इस पर जबरन कब्जा किया हुआ है। इससे पाकिस्तान को यह कहने का मौका मिलेगा कि जम्मू कश्मीर में स्वतंत्रता संघर्ष में मदद करने का उसे कूटनीतिक, राजनीतिक और नैतिक अधिकार है। यही नहीं कश्मीर को विवादास्पद बना कर वह लद्दाख पर भारत से वार्ता के अवसर पैदा करना चाहता है। यहां यह बता देना प्रासंगिक होगा कि लद्दाख के एक हिस्से पर चीन ने कब्जा किया हुआ है।
यही नहीं भविष्य में वह कश्मीर में भारत के विलय को विवदास्पद बता कर सभी देशी रियासतों के भारत में विलय को हवा देने तथा अलगाववाद की चिंगारी को भड़काने की साजिश कर रहा है।

चीन के सिकियांग प्रांत में उइगर आंदोलन में पाकिस्तान की सक्रिय भूमिका, उइगर नागरिकों पर निगरानी के लिये पाकिस्तान में चीनी खुफिया अफसरों की भारी तैनाती और उसके बदले में भारत के प्रति चीन का बदला रुख भारतीय उपमहाद्वीप में नये शक्ति संतुलन की ओर इशारा कर रहा है।
भारत ने गत वर्ष चीन की बदली नीति को उस समय नोट किया, जब उसने कश्मीर वासियों को सामान्य वीसा देने के बदले सादे कागज पर वीसा देना शुरू किया। ले.जनरल आर एस जसवाल एक उच्चस्तरीय सैन्य विनिमय के तहत अभी चीन जाने वाले थे। चीन ने उन्हें सामान्य वीसा देने में मजबूरी जाहिर की। भारत ने इसका तीव्र विरोध कर और सैन्य विनिमय के सम्बंध समाप्त कर सही कदम उठाया है। लेकिन यह यहीं तक सीमित नहीं रहना चाहिये।

हमने तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग नहीं माना है। यह हमारी सौमन्यस्यता है कि हम उस पर चीन का कब्जा मानते आये हैं। लेकिन चीन ने कश्मीर के मामले में ऐसा नहीं किया। अब समय आ गया है कि भारत भी अपनी स्थिति पर पुनर्विचार करे। हमें चीन को यह बता देना चाहिये कि तिब्बत के मसले उसका समर्थन भारत की संवेदनशीलता के प्रति चीनी रवैये पर निर्भर करता है। शुरूआत के तौर पर नालंदा विश्वविद्यालय के पुनरुद्धार के काम में दलाई लामा को तत्काल शामिल कर लिया जाय।

Friday, August 27, 2010

रोटी का सवाल


उत्तर प्रदेश में बुधवार को किसानों ने रास्ता रोका। वे यमुना एक्सप्रेस वे के लिये जमीन अधिग्रहण को को लेकर गुस्से में हैं। और उनके इस गुस्से ने राजनीतिज्ञों को बढिय़ा मसाला पकड़ा दिया है।
अपने भूमि अधिग्रहण और उचित मुआवजे के सवाल पर छिड़ी किसानों की लड़ाई ने बैठे-बिठाए नेताओं को ज्वलंत मुद्दा पकड़ा दिया है। इसके सहारे पश्चिम बंगाल की तर्ज पर उत्तर प्रदेश की पार्टियां भी अपनी रणनीति बनाने में लग गई हैं।
संसद में पक्ष और विपक्ष दोनों मुखर हैं
बात ये है कि कहीं कोई पुल बना है
देश में तेजी से हो रहे शहरीकरण, उद्योगीकरण और बनने वाली सड़कों का संजाल सरकारों के लिए भले विकास के मानक हों, किंतु प्रत्यक्षत: इसकी आड़ में हो रहा जमीनों का अधिग्रहण यह सवाल खड़ा कर रहा है कि पूर्णतया विकसित हो जाने के बाद हमें रोटी कहां से मिलेगी ?

मस्लहत होते हैं सियासत के कदम
तू नहीं समझेगा तू अभी नादान है।

तेजी से बढ़ रही आबादी के कारण वैसे ही जोत की जमीनें सिकुड़ती जा रही हैं। जो बची हुई हैं, विकास के नाम पर उसका भी अधिग्रहण तेजी से जारी है। इसके एवज में किसान समुचित मुआवजा मांग रहे हैं तो संबंधित सरकारें व उनके अधिकारी उन्हें मुंह चिढ़ा रहे हैं। फलस्वरूप किसानों की कथित हितैषी राजनीतिक पार्टियां माओवाद, नक्सलवाद व आतंकवाद के समानांतर एक और वाद को जन्म देने पर तुली हुई हैं, जो सरकारों के लिए निकट भविष्य में मुसीबत बन सकता है।

सरकार को भूमि अधिग्रहण के तौर-तरीके बदलने होंगे। विकास के जो मापदंड सरकार अपना रही है वह चंद हाथों में मुनाफा देने का तरीका है। लगता है, यह बर्दाश्त करने के काबिल नहीं है। जब तक ग्रामीणों की जमीन पर कब्जा बंद नहीं होगा, उन्हें स्वाभिमान से जीने का अधिकार नहीं मिलेगा तब तक संघर्ष विराम होने की उम्मीद कम है। उदाहरण के तौर पर पिछले दिनों रेल मंत्री ममता बनर्जी ने माओवादियों के प्रवक्ता आजाद के एनकाउंटर को फर्जी करार देते हुए हत्या की जांच कराने की मांग उठा दी, तो बवाल मच गया।

ममता को लालगढ़ रैली की इस राजनीतिक धार पर उस संसदीय राजनीति को ऐतराज हो सकता है जो गठबंधन की राजनीति कर सत्ता की मलाई खाते हैं। इसीलिए बीजेपी का यह सवाल जायज लग सकता है कि माओवादियों के मुद्दे पर प्रधानमंत्री की कैबिनेट मंत्री यानी ममता बनर्जी ही जब उनसे इत्तेफाक नहीं रखतीं तो कैबिनेट में सहमति की संसदीय मर्यादा का मतलब क्या है। इस सवाल का जवाब जानने से पहले समझना यह भी होगा कि ममता न तो प्रधानमंत्री की इच्छा से मंत्री बनीं और न ही प्रधानमंत्री ने उन्हें अपनी पसंद से रेल मंत्रालय सौंपा।
ममता जिस राजनीतिक जमीन पर चलते हुए संसद तक पहुंची हैं, उसमें अगर कांग्रेस के सामने सत्ता के लिए ममता मजबूरी थी तो ममता के लिए अपनी उस राजनीतिक धार को और पैना बनाने की मजबूरी है।

खैर, सिंगूर से नंदीग्राम वाया लालगढ़ की जिस राजनीति को ममता ने आधार बनाया उसमें एसईजेड से लेकर भूमि अधिग्रहण और आदिवासियों से लेकर माओवादियों पर ममता का रुख सकारात्मक व स्पष्ट है। उन्होंने कैबिनेट की बैठक में भूमि अधिग्रहण, एसईजेड तथा विकास के इन्फ्रास्ट्रक्चर में किसान और आदिवासियों के मुद्दे पर सरकारी नीति का विरोध किया है। ऐसा नहीं है कि माओवादी आजाद के सवाल पर जो कांग्रेस आज खामोश है और जो बीजेपी या वामपंथी हाय-तौबा मचा रहे हैं उन्हें सवा साल पहले लोकसभा चुनाव के दौरान ममता बनर्जी का राजनीतिक मैनिफेस्टो याद न हो। ममता बनर्जी ने उस वक्त भी लालगढ़ के संघर्ष को यह कहते हुए मान्यता दी थी कि यह राज्य के आतंक और उसकी क्रूरतम कार्रवाइयों के खिलाफ विद्रोह का प्रतीक है।
ममता ने लालगढ़ में आदिवासियों के हथियार उठाने को उनके मान-सम्मान और न्याय से जोड़ा। यूं कहें कि हक के लिए मरने-मारने का जज्बा रखने वाले गरीबों, मजदूरों व किसानों को माओवादी व नक्सली बताया जाने लगा है। तब इनकी पहचान नक्सलबाड़ी के रूप में थी, जिन्हें संरक्षण देकर बंगाल की सत्ता पर सीपीएम काबिज हो गई। अब जब वही काम ममता कर रही हैं तो सीपीएम समेत अन्य दलों को बुरा लग रहा है।
दूसरे शब्दों में, जिस तरह बंगाल में ममता का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि किसान व मजदूर चाहे वह किसी भी वाद से संबद्ध हों, उनकी आवाजें बुलंद करना सत्ता की कुंजी के समान है।
हक के लिए वादी बने किसानों-मजदूरों पर तिरछी निगाहें फजीहत भी करा सकती हैं, जैसा छत्तीसगढ़ में भाजपा के नेतृत्व वाली रमन सिंह सरकार की हो रही है। कमोबेश यही हालात देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में भी बन रहे हैं।
यहां यमुना एक्सप्रेस वे के नाम पर किसानों की 1 लाख 76 हजार हेक्टेयर जमीन ली जा रही है। यह बेहद उपजाऊ जमीन है। बहरहाल किसानों में गजब का आक्रोश है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि निजी क्षेत्र की किसी भी योजना के लिये किसान अपनी जमीन नहीं देंगे। यानी गरीबों का खेत उजाड़ कर सड़कें नहीं बनने दी जायेगी।
फिलहाल आगाज तो हो चुका है अब देखना है कि अंजाम क्या होगा।

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।

Thursday, August 26, 2010

भगवा आतंकवाद - आखिर कहना क्या चाहते हैं?

गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने बुधवार को नयी दिल्ली में सारे राज्यों के पुलिस महानिदेशकों और महानिरीक्षकों के चार दिवसीय सम्मेलन के उद्घाटन में भगवा आतंकवाद का उल्लेख किया। हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि भगवा शब्द से उनका तात्पर्य क्या है?
सहज बुद्धि से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वे हिन्दू आतंकवाद का हवाला दे रहे हैं।
अब माननीय गृहमंत्री महोदय को यह तो मालूम होगा कि इस धरा पर कुल आबादी जितनी है उसमें हर छठा आदमी हिन्दू है। साथ ही हिंदुओं में आतंकवाद की भावना ना के बराबर होती है वरना यह कौम अपनी समस्त वीरता और दौलत के बावजूद सैकड़ों साल तक गुलाम नहीं रहती। इस बात के तमाम ऐतिहासिक, शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध हैं कि भारत की असली खूबी दरअसल इसकी सनातनी विचार धारा में है। दुनिया का कोई भी आदमी चाहे वह किसी भी धर्म या ईमान का हो देश के करोड़ों हिंदुओं में से किसी से मिलता है तो वह अपनी तमाम आध्यात्मिकता के बावजूद मिलने वाले की विविधता को स्वीकार कर लेता है, उसकी इज्जत करता है।
यूनान मिस्र ओ रोमां
सब मिट गये जहां से
अब तक मगर है बाकी
नामोनिशां हमारा
कुछ बात है कि
हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों से रहा है दुश्मन
दौरे जहां हमारा।
यह हिंदुत्व ही है, जो भारतीय ईसाइयों या मुसलमानों को ब्रिटिश ईसाई और अरबी मुसलमान से अलग करता है और उसे उतनी इज्जत देता है, जितनी वह अपने साथी को देता है। दुनिया में हिन्दू ही एक ऐसी कौम है जो न केवल अवतारों पर भरोसा करती है बल्कि वह इस बात पर भी विश्वास करती है कि समय- समय पर विभिन्न स्वरूपों में भगवान का अवतरण हो सकता है... तदात्मानं सृजाम्यहम्। यही कारण है कि देश निकाला या राष्ट्रीय पलायन के बाद यहां आये लोगों को शरण मिली है वे चाहे चीनी हों या पारसी या ईसाई हों, यहूदी हों या अमरीकन या तिब्बती।
हजारों वर्ष के इतिहास में एक भी उदाहरण नहीं मिलता है कि हिंदुओं ने किसी देश पर हमला किया हो या अपना धर्म जबरदस्ती मनवाने का प्रयास किया हो या धर्मान्तरण के लिये बल प्रयोग किया हो।
पीड़ा तब होती है जब सरकार इन हिंदुओं की तुलना आतंकियों के संगठनों से करती है। सब्जा दहशतगर्दी की तरह भगवा आतंकवाद जैसे शब्द गढ़ती है। जहां तक बाबरी मस्जिद को ढहाने की बात है तो उस घटना में कोई मुस्लिम नहीं मरा था लेकिन उससे उपजे गुस्से तथा बदले की कार्रवाई में सैकड़ों लोग मारे गये, जिनमें ज्यादातर हिन्दू थे। इसके बावजूद सरकार और चंद पत्रकार भाई बाबरी मस्जिद की घटना को ज्यादा भयानक कहते हैं।
हो सकता है मेरी बात सियासी रूप में बहुत सही नहीं हो पर हिंदुओं के कत्ल-ए-आम का इतिहास गवाह है। चौदहवीं सदी के आखिरी वर्ष में तैमूर लंग ने एक ही दिन में एक लाख हिंदुओं को कटवा डाला था। यही नहीं गोवा में पुर्तगालियों ने अनगिनत ब्राह्मणों को सूली पर चढ़ा दिया था। आज भी यह कत्ल - ए-आम जारी है। 1990 में कश्मीर घाटी में लगभग 10 लाख हिन्दू थे और अब वहां कुछ सौ हिंदू हैं। बाकी या तो मार डाले गये या खदेड़ दिये गये। इस देश में हिंदू बहुमत में हैं और यहीं इनका मजाक उड़ाया जाता है उन्हें कई सुविधाओं से वंचित रखा जाता है। हिंदुओं के पवित्रतम तीर्थ अमरनाथ की यात्रा पर जनता से विभिन्न टैक्स लिये जाते हैं और हज के लिये सरकार से पैसा दिया जाता है। हिंदुओं के सामने उनके भाइयों बहनों को प्रलोभन देकर ईसाई बनाया जाता है और वे चुपचाप देखते रह जाते हैं। सदियों भेड़ बकरियों की तरह कटते रहने के बाद यदि कभी मामूली गुस्सा आ जाता है तो उसे भगवा आतंकवाद की संज्ञा दे दी जाती है। क्या यह जायज है?

Wednesday, August 25, 2010

माओवादी आतंक का मूल्य


कोटेश्वर राव उर्फ किशन जी के प्रशंसकों और उन बुद्धिजीवियों, जिनका मानना है कि ये माओवादी अत्याचारी भारत सरकार के दमन के शिकार हैं, से अनुरोध है कि वे कृपा कर रेल मंत्री ममता बनर्जी द्वारा पिछले हफ्ते संसद में पेश किये गये आंकड़ों को जरूर देखें और उन पर विचार करें।
पिछले चार वर्षों में अपने को गरीबों और मजलूमों का तरफदार बताने वाले माओवादियों के ऑपरेशंस के कारण रेलवे को 1000करोड़ रुपये का घाटा लगा और इसके अलावा 400 ट्रेनों की यात्राएं रद्द करनी पड़ीं। यही नहीं माओवादियों के अलावा मानवाधिकार के फौजदारों और पुलिस ज्यादतियों की मुखालफत करने वालों (पी सी पी ए) की कार्रवाइयों के फलस्वरूप हुई रेल दुर्घटनाओं, बम विस्फोटों और गोली मारे जाने की घटनाओं में जिन लोगों की जानें गयीं और उन पर आश्रितों को हुई मानसिक आर्थिक क्षति के आंकड़े इसमें शामिल नहीं किये गये हैं।

पी सी पी ए वालों ने माओवादियों की शह पर ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस को पटरी से उतारा और उससे एक मालगाड़ी के टकरा जाने के फलस्वरूप लगभग 145 आदमी मारे गये। ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस की घटना तो माओवादियों की हिंसक मनोवृत्ति का स्पष्ट उदाहरण है।
इसके अलावा कई ट्रेनों पर हमले भी उन्होंने किये हैं। रेलवे से ढोये जाने वाले कई तेल टैंकरों को उन्होंने पटरी से गिरा दिया और गिरने के कारण हुये विस्फोट और आग फैलने से भारी नुकसान हुआ। इस वर्ष माओवादियों ने ऐसी कई कार्रवाइयों को अंजाम दिया जिनमें 60 रेलवे से जुड़ी थीं और उनमें आधी अकेले पश्चिम बंगाल में घटीं। माओवादियों का सबसे ज्यादा शिकार पश्चिम बंगाल और झारखंड राज्य की जनता हुई।

कैसी विडम्बना है कि माओवादी विकास की कमी की शिकायत करते हैं ओर ट्रेनों को उड़ा रहे हैं जो विकास की वाहक हैं। ट्रेनें बेशक सरकार का बिम्ब हैं पर यह उन लोगों को भी अपने गंतव्य तक पहुंचाती हैं, जिन्हें माओवादी अपने लोग कहते हैं और जिनका प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं।
इसी तरह वे स्कूलों की इमारतों, आदिवासी बच्चों के लिये बने छात्रावासों और भारी खर्च करके बनाये गये संचार टावरों को उड़ा कर केवल यही दिखाना चाहते हैं कि उनके पास इफरात बारूद हे और बड़ी खूबी से और असरदार ढंग से वे इसका उपयोग कर सकते हैं।

यह विडम्बना है कि जो लोग आदिवासियों के अधिकारों के नारे लगाते हैं वे उन्हीं तंत्रों का विनाश कर रहे हैं जो दूर दराज के इलाकों में बसे उन गरीबों के विकास के लिये तैयार किये गये हैं। माओवादी कहेंगे कि यह यानी रेलवे इत्यादि उनके सर्वोत्तम निशाने हैं, क्योंकि इससे भारत सरकार कमजोर होती है। उनका यह तर्क इस बात का मौका देता है कि उनके खिलाफ कठोरतम कार्रवाई की जाय और ऐसे में उनसे कोई सहानुभूति नहीं रखी जाय।

Tuesday, August 24, 2010

इंसानियत के मोल पर सियासत


पिछले रविवार को पाकिस्तान में काले घने बादलों के नीचे अनंत दुःख और पीड़ा का समंदर टीवी पर देख कर किसी का दिल पसीज सकता है। बाढ़ के पानी में अनगिनत कस्बे और गांव बह गए हैं। पाकिस्तान के हर प्रांत में सड़कें, पुल और मकान नष्ट हो चुके हैं। टीवी के विजुअल्स में हजारों एकड़ कृषि भूमि को, उफनते पानी द्वारा निगलते हुए साफ देखा जा सकता है।
इतने बड़े पैमाने पर विनाश इन्सानी समझ से परे है। पूरे देश में करीब 1.5 से 2 करोड़ लोग प्रभावित हुए हैं। यह संख्या 2005 में हिंद महासागर की सुनामी और कश्मीर के भूकंप, 2007 के नरगिस साइक्लोन और इस साल हैती के भूकंप से प्रभावित कुल आबादी से भी अधिक है।

करीब 160,000 वर्ग किलोमीटर यानी न्यूयार्क जितना इलाका पानी में डूबा हुआ है। पड़ोसी देश की दशा को ध्यान में रखते हुए भारत का उसकी मदद के लिए हाथ बढ़ाना स्वाभाविक था। पिछले दिनों हमारे विदेश मंत्री एस. एम. कृष्णा ने 50 लाख डॉलर मदद देने की पेशकश की, जिस पर पाकिस्तान का रुख बड़ा ठंडा था। पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने इसके लिए धन्यवाद तो कहा पर मदद को स्वीकारने की बाबत कुछ नहीं कहा। पाकिस्तान का यह रवैया आश्चर्यजनक है क्योंकि इसके लिए उसने खुद ही अंतरराष्ट्रीय मदद की गुहार लगायी है। वह भारत से आलू इम्पोर्ट करके अपनी मंडियों में नीलाम कर रहा है, लेकिन मुफ्त में मिल रही मदद उसे मंजूर नहीं है। ऐसा आखिर क्यों ?

भारत को तो ऐसे मामले में पाकिस्तानी मदद से कोई ऐतराज नहीं होता। हाल में लद्दाख में बादल फटने के बाद आयी बाढ़ में जब सेना के कुछ जवान बहकर सरहद के उस पार चले गए तो भारत ने पाकिस्तान से सहयोग मांगा था। पाकिस्तान ने यह मदद देने का वचन भी दिया था।
आज जब पाकिस्तान ऐसे ही संकट में फंसा है तो पड़ोसी होने के कारण भारत उसकी मदद करना अपना कर्तव्य मानता है। ऐसा लगता है कि इस मामले को लेकर पाकिस्तानी शासन तंत्र के हाथ बंधे हुए हैं।

पाकिस्तानी मीडिया में आयी कुछ खबरों के मुताबिक तालिबान और अन्य कट्टरपंथी बाढग़्रस्त इलाकों में अफवाह फैला रहे हैं कि इस बाढ़ के पीछे भारत का हाथ है। उनके मुताबिक यह त्रासदी भारत द्वारा जम्मू-कश्मीर और अफगानिस्तान में अपने नियंत्रण वाले बांधों का पानी पाकिस्तान की ओर छोडऩे से पैदा हुई है। पाकिस्तान को ऐसे तत्वों से सजग रहने और उनसे सख्ती से पेश आने की जरूरत है, क्योंकि हाल में उसने भारत के बजाय अपने यहां उभर रहे कट्टरपंथ को अपने लिए ज्यादा बड़ा खतरा माना है।
इस अहसास के बावजूद अगर वह भारतीय सहायता लेने में हिचक दिखाता है तो इसका संदेश साफ है कि पाकिस्तानी नेतृत्व कट्टरपंथियों के दबाव में काम कर रहा है। यह पाकिस्तान ही जाने कि आपदा के वक्त मिल रही सहायता को नकारने से उसका कौन सा राजनीतिक उद्देश्य पूरा होता है, पर उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि उसकी यह प्रतिक्रिया पाकिस्तान के उन लाखों बेघर लोगों को नुकसान पहुंचा रही है, जिन्हें इस वक्त मदद की सबसे ज्यादा जरूरत है। इंसानियत का दर्जा दुनिया की किसी भी राजनीति या कूटनीति से ऊपर है। कम से कम इस ऐतिहासिक आपदा में तो हमें तेरा-मेरा के सोच से ऊपर उठ जाना चाहिए।

एक कमाऊ धंधा


भारत में बेरोजगारों की बड़ी तादाद है। सब इन बेरोजगारों को रोजगार दिलाने के लिये दिन रात नये अवसरों की तलाश में रहते हैं। अब इस देश में एक नया धंधा और उपज गया। ऐसा धंधा जिसमें न पढऩे लिखने की जरूरत है न किसी ट्रेनिंग की। बस सियासत में शामिल हो जाइये और गाली गलौज देते सुनते, बस किसी तरह धक्का मुक्की कर इस स्तर पर जा पहुंचें, जहां से सांसद हो सकें और उसके बाद चांदी ही चांदी है। यह फिलहाल देश का सर्वोत्तम रोजगार है। बेहतरीन वेतन, भत्ते और काम कुछ भी नहीं। हाल में सांसदों का जो वेतन बढ़ा उसके बाद तो यह देश का सबसे अच्छा रोजगार बन गया है।
सांसदों के वेतन बढऩे या उसके लिये उनकी जोरदार मांग से किसी को कोई परेशानी या ईर्ष्या नहीं है लेकिन उनका यह कहना कि उन्हें जजों अथवा सचिवों के बराबर वेतन मिलना चाहिये इस बात पर बहस की गुंजाइश है।
सबसे पहले तो उनके कथन का अगला हिस्सा हो सकता है कि यदि वे सचिवों और जजों के बराबर वेतन मांगते हैं तो उनकी आय पर उसी तरह टैक्स लगना चाहिये, जैसा अन्य लोगों को लगता है। इन्हें टैक्स से छूट दिये जाने के पीछे दलील है कि आई ए एस या अन्य नौकरियां एक पेशा हैं जबकि सांसद का होना राष्ट्र की सेवा है। एक सांसद किसी भी पेशे का हो सकता है। वह डॉक्टर हो सकता है, वकील हो सकता है या इंजीनियर हो सकता है लेकिन वह इन धंधों को त्याग कर इसमें आता है ताकि देश को सुशासन में सहायता कर सके। चूंकि सांसद की सेवाएं प्रतिबद्धता के स्तर तक होती हैं और इसलिये उन्हें अपने पेशों को छोडऩे पर मजबूर होना पड़ता है। इसलिये उन्हें टैक्स में छूट दी जाती है।
अभी सांसदों का जो वेतन बढ़ा है उसकी एक मोटी गणना के अनुसार हर सांसद को एक साल में लगभग 21.8 लाख रुपया मिलेगा। इसमें सुविधाएं जैसे मुफ्त यात्रा और नाममात्र के शुल्क पर दिल्ली के लुटियन इलाके में आवास तथा अनुमान से ज्यादा अन्य भत्ते और सुविधाएं। इन सबको यदि जोड़ दिया जाय तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि एक सांसद को साल भर में लगभग 55- 60 लाख रुपये मिलते हैं और यह सब रकम एकदम टैक्स फ्री। यह सरकार को होने वाला एक तरह से घाटा है और यदि इसका भी बोझ सरकारी खजाने पर जोड़ दिया जाय तो एक एम पी को कुल मिला कर साल भर में लगभग एक करोड़ रुपये मिलते हैं।
देश सेवा के लिये इतनी बड़ी रकम। अब संसद में उनके आचरण को देखकर या अखबारों में उनके चरित्र के बारे में बढ़ कर पूछा जा सकता है कि ये देश की क्या सेवा करते हैं। अब इसे देख कर तो लगता है कि हर आदमी सियासत में शामिल हो जाए। आम आदमी इसे पेशे के रूप में देख सकता है। वह जमाना चला गया जब राजनीति त्याग और देश सेवा कही जा सकती थी। अब तो यह धंधा हो गया है और हर धंधे की तरह इसे भी टैक्स के दायरे में ले आना चाहिये। वेतन में ताजा वृद्धि के बाद सांसदों को बहुत मोटी रकम मिलने लगेगी और वह रकम भुखमरी का शिकार हो रही जनता के हिस्से की रोटी छीनकर इकट्ठी की जाती है। अतएव उन्हें आम लोगों की तरह ज्यादा जिम्मेदार होना चाहिये।

Sunday, August 22, 2010

नत्था मरेगा, जरूर मरेगा


रविवार (बाइस अगस्त ) के अखबारों में दो खबरों ने लोगों को जरूर दहला दिया होगा। पहली कि हजारीबाग जिले के पतरातू के समीप एक गांव के लगभग दो हजार किसानों ने भूख और निराशा जनित अवसाद से बचने के लिये राष्ट्रपति से सामूहिक आत्महत्या की अनुमति मांगी है और दूसरी कि बुद्धदेव भट्टाचार्य के सोनार बांग्ला में एक किसान ने भूख और कर्ज से ऊब कर खुदकुशी कर ली। देश में भुखमरी बढ़ रही है। यह तथ्य से ज्यादा एक सवाल है।
आखिर क्यों?

आखिर क्यों देश में विकास के तमाम प्रयासों के बावजूद एक बड़े तबके को जीने लायक एक मुट्ठी अन्न भी नसीब नहीं है ?
फूड ऐंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन (एफएओ) की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया का हर छठा व्यक्ति भूखा है। इसका मतलब यह है कि तरक्की के साधन एक बड़े वर्ग तक नहीं पहुंच पा रहे हैं और अमीर तथा गरीब के बीच की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है।
एफएओ का मानना है कि विश्वव्यापी आर्थिक संकट के कारण अमीर मुल्कों द्वारा गरीब देशों को दी जाने वाली आर्थिक मदद में कमी आ गई है। फिर ज्यादातर संपन्न राष्ट्रों ने कृषि के मद में सहायता देना कम कर दिया है। गौर करने की बात है कि अब अफ्रीका की अपेक्षा दक्षिण एशिया में भुखमरी तेजी से बढ़ रही है। भारत में भी स्थिति बेहद खतरनाक है। इस साल के ग्लोबल हंगर इंडेक्स के मुताबिक भारत के करीब 40 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं।
हमारे अधिकतर गांवों या आदिवासी इलाकों में गरीबी के कारण लोग अपने बच्चों को बुनियादी भोजन भी उपलब्ध नहीं करा पाते, इसलिए बच्चे बीमार हो जाते हैं। बेहतर स्वास्थ्य सेवा न होने के कारण बच्चों का ढंग से टीकाकरण नहीं हो पाता है, न ही उनकी बीमारियों का समुचित इलाज। यह वाकई विडंबना है कि सरकार एक तरफ तो यह दावा करती रहती है कि उसके गोदामों में अनाज भरा पड़ा है, लेकिन दूसरी तरफ भूख से मौतों का सिलसिला भी जारी है।

आजादी के बाद पूंजी प्रधान विकास नीति अपनाने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को जो झटका लगा है उसकी भरपाई नहीं हो सकी है। एक तरफ तो शहरों का लगातार विकास होता रहा लेकिन गांवों में रोजगार के साधन लगातार खत्म होते गए। सरकार ने निर्धनता उन्मूलन के लिए जो योजनाएं चलाई हैं, उनका मकसद गरीबों को किसी तरह जीवित रखना है, उनके रोजी-रोजगार के लिए स्थायी संसाधन विकसित करना नहीं। लेकिन मुश्किल यह है कि इन योजनाओं में भी भ्रष्टाचार का घुन लगा हुआ है। प्रशासन के निचले स्तर पर भ्रष्टाचार के कारण आम तौर पर इसका लाभ गरीबों को नहीं मिल पाता।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) गरीबों को सस्ते दर पर अनाज उपलब्ध कराने के लिए बनी है, लेकिन आज देश भर में करीब दो करोड़ फर्जी कार्ड बने हुए हैं, जिनके जरिए पीडीएस का अनाज जरूरतमंदों तक पहुंचने की बजाय किसी और की झोली में पहुंच रहा है। उनकी बड़े पैमाने पर कालाबाजारी हो रही है। इसी तरह महानरेगा में भी अनियमितता की कई खबरें सुनने में आ रही हैं। कोई जनतांत्रिक व्यवस्था तभी सार्थक कही जा सकती है, जब प्रत्येक नागरिक का पेट भरा रहे।

सरकार अपनी इस बुनियादी जिम्मेदारी को समझे। लेकिन सरकार और हमारे माननीय सांसद इस जिम्मेदारी को समझना तो दूर ऐसे मौके पर अपना वेतन बढ़वाने के लिये अशोभनीय हरकतें कर रहे हैं। जब तक हमारे ये प्रतिनिधि अपनी जिम्मेदारी नहीं समझेंगे तब तक इसी तरह नत्था, होरी, गोबर, रामदीन और न जाने ऐसे कितने आदमी मरते रहेंगे। लोकतंत्र में अगर जनता भूखी मरती है तो सरकार को शासन का हक नहीं है।

Friday, August 20, 2010


डूबने के बढ़ते खतरे
अभी हाल में लद्दाख में बादल फटने की घटना का दर्द कम नहीं हुआ था कि देहरादून में स्कूल पर बादल फट गया। पाकिस्तान और चीन में! बाढ़ की विनाशलीला ने लोगों को दहला दिया है। कोलकाता कारपोरेशन के अफसर बताते हैं कि यदि जम कर बारिश हुई तो इस शहर को कोई नहीं बचा सकता है। डलहौजी इलाके के धंसने का खतरा स्थायी रूप से बना हुआ है।
बड़े बांध बनाने में तो चीन भारत से भी कहीं आगे रहा है तथा वहां की कुछ सबसे विशाल व प्रतिष्ठित बांध परियोजनाएं तो बाढ़ नियंत्रण के बड़े दावे कर रही थीं। यह समय तो बाढ़ में फंसे लोगों के बचाव व राहत का है, पर आगे चलकर यह भी सोचना होगा कि बाढ़ नियंत्रण के उपायों में निवेश का समुचित लाभ भारत तथा पड़ोस के देशों को क्यों नहीं मिला और बाढ़-नियंत्रण नीतियों-परियोजनाओं में क्या बदलाव जरूरी है।

वैसे तो देश के एक बड़े भाग में बाढ़ की समस्या काफी समय से व्यापक रूप में उपस्थित रही है, पर जलवायु बदलाव के दौर में यह और गंभीर हो सकती है तथा इसके रूप में कुछ और बदलाव आ सकते हैं। वैज्ञानिक जिस तरह के बदलते मौसम की तस्वीर हमारे सामने रख रहे हैं, उसमें प्राय: वर्षा की मात्रा बढऩे पर वर्षा के दिन कम होने की बात की गयी है। दूसरे शब्दों में अपेक्षाकृत कम समय में कुछ अधिक वर्षा होने की संभावना है। कम समय में अधिक वर्षा होगी तो बाढ़ की संभावना बढ़ेगी।
इसी तरह ग्लोबल वॉर्मिंग के दौर में ग्लेशियर अधिक पिघलने से भले ही दीर्घकालीन जलसंकट उत्पन्न हो, पर कुछ वर्षों तक इससे नदियों में जल की मात्रा बढ़ सकती है व अपेक्षाकृत कम वर्षा की स्थिति में भी बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। ग्लेशियरों के नीचे बनी नयी झीलों के अवरोध हटने पर फ्लैश फ्लड या अचानक अधिक वेग की बाढ़ आ सकती है। लद्दाख में बादल फटने को भी कुछ विशेषज्ञ जलवायु बदलाव से जोड़ रहे हैं। जिन नदियों में गाद-मिट्टी की मात्रा अधिक होती है (जैसा कि हिमालय की अनेक नदियों में है) उन पर बांध व तटबंध निर्माण की उपयोगिता और भी संदिग्ध है। हिमालय व अन्य पर्वतों में भू-स्खलन की और गंभीर होती समस्या अपने आप में बड़ी चिंता का कारण है तथा साथ ही इससे नीचे के मैदानों में बाढ़ की समस्या और विकट होती जा रही है। बढ़ते भू-स्खलन के कारण अनेक पर्वतीय आवासों, गांवों व सड़कों का अस्तित्व संकट में है। अनेक गांवों की हालत ऐसी हो गयी है कि किसी बड़े हादसे से बचाने के लिए उन्हें अन्यत्र बसाना होगा। यह समस्या बहुत हद तक मानव निर्मित कारणों से बढ़ी है। विभिन्न निर्माण कार्यों के लिए संवेदनशील तथा कच्चे पर्वतों में विस्फोटकों का अंधाधुंध उपयोग किया गया है। बांध-निर्माण के क्षेत्र में विशेषकर भू-स्खलन बढ़ गये हैं। सड़क निर्माण में पर्याप्त सावधानी न बरतने के कारण भी भू-स्खलन की समस्या विकट होती है। हिमालय जैसे अधिक भूकम्प वाले क्षेत्र में यदि बहुत से भूस्खलन के क्षेत्र बढ़ते रहे तो भूकम्प से होने वाली क्षति भी बहुत बढ़ जाएगी। भू-स्खलनों से नदियों में गाद व मलबा गिरता है तो उनमें बाढ़ की संभावना बढ़ती है। यदि मलबे से किसी नदी का प्रवाह रुक जाए व कृत्रिम झील बन जाय, तो यह झील टूटने पर बहुत प्रलयंकारी बाढ़ आती है, जैसा कि कुछ वर्ष पहले उत्तराखंड में कनोडिया गाद की बाढ़ के समय देखा गया।

यदि भू-स्खलन में भारी चट्टानें व मलबा बाँध के जलाशय (जैसे टिहरी जलाशय) में गिर जाय, तो भी बहुत प्रलयंकारी बाढ़ आ सकती है। दूसरी ओर वन-रक्षा व हरियाली बढ़ाकर तथा भू-संरक्षण उपायों से भू-स्खलन कम किया जा सकता है। इस तरह जहाँ विभिन्न कारणों से अधिक वेग की अचानक बाढ़ आने की आशंका बढ़ रही है, वहीं अनेक स्थानों पर बाढ़ के पानी के देर तक रुके रहने से जल-भराव की समस्या विकट हो रही है। सड़कों, हाईवे, रेल लाइनों, तटबंधों, नहरों आदि के निर्माण में निकासी व पुलिया पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया जिससे यह समस्या बढ़ी है। लेह में बाढ़ के अधिक विनाशकारी होने का एक कारण निकासी का अभाव बताया गया है। सदियों से बाढ़ से प्रभावित कुछ क्षेत्रों में पहले बाढ़ के साथ जीना इसलिए सरल था कि बाढ़ का पानी बड़ी मात्रा में आता था पर तेजी से निकल भी जाता था। उसके साथ आयी उपजाऊ मिट्टी से बाद में अच्छी खेती होती थी, परंतु अब देर तक जल-भराव रहने के कारण खेती समय पर नहीं हो पाती तथा मच्छरों और बीमारी का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। शहरों में निर्माण कार्यों में असावधानी, निकासी की गड़बड़ी व मलबों के ढेर के कारण जल-भराव की समस्या तेजी से बढ़ रही है। पॉलीथिन के बढ़ते कूड़े ने भी यह समस्या बढ़ायी है। जहां पहले वर्षा का बहुत-सा पानी तालाबों, पोखरों में समा जाता था, वहां इनके अतिक्रमण या इन्हें पाट दिये जाने से पानी रिहायशी इलाके में घुस जाता है या बाढ़ का रूप ले लेता है। यह अक्सर माना जाता है कि पूरब में बारिश ज्यादा होती है और पश्चिम में कम पर मानसून के शुरुआती दिनों में देखें कि पश्चिमी प्रांत राजस्थान और अहमदाबाद में बाढ़ आ गयी और बिहार तथा बंगाल में सूखा पड़ा है। ऐसे में बड़े- बड़े बांधों की योजनाएं बेशक कागज पर खूबसूरत लगें पर तबाही का कारण बन सकती हैं, क्योंकि इससे नदियों के नैसर्गिक बहाव में विघ्न पड़ता है।

पाकिस्तान की नयी कूटचाल

कश्मीर में पाकिस्तानी आतंकियों ने सिखों को गुमनाम पत्र भेजने शुरू किये हैं, जिसमें धमकी दी जा रही है कि वे इस्लाम कुबूल कर लें अथवा घटी छोड़ दें। इससे वहां के सिखों में आतंक फैल गया है। घाटी में सिखों की आबादी लगभग 60 हजार है। कश्मीर घाटी में 97 फीसदी से ज्यादा आबादी मुस्लिमों की है।
जानकार मानते हैं कि ऐसी रणनीति के चलते सिख पलायन को मजबूर हो सकते हैं और अगर ऐसा हुआ तो उनकी हालत कश्मीरी पंडितों जैसी हो जाएगी। गौरतलब है कि घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन पिछले बीस सालों में बड़ी संख्या में हुआ है। एक अनुमान के मुताबिक 1990 से अब तक करीब डेढ़ लाख कश्मीरी पंडित घाटी छोड़ चुके हैं। इससे साफ है कि कश्मीर में अल्पसंख्यों के लिए हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। हालांकि, अब तक यह साफ नहीं हो पाया है कि ये चिट्ठियां किस आतंकी संगठन की ओर से जारी हुई हैं और उनकी वैधता क्या है ?
चाहे जो हो यह एक खतरनाक संकेत है। क्योंकि जिन्होंने पूर्वी पाकिस्तान की लड़ाई का इतिहास पढ़ा होगा उन्हें यह मालूम होगा कि इसी तरह वहां राष्ट्रवादी बंगाली मुसलमानों को खदेडऩे की साजिश शुरू हुई थी और जो बाद में बंगलादेश के उदय का कारण बना। उस समय के सामाजिक और जियो पॉलिटिकल हालात दूसरे थे और आज बिल्कुल भिन्न हैं। ऐसे में यह स्थिति विभाजन के कारकों में बदल जाय तो हैरत नहीं है।
पाकिस्तान की इस कूटचाल को समझने के लिये जरूरी है उसके कुख्यात खुफिया संगठन इंटर सर्विसेज इंटेलिजंस (आई एस आई) को समझना होगा।
आई एस आई पाकिस्तानी सेनाओं का संयुक्त संगठन है, जिसकी कमान सामान्य तौर पर एक फौजी अफसर के हाथों में होती हे। यह संगठन पाकिस्तान के भीतरी और बाहरी खतरों के बारे में आसूचना संग्रहण और विश्लेषण के लिये जिम्मेदार है। भारत में जैसे ज्वायंट इंटेलिजंस कौंसिल (जे आई सी) और नेशनल सिक्युरिटी कौंसिल सेक्रेटेरियट की (एन एस सी एस) तरह है, वहां आसूचना संग्रहण और विश्लेषण की अलग - अलग व्यवस्था नहीं है। भारत की रणनीति का सिद्धांत है कि एक ही एजेंसी को आसूचना (इंटेलिजंस) संग्रह और विश्लेषण के लिये जिम्मेदार नहीं होना चाहिये। साथ ही वह एक एक्शन एजेंसी भी हे जो पाकिस्तान के भीतर और बाहर खुफिया कार्रवाई करती है। पूर्वी पाकिस्तान का ऑपरेशन और इसके बाद बलोचिस्तान तथा अफगानिस्तान के वर्तमान आपरेशंस इसके उदाहरण हैं।

आई एस आई के पूर्व प्रमुख हमीद गुल के मुताबिक अब भारत को आंतरिक सुरक्षा में परेशान रखने का मतलब है पाकिस्तान को दो डिवीजन फौज का मुफ्त लाभ। आई एस आई भारत को अपनी आंतरिक और बाहरी सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा मानता है। उसका मानना है कि भारत के पास चूंकि उम्दा फौज और एटमी ताकत हे इसलिये वह सीमा के बाहर खतरे का सबब हे और भीतरी खतरा इसलिये है कि उसका बलोचों और सिंधियों से बेहतर सम्बन्ध है। वह अभी अपने लिये भारत को खतरा मानता है। इसलिये वहां के सेनाध्यक्ष जनरल कियानी जब चीन गये थे तो उन्होंने परमाणु हथियार और ईंधन की लगातार आपूर्ति के लिये काफी प्रयास किया। घाटी की नयी घटना भी उसकी चाल है। कश्मीरी पंडितों की तरह वह सिखों को हटा देने की नयी चाल है, सावधान रहने की जरूरत है।

Wednesday, August 18, 2010


कश्मीर समस्या पर एक सुझाव
कश्मीर में हालात सुधरने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। प्रधानमंत्री जी की अपील भी बेकार हो गयी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की नीतियों में कश्मीर का प्रमुख स्थान रहा है, लेकिन कश्मीर की समस्या है कि हल होने का नाम ही नहीं ले रही है। दरअसल कश्मीर स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ताकतों का अखाड़ा बन गया है। जब भी ऐसा लगता है कि मामला सुलझ रहा है उसी समय कुछ ऐसा हो जाता है कि सब कुछ नियंत्रण से बाहर चला जाता है। अटल बिहारी वाजपेयी ने मुशर्रफ से वार्ता शुरू की। मुशर्रफ चले गये। उसके बाद जो सरकार आयी वह अपने पैरों पर ही कांप रही थी, तब भी वार्ता चलती रही।
अचानक 26/11 की घटना घटी। वह एक तरह से आतंकियों की ओर से संदेश था कि 'हमें शांति नहीं चाहिये।
इसके बाद भी एक मौका मिला और कश्मीर में निर्वाचन हुए। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था कि अचानक पथराव और आगजनी शुरू हो गयी। इससे जाहिर होता है कि कश्मीर की समस्या भारत और पाकिस्तान की समस्या नहीं है बल्कि इसके भीतर ही तनाव हैं। स्थानीय राजनीतिक दल हैं, जिन्होंने चुनाव में भाग लिया और उन पर उदारवादी होने का ठप्पा लग गया। कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने चुनाव में हिस्सा नहीं लिये उन्हें उग्रपंथी या हार्ड लाइनर घोषित कर दिया गया। उन्होंने रस्साकशी का अपना जटिल खेल शुरू कर दिया। इसके बाद कश्मीर की जनता है जिनकी शिकायतों से पूरा देश वाकिफ है। परन्तु अपनी पहचान कायम करने की उनकी तमन्ना को देशद्रोह कह कर बात का बतंगड़ बना दिया गया। इसकी सीमा पर पाकिस्तान है जहां की सरकार और मुजाहिदीन दोनों कश्मीर में जब मौका मिलता है गड़बड़ी कर डालते हैं। यही नहीं अंतरराष्ट्रीय ताकतें भी हैं, जो इस मसले पर डंक मारने से कभी चूकती नहीं हैं, पर जैसा कि देखा गया है उनकी चिन्ता बहुत गलत नहीं है। वे कश्मीर के मामले को विस्फोटक समझते हैं और उनका यह समझना भ्रामक भी नहीं है। विगत 63 वर्षों से कश्मीर की समस्या अनसुलझी पड़ी हुई है।

कुछ राजनीतिक दलों का मानना है कि कश्मीर में सुलझाने के लिये अब कुछ रह नहीं गया है या किसी भी समाधान की प्रक्रिया में कश्मीरियों को शामिल नहीं किया जाना चाहिये, लेकिन कश्मीरियों को शामिल नहीं किये जाने की समरनीति बहुत शक्तिशाली नहीं कही जा सकती है। सरकार यदि कश्मीर विधानसभा के सभी दलों को न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत एक गठबंधन में शामिल करने में कामयाबी पा जाती है तो उसे सांस लेने की फुर्सत मिल जायेगी और तब वह बड़े आराम से उन मुश्किलों को मिटा सकती है जो सड़कों और नुक्कड़ों पर कायम हैं। सिर्फ सर्वदलीय गठबंधन ही मानवाधिकार और सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम के मामले पर निर्भय होकर काम कर सकता है क्योंकि उसे सत्ता के किसी दावेदार का डर नहीं रह जायेगा। केवल सर्वदलीय गठबंधन ही उन लोगों से बेखौफ होकर बातचीत कर सकता है, जो चुनाव में शामिल नहीं हो रहे हैं। हो सकता है किसी सियासी मामले में किसी पत्र का ऐसा प्रत्यक्ष सुझाव कुछ राजनीतिक पंडितों को नागवार लगे पर देश के सामने यह सबसे महत्वपूर्ण समस्या है और इसके समाधान पर सोचना हर देशवासी का कर्तव्य है।

होशियार!
पिछले हफ्ते चार घटनाएं हमारे देश में चर्चा का कारण बनी रहीं। हालांकि ये चारों ऊपर से देखने में असम्बद्ध हैं- ये घटनाएं हैं एच-1 बी वीसा के शुल्क में वृद्धि का मसला, भारत के विरुद्ध सुपर बग का आरोप, सुरक्षा कारणों की आड़ में ब्लैकबेरी के मैसेजों को देखने का प्रयास और वारेन एंडरसन के भारत से पलायन वाला कांड।

इन चारों को अगर समग्र रूप में देखें तो पता चलेगा कि इनमें एक खास किस्म का अंत सम्बन्ध है। वह कि भारत ने अपने भविष्य के निर्माण के लिये अतीत की वल्गाओं या यों कहें कि बंधनों को उतार फेंका है। अब से अगर भारत किसी की नहीं सुनता है तो उसके सामने मुश्किलें आयेंगी ही। अब वारेन एंडरसन का ही मामला देखें। इस मसले ने भारत को 20 साल पीछे वहां पहुंचा दिया, जहां शीतयुद्ध का समापन हो रहा था और उस समय उसका सिक्का चलता था। वैसे आज भी अपने देश के मामलात में उसका हुक्म चलता है।
जब भोपाल गैस कांड हुआ तो राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और रोनाल्ड रीगन अमरीका के प्रेजिडंट। रीगन ने राजीव पर दबाव डाला कि वारेन एंडरसन को देश से जाने दिया जाय। दबाव काम कर गया और एंडरसन इस देश से निकल गया।

अब जब एंडरसन की जरूरत पड़ी तो मनमोहन सिंह को उसका रेकार्ड तक नहीं मिला। हफ्ते भर पहले अचानक अर्जुन सिंह संसद में आ पहुंचे और एंडरसन के पलायन का ठीकरा तत्कालीन गृहमंत्री के सिर फोड़ दिया। उस समय गृहमंत्री हुआ करते थे पी वी नरसिंहराव। अब नरसिंह राव इस दुनिया में रहे नहीं तो बात जहां थी, वहीं रह गयी। यह बात दूसरी है कि अर्जुन सिंह की इस दलील पर देश में किसी को भी यकीन नहीं है। लोगों का संदेह राजीव गांधी पर कायम है। कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि भारत ने अमरीकी दबाव के सामने घुटने टेक दिए। भोपाल कांड हमारे देश के लिये लज्जा का सबब है।

इससे एक सबक तो सीख ही गये कि हालात इतने ना बिगडऩे दिये जाएं कि भोपाल जैसा कोई कांड और ना हो जाए, अतएव नागरिक परमाणु विधेयक के समय हमें पूरी तरह सतर्क रहना होगा। केवल भाजपा और वामपंथियों के चलते यह विधेयक रुका पड़ा है। ब्लैकबेरी का मसला बताता है कि भारत कमजोर नहीं है। वह बहुत बड़ा बाजार है तो किसी की धौंस भी नहीं मानता। पहले जब ब्लैकबेरी के संदेशों की निगरानी की बात हुई तो कम्पनी ने गोपनीयता का झांसा दिया। बाद में जब पाबंदी की बात हुई तो उसकी सारी शेखी हवा हो गयी। वीसा के शुल्क के बारे में भी यही हुआ। जब भारत ने घुड़की दी तो बस अमरीका ने हाथ खींच लिये और भारत के विकास को निशाना बनाना शुरू कर दिया।
कहने का मतलब है कि भारत को नीचा दिखाने का अभियान शुरू किया जा चुका है। यह विकास दूसरे देशों को सुहा नहीं रहा है। इसलिये हमें होशियार रहना होगा।

Friday, August 13, 2010

कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिये

कहां तो तय था चिरागां हर घर के लिये,
यहां चिराग मयस्सर नहीं है शहर के लिये
न हो कमीज तो पावों से पेट ढंक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिये

सामने 15 अगस्त है। आजादी का दिन है। हम इसे सम्मान से भारत और शान से हिंदुस्तान विदेशियों के आगे लाज छिपाने के लिये इंडिया कहते हैं।
इस देश को स्वतंत्र हुए 63 वर्ष हो गए। यानी उम्र की परिपक्व अवस्था। यह जड़ों की ओर लौटने का समय है। आखिर इतने संघर्ष और कुर्बानियों के बाद जो राजनीतिक आजादी हमने पाई, उसका लाभ हमारे जीवन को मिला ?
आजादी की नींव उसी समय पड़ जाती है, जब कोई आजाद रूप से सोचना-विचारना शुरू करता है। स्वतंत्र और मौलिक चिंतन वाला मनुष्य कही-सुनी बातों को तर्क की कसौटी पर परखता है। वह अंधानुकरण नहीं करता। लकीर का फकीर नहीं बनता। अपने स्वतंत्र चिंतन के बल पर वह सीधा सार या निचोड़ को पाने की कोशिश करता है।
स्वतंत्र चिंतन और तर्क, सच और झूठ की परख कराते हैं। स्वतंत्र चिंतन वाला मनुष्य सही-गलत की पहचान रखता है।
इसी पहचान के तहत एक सवाल उठता है कि सही में यह हिंदुस्तान या भारत या इंडिया किसका है ?
क्या बहुसंख्यक हिंदुओं का है? फिर किन हिंदुओं का-उनका जिनके पास भगवान का दिया हुआ सब कुछ है, या उनका जिन पर दीनबंधु ने कभी दया नहीं की ? या उनका जिनके मुताबिक हिंदुत्व विश्व का सर्वश्रेष्ठ धर्म है, या उनका जिनके लिए रोटी से बड़ा कोई धर्म नहीं है ? या उनका जिन्हें अपने हिंदू होने का अभिमान है या उनका जिनके हिंदू होने पर इन हिंदुओं को ही शर्म आती है ? या उनका जिनका सबसे बड़ा सपना अयोध्या में राममंदिर का बनना है या उनका जिनकी जिंदगी में राम का परिचय अपने नाम रमुआ से है?
अथवा यह हिंदुस्तान या भारत या इंडिया मुसलमानों का है ? पर किन मुसलमानों का - उनका जो इन्सान से ऊपर इस्लाम को और हिंदुस्तान से ऊपर पाकिस्तान को रखते हैं या उनका जिनसे उनके इस्लामी नाम की वजह से हर कदम पर भारतीय होने का सर्टिफिकेट मांगा जाता है? उनका जो मजहब के नाम पर राजनीति का पेशा करते हैं या उनका जो न पाकिस्तान जानते हैं न हिंदुस्तान, जो केवल अगली सुबह के खाने के जुगाड़ के लिए डरे डरे से घर से निकलते हैं कि कहीं किसी विस्फोट या अंधाधुंध फायरिंग में उनकी जान चली जाय और घर में बच्चे निवाले को तरसते रहें ?
आखिर यह हिंदुस्तान या भारत या इंडिया किसका है - उत्तर भारत के कुछ राज्यों में रहने वाले उन भाषाई अल्पसंख्यकों का, जिन्होंने हिंदी को हिंदू और हिंदुस्तान से जोड़कर बाकी भाषाओं को सौतेली बहनों का दर्जा दे दिया है या उनका जो कश्मीर से कन्याकुमारी और असम से महाराष्ट्र तक रहते हुए अलग-अलग बोलियां बोलते हैं और हिंदी के भारी वजन से खुद को बचाने के लिए हमेशा चिंतित रहते हैं ? उनका जो महंगे स्कूलों और कालेजों में पढ़कर फर्राटेदार अंग्रेजी और ऊंचे कनेक्शन के बल पर बड़े-बड़े सरकारी और निजी ओहदों पर आसीन हो जाते हैं या उनका जो नगरपालिका या सरकारी स्कूल में पढ़कर एक छोटी-सी नौकरी के लिए आवेदन पर आवेदन जमा कराते रहते हैं?
यह देश किसका है - उनका जिनका देश की 80 प्रतिशत दौलत पर कब्जा है और जो देश की एक-एक इंच जमीन पर कब्जा करना चाहते हैं ताकि उससे होने वाली कमाई से अपने लिए महल खड़े कर सकें या उनका जो अपने झोपड़े भर की जगह बचाने की कोशिश गुंडों के हाथों मरवा दिए जाते हैं?
यह देश किसका है - उनका जो ऊंची-ऊंची इमारतों में, बिजली की रोशनी में नहाते शहरों में, फ्लाईओवरों के जालों में और कारों की कतारों में देश का विकास देखकर गदगद होते हैं या उनका जो जंगलों में और गांवों में, टूटे-फूटे झोपड़ों में, नंगे बदन या चीथड़ों में और अल्युमीनियम के कटोरों में अपना नरक जीते हैं और उसी में मर जाते हैं ?
यह देश किसका है - उनका जो एक-एक फिल्म के लिए करोड़ों वसूलते हैं या उनका जो इनको पर्दे पर देखकर अपनी भी किस्मत किसी दिन बदलने का झूठा सपना बुनते हैं? उनका जो खेल के मैदान पर बल्ला या रैकेट घुमाकर और कैमरों के सामने गोरा बनने की क्रीम बेचकर अरबपति बन गए हैं या उनका जो छोटा-मोटा टीवी तो क्या, एक रेडियों भी अफॉर्ड नहीं कर सकते और जिनके घरों की लड़कियां काली हों या गोरी - पैसे के बदले अपना सब कुछ उतारने पर मजबूर हो जाती हैं?
यह देश किसका है - उनका जो मजदूर, किसान, जनता आदि के नाम पर पार्टियां बनाते हैं, उनके नाम पर वोट मांगते हैं मगर संसद और विधानसभाओं में जाकर व्यापारियों, धंधेबाजों, तस्करों और माफियाओं की बेशर्मी से चाकरी करते हैं या उनका जिनके नाम पर यह सारी राजनीति चल रही है ? उनका जो विकास के नाम पर बने प्रोग्रामों में से अधिकतर हिस्सा अपने और अपनों में बांट देते हैं या उनका जिन्हें उनके अधिकार का एक-एक पैसा खैरात बोलकर दिया जाता है ?
और अगर यह देश इनका भी है और उनका भी-तो फिर इनमें और उनमें इतना फर्क क्यों है ? अगर यह देश इनका भी है और उनका भी तो सारी मलाई इनके हिस्से और सारा फटा दूध उनके हिस्से क्यों आता है? अगर यह देश इनका भी है और उनका भी तो क्यों इनके बच्चे 15 अगस्त के आयोजनों के लिए रिहर्सल कर रहे हैं और उनके नंगधड़ंग बच्चे उस रोज मिठाई का एक टुकड़ा मिलने की उम्मीद में आज से खुश हो रहे हैं ?
आजादी के मायने हर आने वाले दिनों के साथ धुंधले होते जा रहे हैं। देशभक्ति और पाखंड के दरमियान फासले रोज घट रहे हैं। नौजवानों को न तिरंगे और चक्र का दर्शन मालूम है और न भगत सिंह, राजगुरु और आजाद की ज्यादा कीमत है। भारत माता की प्रीति और स्नेह मदर इंडिया की फॉर्मलिटी में रूपांतरित होती जा रही है। चारों तरफ नाउम्मीदी के इस घटाटोप में उम्मीद का एक चिराग रोशन है वह है हमारी नौजवान पीढ़ी अपनी जिम्मेदारियों से मुंह नहीं छिपाती है। जरूरत है उन्हें जिम्मेदारियों से दो चार कराने की। जिस आग ने आजादी की लड़ाई के दौरान गुलामी को जला डालने वाली मशालों को आग बख्शी थी वह आग आज भी कायम है। यह एक शुभ संकेत है।
मेरे सीने में नहीं तेरे सीने में सही
आग जहां भी हो आग जलनी चाहिये
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिये

Thursday, August 12, 2010

पी एम की मार्मिक अपील


कश्मीर के मामले में प्रधानमंत्री की अपील बड़ी भावुक थी। उन्होंने कश्मीरियों से पिछले दिनों कहा था कि वे खून खराबा बंद करें और अमन के लिये एक मौका दें। उन्होंने इसके बाद रोजगार तथा आर्थिक पैकेज की भी बातें की थी। लेकिन आज का कश्मीर सामाजिक मसलों से नियंत्रित नहीं होता बल्कि उसे कट्टरपंथी चलाते हैं और उन कट्टरपंथियों का एकमात्र इरादा कश्मीर से भारत को काट कर अलग करना है।
कश्मीर घाटी की जनता के आँसू पोंछने के लिए एक गठबंधन सरकार के प्रमुख के वश में जितना है, वह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने करने की कोशिश की है।
उन्होंने घाटी के लोगों को अपने भाषण से यह यकीन दिलाने की कोशिश की है कि उन्हें स्वाभिमान और गरिमा के साथ जीवन जीने का पूरा हक है। लेकिन भारत का कोई भी प्रधानमंत्री कश्मीर को स्वायत्तता देने की एकतरफा घोषणा नहीं कर सकता, क्योंकि इस मुद्दे पर देश विभाजित है और प्रतिपक्षी भारतीय जनता पार्टी तो कश्मीर संबंधी संविधान का अनुच्छेद 370 तक हटवाना चाहती है, जिसके तहत इस राज्य को दूसरे राज्यों से ज्यादा अधिकार मिले हुए हैं। इसलिए मनमोहन सिंह ने ठीक ही कहा कि सबसे पहले तो यह जरूरी है कि जम्मू-कश्मीर में स्थायी तौर पर अमन-चैन कायम हो। इसके बाद यदि देश में राष्ट्रीय सहमति बने तो जम्मू-कश्मीर को संविधान के दायरे में स्वायत्तता प्रदान करने के बारे में विचार किया जा सकता है।
लेकिन जिस तरह से हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नरम और गरम गुटों के साथ-साथ कश्मीर की प्रतिपक्षी पार्टी-पीडीपी ने राजनीतिक दलों की बैठक का बहिष्कार किया।

पीडीपी नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद ने प्रधानमंत्री की नवीनतम पहल को कश्मीर की जनता के साथ मजाक घोषित कर दिया, उससे राष्ट्रीय सहमति की कोई तस्वीर बनती दिखाई नहीं देती।

हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के गरम दल के नेता अली शाह गिलानी को तो आजादी से कम कुछ भी स्वीकार्य नहीं है। जम्मू और कश्मीर में उमर अब्दुल्ला सरकार की अनुभवहीनता के कारण घाटी में अलगाववाद की प्रवृत्ति एक बार फिर उभर आई है।

सड़कों पर आकर नौजवान, बच्चे और महिलाएं आजादी की माँग करने लगे हैं। सरकारी प्रतिष्ठानों पर वहाँ ये लोग हमले कर रहे हैं और कर्फ्यू तोड़कर पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों पर ईंट-पत्थर बरसा रहे हैं।

प्रधानमंत्री सिंह से मिलने के बाद उमर अब्दुल्ला ने लोगों के दु:ख-दर्द बांटने का अभियान जरूर शुरू किया है मगर अलगाववाद की भावना कम नहीं हो रही है। घाटी के लोग सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम की तत्काल वापसी चाहते हैं लेकिन किसी भी देश में जब सामान्य कानूनों से कानून और व्यवस्था को बनाए रखना नामुमकिन हो जाता है, तो वांछित कदम उठाने ही पड़ते हैं। इसलिए प्रधानमंत्री इसके अलावा और कुछ भी नहीं कह सकते थे, जो उन्होंने इस बारे में कहा। प्रधानमंत्री ने जम्मू और कश्मीर में व्यापक बेरोजगारी दूर करने के लिए डॉ. सी रंगराजन की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ दल गठित कर ही दिया है। जरूरत इस बात की है कि इस मुद्दे पर सभी राजनीतिक दल सरकार के साथ सहयोग करें और उग्र हो रही युवा पीढ़ी के साथ गांव-गांव जाकर संवाद करें।
अलगाववादी जानते हैं कि ताकत से जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग नहीं किया जा सकता। अलबत्ता संविधान के अंतर्गत अगर कश्मीरी लोग चांद भी माँगें तो वह संभव है। कश्मीरियों के पास भी उसी तरह संवाद का रास्ता है, जैसा भारत के पास। इसलिए भारत पहले तो कश्मीर के घावों पर मरहम लगाए और फिर सतत संवाद की उदारता दिखाए। इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है।

Wednesday, August 11, 2010

ममता जी साध्य नहीं साधन को देखें



लोकतांत्रिक राजनीति में चाहे जितनी कमियां हैं, लेकिन उसके चंद अंतर्निहित लाभ भी हैं। वह है कि जहां सारे उपाय बेकार हो जाते हैं इसके माध्यम से शुरुआत की जा सकती है।
लालगढ़ के अभागे लोगों के लिये हिंसा, भय और आतंक और मौत ही पिछले दो सालों से मुकद्दर बनी हुई थी। इसमें उनकी कोई गलती भी नहीं थी और ना कोई भूमिका। वे लालगढ़ में अर्द्धसैनिक बलों और माओवादियों की जंग के शिकार हो रहे थे। उनकी बदकिस्मती को और बढ़ा रही थी एक नकारा सरकार की सोच। एक ऐसी सरकार जो माओवादियों और पुलिस की लड़ाई के पहले ही दिन से हजारों लोगों की आबादी को बेसहारा छोड़ कर खिसक गयी। हां कहना अभी ठीक नहीं होगा या जरा जल्दबाजी कही जायेगी कि सोमवार की ममता की रैली का क्या असर पड़ेगा पर यह तो कहा ही जा सकता है कि जैसे ही उन्होंने लालगढ़ में रैली के आयोजन का ऐलान किया वहां बदलाव का आगाज हो गया।

दरअसल, बुद्धदेव बाबू को तो ममता जी के इस साहस और कार्य की प्रशंसा करनी चाहिये पर वे और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस की इस रैली को पानी पी पी कर कोस रही है।
ममता जी ने सोमवार की रैली में माओवादियों और उस क्षेत्र में संगठित एक अन्य संगठन पीपल्स कमिटी अगेंस्ट पुलिस एट्रोसिटीज (पी सी पी ए) से आह्वान किया है कि वे हिंसा की राह छोड़ कर शांति के लिये वार्ता शुरू करें। बेशक यह एक अच्छी पहल है, परंतु उनकी रैली को जो माओवादियों तथा पी सी पी ए के लोगों द्वारा खुला समर्थन मिला उससे कुछ सवाल उठते हैं।
हो सकता है कि यह संप्रग सरकार के लिये बेइज्जती का कारण भी हो, जिस सरकार में ममता जी रेलमंत्री हैं। दूसरे उनके इस अभियान को माकपा के खिलाफ राजनीतिक लाभ लेने का एक औजार भी कहा जा सकता है पर ममता जी की पहल के ध्येय के बार में कोई गलत नहीं कह सकता।
अलबत्ता इसका राजनीतिक उद्देश्य जरूर स्वार्थ परक है।
इन सारी अच्छाइयों और भविष्यत लाभ के बावजूद अगर उनका यह अभियान नाकामयाब होता है तो क्या होगा, इसका अंदाजा है।
रेलमंत्री की उस रैली में वे लोग शामिल थे जो ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस की दुर्घटना के जिम्मेदार थे। उन्हें वार्ता के लिये आमंत्रित करने के पीछे ममता जी की क्या मंशा हो सकती है?

यही नहीं, आजाद की पुलिस मुठभेड़ में मौत हो गयी। सरकार का यह कथन है, जबकि ममता जी का कहना है कि उसकी हत्या की गयी है। वह शांति वार्ता के प्रयास में लगा था।
जिस सरकार में ममता जी कैबिनेट मंत्री हैं, उस सरकार ने जिन संगठनों को आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा कहा है ममता जी उन्हीं लोगों से हाथ मिला रही हैं।
दरअसल उन्हें राज्य में सीपीएम को पराजित कर सत्ता पर कब्जा करना ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है। पी सी पी ए की भी लड़ाई राज्य के सरकार है इसलिये उन्हें अपनी लड़ाई में एक सहयोगी मिल गया।
पी सी पी ए की साइक को अगर ठीक से विश्लेषित किया जाय तो एक तथ्य जरूर स्पष्ट होगा कि वे निहायत क्रूर और हिंसापसंद लोग हैं। जिस दिन उन्हें अहसास होगा कि ममता जी भी उनके लक्ष्यों को पूरा करने में सहायक नहीं हो पा रहीं हैं तो वे उनकी मुखालिफत करने में क्षण भर भी देरी नहीं करेंगे। ममता जी ने माओवादियों और पी सी पी ए को वार्ता के लिये आमंत्रित किया है, लेकिन शक है कि उनकी शर्तों को केंद्र और राज्य सरकारें मान लें।
माओवादी और पी सी पी ए की पहली शर्त है कि जंगलों से अर्द्धसैनिक बलों को वापस बुला लिया जाय। गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने भी वार्ता का प्रस्ताव दिया और माओवादियों ने माना कहां । क्योंकि अर्द्धसैनिक बलों को हटाने की शर्त किसी को मंजूर नहीं थी। ममता जी को यह तो मानना होगा कि माओवाद की समस्या केवल सामाजिक न्याय की समस्या नहीं है यह लोकतांत्रिक तौर पर चुनी गयी एक व्यवस्था को भी चुनौती है।